Sunday 21 November 2021

सर्वधर्मान्परित्यज्य ---

 

सर्वधर्मान्परित्यज्य ---
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श्रीमद्भवद्गीता के १८वें अध्याय के ६६वें श्लोक को श्रीरामानुजाचार्य ने सम्पूर्ण गीता का चरम श्लोक बताया है। यह श्लोक सम्पूर्ण वेदान्त और योगदर्शन का सार है। इसे समझ वही सकता है जिस पर हरिःकृपा हो। इसे समझना बुद्धि की सीमा से परे है। शब्दों के अर्थ तो कोई भी समझ सकता है, लेकिन इसके पीछे छिपे भगवान के भाव को नहीं। इस श्लोक की व्याख्या करने में सभी अनुवादकों, व स्वनामधन्य महानतम भाष्यकारों, समीक्षकों, और टीकाकारों ने अपनी सम्पूर्ण क्षमता एवं मौलिकता का प्रयोग किया है। यह श्लोक सम्पूर्ण गीता का सार है।
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किशोरावस्था से अब तक इस श्लोक को पचासों बार मैंने पढ़ा होगा, पर सही अर्थ से कोसों दूर ही था। कई बार इस रटे-रटाये श्लोक को अहंकारवश सुनाकर लोगों से वाहवाही प्राप्त कर अपने मिथ्या अहंकार को ही तृप्त किया है। यह एक भटकाव था। पूर्व जन्म के गुरुओं ने सूक्ष्म जगत से मुझे चेता भी दिया था कि अहंकार और लोभ से मुक्त हुये बिना तुम सत्य का बोध तो कभी भी नहीं कर सकोगे। लेकिन जीवनक्रम चल रहा था। एक दिन ध्यान मैं मैंने अनुभव किया कि परमात्मा की इस अनंतता में मैं खो गया हूँ। स्वयं को मैंने कहीं भी नहीं पाया। थक-हार कर पूर्ण भक्ति से उस खोये हुए स्वयम् को भी भगवान को ही अर्पित कर दिया। अचानक ही सामने देखा कि शांभवी मुद्रा में अपने भव्यतम रूप में भगवान वासुदेव श्रीकृष्ण पद्मासन में ध्यानस्थ हैं। उनके सिवाय सम्पूर्ण सृष्टि में कोई भी अन्य नहीं है। मेरा तो कुछ होने का प्रश्न ही नहीं था। मुझे यह समझने में देर नहीं लगी कि वे ही एकमात्र उपास्य, उपासक और उपासना हैं। धीरे धीरे शरीर में चेतना लौट आई।
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एक दिन उपरोक्त श्लोक का अवलोकन हुआ तो उपरोक्त श्लोक पूरी तरह समझ में आ गया। स्वयं के सारे कर्मफलों और स्वयं के सम्पूर्ण अस्तित्व को परमात्मा में विसर्जित कर दिया है। कुछ भी नहीं है मेरे पास, और मैं कुछ भी नहीं हूँ। मेरा कुछ होना ही गड़बड़ और सारे अनर्थों का मूल है। जो कुछ भी हैं वे भगवान स्वयं हैं। उनके सिवाय कोई अन्य नहीं है।
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वायुर्यमोऽग्निर्वरुणः शशाङ्क: प्रजापतिस्त्वं प्रपितामहश्च।
नमो नमस्तेऽस्तु सहस्रकृत्वः पुनश्च भूयोऽपि नमो नमस्ते ॥११:३९
नमः पुरस्तादथ पृष्ठतस्ते नमोऽस्तु ते सर्वत एव सर्व।
अनन्तवीर्यामितविक्रमस्त्वं सर्वं समाप्नोषि ततोऽसि सर्वः॥११:
ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
२२ नवंबर २०२१

जो हम स्वयं हैं, वही हम दूसरों को दे सकते हैं (कुछ भी कम या अधिक नहीं) ---

 

जो हम स्वयं हैं, वही हम दूसरों को दे सकते हैं (कुछ भी कम या अधिक नहीं) ---
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सर्वाधिक महत्व इस बात का है कि हम स्वयं अपनी दृष्टि में क्या हैं। जो हम स्वयं हैं, वही हम दूसरों को दे सकते हैं, कुछ भी कम या अधिक नहीं। भगवान की दृष्टि में भी हम वही हैं जो स्वयं की दृष्टि में हैं। अतः निरंतर अपने शिव-स्वरूप में रहने की उपासना करो। यही हमारा स्वधर्म है। जो हमारे पास नहीं है वह हम दूसरों को नहीं दे सकते। हम विश्व में शांति नहीं ला सकते जब तक हम स्वयं अशांत हैं। हम विश्व को प्रेम नहीं दे सकते जब तक हम स्वयं प्रेममय नहीं हैं।
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इस विषय पर गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने दूसरे अध्याय के ४५वें श्लोक में पाँच आदेश/उपदेश एक साथ दिये हैं। वे हमें -- "निस्त्रैगुण्य", "निर्द्वन्द्व", "नित्यसत्त्वस्थ", "निर्योगक्षेम", व "आत्मवान्" बनने का आदेश देते हैं। ये सभी एक -दूसरे के पूरक हैं। कैसे बनें ? इस पर विचार स्वयं करें। बनना तो पड़ेगा ही, इस जन्म में नहीं तो अनेक जन्मों के पश्चात।
आप सभी को मंगलमय शुभ कामनाएँ व नमन !!
ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२१ नवम्बर २०२१

"धर्म" कभी नष्ट नहीं होता ---

"धर्म" कभी नष्ट नहीं होता। उसे समझने की मानवी शक्ति ही घटती-बढ़ती रहती है। सारी सृष्टि ही अपने धर्म का पालन कर रही है।
असीम काम वासनाओं की पूर्ति के प्रलोभन, लोभ और भय के वशीभूत होकर चलने वाले पंथ --- असत्य और अंधकार की शक्तियाँ व अधर्म हैं।
सब सत्य-धर्मनिष्ठों की रक्षा हो। धर्म एक सत्य-सनातन-धर्म ही है, जिस की रचना सृष्टि के साथ हुई है। अन्य सब पंथ, रिलीजन, या मज़हब हैं।
परमात्मा की प्रकृति अपने धर्म का पालन बड़ी तत्परता और कठोरता से करती है। प्रकृति के नियमों को न समझना हमारा अज्ञान है।
कई बड़े गूढ रहस्य की बातें हैं जिन्हें अच्छी तरह समझते हुए, और चाहते हुए भी मैं व्यक्त नहीं कर पाता। व्यक्त करने का प्रयास करता हूँ तो कोई न कोई विक्षेप आ ही जाता है। संभवतः प्रकृति का यही नियम होगा।
ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
२३ नवंबर २०२१

 

जब से भगवान से प्रेम हुआ है ---

 

जब से भगवान से प्रेम हुआ है, तब से मुक्ति और मोक्ष - दोनों ही महत्वहीन हो गए हैं। सारे बंधन भगवान ने तोड़ दिये हैं। आत्मा नित्यमुक्त है।
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यहाँ तो राधा और गोविंद दोनों ही प्रकृति और पुरुष के रूप में नृत्य कर रहे हैं, जिससे यह सृष्टि गतिशील है। जिसने इस समस्त सृष्टि को धारण कर रखा है, वे श्रीराधा जी हैं। वे भगवान से प्रेम की उच्चतम अभिव्यक्ति हैं। वे स्वयं ही परमप्रेम हैं। यहाँ तो पुरुष और प्रकृति दोनों ही साथ साथ नृत्य कर रहे हैं। उनके नृत्य का मैं साक्षी मात्र हूँ।
राधे गोविंद जय राधे राधे, राधे गोविंद जय राधे राधे
राधे गोविंद जय राधे राधे, राधे गोविंद जय राधे राधे
पुरुष और प्रकृति नाचे साथ साथ
राधे गोविंद जय राधे राधे, राधे गोविंद जय राधे राधे
राधे गोविंद जय राधे राधे, राधे गोविंद जय राधे राधे
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२१ नवंबर २०२१

अपवर्ग किसे कहते हैं? ---

 

अपवर्ग किसे कहते हैं? ---
"तात स्वर्ग अपबर्ग सुख धरिअ तुला एक अंग।
तूल न ताहि सकल मिलि जो सुख लव सतसंग॥"
अर्थात् - हे तात! स्वर्ग और मोक्ष के सब सुखों को तराजू के एक पलड़े में रखा जाए, तो भी वे सब मिलकर (दूसरे पलड़े पर रखे हुए) उस सुख के बराबर नहीं हो सकते, जो लव (क्षण) मात्र के सत्संग से होता है॥
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शब्द 'अपवर्ग' का शाब्दिक अर्थ है -- मोक्ष या मुक्ति। निवृत्ति ही अपवर्ग है, यानि दुःख की उत्पत्ति के कारण का अभाव ही आत्यंतिक दु:खनिवृत्ति है।
अपवर्ग होते हैं -- प, फ, ब, भ, म.
प - पतन, फ- फल आशा, ब- बंधन, भ - भय, म - मृत्यु.
जहाँ पतन, फल आशा, बंधन, भय, मृत्यु नहीं है, वही अपवर्ग सुख है, जो शिवकृपा का फल है। 
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ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
२० नवंबर २०२१