Friday, 8 October 2021

महासागर में जल की एक बूँद, महासागर से माँग ही क्या सकती है? और महासागर उसे दे ही क्या सकता है? ---

 

(एक अति गूढ आध्यात्मिक प्रश्न) --- महासागर में जल की एक बूँद, महासागर से माँग ही क्या सकती है? और महासागर उसे दे ही क्या सकता है?
यह एक गंभीर और गूढ़ आध्यात्मिक प्रश्न है जो अनादि काल से है, और शाश्वत है।
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(उत्तर) --- इस का उत्तर भी अपरिवर्तनीय और शाश्वत है, जिसे स्वयं की निजात्मा ही दे सकती है। इसका उत्तर तीन खंडों में दे रहा हूँ ---
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(१) पुष्प की सार्थकता उसके खिलने में है, चाहे वह बगीचे में खिले या वन में। पुष्प कभी यह अपेक्षा नहीं करता कि कोई उसके सौन्दर्य को निहारे या उसकी सुगंधी का आनंद ले। लेकिन प्रकृति उसे निहार कर नृत्य करती है, और परमात्मा भी उसमें व्यक्त होकर प्रसन्न होते हैं।
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(२) वैसे ही जल की एक बूंद जब महासागर में समर्पित होती है तो स्वयं महासागर बन जाती है। महासागर की इससे बड़ी कोई प्रसन्नता नहीं है कि जल की एक बूंद उसमें समर्पित हो रही है। जल की एक बूँद, मात्र समर्पण ही कर सकती है, उसका समर्पण ही सार्थकता है। महासागर भी उस बूँद को अपने में मिलाकर उसे महासागर बना देता है।
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(३) परमात्मा का इस से बड़ा कोई अन्य आनंद नहीं है कि जीवात्मा उसमें समर्पित हो रही है। परमप्रेमवश जब जीवात्मा स्वयं को परमात्मा में समर्पित करती है, तब वह स्वयं परमात्मा के साथ एक होकर परमात्मा ही बन जाती है। जीव शिवत्व को प्राप्त होकर स्वयम् परमशिव बन जाता है।
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सार की बात --- नारद भक्ति सूत्र में नारद जी ने "परमप्रेम" को ही भक्ति कहा है। परमप्रेम में सिर्फ समर्पण ही होता है, कोई मांग नहीं। जहां मांग होती है वह एक व्यापार बन जाता है, भक्ति नहीं। हम परमात्मा में समर्पित ही हो सकते हैं, उनसे कुछ मांगना क्या उनका अपमान नहीं है?
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गीता में भगवान के वचन शाश्वत हैं जिन पर हमारी श्रद्धा होनी चाहिए। जैसे भी जो भी इस समय मुझे भगवान के वचन याद आ रहे हैं, उन्हें उद्धृत कर रहा हूँ --
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(१) "अनन्याश्चिन्तयन्तो मां ये जनाः पर्युपासते।
तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यहम्॥"
अर्थात् -- अनन्य भाव से मेरा चिन्तन करते हुए जो भक्तजन मेरी ही उपासना करते हैं, उन नित्ययुक्त पुरुषों का योगक्षेम मैं वहन करता हूँ॥
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(२) "यत्करोषि यदश्नासि यज्जुहोषि ददासि यत्।
यत्तपस्यसि कौन्तेय तत्कुरुष्व मदर्पणम्॥"
अर्थात् -- हे कौन्तेय ! तुम जो कुछ कर्म करते हो, जो कुछ खाते हो, जो कुछ हवन करते हो, जो कुछ दान देते हो और जो कुछ तप करते हो, वह सब तुम मुझे अर्पण करो॥
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(३) "तस्मात्सर्वेषु कालेषु मामनुस्मर युध्य च।
मय्यर्पितमनोबुद्धिर्मामेवैष्यस्यसंशयम्॥"
अर्थात् -- इसलिए, तुम सब काल में मेरा निरन्तर स्मरण करो; और युद्ध (कर्म) करो मुझमें अर्पण किये मन, बुद्धि से युक्त हुए निःसन्देह तुम मुझे ही प्राप्त होओगे।
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(४) निर्मानमोहा जितसङ्गदोषा अध्यात्मनित्या विनिवृत्तकामाः।
द्वन्द्वैर्विमुक्ताः सुखदुःखसंज्ञैर्गच्छन्त्यमूढाः पदमव्ययं तत्॥"
अर्थात्य -- जिनका मान और मोह निवृत्त हो गया है, जिन्होंने संगदोष को जीत लिया है, जो अध्यात्म में स्थित हैं जिनकी कामनाएं निवृत्त हो चुकी हैं और जो सुख-दु:ख नामक द्वन्द्वों से विमुक्त हो गये हैं, ऐसे सम्मोह रहित ज्ञानीजन उस अव्यय पद को प्राप्त होते हैं॥
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(५) "सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज।
अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः॥"
अर्थात् -- सब धर्मों का परित्याग करके तुम एक मेरी ही शरण में आओ, मैं तुम्हें समस्त पापों से मुक्त कर दूँगा, तुम शोक मत करो।
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क्या अभी भी कहने के लिए कुछ बचा है? यदि अभी भी कोई संशय है उसका निराकरण मेरे पास नहीं है। अपने संदेहों का निराकरण अपनी अपनी गुरु-परंपरा से या सिद्ध महात्माओं को ढूंढ़ कर उनसे करें। सभी निजात्माओं को नमन।
हरिः ॐ तत्सत् !!
कृपा शंकर
३ अक्तूबर २०२१

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