Friday 8 October 2021

आज के जमाने में हिरण्यकशिपु और हिरण्याक्ष कौन हैं? ---

 

आज के जमाने में हिरण्यकशिपु और हिरण्याक्ष कौन हैं?---
---------------------------------------------------
हर अनुचित तरीके से अपार धन (हिरण्य) एकत्र करने, उसी में लोटपोट रहने, व उसी का निरंतर चिंतन करने वाले लोभी और अहंकारी व्यक्ति ही आज के जमाने के हिरण्यकशिपु और हिरण्याक्ष हैं| इनका नाश स्वयं भगवान करते हैं|
"जाको प्रभु दारुण दुख देही, ताकी मति पहले हर लेही|"
"जाको विधि पूरन सुख देहीं, ताकी मति निर्मल कर देहि|"
दूसरों का अधिकार छीन कर उनके भाग को हड़पने वाले, जीवन में लालची और लोभी, जिनका एकमात्र लक्ष्य ही रुपये-पैसे बनाना हो, ऐसे लोग भगवान की बड़ी-बड़ी बातें करेंगे लेकिन अपने एक रुपये के लाभ के लिए दूसरों का लाखों का नुकसान कर देंगे, ये आज के युग के हिरण्यकशिपु और हिरण्याक्ष हैं| ऐसे लोगों से विष की तरह दूर रहें|
.
हिरण्यकशिपु का शाब्दिक अर्थ होता है ... स्वर्ण का बिस्तर| जो हर समय सिर्फ धन एकत्र करने व उसी में रहने की कामना करता है वह हिरण्यकशिपु है|
अक्ष का अर्थ है ... पहियों की धुरी, यानि वह डंडा जिसके दोनों सिरों पर गाड़ी आदि के पहिए लगे रहते हैं| प्रचलित भाषा में इसे कमानी भी कहते हैं| जिनसे जुआ/चौसर खेलते हैं, उन काठ या हड्डी के छह पहलों वाले लम्बे टुकड़े जिनके पहलों पर बिन्दियाँ बनी होती हैं, उनको भी अक्ष कहते हैं|
पृथ्वी के दोनों ध्रुवों के बीच लेटी हुई सीधी कल्पित रेखाओं (latitude) को भी अक्ष कहते हैं|
हमारी चेतना में जब धन ही धन रहता है, तब हम हिरण्याक्ष बन जाते हैं|
कश्यप ऋषि और उनकी पत्नी दिति के दो पुत्र हुए थे ... हिरण्यकशिपु और हिरण्याक्ष| दोनों को मारने के लिये भगवान को अवतार लेना पड़ा था|
इन राक्षसों को नष्ट करने के लिए हमें भी अपने चैतन्य हृदय में भगवान को अवतृत करना होगा|
ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
९ अक्टूबर २०२०

जो परमात्मा प्रकाश में हैं, वे ही अंधकार में हैं ---

भगवान ही एकमात्र सत्य हैं। जो परमात्मा प्रकाश में हैं, वे ही अंधकार में हैं। सुख-दुःख, पाप-पुण्य, धर्म-अधर्म -- सब उन्हीं के मन की कल्पना है। प्रकाश का अभाव ही अंधकार है, और अंधकार का अभाव ही प्रकाश। इस प्रकाश और अंधकार के खेल से ही यह सृष्टि चल रही है। प्रकाश का महत्व - अंधकार से है। अंधकार में ही तारे चमकते हैं। मनुष्य विवश है, परिस्थितियों का दास है। सब कुछ प्रकृति के वश में है; मनुष्य का लोभ और अहंकार ही बंधन है। लोभ और अहंकार से मुक्त व्यक्ति ही स्वतंत्र, धार्मिक और जीवनमुक्त है।

.
पुनश्च: -- भगवान के अलावा, कोई किसी के काम नहीं आता। दुःख-सुख में सिर्फ भगवान ही काम आते हैं। वे ही प्रकाश हैं, और वे ही अंधकार हैं।
स्वयं में व्यक्त देवत्व की अभिव्यक्ति ही काम आती है, किसी अन्य की नहीं।
२६ सितंबर २०२१

योगिराज श्री श्री श्याचरण लाहिड़ी महाशय की पुण्यतिथि ---

 

योगिराज श्री श्री श्याचरण लाहिड़ी महाशय (३० सितंबर १८२८ -- २६ सितम्बर १८९५) की आज १२६वीं पुण्यतिथि है। इस जीवन में जिन जिन महापुरुषों से मुझे प्रेरणा मिली है, उनमें वे अग्रणी हैं।
.
समय समय पर उन्होंने अपने अनेक शिष्यों के समक्ष प्रकट होकर उन्हें साकार दर्शन दिए हैं। विस्तृत वर्णन उनकी जीवनियों में उपलब्ध है। देहत्याग के पूर्व उन्होंने कई घंटों तक गीता के श्लोकों की व्याख्या की, और अचानक कहा कि "मैं अब घर जा रहा हूँ।" यह कह कर वे अपने आसन से उठ खड़े हुए, तीन बार परिक्रमा की और उत्तराभिमुख हो कर पद्मासन में बैठ गए और ध्यानस्थ होकर अपनी नश्वर देह को सचेतन रूप से त्याग दिया। पावन गंगा के तट पर मणिकर्णिका घाट पर गृहस्थोचित विधि से उनका दाह संस्कार किया गया। वे मनुष्य देह में साक्षात शिव थे। ऐसे महान गृहस्थ योगी को नमन !!
.
हे मृत्यु, तेरी विजय कहाँ है? हे मृत्यु, तेरा दंश कहाँ है? जीवन और मृत्यु दोनों ही प्रकाश और अन्धकार के खेल हैं। कभी प्रकाश हावी हो जाता है, और कभी अन्धकार, लेकिन विजय सदा प्रकाश की ही होती है, यद्यपि अन्धकार के बिना प्रकाश का कोई महत्त्व नहीं है। सृष्टि द्वंद्वात्मक यानि दो विपरीत गुणों से बनी है। जीवन और मृत्यु भी दो विपरीत गुण हैं, पर मृत्यु एक मिथ्या भ्रम मात्र है, और जीवन है वास्तविकता। जीवात्मा कभी मरती नहीं है, सिर्फ अपना चोला बदलती है, अतः विजय सदा जीवन की ही है, मृत्यु की नहीं।
.
भगवान श्रीकृष्ण का वचन है ---
"वासांसि जीर्णानि यथा विहाय, नवानि गृहणाति नरोऽपराणि।
तथा शरीराणि विहाय जीर्णान्यन्यानि संयाति नवानि देही॥"
जिस प्रकार मनुष्य फटे हुए जीर्ण वस्त्र उतार कर नए वस्त्र धारण कर लेता है, वैसे ही यह देही जीवात्मा पुराने शरीर को छोड़कर दूसरा शरीर धारण कर लेती है।
(गीता में आस्था रखने वालों को समाधियों, मक़बरों और कब्रों की पूजा नहीं करनी चाहिए क्योंकि दिवंगत आत्मा तो तुरंत दूसरा शरीर धारण कर लेती है| महापुरुष तो परमात्मा के साथ सर्वव्यापी हैं)
.
जीवात्मा सदा शाश्वत है| भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं ---
"नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावकः।
न चैनं क्लेदयन्त्यापो न शोषयति मारूतः॥"
जीवात्मा को शस्त्र काट नहीं सकते, आग जला नहीं सकती, पानी गीला नहीं कर सकता और वायु सुखा नहीं सकती।"
.
भगवान श्रीकृष्ण ने ही कहा है ....
"न जायते म्रियते वा कदाचिन् नायं भूत्वा भविता वा न भूयः।
अजो नित्यः शाश्वतोऽयं पुराणो न हन्यते हन्यमाने शरीरे"॥"
जीवात्मा अनादि व अनन्त है। यह न कभी पैदा होता है और न मरता है। यह कभी होकर नहीं रहता और फिर कभी नहीं होगा, ऐसा भी नहीं है। यह (अज) अजन्मा अर्थात् अनादि, नित्य और शाश्वत सनातन है।
.
शरीर के मरने वा मारे जाने पर भी जीवात्मा मरती नहीं है।
When the perishable has been clothed with the imperishable, and the mortal with immortality, then the saying that is written will come true: “Death has been swallowed up in victory.” “Where, O death, is your victory? Where, O death, is your sting?
.
ॐ नमः शिवाय ! ॐ शिव ! ॐ गुरु !! जय गुरु !!
कृपा शंकर
२६ सितम्बर २०२१

यहाँ कोई लघु मार्ग नहीं है ---

जब भूख लगती है तब भोजन स्वयं को करना पड़ता है, किसी दूसरे के भोजन करने से स्वयं का पेट नहीं भरता। वैसे ही ईश्वर-प्राप्ति के लिए साधना स्वयं को करनी पड़ती है, किसी दूसरे की साधना से स्वयं का कल्याण नहीं हो सकता। मनुष्य लघु मार्ग (Short cut) ढूँढता है, लेकिन यहाँ कोई लघु मार्ग नहीं है।

.
शास्त्रों में पूरा मार्ग-दर्शन है। यह संसार - साधना यानि क्रिया का स्थल है, चिंता का नहीं। भगवान के नियम शाश्वत और अपरिवर्तनीय हैं। दुराचार क्या है? यह स्वयं का हृदय बता देता है। दुराचार यानि पाप के दो फल होते हैं -- अविवेक और दुःखों की वृद्धि। इसके लिए किसी अन्य को दोष देना व्यर्थ है। एक ही अविनाशी परम तत्त्व का सर्वत्र दर्शन मोक्षदायक ज्ञान है|
ॐ तत्सत् !!
२७ सितंबर २०२१

मनुष्य जीवन का सार भगवान की भक्ति में है ---

 

"संसार में हों कष्ट कम तो नर्क को दिखलाइये।
पर हे दयानिधि, दासता का दृश्य मत दिखलाइये॥"
.
विषय-वासनाओं की दासता - दरिद्रता को जन्म देती है। यह दरिद्रता सबसे बड़ा अभिशाप, महादुःखदायी और सब पापों की जननी है। सब तरह की दरिद्रता दुःखदायी है, चाहे वह - भौतिक, मानसिक, बौद्धिक या आध्यात्मिक - किसी भी स्तर की हो।
.
स्वर्ग की बातें भी बड़ी फालतू और घटिया हैं। स्वर्ग यानि जन्नत जाने की कामना से अधिक घटिया और फालतू दूसरी कोई बात है ही नहीं। जैसे गुण मनुष्य में होते हैं, वैसी ही कल्पना मनुष्य स्वर्ग-नर्क की कर लेता है। कमी सिर्फ इतनी ही है कि मरने के बाद कोई बापस आकर बताता नहीं है कि उसकी क्या गति हुई है। लेकिन मरने से पूर्व स्वयं का हृदय ही यह सत्य बता देता है कि उसकी क्या गति होने वाली है।
.
मनुष्य जीवन का सार भगवान की भक्ति में है। भक्ति साकार हो या निराकार, कोई फर्क नहीं पड़ता, कहीं से आरम्भ तो हो। गहन अभीप्सा और परमप्रेम के साथ भगवान का निरंतर प्रेमपूर्वक स्मरण, और सद-आचरण ही भक्ति है।
ॐ तत्सत् !!
२७ सितंबर २०२१

आये थे हरिः भजन को, ओटन लगे कपास ---

 

"आये थे हरिः भजन को, ओटन लगे कपास !!"
.
युवावस्था में जब परमात्मा की एक झलक मिली थी, उसी क्षण मुझे विरक्त हो जाना चाहिए था। लेकिन कभी दृढ़ साहस नहीं जुटा पाया। हृदय में प्रज्वलित अभीप्सा की प्रचंड अग्नि अभी तक तृप्त और संतुष्ट नहीं हुई है। बड़ी असह्य पीड़ा हो रही है।
.
मुझे किसी भी तरह की मुक्ति और मोक्ष नहीं चाहिए। जीवन-मुक्त अवस्था में बार बार पुनर्जन्म हो, और तब तक हो, जब तक जीवन में परमात्मा की पूर्ण अभिव्यक्ति नहीं हो जाये। हर बार जन्म से ही पूर्ण वैराग्य, ज्ञान और भक्ति हो। मेरे आदर्श स्वयं भगवान पुरुषोत्तम हैं, वे निश्चित रूप से मुझे अपने साथ एक कर, स्वयम् को मुझ में व्यक्त करेंगे।
.
"नायमात्मा बलहीनेन लभ्यो न च प्रमादात्‌ तपसो वाप्यलिङ्गात्‌।
एतैरुपायैर्यतते यस्तु विद्वांस्तस्यैष आत्मा विशते ब्रह्मधाम ॥"
(मुण्डकोपनिषद् ३-२-४)
🥀🌹🙏🕉🕉🕉🙏🌹🥀
२७ सितंबर २०२१

जिसकी जैसी श्रद्धा होती है, वह वैसा ही हो जाता है ---

 

जिसकी जैसी श्रद्धा होती है, वह वैसा ही हो जाता है ---
.
श्रद्धा तीन प्रकार की होती है -- सात्विक, राजसिक और तामसिक। जैसे संस्कार हमें अपने माँ-बाप, परिवार और समाज द्वारा मिलते हैं, वैसे ही हम बन जाते हैं। हम अपने ऊपर डाले हुये संस्कारों के उत्पाद हैं। गीता में भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं ---
"सत्त्वानुरूपा सर्वस्य श्रद्धा भवति भारत।
श्रद्धामयोऽयं पुरुषो यो यच्छ्रद्धः स एव सः॥१७:३॥"
अर्थात् -- हे भारत सभी मनुष्यों की श्रद्धा उनके सत्त्व (स्वभाव, संस्कार) के अनुरूप होती है। यह पुरुष श्रद्धामय है, इसलिए जो पुरुष जिस श्रद्धा वाला है वह स्वयं भी वही है अर्थात् जैसी जिसकी श्रद्धा वैसा ही उसका स्वरूप होता है॥"
.
शुक्ल यजुर्वेद में कहा है --
"व्रतेन दीक्षामाप्नोति दीक्षयाप्नोति दक्षिणाम्‌।
दक्षिणा श्रद्धामाप्नोति श्रद्धया सत्यमाप्यते॥"
अर्थात्‌ मनुष्य को उन्नत जीवन की योग्यता व्रत से प्राप्त होती है, जिसे दीक्षा कहते हैं। दीक्षा से दक्षिणा यानी जो कुछ किया जा रहा है, उसमें सफलता मिलती है। इससे श्रद्धा जागती है और श्रद्धा से सत्य की यानी जीवन के लक्ष्य की प्राप्ति होती है, जो उसका अंतिम निष्कर्ष है।
.
आचरण की शुद्धता को किसी भी कठिन परिस्थिति में न छोड़ना, और निष्ठापूर्वक उसका पालन करना "व्रत" कहलाता है। वस्तुतः विशेष संकल्प के साथ लक्ष्य सिद्धि के लिए किए जाने वाले कार्य का नाम "व्रत" है। व्रत का अर्थ - भूखा मरना नहीं है। एक संस्कार को बार बार दृढ़ करना और उस संस्कार से भिन्न कोई विषय आए उसे हटाना एक व्रत है।
.
जिस परमात्मा का हमने वरण कर लिया है उसके अतिरिक्त हृदय में अन्य कोई भी भाव न हो, स्वयं के पृथक अस्तित्व का भी, तभी हम श्रद्धावान हैं। बार बार निरंतर इसका अभ्यास करना पड़ता है। जो हमारे हृदय में भाव हैं वह ही हमारी श्रद्धा है, और जो हमारी श्रद्धा है, वह ही हम हैं।
सभी निजात्माओं को नमन !! हरिः ॐ तत्सत् !! ॐ तत्सत् !! ॐ स्वस्ति !!
कृपा शंकर
२९ सितंबर २०२१

योगीराज श्री श्री श्यामाचरण लाहिड़ी का जन्मदिवस ---

 

आध्यात्मिक साधना के क्षेत्र में ये श्री श्री श्यामाचरण लाहिड़ी महाशय (३० सितम्बर १८२८ – २६ सितम्बर १८९५ ) मेरे परम आदर्श पुरुष हैं, जिनका आज १९३वाँ जन्मदिवस है| मुझे इनके जीवन से बहुत अधिक प्रेरणा मिली है| हर गृहस्थ व्यक्ति का एक सामान्य सा प्रश्न होता है कि घर-गृहस्थी का, कमाने खाने का झंझट -- और इन सब के पश्चात आध्यात्मिक साधना कैसे करें? श्यामाचरण लाहिड़ी ने अपने जीवन से इस प्रश्न का उत्तर दिया| एक अति अल्प वेतन वाली सरकारी नौकरी करते हुए, घर पर बच्चों को गृह शिक्षा देने से प्राप्त हुए कुछ रुपयों से घर का खर्चा चलाया| कभी किसी से कुछ नहीं लिया| काशी, बर्दवान और कश्मीर नरेश सहित अनेक श्रीमंत और अनेक प्रसिद्ध व्यक्ति उनके शिष्य थे जिनसे वे कुछ भी ले सकते थे, पर कभी किसी से कुछ भी नहीं लिया| गुरुदक्षिणा में प्राप्त रुपये भी हिमालय में तपस्यारत साधुओं की सेवा में भिजवा देते थे, उनका उपयोग घर के किसी काम के लिए नहीं किया| सामाजिक कार्यों में संलग्न रहते हुये वे एक क्षण भी नष्ट नहीं करते थे| समय मिलते ही पद्मासन में बैठकर ध्यानस्थ हो जाते थे| नींद की आवश्यकता उनकी देह को नहीं थी| पूरी रात उनकी बैठक में पूरे भारत से खिंचे चले आये साधक और भक्त भरे रहते थे| एक आदर्श गृहस्थ योगी का जीवन उन्होंने जीया जिसने हज़ारो लोगों को प्रेरणा दी| ऐसे महान गृहस्थ योगी को नमन!
.
योगिराज श्री श्री श्यामाचरण लाहिडी महाशय का जन्म सन ३० सितम्बर १८२८ ई. को कृष्णनगर (बंगाल) के समीप धुरनी ग्राम में हुआ था| इनके परम शिवभक्त पिताजी वाराणसी में आकर बस गए थे| श्यामाचरण ने वाराणसी के सरकारी संस्कृत कॉलेज में शिक्षा प्राप्त की| संस्कृत के अतिरिक्त अंग्रेजी, बंगला, उर्दू और फारसी भाषाएं सीखी| श्रीमान नागभट्ट नाम के एक प्रसिद्ध शास्त्रज्ञ महाराष्ट्रीय पंडित से उन्होंने वेद, उपनिषद और अन्य शास्त्रों व धर्मग्रंथों का अध्ययन किया|
.
पं.देवनारायण सान्याल वाचस्पति की पुत्री काशीमणी से इनका १८ वर्ष की उम्र में विवाह हुआ| २३ साल की उम्र में इन्होने सरकारी नौकरी कर ली| उस समय सरकारी वेतन अत्यल्प होता था अतः घर खर्च पूरा करने के लिये नेपाल नरेश के वाराणसी में अध्ययनरत पुत्र को गृहशिक्षा देते थे| बाद में काशी नरेश के पुत्र और अन्य कई श्रीमंत लोगों के पुत्र भी इनसे गृहशिक्षा लेने लगे|
.
हिमालय में रानीखेत के समीप द्रोणगिरी पर्वत की तलहटी में इनको गुरुलाभ हुआ| इनके गुरू हिमालय के अमर संत महावतार बाबाजी थे जो आज भी सशरीर जीवित हैं और अपने दर्शन उच्चतम विकसित आत्माओं को ही देते हैं| गुरू ने इनको आदर्श गृहस्थ के रूप में रहने का आदेश दिया और ये गृहस्थी में ही रहकर संसार का कार्य करते हुए कठोर साधना करने लगे|
.
जैसे फूलों की सुगंध छिपी नहीं रह सकती वैसे ही इनकी प्रखर तेजस्विता छिपी नहीं रह सकी और मुमुक्षुगण इनके पास आने लगे| ये सब को गृहस्थ रह कर साधना करने का आदेश देते थे, क्योंकि गृहस्थाश्रम पर ही अन्य आश्रम निर्भर हैं| इनके शिष्यों में अनेक प्रसिद्ध सन्यासी भी थे जैसे स्वामी श्रीयुक्तेश्वर गिरी, स्वामी केशवानंद ब्रह्मचारी, स्वामी प्रणवानंद गिरी, स्वामी केवलानंद, विशुद्धानंद सरस्वती, बालानंद ब्रह्मचारी आदि|
.
कश्मीर नरेश, काशी नरेश और बर्दवान नरेश भी इनके शिष्य थे| इसके अतिरिक्त उस समय के अनेक प्रसिद्ध व्यक्ति जो कालांतर में प्रसिद्ध योगी हुए, भी इनके शिष्य थे जैसे -- पं. पंचानन भट्टाचार्य, पं. भूपेन्द्रनाथ सान्याल, पं. काशीनाथ शास्त्री, पं. नगेन्द्रनाथ भादुड़ी, पं. प्रसाद दास गोस्वामी, रामगोपाल मजूमदार आदि| सामान्य लोगों के लिये भी इनके द्वार खुले रहते थे| वाराणसी के वृंदाभगत नाम के इनके एक शिष्य डाकिये ने योग की परम सिद्धियाँ प्राप्त की थीं|
.
लाहिड़ी महाशय ने न तो किसी संस्था की स्थापना की, न कोई आश्रम बनवाया और न कभी कोई सार्वजनिक प्रवचन दिया और न कभी किसी से कुछ रुपया पैसा लिया| अपने घर की बैठक में ही साधनारत रहते थे और अपना खर्च अपनी अत्यल्प पेंशन और बच्चों को गृहशिक्षा देकर पूरा करते थे|
.
इनके घर में शिवपूजा और गीतापाठ नित्य होता था| शिष्यों के लिये नित्य गीतापाठ अनिवार्य था| अपना सारा रुपया पैसा अपनी पत्नी को दे देते थे, अपने पास कुछ नहीं रखते थे| अपनी डायरी बंगला भाषा में नित्य लिखते थे| शिष्यों को दिए प्रवचनों को इनके एक शिष्य पं. भूपेन्द्रनाथ सान्याल बांगला भाषा में लिपिबद्ध कर लेते थे| उनका सिर्फ वह ही साहित्य उपलब्ध है|
.
सन २६ सितम्बर १८९५ ई. को इन्होने देहत्याग किया और इनका अंतिम संस्कार एक गृहस्थ का ही हुआ| शरीर छोड़ते समय तीन विभिन्न स्थानों पर एक ही समय में इन्होने अपने तीन शिष्यों को सशरीर दर्शन दिए और अपने प्रयाण की सूचना दी| इनके देहावसान के ९० वर्ष बाद इनके पोते ने, और स्वामी सत्यानंद गिरि ने इनकी डायरियों के आधार पर इनकी जीवनी लिखी| इनके कुछ साहित्य का तो हिंदी, अंग्रेजी और तेलुगु में अनुवाद हुआ है, बाकी बंगला भाषा में ही है|
ऐसे महान आदर्श और परात्पर गुरु योगीराज पं.श्यामचरण लाहिड़ी महाशय को नमन !
३० सितंबर २०२१

सत्य को जानने/समझने की प्रबल जिज्ञासा और निज जीवन में उसे अवतरित करने का अदम्य साहस, मनुष्य का सबसे बड़ा गुण है --

सत्य को जानने/समझने की प्रबल जिज्ञासा और निज जीवन में उसे अवतरित करने का अदम्य साहस, मनुष्य का सबसे बड़ा गुण है --

.
हम स्वयं के प्रति सच्चे रहें, अपने आप को धोखा न दें। स्वयं को धोखा देना - भगवान को धोखा देना है। किसी भी तरह का ढोंग और दिखावा न करें। धन्य हैं वे माता-पिता जो अपने बच्चों को अच्छे संस्कार देते हैं। बिना पैंदे के लोटे की तरह हम न बनें, जिसे कोई भी चाहे जैसी दिशा में मोड़ दे। हम महासागर में खड़ी उन दृढ़, अडिग और शक्तिशाली चट्टानों की तरह बनें, जिन पर प्रचंड लहरें बड़े वेग से टक्कर मारती हैं, लेकिन चट्टानों पर उसका कोई प्रभाव नहीं पड़ता। हम परशु की तरह तीक्ष्ण बनें, जिस पर गिरने वाला कट जाये, और जिस पर परशु गिरे वह भी कट जाये। हमारे में स्वर्ण की सी पवित्रता हो, जिसे कोई अपवित्र न कर सके।
.
हमारे में आत्म-हीनता की कोई भावना न हो। झूठे आदर्शों और झूठे नारों, व भ्रामक विचारों से दूर रहें। सत्य ही परमात्मा है, और सत्य ही सबसे बड़ा गुण है। दूसरों के कन्धों पर रख कर बन्दूक न चलाएँ। अपनी कमी को स्वयं दूर करें, दूसरों को दोष न दें। हमारा लक्ष्य परमात्मा है, हमें अपनी यात्रा अकेले ही पूरी करनी होगी। कोई अन्य तो हो ही नहीं सकता। अनवरत अकेले ही चलते रहें। जब एक बार यह निश्चय कर लिया है कि हमें कहाँ जाना है, तब यह न सोचें कि हमारे साथ कोई और भी चल रहा है या नहीं। हम अनवरत चलते रहें।
.
भगवान की सृष्टि में कोई दोष नहीं है। सारे दोष हमारी ही सृष्टि में हैं, जिन्हें सिर्फ हम ही दूर कर सकते हैं। ॐ तत्सत्॥
कृपा शंकर
१ अक्तूबर २०२१

दिन का आरंभ, भगवान के ध्यान से करें ---

 

प्रातः उठते ही अपने दिन का आरंभ भगवान के ध्यान से करें। कमर को सीधी रखते हुये एक कंबल के आसन पर सुख से पूर्व या उत्तर दिशा की ओर मुंह कर के स्थिर बैठें। आँखों को आधी बंद रखते हुए अपने दृष्टिपथ को भ्रूमध्य के माध्यम से अनंत की ओर करें। इस देह को भूल कर, जहाँ तक कल्पना जाती है, वहाँ तक एक प्रेममय अनंत कूटस्थ ज्योतिर्मय विस्तार की कल्पना करते हुए अजपा-जप करें। कुछ दिनों में वह कूटस्थ ज्योति खुली आँखों से भी दिखाई देने लगेगी। वह कूटस्थ ज्योति और उसके साथ सुनाई दे रही ध्वनि, व आनंद की अनुभूतियाँ - ईश्वर का बोध यानि स्वयं ईश्वर हैं। उसी में स्वयं का समर्पण करें और उसी कूटस्थ-चैतन्य में रहें। इसकी परिणिति - गीता में बताई हुई ब्राह्मी-स्थिति है। यदि कोई कठिनाई है तो भगवान श्रीराम, या श्रीकृष्ण, या शिव, या विष्णु की साकार कल्पना करें, और उसी में स्वयं को समर्पित करें। उन्हीं को जीवन का केंद्र-बिन्दु यानि कर्ता बनायें, और हर समय अपनी स्मृति में रखें।
.
यदि स्वयं का आचरण और विचार सात्विक होंगे, तभी कोई भी आध्यात्मिक साधना सफल होती है, अन्यथा कभी नहीं। जिन का आचरण और विचार तामसिक है, उनकी रक्षा तो भगवान के सिवाय अन्य कोई नहीं कर सकता। वे घर में शांति से अपना पूजा-पाठ और आराधना करें, व भगवान से अपने कल्याण की प्रार्थना करें।
.
मनुष्य के अनियंत्रित अति प्रबल लोभ, अहंकार और कामुकता ने विश्व की अनेकानेक महान सभ्यताओं को नष्ट किया है, अगणित हजारों करोड़ मनुष्यों की हत्या और बलात्कार किए हैं, और अगणित हजारों करोड़ मनुष्यों को अपना गुलाम बनाया है। इस विकृति ने ही मनुष्य को नराधम असुर बना दिया है। कहते हैं कि कोई जन्नत या heaven नाम की एक बहुत ही काल्पनिक और घटिया जगह है, जहाँ शराब की नदियाँ बहती हैं, और हर तरह की सुंदर स्त्रियाँ हर समय उपलब्ध रहती हैं। वहाँ पुरुष का एक ही काम है -- दिन में २४ घंटे, सप्ताह में सातों दिन, अनंत काल के लिए -- संभोग करने की एक मशीन बन जाना। जैसे किसी बिजली की मशीन के स्विच को ऑन करते ही मशीन चल पड़ती है, वैसे ही स्वयं को एक मशीन मात्र बना देना - जीवन की उच्चतम उपलब्धि और लक्ष्य बताया जाता है। इस काल्पनिक जन्नत या स्वर्ग की अधम कामना ने इस पृथ्वी पर अत्याचार ही अत्याचार किये हैं। इसी को प्राप्त करने के लिए मनुष्य स्वयं से असहमत दूसरों से घृणा, दुराचार, और उनकी हत्या करता रहता है।
.
हमारे विचार और हमारा आचरण पवित्र और परोपकारी होंगे तभी हम पर भगवान की कृपा होगी। अन्यथा लगे रहें, इस मायावी विश्व के कटु अनुभव स्वयम् को परमात्मा की ओर उन्मुख होने को धीरे-धीरे बाध्य कर देंगे।
.
आप सब को नमन और मंगलमय अनंत शुभ कामनाएँ। ॐ तत्सत् !! ॐ स्वस्ति !!
२ अक्तूबर २०२१

महासागर में जल की एक बूँद, महासागर से माँग ही क्या सकती है? और महासागर उसे दे ही क्या सकता है? ---

 

(एक अति गूढ आध्यात्मिक प्रश्न) --- महासागर में जल की एक बूँद, महासागर से माँग ही क्या सकती है? और महासागर उसे दे ही क्या सकता है?
यह एक गंभीर और गूढ़ आध्यात्मिक प्रश्न है जो अनादि काल से है, और शाश्वत है।
.
(उत्तर) --- इस का उत्तर भी अपरिवर्तनीय और शाश्वत है, जिसे स्वयं की निजात्मा ही दे सकती है। इसका उत्तर तीन खंडों में दे रहा हूँ ---
.
(१) पुष्प की सार्थकता उसके खिलने में है, चाहे वह बगीचे में खिले या वन में। पुष्प कभी यह अपेक्षा नहीं करता कि कोई उसके सौन्दर्य को निहारे या उसकी सुगंधी का आनंद ले। लेकिन प्रकृति उसे निहार कर नृत्य करती है, और परमात्मा भी उसमें व्यक्त होकर प्रसन्न होते हैं।
.
(२) वैसे ही जल की एक बूंद जब महासागर में समर्पित होती है तो स्वयं महासागर बन जाती है। महासागर की इससे बड़ी कोई प्रसन्नता नहीं है कि जल की एक बूंद उसमें समर्पित हो रही है। जल की एक बूँद, मात्र समर्पण ही कर सकती है, उसका समर्पण ही सार्थकता है। महासागर भी उस बूँद को अपने में मिलाकर उसे महासागर बना देता है।
.
(३) परमात्मा का इस से बड़ा कोई अन्य आनंद नहीं है कि जीवात्मा उसमें समर्पित हो रही है। परमप्रेमवश जब जीवात्मा स्वयं को परमात्मा में समर्पित करती है, तब वह स्वयं परमात्मा के साथ एक होकर परमात्मा ही बन जाती है। जीव शिवत्व को प्राप्त होकर स्वयम् परमशिव बन जाता है।
.
सार की बात --- नारद भक्ति सूत्र में नारद जी ने "परमप्रेम" को ही भक्ति कहा है। परमप्रेम में सिर्फ समर्पण ही होता है, कोई मांग नहीं। जहां मांग होती है वह एक व्यापार बन जाता है, भक्ति नहीं। हम परमात्मा में समर्पित ही हो सकते हैं, उनसे कुछ मांगना क्या उनका अपमान नहीं है?
.
गीता में भगवान के वचन शाश्वत हैं जिन पर हमारी श्रद्धा होनी चाहिए। जैसे भी जो भी इस समय मुझे भगवान के वचन याद आ रहे हैं, उन्हें उद्धृत कर रहा हूँ --
.
(१) "अनन्याश्चिन्तयन्तो मां ये जनाः पर्युपासते।
तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यहम्॥"
अर्थात् -- अनन्य भाव से मेरा चिन्तन करते हुए जो भक्तजन मेरी ही उपासना करते हैं, उन नित्ययुक्त पुरुषों का योगक्षेम मैं वहन करता हूँ॥
.
(२) "यत्करोषि यदश्नासि यज्जुहोषि ददासि यत्।
यत्तपस्यसि कौन्तेय तत्कुरुष्व मदर्पणम्॥"
अर्थात् -- हे कौन्तेय ! तुम जो कुछ कर्म करते हो, जो कुछ खाते हो, जो कुछ हवन करते हो, जो कुछ दान देते हो और जो कुछ तप करते हो, वह सब तुम मुझे अर्पण करो॥
.
(३) "तस्मात्सर्वेषु कालेषु मामनुस्मर युध्य च।
मय्यर्पितमनोबुद्धिर्मामेवैष्यस्यसंशयम्॥"
अर्थात् -- इसलिए, तुम सब काल में मेरा निरन्तर स्मरण करो; और युद्ध (कर्म) करो मुझमें अर्पण किये मन, बुद्धि से युक्त हुए निःसन्देह तुम मुझे ही प्राप्त होओगे।
.
(४) निर्मानमोहा जितसङ्गदोषा अध्यात्मनित्या विनिवृत्तकामाः।
द्वन्द्वैर्विमुक्ताः सुखदुःखसंज्ञैर्गच्छन्त्यमूढाः पदमव्ययं तत्॥"
अर्थात्य -- जिनका मान और मोह निवृत्त हो गया है, जिन्होंने संगदोष को जीत लिया है, जो अध्यात्म में स्थित हैं जिनकी कामनाएं निवृत्त हो चुकी हैं और जो सुख-दु:ख नामक द्वन्द्वों से विमुक्त हो गये हैं, ऐसे सम्मोह रहित ज्ञानीजन उस अव्यय पद को प्राप्त होते हैं॥
.
(५) "सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज।
अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः॥"
अर्थात् -- सब धर्मों का परित्याग करके तुम एक मेरी ही शरण में आओ, मैं तुम्हें समस्त पापों से मुक्त कर दूँगा, तुम शोक मत करो।
.
क्या अभी भी कहने के लिए कुछ बचा है? यदि अभी भी कोई संशय है उसका निराकरण मेरे पास नहीं है। अपने संदेहों का निराकरण अपनी अपनी गुरु-परंपरा से या सिद्ध महात्माओं को ढूंढ़ कर उनसे करें। सभी निजात्माओं को नमन।
हरिः ॐ तत्सत् !!
कृपा शंकर
३ अक्तूबर २०२१

भगवान को मैं कैसे भूल सकता हूँ? ---

 

भगवान को मैं कैसे भूल सकता हूँ? ---
.
मैं इतना भाग्यशाली हूँ कि भगवान स्वयं ही मुझे हर समय याद करते हैं। अपनी इस देह से (जिससे दुनियाँ मुझे पहचानती है) भगवान स्वयं सांसें ले रहे हैं। हर सांस के साथ वे मुझे याद करते हैं। हर सांस उनकी परम कृपा है। वराह पुराण में भगवान् श्रीहरिः कहते हैं --
"वातादि दोषेण मद्भक्तों मां न च स्मरेत्।
अहं स्मरामि मद्भक्तं नयामि परमां गतिम्॥"
अर्थात् -- यदि वातादि दोष के कारण मृत्यु के समय मेरा भक्त मेरा स्मरण नहीं कर पाता, तो मैं उसका स्मरण कर उसे परम गति प्रदान करवाता हूँ॥
.
अतः भगवान का नाम निरन्तर जपें और सदा प्रसन्न रहें। जपयज्ञ सबसे बड़ा यज्ञ है। गीता में भगवान कहते हैं -- "”यज्ञानां जप यज्ञोस्मि" -- अर्थात् "यज्ञों में मैं जप-यज्ञ हूँ।" अतः निश्चय कर संकल्प सहित अपने आप को परमात्मा के हाथों में सौंप दो। जहाँ हम विफल हो जाएँगे, वहाँ वे हाथ थाम लेंगे।
.
मंत्र वही सिद्ध होगा जो शिष्य को सक्षम गुरू से प्राप्त हुआ होगा। अन्यथा बहुत अधिक समय लगेगा। स्थूल से सूक्ष्म की तरफ अग्रसर होना ही मंत्र जप का रहस्य है। अतः मानसिक जप ही सर्वश्रेष्ठ है। पूर्ण भक्तिभाव से सदा मानसिक जप ही करना चाहिए। जप जितना अन्तमुर्खी होगा, आनंद की अनुभूति उतनी ही अधिक होगी।
.
ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
३ अक्टूबर २०२१

हम अपने अवचेतन मन में भगवान को प्रतिष्ठित कर लें ---

 

कुछ वर्ष पूर्व मैंने लिखा था कि महिषासुर और रावण -- ये दोनों ही अमर और शाश्वत हैं, जिनके बिना सृष्टि नहीं चल सकती। मैं आज भी अपने विचारों पर दृढ़ हूँ। मुझे बहुत अच्छी तरह पता है कि ये दोनों अपने कुटुंब-कबीले के साथ कहाँ रहते हैं। मैं इन्हें बहुत अच्छी तरह जानता हूँ, और इन्हें कई बार देखा भी है। इन्होने मुझे बहुत अधिक और कई बार छला है, इसलिए इनसे बहुत अच्छी जान-पहिचान है। आजकल तो इनकी कृपा है इसलिए मुझसे दूर ही रहते हैं। सृष्टि को चलाने के लिए ये भगवान की विशेष रचना हैं जिन्हें कोई नहीं मार सकता, अन्यथा सृष्टि ही समाप्त हो जाएगी। साधना और भगवत्कृपा से उनका प्रभाव अवश्य कम किया जा सकता है, लेकिन बिलकुल समाप्त नहीं।
.
हमारी काम-वासना, क्रोध, लोभ और अहंकार -- ही रावण है, जो हमारे अवचेतन मन में रहता है। प्रमाद और दीर्घसूत्रता (आलस्य और काम को आगे टालने की प्रवृति) महिषासुर हैं, यह भी हमारे अवचेतन मन में ही रहता है। दोनों आपस में एक-दूसरे के परममित्र हैं। इनके और भी बहुत सारे साथी हैं।
.
भगवान का निवास हमारे हृदय में है। श्रीराम -- सच्चिदानंद ब्रह्म हैं, जिनमें समस्त योगी और भक्त सदैव रमण करते हैं। सीताजी -- भक्ति हैं, और अयोध्या -- हमारा हृदय है। राम को पाने के लिए हमें जगन्माता सीता जी का आश्रय लेना ही होगा। अहेतुकी परमप्रेम जागृत कर अपने अहंभाव का सम्पूर्ण समर्पण भगवान को करना होगा, तभी ये महिषासुर और रावण हमारे चित्त से हटेंगे। जरा सी भी असावधानी से ये फिर बापस आ जाएँगे।
.
हाँ, यदि हम अपने अवचेतन मन में भगवान को प्रतिष्ठित कर लें तो ये दोनों हमारे से बहुत दूर भाग जाएँगे।
ॐ तत्सत् !!
३ अक्टूबर २०२१

वेटिकन की अति गोपनीय, अति समृद्ध और अति कूट छद्म शाखा अंतर्राष्ट्रीय Penetration Wing, भारत की अस्मिता की सबसे बड़ी शत्रु है ---

 

भारत की अस्मिता की सबसे बड़ी शत्रु - वेटिकन की अति गोपनीय, अति समृद्ध और अति कूट छद्म शाखा अंतर्राष्ट्रीय Penetration Wing है, जो इटली के अंतर्राष्ट्रीय माफिया के साथ मिलकर --
.
(१) हिन्दू संस्थाओं के भीतर घुसकर उन्हें खोखला करती है। पैसे के बल पर, और अपने विशेष रूप से प्रशिक्षित व्यक्तियों को हिन्दू साधुओं के रूप में संस्थाओं के भीतर प्रवेश करवा कर उन संस्थाओं पर अपना अधिकार करती है। देश के अनेक काली मंदिरों में भगवती काली के साथ साथ मदर टेरेसा की भी पूजा होती है। अनेक हिन्दू आश्रमों में भगवान श्रीकृष्ण के साथ-साथ जीसस क्राइस्ट की भी पूजा होती है।
.
(२) सच्चे हिन्दू साधुओं पर महिलाओं से छेड़छाड़ या बलात्कार के झूठे आरोप लगवाकर उन्हें बदनाम करती है, गिरफ्तार करवाती है, सजा दिलवाती है, या आत्महत्या के लिए बाध्य कर देती है। यदि काम न बने तो नक्सलियों के साथ मिलकर हिन्दू साधुओं की हत्या भी करवा देती है। हिन्दू धर्मगुरुओं को बदनाम करने में गुप्त रूप से इस संस्था का बहुत बड़ा योगदान है।
.
(३) चर्चों में खुद ही तोड़फोड़ करवा कर हिंदुओं को बदनाम करती है। और Victim card खेलती है।
.
(४) भारत में हिंदुओं को अपने विद्यालयों में हिन्दू धर्म की शिक्षा को सरकारी मान्यता प्राप्त नहीं है, जब कि तथाकथित अल्पसंख्यकों को है। हिन्दू मंदिरों पर सरकारी नियंत्रण है, जिनका धन जो हिन्दू धर्म के प्रचार में खर्च होना होना चाहिए वह तथाकथित अल्पसंख्यकों के कल्याण में खर्च होता है। भारत की बड़ी बड़ी अङ्ग्रेज़ी माध्य की शिक्षण संस्थाओं पर इसी के पादरियों का नियंत्रण है। पूरे विश्व में सनातन हिन्दू धर्म को बदनाम किया जाता है। उपरोक्त सब बड़े सुनियोजित तरीके से पूरे विश्व में हो रहा है।
.
(५) भारत की सत्ता पर कैसे भी अधिकार कर के भारत से हिन्दुत्व को नष्ट कर, ईसाई राष्ट्र की स्थापना करना इन का ध्येय है। सनातन हिन्दू धर्म यदि बचा हुआ है वह भगवान की कृपा से ही बचा हुआ है।
.
इस विषय पर पश्चिमी जगत में ही अनेक पुस्तकें लिखी गयी हैं।
४ अक्तूबर २०२१

सिर्फ दैवीय शक्तियों की कृपा से ही हम बचे हुये हैं ---

 

सिर्फ दैवीय शक्तियों की कृपा से ही हम बचे हुये हैं ---
.
विचारधाराओं के संघर्ष में इस समय ईसाईयत पर इस्लाम विजयी हो रहा है। यह मैं अपने अनुभव के आधार पर कह रहा हूँ। इसका कारण है कि इस्लाम में अपने मजहब के प्रति सांसारिक आत्म-त्याग (self giving) की भावना है, और किसी भी प्रकार के हानि-लाभ का calculation नहीं है। यह बात ईसाईयत में नहीं है। आप यह पूरे विश्व में धटित होते हुए देख सकते हैं।
.
हिंदुओं की शक्ति सिर्फ आध्यात्म में है| आध्यात्म के बिना हिंदुओं का कोई भविष्य नहीं है। Self giving की भावना अब हिंदुओं में नहीं के बराबर है। हर चीज में अब हम लोग भी लाभ-हानि का calculation करने लगे हैं। धर्म और राष्ट्र के प्रति समर्पण की भावना लगभग नगण्य है, जिसके बिना हमारा भविष्य उज्ज्वल नहीं है। यदि यही हाल रहा तो आसुरी शाक्तियाँ हमें नष्ट कर देंगी। एक परिवर्तन लाना होगा जिसका आरंभ तो स्वयं से ही करना होगा।
४ अक्तूबर २०२१

गांधीजी को 22 वर्षों के पश्चात ही गुस्सा क्यों आया? ---

 

गांधीजी को 22 वर्षों के पश्चात ही गुस्सा क्यों आया? ---
.
कहते हैं कि किसी अंग्रेज ने नस्लभेद के कारण गांधीजी को ट्रेन से उतार दिया था। इस घटना के कारण गांधी जी अंग्रेजों के विरुद्ध हो गए, और उन्होंने अंग्रेजो के विरुद्ध भारत में स्वाधीनता आंदोलन आरंभ कर दिया।
.
अगर यह घटना सच भी है तो यह सन १८९३ ई. की है जब गांधीजी २४ वर्ष के थे। गांधीजी भारत में बापस सन १९१५ में आए, जब वे ४६ वर्ष के थे। इन २२ वर्षों में गांधीजी को कभी गुस्सा नहीं आया।
.
गांधीजी के पिता करमचंद गांधी काफी धनवान थे। अंग्रेजी राज में उन्होने खूब धन कमाया और कभी उनके साथ कोई भेदभाव नहीं हुआ। गांधीजी ने अंग्रेजों के साथ रहकर पढ़ाई की और वकालत की प्रैक्टिस की, लेकिन उनके साथ कोई भेदभाव नहीं हुआ। गांधीजी का बहुत सारा जीवन इंग्लैण्ड और दक्षिण अफ्रीका में गुजर गया मगर उनके साथ कोई भेदभाव नहीं हुआ। वे अंग्रेजों के साथ ही रहते रहे, पढ़ते रहे और काम भी करते रहे। किसी भी अंग्रेज ने उनको कभी परेशान नहीं किया। ब्रिटिश सेना में सार्जेंट मेजर के पद काम करते हुये भी उनको कभी गुस्सा नहीं आया।
.
इसी बीच भारत में अंग्रेजो के विरुद्ध स्वाधीनता संघर्ष छिड़ गया। सन १९०७ में वीर सावरकर के ग्रन्थ "१८५७ - प्रथम स्वातंत्र्य समर" ने क्रान्ति की ज्वाला को और ज्यादा भड़का दिया। क्रांतिकारियों ने अंग्रेज अधिकारियों की हत्या करना आरंभ कर दिया। अनेक अंग्रेज़ अधिकारियों की हत्या क्रांतिकारियों द्वारा कर दी गई। इस अपराध में अनेक क्रांतिकारियों को फांसी हुई और अनेकों को रंगून और कालापानी की जेलों में भेज दिया गया।
.
इसी बीच अचानक गांधी जी को याद आया कि २१ वर्ष पूर्व किसी अंग्रेज ने उनको ट्रेन से उतारा था, बस गांधी जी अपनी विदेशी संपत्ति को बेचकर सन १९१५ ई. में भारत आ गए। एक महत्वपूर्ण बात है कि गांधीजी को साउथ अफ्रीका की ट्रेन से ७ जून १८९३ को उतारा गया, तब उनको गुस्सा नहीं आया। २२ वर्षों के बाद उनको गुस्सा आया और वे अंग्रेजों से बदला लेने के लिए ९ जनवरी १९१५ को भारत में बापस आए।
.
अंग्रेजों ने और उन की प्रेस ने गांधीजी को भारत में स्थापित और प्रसिद्ध किया। अंग्रेजों को एक ऐसा भारतीय नेता चाहिए था जो अंग्रेजों के विरुद्ध हो रही हिंसा को अहिंसक बना सके, और किसी भी संभावित सशस्त्र विद्रोह की हवा निकाल सके। गांधीजी ने सदा अंग्रेजों का हित देखा और वही किया जो अंग्रेजों के हित में था।

सूत्रधार को नमन ! ---

 सूत्रधार को नमन ! --- (संशोधित व पुनर्प्रेषित)

.
दोनों आँखों के मध्य में एक भ्रामरी गुफा है जिसमें सारे आध्यात्मिक रहस्य छिपे हैं। इसके प्रवेश द्वार पर आवरण और विक्षेप नाम की दो अति सुंदर, आकर्षक, मोहिनी, महाठगिनी प्रहरिनें बैठी हैं, जो किसी को भी भीतर प्रवेश नहीं करने देतीं। कैसे भी इन ठगिनियों से बचकर इस गुफा में प्रवेश करना है। एक बार प्रवेश कर लिया तो पीछे मुड़कर मत देखना, अन्यथा ये अपने रूपजाल में फंसाकर बापस बुला लेंगी। इसमें आगे बढ़ते रहोगे तो सारे रहस्य अनावृत हो जाएँगे।
.
गीता में भगवान कहते हैं ---
"दैवी ह्येषा गुणमयी मम माया दुरत्यया।
मामेव ये प्रपद्यन्ते मायामेतां तरन्ति ते॥७:१४॥"
"न मां दुष्कृतिनो मूढाः प्रपद्यन्ते नराधमाः।
माययापहृतज्ञाना आसुरं भावमाश्रिताः॥७:१५॥"
"चतुर्विधा भजन्ते मां जनाः सुकृतिनोऽर्जुन।
आर्तो जिज्ञासुरर्थार्थी ज्ञानी च भरतर्षभ॥७:१६॥"
"तेषां ज्ञानी नित्ययुक्त एकभक्ितर्विशिष्यते।
प्रियो हि ज्ञानिनोऽत्यर्थमहं स च मम प्रियः॥७:१७॥"
"उदाराः सर्व एवैते ज्ञानी त्वात्मैव मे मतम्।
आस्थितः स हि युक्तात्मा मामेवानुत्तमां गतिम्॥७:१८॥"
"बहूनां जन्मनामन्ते ज्ञानवान्मां प्रपद्यते।
वासुदेवः सर्वमिति स महात्मा सुदुर्लभः॥७:१९॥"
.
इससे पहिले भगवान कह चुके है --
"असंशयं महाबाहो मनो दुर्निग्रहं चलं।
अभ्यासेन तु कौन्तेय वैराग्येण च गृह्यते॥६:३५॥"
.
(भ्रामरी गुफा में प्रवेश और इसके रहस्य की समझ भगवान की कृपा से ही होती है)
ॐ तत्सत् !!
६ अक्तूबर २०२१

एक मार्मिक प्रार्थना हिन्दू समाज से ---

 एक मार्मिक प्रार्थना हिन्दू समाज से ---

.
हिन्दू समाज पर जिस तरह के क्रूर मर्मांतक प्रहार हो रहे हैं, उनका प्रतिकार करने के लिए हिन्दू समाज को अब सब तरह की दुर्बलताओं को त्याग कर सशक्त, निर्भय और आक्रामक होना पड़ेगा। नवरात्रों का आरंभ हो गया है, शक्ति की आराधना करें। हमारे आराध्य देव महाशक्तिशाली और शस्त्रधारी हों, जैसे भगवान श्रीराम, महावीर हनुमान, भगवान श्री कृष्ण, भगवान शिव, भगवान विष्णु या भगवती दुर्गा आदि। शांति और अहिंसा के उपदेशों को एक बार तो भूल जाएँ। जो भी उपदेश हमें कायर और कमजोर बनाते हैं, उनका त्याग कर दें।
.
हमें ब्रहमतेज के साथ-साथ अपने क्षातृत्व को भी जागृत करना होगा। ब्रहमतेज और क्षातृत्व ही हमारी रक्षा करेंगे। बलहीन को परमात्मा नहीं मिलते। आसुरी शक्तियों को पराभूत करने के लिए हमें साधना द्वारा दैवीय शक्तियों को जागृत कर उनकी सहायता लेनी ही होगी।
.
युवा वर्ग को चाहिए कि वे अपनी देह को तो शक्तिशाली बनायें, बुद्धिबल और विवेक को भी बढ़ाएँ। अपने बच्चों को आत्मरक्षा का प्रशिक्षण दिलवाएँ।
ॐ तत्सत् !!

भगवान की उपासना -- हृदय की अभीप्सा है, आकांक्षा नहीं ---

 भगवान की उपासना -- हृदय की अभीप्सा है, आकांक्षा नहीं ---

.
हृदय की बहुत सारी बातें हैं जो मैं लिखना चाहता हूँ, लेकिन इसलिए नहीं लिख रहा हूँ कि उनको लिखने से कुछ भी लाभ नहीं है। मुझे अगर किसी भी तरह की कोई शिकायत या असंतोष है तो वह भगवान से है, किसी अन्य से नहीं। यह सृष्टि भगवान की है, किसी अन्य की नहीं, अतः कुछ कहना होगा तो प्रत्यक्ष उन्हीं से कहेंगे।
.
जैसी सृष्टि हम चाहते हैं, और जो जीवन में करना चाहते हें, वह भी उन्हीं से कहेंगे। एकांत में भगवान की उपासना करेंगे और अपने संकल्पों को साकार करेंगे। भगवान की भी यही इच्छा है।
.
भगवान की उपासना मेरा स्वधर्म, स्वभाव और परमप्रेम की अभिव्यक्ति है। यह एक अभीप्सा है, आकांक्षा नहीं।
ॐ तत्सत् !!
कृपा शंकर
८ अक्तूबर २०२१

सत्यनिष्ठ होना ही सबसे बड़ी साधना है ---

सत्यनिष्ठ होना ही सबसे बड़ी साधना है ---
----------------------------------
राग-द्वेष, लोभ व अहंकार से मुक्ति मिल जाए और साथ-साथ भगवान के प्रति परमप्रेम हृदय में हो तो संसार में रहते हुए भी सत्यनिष्ठ होकर धर्माचरण कर सकते हैं। आदर्श रूप में यह कहना तो बड़ा सरल है पर व्यवहार रूप में करना बड़ा कठिन। सत्यनिष्ठ होना ही सबसे बड़ी साधना है। इसका प्रयास करते-करते मेरे अनेक जन्म व्यतीत हो गए हैं, लेकिन लगता है अभी भी सफलता नहीं मिली है। पूर्वजन्म का कुछ कुछ आभास यानि स्मृतियाँ हैं। इस जन्म का भी पता है, जो मरुभूमि में गिरी हुई जल की एक बूँद की तरह ही था। चाहते हुए भी कुछ नहीं कर पाये।
आए थे हरिभजन को ओटन लगे कपास
बाना पहिना सिंह का, चले भेड़ की चाल
लेकिन यह चलने वाली बात नहीं है। इस तरह भेड़ की चाल सदा नहीं चल सकते। अपनी क्षमता पर भी संदेह ही नहीं भरोसा भी टूट गया है। स्वयं में कोई क्षमता या गुण नहीं है। एकमात्र कृपा है -- भगवान को पाने की अभीप्सा, यानि एक अतृप्त गहन प्यास और तड़प। इसके अतिरिक्त और कुछ भी संपत्ति मेरे पास में नहीं है। यह अभीप्सा ही मेरी एकमात्र संपत्ति है, जिसके साथ-साथ कुछ प्रेम भी है जो मेरा स्वभाव है। भगवान का यह कृपा रूपी प्रसाद ही मुझे भगवान से मिला देगा। और कुछ भी नहीं चाहिए, यही पर्याप्त है।
.
करें तो क्या करें? गीता में दिये भगवान के चरम उपदेश और गीता के ही अंतिम श्लोकों के सिवाय इस समय और कुछ भी याद नहीं आ रहा है --
"सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज।
अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः॥१८:६६॥"
"यत्र योगेश्वरः कृष्णो यत्र पार्थो धनुर्धरः।
तत्र श्रीर्विजयो भूतिर्ध्रुवा नीतिर्मतिर्मम॥१८:७८॥"
.
जहां तक मेरी कल्पना जाती है, इस सृष्टि में भगवान वासुदेव के अतिरिक्त अन्य कुछ भी नहीं है। मेरा भी कोई अस्तित्व नहीं है। जो कुछ भी है, वह वे स्वयं हैं। वे स्वयं ही इस देह से सब क्रियाएँ कर रहे हैं। वे स्वयं ही स्वयं का अवलोकन और अनुभव कर रहे हैं। उनकी जय हो। ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर

८ अक्तूबर २०२१