सर्वधर्मान्परित्यज्य ---
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श्रीमद्भवद्गीता के १८वें अध्याय के ६६वें श्लोक को श्रीरामानुजाचार्य ने सम्पूर्ण गीता का चरम श्लोक बताया है। यह श्लोक सम्पूर्ण वेदान्त और योगदर्शन का सार है। इसे समझ वही सकता है जिस पर हरिःकृपा हो। इसे समझना बुद्धि की सीमा से परे है। शब्दों के अर्थ तो कोई भी समझ सकता है, लेकिन इसके पीछे छिपे भगवान के भाव को नहीं। इस श्लोक की व्याख्या करने में सभी अनुवादकों, व स्वनामधन्य महानतम भाष्यकारों, समीक्षकों, और टीकाकारों ने अपनी सम्पूर्ण क्षमता एवं मौलिकता का प्रयोग किया है। यह श्लोक सम्पूर्ण गीता का सार है।
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किशोरावस्था से अब तक इस श्लोक को पचासों बार मैंने पढ़ा होगा, पर सही अर्थ से कोसों दूर ही था। कई बार इस रटे-रटाये श्लोक को अहंकारवश सुनाकर लोगों से वाहवाही प्राप्त कर अपने मिथ्या अहंकार को ही तृप्त किया है। यह एक भटकाव था। पूर्व जन्म के गुरुओं ने सूक्ष्म जगत से मुझे चेता भी दिया था कि अहंकार और लोभ से मुक्त हुये बिना तुम सत्य का बोध तो कभी भी नहीं कर सकोगे। लेकिन जीवनक्रम चल रहा था। एक दिन ध्यान मैं मैंने अनुभव किया कि परमात्मा की इस अनंतता में मैं खो गया हूँ। स्वयं को मैंने कहीं भी नहीं पाया। थक-हार कर पूर्ण भक्ति से उस खोये हुए स्वयम् को भी भगवान को ही अर्पित कर दिया। अचानक ही सामने देखा कि शांभवी मुद्रा में अपने भव्यतम रूप में भगवान वासुदेव श्रीकृष्ण पद्मासन में ध्यानस्थ हैं। उनके सिवाय सम्पूर्ण सृष्टि में कोई भी अन्य नहीं है। मेरा तो कुछ होने का प्रश्न ही नहीं था। मुझे यह समझने में देर नहीं लगी कि वे ही एकमात्र उपास्य, उपासक और उपासना हैं। धीरे धीरे शरीर में चेतना लौट आई।
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एक दिन उपरोक्त श्लोक का अवलोकन हुआ तो उपरोक्त श्लोक पूरी तरह समझ में आ गया। स्वयं के सारे कर्मफलों और स्वयं के सम्पूर्ण अस्तित्व को परमात्मा में विसर्जित कर दिया है। कुछ भी नहीं है मेरे पास, और मैं कुछ भी नहीं हूँ। मेरा कुछ होना ही गड़बड़ और सारे अनर्थों का मूल है। जो कुछ भी हैं वे भगवान स्वयं हैं। उनके सिवाय कोई अन्य नहीं है।
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वायुर्यमोऽग्निर्वरुणः शशाङ्क: प्रजापतिस्त्वं प्रपितामहश्च।
नमो नमस्तेऽस्तु सहस्रकृत्वः पुनश्च भूयोऽपि नमो नमस्ते ॥११:३९
नमः पुरस्तादथ पृष्ठतस्ते नमोऽस्तु ते सर्वत एव सर्व।
अनन्तवीर्यामितविक्रमस्त्वं सर्वं समाप्नोषि ततोऽसि सर्वः॥११:
ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
२२ नवंबर २०२१