Thursday, 15 July 2021

कभी भूल कर भी निराश न हों, परिस्थितियाँ सदा एक सी नहीं रहतीं ---

कभी भूल कर भी निराश न हों, परिस्थितियाँ सदा एक सी नहीं रहतीं ---

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पूर्व जन्मों के संस्कारों के कारण जो लोग भगवान की भक्ति नहीं कर पा रहे हैं, वे निराश न हों, अगले जन्मों में उन्हें फिर से नया अवसर मिलेगा। घर-परिवार के लोगों की नकारात्मक सोच, गलत माँ-बाप के यहाँ जन्म, गलत पारिवारिक संस्कार और गलत वातावरण -- उन्हें कोई साधन-भजन नहीं करने देता। घर-परिवार के मोह के कारण ऐसे जिज्ञासु बहुत अधिक दुखी रहते हैं। इस जन्म में नहीं तो अगले जन्म में निश्चित ही उन्हें आध्यात्मिक प्रगति का एक नया अवसर मिलेगा।
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श्रद्धा और विश्वास रखो कि भगवान हैं, इसी समय हैं, सर्वदा हैं, यहीं पर हैं, और सर्वत्र हैं। मैं उनके हृदय में हूँ, और वे मेरे हृदय में हैं।
१६ जुलाई २०२०

भगवान के साथ सत्संग ---

 

सत्संग
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चतुर्मास के इस पावन समय में सत्संग और उपासना की खूब प्रेरणा मिल रही है| वर्तमान परिस्थितियों में भौतिक रूप से तो कहीं भी आने-जाने में असमर्थ हैं| भगवान सर्वत्र हैं, जहां भी उन्होनें रखा है वहाँ तो उन्हें आना ही पड़ेगा| आना क्या पड़ेगा? वे तो पहले से ही प्रत्यक्ष हृदय में आकर साकार रूप में बैठे हुए हैं| अतः अब बाहरी सत्संग की सारी कामना को नष्ट कर साक्षात् भगवान के साथ ही निरंतर सत्संग करेंगे| बाहरी सत्संग में अब कोई रुचि नहीं रही है|
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जब भी भगवान की याद आती है, तब चेतना, इस शरीर से परे अनंत विराटता में व्याप्त हो जाती है| इस देह का मैं एक साक्षीमात्र रह जाता हूँ| उस विराट अनंतता से भी परे एक दिव्य ज्योति है, जिसमें से एक दिव्य ध्वनि भी निःसृत हो रही है| वह अति अति अवर्णनीय दिव्य है| उस से भी परे जो परम आकर्षक अज्ञात अस्तित्व है वह ही मेरे ध्यान का विषय है| उस की अनुभूति ही परमशिव है, वह ही गुरु-तत्व है, और वह ही आत्म-तत्व है| वह ही मेरा इष्ट देव/देवी है| जो वह है, वह ही मैं हूँ| सारी सृष्टि मुझ में समाहित है, और मैं सारी सृष्टि में व्याप्त हूँ| ये चाँद-तारे, ये सारी आकाशगंगायें और जो कुछ भी सृष्ट और असृष्ट है, वह सब मैं ही हूँ| मेरे सिवाय किसी अन्य का कोई अस्तित्व नहीं है| बीच-बीच में कभी-कभी इस देह को भी इस भाव के साथ देख लेता हूँ कि मैं यह देह नहीं हूँ, यह देह तो लोकयात्रा के लिए मिला हुआ एक वाहन/साधन मात्र है|
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गुरु महाराज को नमन --- हे गुरु महाराज, आप के चरण-कमलों का ध्यान सहस्त्रार में सदा होता रहे| आप ही परमशिव हैं, आप ही वासुदेव हैं, आप ही परमात्म-तत्व हैं, और आप ही यह मैं है| मेरा कोई पृथक अस्तित्व नहीं है| जो आप हैं, वह ही मैं हूँ| ॐ ॐ ॐ ||
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"ब्रह्मानन्दं परमसुखदं केवलं ज्ञानमूर्तिं
द्वन्द्वातीतं गगनसदृशं तत्त्वमस्यादिलक्ष्यम् |
एकं नित्यं विमलमचलं सर्वधीसाक्षिभूतं
भावातीतं त्रिगुणरहितं सद्गुरुं तं नमामि ||"
"वायुर्यमोऽग्निर्वरुणः शशाङ्कः प्रजापतिस्त्वं प्रपितामहश्च |
नमो नमस्तेऽस्तु सहस्रकृत्वः पुनश्च भूयोऽपि नमो नमस्ते ||
नमः पुरस्तादथ पृष्ठतस्ते नमोऽस्तु ते सर्वत एव सर्व |
अनन्तवीर्यामितविक्रमस्त्वं सर्वं समाप्नोषि ततोऽसि सर्वः ||"
"ऊँ सहनाववतु सहनौभुनक्तु सहवीर्यं करवावहै| तेजस्विना वधीतमस्तु मां विद्विषावहै || ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ||"
गुरु ॐ गुरु ॐ गुरु ॐ गुरु ॐ गुरु ॐ गुरु ॐ गुरु ॐ !!
जय गुरु !!
१६ जुलाई २०२०

मैं और मेरे परम मित्र जीसस क्राइस्ट ---

 

(पुनर्प्रस्तुत). मैं और मेरे परम मित्र जीसस क्राइस्ट ---  (भाग 2) 
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यह किसी की निंदा या आलोचना नहीं हृदय की एक भावना व अनुभूति मात्र है| मेरी इन पंक्तियों से किसी की भावनाएँ आहत नहीं होनी चाहियें| मैं एक निष्ठावान हिन्दू हूँ पर किशोरावस्था से अब तक मैं जीसस क्राइस्ट का प्रशंसक भी रहा हूँ| जीसस की महिमा में मैंने फेसबुक पर तीन-चार लेख भी लिखे हैं| किशोरावस्था में ही न्यू टेस्टामेंट के सारे उपलब्ध चारों गोस्पेल पढ़ लिए थे, ओल्ड टेस्टामेंट तो बहुत बाद में पढ़ा| पर मैं कभी भी ईसाई पंथ से प्रभावित नहीं हुआ| जिस तरह से ईसाई धर्म-प्रचारकों ने भारत में व समस्त विश्व में छल-कपट वअत्याचार किये उससे मुझे इस पंथ में कोई खूबी दृष्टिगत नहीं हुई| इसे मैं क्रिस्चियनिटी नहीं बल्कि चर्चियनिटी मानता हूँ| पर जीसस से मित्रता बनी रही क्योंकि मेरी दृष्टी में उन्होंने भारत में अध्ययन कर के मूल रूप से सनातन धर्म की शिक्षाओं का ही प्रचार किया था|
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आरम्भ में भारत से जितने भी सन्यासी हिन्दू धर्मप्रचार के लिए अमेरिका गए उन्हें अपनी बात कहने के लिए जीसस क्राइस्ट का सहारा लेना ही पड़ा, अन्यथा वहाँ उनकी बात कोई नहीं सुनता| यह एक तरह की मार्केटिंग थी| ओशो उर्फ़ आचार्य रजनीश ने अमेरिका में पहली बार खुलकर जीसस की आलोचना की तो उन्हें बहुत बुरी तरह अपमानित व प्रताड़ित कर के अमेरिका से भगा दिया गया| किसी भी अन्य देश ने उन्हें शरण नहीं दी, और बाध्य होकर उन्हें बापस भारत लौटना ही पड़ा|
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सन १९८२ ई.में मैंने नीदरलैंड से एक धातु की मूर्ति खरीदी थी जिसमें जीसस क्राइस्ट क्रॉस पर लटके हुए हैं| भारत के कई हिन्दू आश्रमों में भगवान श्री कृष्ण के साथ साथ जीसस क्राइस्ट का चित्र भी आपको पूजा की वेदी पर मिल जाएगा| रामकृष्ण मिशन के आश्रमों में तो माँ काली की मूर्ति के साथ मदर टेरेसा का चित्र लगा देखकर मैं बहुत अधिक आहत भी हुआ हूँ| यह पश्चिमी संस्कृति का भारत पर प्रभाव है|
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लेकिन आजकल मुझे अनुभूत हो रहा है कि जीसस क्राइस्ट एक काल्पनिक चरित्र हैं, जिनको सेंट पॉल नाम के एक पादरी ने परियोजित किया| इनकी कल्पना सेंट पॉल के दिमाग की उपज थी जो बाद में एक राजनीतिक व्यवस्था बन गयी| यूरोप के शासकों ने अपने उपनिवेशों व साम्राज्य का विस्तार करने के लिए ईसाईयत का प्रयोग किया| उनकी सेना का अग्रिम अंग चर्च होता था| रोम के सम्राट कांस्टेंटाइन द ग्रेट ने अपने साम्राज्य के विस्तार के लिए ईसाईयत का सबसे आक्रामक प्रयोग किया| कांस्टेंटिनोपल यानि कुस्तुन्तुनिया उसी ने बसाया था जो आजकल इस्तांबूल के नाम से जाना जाता है| यूरोप का सब से बड़ा धर्मयुद्ध (ईसाइयों व मुसलमानों के मध्य) वहीं लड़ा गया था| कांस्टेंटाइन द ग्रेट एक सूर्योपासक था इसलिए उसी ने रविवार को छुट्टी की व्यवस्था की| उसी ने यह तय किया कि जीसस क्राइस्ट का जन्म २५ दिसंबर को हुआ, क्योंकी उन दिनों उत्तरी गोलार्ध में सबसे छोटा दिन २४ दिसंबर को होता था, और २५ दिसंबर को सबसे पहिला बड़ा दिन होता था| आश्चर्य की बात यह है कि ईसाई पंथ का यह सबसे बड़ा प्रचारक स्वयं ईसाई नहीं बल्कि एक सूर्योपासक था| अपने साम्राज्य के विस्तार के लिए उसने ईसाईयत का उपयोग किया| मृत्यु शैय्या पर जब वह मर रहा था तब पादरियों ने बलात् उसका बपतिस्मा कर के उसे ईसाई बना दिया|
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ये मेरे व्यक्तिगत विचार हैं जिनसे किसी को आहत नहीं होना चाहिए| मुझे तो यही अनुभूत होता है कि जीसस क्राइस्ट का कभी जन्म ही नहीं हुआ था, और उनके बारे में लिखी गयी सारी कथाएँ काल्पनिक हैं| उनके जन्म का कोई प्रमाण नहीं है| यदि वे थे भी तो उनकी मूल शिक्षाएँ भगवान श्रीकृष्ण की ही शिक्षाएँ थीं|
ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२३ मार्च २०१९
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पुनश्चः :----
जीसस क्राइस्ट के नाम पर ही योरोपीय साम्राज्य विस्तार के लिए वेटिकन के आदेश से वास्कोडिगामा को यूरोप के पूर्व में, और कोलंबस को पश्चिम में भेजा गया था|
यूरोप से गए ईसाईयों ने ही दोनों अमेरिकी महाद्वीपों के प्रायः सभी करोड़ों मनुष्यों की ह्त्या कर के वहाँ योरोपीय लोगों को बसा दिया| वहां के जो बचे-खुचे मूल निवासी थे उन्हें बड़ी भयानक यातनाएँ देकर ईसाई बना दिया गया| कालान्तर में यही काम ऑस्ट्रेलिया व न्यूजीलैंड में किया गया|
ईसाई पुर्तगालियों ने यही काम गोवा में किया| गोवा में यदि कुछ हिन्दू बचे हैं तो वे भगवान की कृपा से ही बचे हैं| ईसाई अंग्रेजों ने भी चाहा था सभी भारतवासियों की ह्त्या कर यहाँ सिर्फ अंग्रेजों को ही बसा देना| पर भगवान की यह भारत पर कृपा थी कि अंग्रेजों को इस कार्य में सफलता नहीं मिली| मुस्लिम शासकों ने अत्याचार करना ईसाई प्रचारकों से ही सीखा| ईसाइयों ने जितने अत्याचार और छल-कपट किया है उतना तो ज्ञात इतिहास में किसी ने भी नहीं किया|
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उपरोक्त लेख पर प्रख्यात वैदिक विद्वान श्री अरुण उपाध्याय की टिप्पणी :---
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"भगवान् कृष्ण के जीवन की कुछ कथाओं की नकल ईसा की कहानी में है। स्वयं कृष्ट (Christ) शब्द कृष्ण का अपभ्रंश है। उत्तरी गोलार्द्ध में मार्गशीर्ष मास में सबसे बड़ी रात होती है अतः इसे कृष्ण-मास कहते थे-मासानां मार्गशीर्षोऽहं (गीता, अध्याय १०)। कृष्णमास से क्रिसमस हुआ है। ४६ ईपू में जूलियस सीजर ने मिस्र के ज्योतिषियों की सलाह पर उत्तरायण आरम्भ से वर्ष आरम्भ करने का आदेश दिया। भारत में उस समय दिव्य दिन का आरम्भ होता है-इसका अनुवाद बड़ा दिन हो गया है। पर स्वयं सीजर के राज्य में लोगों ने उसका आदेश नहीं मान कर विक्रम संवत् १० के पौष मास के आरम्भ से उत्तरायण के ७ दिन बाद वर्ष आरम्भ किया। आदेश के अनुसार जो तिथि १ जनवरी होनी थी वह २५ दिसम्बर हो गयी तथा उसे दिव्य (बड़ा) दिन या कृष्णमास (Christmas) कहा गया। भगवान् कृष्ण द्वारा कंस की मृत्यु की भविष्यवाणी थी, अतः कृष्ण होने के सन्देह में कंस ने ब्रज के सभी नवजात शिशुओं की हत्या करवा दी थी। यही कहानी ईसा मसीह के समय के राजा हेरोद के बारे में बनायी गयी, यद्यपि हेरोद के लिये ऐसा कोई कारण नहीं था। ईसा को जिस समय शूली पर चढ़ाने की कथा है, उस समय वहाँ रोमन शासन था तथा हेरोद की बहुत पहले मृत्यु हो चुकी थी।"
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Note :---
श्री अरुण उपाध्याय जी से परिचय तो फेसबुक पर ही हुआ था, पर इन से सबसे पहली व्यक्तिगत भेंट जोधपुर के शंकराचार्य मठ (जो कांची कामकोटी पीठ से जुड़ा हुआ है) में हुई थी जहाँ हम दोनों ही दंडी स्वामी मृगेंद्र सरस्वती जी से मिलने आये हुए थे| इनसे दूसरी भेंट भुवनेश्वर में इनके निवास पर ही हुई| उस दिन वहाँ एक हड़ताल थी जिसके कारण कोई भी वाहन सड़क पर नहीं चल रहा था| पर भुवनेश्वर के एक युवा उद्योगपति श्री विवेक टीबड़ेवाल अपनी कार में कैसे भी जोखिम लेकर मुझे इनके घर तक छोड़ आये| बापस आने के लिए इन्होनें व्यवस्था कर दी थी| लगभग डेढ़ घंटों तक इनसे हुई वार्ता बहुत अधिक लाभदायी थी| इनसे हुई उपरोक्त दोनों भेंटों को मैं एक उपलब्धि मानता हूँ|

योग की परम श्रेष्ठ विधि ---

 योग की परम श्रेष्ठ विधि ---

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जिसे हम मनोरंजन कहते हैं, वह भगवान की आज्ञा का उल्लंघन, और नर्क का द्वार है, क्योंकि वह सिर्फ वासनाओं का चिंतन है। गीता में तो भगवान हम से हमारा मन मांगते हैं (यानि मनोनिग्रह का आदेश देते हैं) --
"शनैः शनैरुपरमेद् बुद्ध्या धृतिगृहीतया। आत्मसंस्थं मनः कृत्वा न किञ्चिदपि चिन्तयेत् ॥६:२५॥"
अर्थात् -- "शनै: शनै: धैर्ययुक्त बुद्धि के द्वारा (योगी) उपरामता (शांति) को प्राप्त होवे; मन को आत्मा में स्थित करके फिर अन्य कुछ भी चिन्तन न करे॥"
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यही उपासना है और यही साधना है। भाष्यकार भगवान आचार्य शंकर ने इसे --"एष योगस्य परमो विधिः" अर्थात्य "योग की परम श्रेष्ठ विधि" बताया है। वे कहते हैं -- शनैः शनैः अर्थात् सहसा नहीं, क्रम-क्रम से, धैर्ययुक्त बुद्धि द्वारा, उपरति (शांति) को प्राप्त कर, मन को आत्मा में स्थित करके, यानि यह सब कुछ आत्मा ही है, उस से अतिरिक्त अन्य कुछ भी नहीं है। इस प्रकार मन को आत्मा में अचल करके अन्य किसी भी वस्तु का चिन्तन न करे। यह योगकी परम श्रेष्ठ विधि है।
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कर्ताभाव को त्याग कर, एक निमित्त मात्र बन कर, भगवान को समर्पित होना पड़ेगा, क्योंकि -- "मुमुक्षुत्व और फलार्थित्व" -- दोनों साथ साथ नहीं हो सकते। जब मुमुक्षुत्व जागृत होता है तब शनैः शनैः कर्ताभाव और सब कामनाएँ नष्ट होने लगती हैं। भगवान ने जिसे "आत्मा" कहा है, वह आत्म-तत्व है, जिसे एक ब्रहमनिष्ठ श्रौत्रीय सिद्ध आचार्य ही एक नए साधक को समझा सकता है।
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मैं आप सब का सेवक और आप सब के चरणों की धूल हूँ। आप सब को नमन करता हूँ। ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
३१ मई २०२१

जो और जैसी बात अंतर्प्रज्ञा यानि अंतर्चेतना में सही लगे वही बात बोलनी चाहिए, अन्यथा मौन रहना ही अच्छा है ---

 जो और जैसी बात अंतर्प्रज्ञा यानि अंतर्चेतना में सही लगे वही बात बोलनी चाहिए, अन्यथा मौन रहना ही अच्छा है ---

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अंतर्चेतना में भगवान की जो छवि मेरे समक्ष है, वह इस जीवनकाल में ही नहीं, अनंतकाल तक बनी रहे, और यह पृथक अस्तित्व भी उसी में विलीन हो जाये। यह कोई कामना नहीं बल्कि हृदय की गहनतम अभीप्सा है। सब कुछ तो "वे" ही हैं।
भगवान कहते हैं ---
"शनैः शनैरुपरमेद् बुद्ध्या धृतिगृहीतया।
आत्मसंस्थं मनः कृत्वा न किञ्चिदपि चिन्तयेत् ॥६:२५॥"
अर्थात् -- शनै शनै धैर्ययुक्त बुद्धि के द्वारा उपरामता (शांति) को प्राप्त होवे। मन को आत्मा में स्थित करके फिर अन्य कुछ भी चिन्तन न करे॥
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शनैः शनैः धैर्ययुक्त बुद्धि द्वारा मन को आत्मा में स्थित करके अर्थात् यह सब कुछ आत्मा ही है उससे अतिरिक्त अन्य कुछ भी नहीं है, इस प्रकार मन को आत्मामें अचल करके अन्य किसी भी वस्तु का चिन्तन न करे।
मुमुक्षुत्व और फलार्थित्व -- दोनों साथ साथ नहीं हो सकते। जब मुमुक्षुत्व जागृत होता है तब शनैः शनैः सब कामनाएँ नष्ट होने लगती हैं, क्योंकि तब कर्ताभाव ही समाप्त हो जाता है।
भगवान कहते हैं ---
"ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम्।
मम वर्त्मानुवर्तन्ते मनुष्याः पार्थ सर्वशः॥४:११॥"
अर्थात् -- जो मुझे जैसे भजते हैं मैं उन पर वैसे ही अनुग्रह करता हूँ। हे पार्थ सभी मनुष्य सब प्रकार से मेरे ही मार्ग का अनुवर्तन करते हैं॥
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जहाँ राग-द्वेष और अहंकार है वहाँ आत्मभाव नहीं हो सकता। जो भगवान के लिए व्याकुल हैं, भगवान भी उन के लिए व्याकुल हैं|
भगवान् कहते हैं ---
"सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज।
अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः॥१८:६६॥"
अर्थात् सब धर्मों का परित्याग करके तुम एक मेरी ही शरण में आओ। मैं तुम्हें समस्त पापों से मुक्त कर दूँगा, तुम शोक मत करो।
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हम सब तरह की चिंताओं को त्याग कर भगवान में ही स्थित हो जाएँ, यही गुरु महाराज की शिक्षाओं का भी सार है।
ॐ तत्सत् !! ॐ नमो भगवते वासुदेवाय !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२७ मई २०२१

"मनुष्य नाम की एक जाति ने कुछ लाख वर्ष तक इस पृथ्वी ग्रह पर निवास और राज्य किया था, फिर अपने लोभ और अहंकार के कारण वह जाति उसी तरह नष्ट हो गई जैसे कभी डायनासोर हुए थे।" ---

"मनुष्य नाम की एक जाति ने कुछ लाख वर्ष तक इस पृथ्वी ग्रह पर निवास और राज्य किया था, फिर अपने लोभ और अहंकार के कारण वह जाति उसी तरह नष्ट हो गई जैसे कभी डायनासोर हुए थे।" ---

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यह हो सकता है भविष्य में पृथ्वी पर राज्य करने वाली किसी मनुष्येतर अन्य जाति के इतिहास में पढ़ाया जाये। जिस तरह पृथ्वी पर कभी डायनासोर रहते थे, उन्हीं का राज्य था, फिर वे लुप्त हो गए। वैसे ही मनुष्य जाति भी लुप्त हो सकती है। हमारे से अधिक उन्नत दूसरे विज्ञानमय लोकों के प्राणी हैं, वे भी आकर इस पृथ्वी पर अधिकार और राज्य कर सकते हैं। मुझे कभी-कभी कुछ ऐसा लगता भी है।
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सन २०३० ई. से पेट्रोलियम तेल के कुएँ बहुत तेजी से सूखने आरंभ हो जाएँगे। तेल की कीमत अप्रत्याशित तरीके से बढ़ने लगेगी। इस बीच बचे-खुचे तेल पर अधिकार के लिए महाशक्तियाँ आपस में एक दूसरे से घातक युद्ध करेंगी। उनके बीच हुए युद्धों में ही अधिकांश मनुष्य जाति नष्ट हो जाएगी। वर्तमान पेट्रोलियम तेल उत्पादक देश तो जल कर भस्म हो जाएँगे।
अमेरिका और रूस आजकल अरब देशों में इतना हस्तक्षेप क्यों कर रहे हैं? उनका उद्देश्य तेल की लूट ही है।
सन २०५० ई. तक पृथ्वी से पेट्रोलियम तेल पूरी तरह समाप्त हो जाएगा। पता नहीं फिर ऊर्जा का मुख्य स्त्रोत क्या होगा?
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अब तो सूचना प्रोद्योगिकी इतनी विकसित हो चुकी है कि पृथ्वी पर कहीं कुछ भी होता है तो तुरंत पता चल जाता है। वह जमाना लौट कर बापस नहीं आ सकता जब लाखों लुटेरे आते थे, और अनेक सभ्यताओं को नष्ट कर करोड़ों लोगों का नर-संहार और लूट कर चले जाते थे। उन्होने ऐसे पंथ भी बना लिए थे जो उनके आक्रमण की भूमिका तैयार करते, और उनके अनैतिक राज्य को कायम भी रखते। सारी सूचना प्रोद्योगिकी -- उपग्रहों की संचार व्यवस्था पर निर्भर है। उपग्रहों को नष्ट कर दिये जाने की स्थिति में वह भी धराशायी हो जाएगी।
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वर्तमान विकास काल में सत्य तो अब छिपाया नहीं जा सकेगा। जब सत्य का बोध होगा तो मनुष्य के सोच-विचार भी बदलेंगे। अगले बीस वर्षों के बाद का युग दूसरा ही होगा। हमारे से अधिक उन्नत और सत्यनिष्ठ दूसरे विज्ञानमय लोकों के मनुष्य जैसे ही लगते प्राणी भी आकर पृथ्वी पर अधिकार और राज्य कर सकते हैं। वैसे भी अब समय आ गया है कि इस पृथ्वी पर से झूठ-कपट व अधर्म का राज्य समाप्त हो, और धर्म की पुनर्प्रतिष्ठा हो। भगवान किसी न किसी रूप में तो यह काम करेंगे ही। मनुष्य जाति अपने उद्देश्य में विफल रही है। मनुष्यों की स्वयं से ही आस्था समाप्त हो रही है।
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चीनियों की सोच है कि इस पृथ्वी पर से उनके अतिरिक्त अन्य सब लोग नष्ट हो जायें, सिर्फ चीनी ही बचें। इसीलिए उन्होने विश्व के अन्य सभी देशों को नष्ट करने के लिए जैविक अस्त्र के रूप में विषाणुओं को फैलाया जिन से कोरोना महामारी फैली और लाखों लोग मरे। ऐसी ही सोच जिहादियों, क्रूसेडरों और अन्य भी अनेक गोपनीय पश्चिमी दानव समाजों की है, जो चाहते हैं कि सिर्फ उन्हीं के आदमी जीवित रहें, बाकी के या तो नष्ट हो जाएँ या गुलाम होकर रहें। विश्व में इतने सारे रासायनिक और नाभिकीय आणविक अस्त्र है जो इस पृथ्वी ग्रह को सैंकड़ों बार नष्ट कर सकते हैं। उनका प्रयोग जब होगा तब शायद ही कोई मनुष्य इस पृथ्वी पर जीवित बचे। बड़े भयानक युद्ध हो सकते हैं, पृथ्वी के संसाधनों पर अधिकार के लिए, जिनसे मनुष्य जाति पूरी तरह नष्ट हो सकती है।
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मेरी बात को लोग अभी तो एक गल्प समझेंगे, लेकिन इसके घटित होने की पूरी संभावना है। वह दिन देखने के लिए मैं जीवित नहीं रहूँगा, पर यह दृश्य सूक्ष्म जगत से अवश्य देखूंगा।
२५ मई २०२१

भारत में निश्चित रूप से धर्म की पुनर्स्थापना व वैश्वीकरण होगा, और अधर्म का नाश होगा ---

कोई माने या न माने, लेकिन यह परम सत्य है कि --- भारत में निश्चित रूप से धर्म की पुनर्स्थापना व वैश्वीकरण होगा, और अधर्म का नाश होगा। दुष्ट प्रकृति के लोगों का विनाश और सज्जनों की रक्षा होगी। भारत का सत्य व धर्मनिष्ठ अखंड आध्यात्मिक राष्ट्र बनना भी तय है। सनातन धर्म ही यहाँ की राजनीति होगी। असत्य और अंधकार की शक्तियों का पराभव होगा। हमारे जीवन में चाहे कितने भी अभाव और छिद्र हों, उनकी पूर्ति परमात्मा करेंगे।

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भगवान की पूर्ण कृपा होगी, अवश्य होगी, लेकिन यह तभी होगी जब हम अपने सारे राग-द्वेष, लोभ-अहंकार, व दंभ का उन्हें पूर्ण समर्पण कर देंगे। भगवान को भी हमारी -- सत्यनिष्ठा, स्थितप्रज्ञता, वीतरागता, और परमप्रेम -- अच्छे लगते हैं। ये गुण जिनमें हैं, वे इस पृथ्वी पर चलते-फिरते देवता है। पृथ्वी इनको पाकर सनाथ है, जहाँ भी इनके पैर पड़ते हैं, वह भूमि पवित्र और धन्य हो जाती है। ऐसे लोगों की सात पीढ़ियाँ स्वतः ही मुक्त हो जाती हैं।
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जिनमें छल, झूठ, कपट, और दंभ भरा पड़ा है वे कालनेमी इस पृथ्वी पर नर-पिशाच और राक्षस हैं। उन के दर्शन हो जाना भी पाप है। भगवान ऐसे दुष्ट असुरों से हमारी रक्षा करें। दुष्ट प्रकृति के लोग स्वयम् तो नर्कगामी होते ही हैं, अपनी सात पीढ़ियों व कुल को भी नर्क में ले जाते हैं।
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जहाँ पर भगवान हैं, वहाँ पर कोई अभाव और छिद्र नहीं रह सकता, पूर्णता ही पूर्णता होगी। भगवान की पसंद ही हमारी पसंद होनी चाहिए। अब और विलंब न करें। अलंकारिक शब्दजाल में न फँसें। भगवान की परम कृपा हमारी रक्षा कर सकती है, अन्यथा यह असंभव है। पात्रता होने पर भगवान स्वयं अपने भक्तों का मार्गदर्शन करते हैं।
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ॐ तत्सत् !!
कृपा शंकर
२५ मई २०२१

हम किसकी उपासना करें ? ---

 हम किसकी उपासना करें ? ---

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इस विषय को भगवान श्रीकृष्ण ने गीता के १२वें अध्याय 'भक्ति-योग' में जितनी अच्छी तरह से समझाया है, उतना स्पष्ट अन्यत्र कहीं भी नहीं मिलेगा। सिर्फ समझने की आवश्यकता है। हम इसे इसलिये नहीं समझ नहीं पाते क्योंकि हमारे मन में भक्ति नहीं, व्यापार है। भगवान हमारे लिए एक साधन हैं; जिनके माध्यम से हम हमारे साध्य -- रुपया-पैसा, धन-संपत्ति, यश और इंद्रिय-सुखों को प्राप्त करना चाहते हैं। भगवान को हमने उपयोगिता का एक साधन बना लिया है, इसलिए भगवान का नाम हम दूसरों को ठगने के लिये लेते हैं। वास्तव में हम स्वयं को ही ठग रहे हैं। हमें भगवान की प्राप्ति नहीं होती इसका एकमात्र कारण "सत्यनिष्ठा का अभाव" है। अन्य कोई कारण नहीं है।
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हमारा लक्ष्य यानि साध्य तो भगवान स्वयं ही हों। भगवान कहते हैं ---
"मय्यावेश्य मनो ये मां नित्ययुक्ता उपासते।
श्रद्धया परयोपेतास्ते मे युक्ततमा मताः॥१२:२॥"
"ये त्वक्षरमनिर्देश्यमव्यक्तं पर्युपासते।
सर्वत्रगमचिन्त्यं च कूटस्थमचलं ध्रुवम्॥१२:३॥"
"संनियम्येन्द्रियग्रामं सर्वत्र समबुद्धयः।
ते प्राप्नुवन्ति मामेव सर्वभूतहिते रताः॥१२:४॥"
अर्थात् -- "मुझमें मन को एकाग्र करके नित्ययुक्त हुए जो भक्तजन परम श्रद्धा से युक्त होकर मेरी उपासना करते हैं, वे, मेरे मत से, युक्ततम हैं अर्थात् श्रेष्ठ हैं॥"
"परन्तु जो भक्त अक्षर ,अनिर्देश्य, अव्यक्त, सर्वगत, अचिन्त्य, कूटस्थ, अचल और ध्रुव की उपासना करते हैं॥"
"इन्द्रिय समुदाय को सम्यक् प्रकार से नियमित करके, सर्वत्र समभाव वाले, भूतमात्र के हित में रत वे भक्त मुझे ही प्राप्त होते हैं॥"
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इस से पहिले भगवान ११वें अध्याय के ५५वें श्लोक में भगवान कह चुके हैं ---
"मत्कर्मकृन्मत्परमो मद्भक्तः सङ्गवर्जितः।
निर्वैरः सर्वभूतेषु यः स मामेति पाण्डव॥११:५५॥"
अर्थात् -- "हे पाण्डव! जो पुरुष मेरे लिए ही कर्म करने वाला है, और मुझे ही परम लक्ष्य मानता है, जो मेरा भक्त है तथा संगरहित है, जो भूतमात्र के प्रति निर्वैर है, वह मुझे प्राप्त होता है॥"
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गुरु के उपदेश व आदेशानुसार योगमार्ग के साधक कूटस्थ में भगवान का ध्यान पूर्ण भक्ति से करते हैं। निराकार तो कुछ भी नहीं है। जिसकी भी सृष्टि हुई है, वह साकार है। उपासना साकार की ही हो सकती है। पूरी तरह समझकर अध्याय १२ (भक्तियोग) का खूब स्वाध्याय और ध्यान करें। मन में छाया असत्य का सारा अंधकार दूर होने लगेगा।
ॐ तत्सत् !! ॐ नमो भगवते वासुदेवाय !!
कृपा शंकर
२२ मई २०२१

आज्ञाचक्र से ऊपर का भाग -- अवधान का भूखा है ---

 (संशोधित व पुनर्प्रस्तुत).

आज्ञाचक्र से ऊपर का भाग -- अवधान का भूखा है ---
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कमर सीधी हो, और ठुड्डी -- भूमि के समानान्तर हो तो भ्रूमध्य के ठीक सामने पीछे की ओर खोपड़ी में आज्ञाचक्र है, जहाँ मेरुशीर्ष (Medulla) में मेरुदंड की सभी नसें मस्तिष्क से मिलती हैं। दोनों कानों के मध्य खोपड़ी के ऊपर की ओर, मध्य का स्थान ब्रह्मरंध्र है, वहीं सहस्त्रार है। मानसिक भटकाव से मुक्ति के लिए हमें अपनी चेतना को सदा आज्ञाचक्र से ऊपर रखने और परमात्मा के ध्यान का नित्य नियमित अभ्यास करना होगा। सारी सांसारिक व्यस्तताओं के मध्य, जब भी याद आये, अपनी चेतना को आज्ञाचक्र और सहस्त्रार के मध्य परा-सुषुम्ना में ले आयें, और वहीं पर केन्द्रित होकर सारे कार्य करें। जब भूल जायें, तब याद आते ही फिर परा-सुषुम्ना में आ जायें। योगियों के लिए आज्ञाचक्र ही उन का आध्यात्मिक हृदय है, जहाँ पर जीवात्मा का निवास है। इसके थोड़ा सा ऊपर ही शिखा बिंदु है जहाँ शिखा रखते हैं।
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गुरु की आज्ञा से शिवनेत्र होकर यानि बिना किसी तनाव के दोनों नेत्रों के गोलकों को नासिकामूल के समीपतम लाकर, भ्रूमध्य में दृष्टी, और आज्ञाचक्र में चेतना को स्थिर कर, खेचरी या अर्ध-खेचरी मुद्रा में प्रणव यानि ओंकार की ध्वनि को अपने अंतर में सुनते हुए उसी में लिपटी हुई सर्वव्यापी ज्योतिर्मय अंतर्रात्मा का ध्यान-चिंतन नित्य नियमित करना चाहिये। गुरुकृपा से कुछ महिनों या वर्षों की साधना के पश्चात् विद्युत् की चमक के समान देदीप्यमान ब्रह्मज्योति ध्यान में प्रकट होती है। यह ब्रह्मज्योति और प्रणव की ध्वनि दोनों ही आज्ञाचक्र में प्रकट होती हैं, लेकिन इस ज्योति के दर्शन भ्रूमध्य में प्रतिबिंबित होते हैं, इसलिए गुरु महाराज आरंभ में सदा भ्रूमध्य में ध्यान करने की आज्ञा देते हैं। ब्रह्मज्योति का प्रत्यक्ष साक्षात्कार करने के पश्चात् उसी की चेतना में सदा रहें। यह ब्रह्मज्योति अविनाशी है, इसका कभी नाश नहीं होता। लघुत्तम जीव से लेकर ब्रह्मा तक का नाश हो सकता है पर इस ज्योतिर्मय ब्रह्म का कभी नाश नहीं होता। यही कूटस्थ है, और इसकी चेतना ही कूटस्थ चैतन्य है। यह योगमार्ग की उच्चतम उपलब्धियों में से एक है।
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कूटस्थ में परमात्मा सदा हमारे साथ हैं। हम सदा कूटस्थ चैतन्य में रहें। कूटस्थ में समर्पित होने पर गीता में बताई हुई ब्राह्मी स्थिति प्राप्त होती है, जिसमें हमारी चेतना परम प्रेममय होकर समष्टि के साथ एक हो जाती है। हम फिर परमात्मा के साथ एक हो जाते हैं। परमात्मा सब गुरुओं के गुरु हैं। उनसे प्रेम करो, सारे रहस्य अनावृत हो जाएँगे। हम भिक्षुक नहीं हैं, परमात्मा के अमृत पुत्र हैं। एक भिखारी को भिखारी का ही भाग मिलता है, पुत्र को पुत्र का। पुत्र के सब दोषों को पिता क्षमा तो कर ही देते हैं, साथ साथ अच्छे गुण कैसे आयें इसकी व्यवस्था भी कर ही देते हैं।
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भगवान गीता में कहते हैं ---
"प्रयाणकाले मनसाचलेन भक्त्या युक्तो योगबलेन चैव।
भ्रुवोर्मध्ये प्राणमावेश्य सम्यक् स तं परं पुरुषमुपैतिदिव्यं॥१८:१०॥"
अर्थात भक्तियुक्त पुरुष अंतकाल में योगबल से भृकुटी के मध्य में प्राण को अच्छी प्रकार स्थापित कर के, फिर निश्छल मन से स्मरण करता हुआ उस दिव्य रूप परम पुरुष को ही प्राप्त होता है।
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आगे भगवान कहते हैं ---
"सर्वद्वाराणि संयम्य मनो हृदि निरुध्य च। मूर्ध्न्याधायात्मनः प्राणमास्थितो योगधारणाम् ॥१८:१२॥"
"ओमित्येकाक्षरं ब्रह्म व्याहरन्मामनुस्मरन्। यः प्रयाति त्यजन्देहं स याति परमां गतिम्॥१८:१३॥"
अर्थात सब इन्द्रियों के द्वारों को रोककर तथा मन को हृदय में स्थिर कर के फिर उस जीते हुए मन के द्वारा प्राण को मस्तक में स्थापित कर के, योग धारणा में स्थित होकर जो पुरुष 'ॐ' एक अक्षर रूप ब्रह्म को उच्चारण करता हुआ और उसके अर्थस्वरूप मुझ ब्रह्म का चिंतन करता हुआ शरीर को त्याग कर जाता है, वह पुरुष परम गति को प्राप्त होता है।
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पढने में तो यह सौदा बहुत सस्ता और सरल लगता है कि जीवन भर तो मौज मस्ती करेंगे, फिर मरते समय भ्रूमध्य में ध्यान कर के ॐ का जाप कर लेंगे तो भगवान बच कर कहाँ जायेंगे? उनका तो मिलना निश्चित है ही। पर यह सौदा इतना सरल नहीं है। देखने में जितना सरल लगता है उससे हज़ारों गुणा कठिन है। इसके लिए अनेक जन्म जन्मान्तरों तक अभ्यास करना पड़ता है, तब जाकर यह सौदा सफल होता है। यहाँ पर महत्वपूर्ण बात है निश्छल मन से स्मरण करते हुए भृकुटी के मध्य में प्राण को स्थापित करना और ॐकार का निरंतर जाप करना, एक दिन का काम नहीं है। इसके लिए हमें आज से इसी समय से अभ्यास करना होगा। उपरोक्त तथ्य के समर्थन में किसी अन्य प्रमाण की आवश्यकता नहीं है, भगवान का वचन तो है ही, और सारे उपनिषद्, शैवागम और तंत्रागम इसी के समर्थन में भरे पड़े हैं।
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ध्यान का अभ्यास करते करते चेतना सहस्त्रार पर चली जाए तो चिंता न करें। सहस्त्रार तो गुरु महाराज के चरण कमल हैं, कूटस्थ केंद्र भी वहीं चला जाता है। वहाँ स्थिति मिल गयी तो गुरु चरणों में आश्रय मिल गया। चेतना ब्रह्मरंध्र से परे अनंत में भी रहने लगे, तब तो और भी प्रसन्नता की बात है। वह विराटता ही तो विराट पुरुष है। वहाँ दिखाई देने वाली ज्योति भी अवर्णनीय और दिव्यतम है। परमात्मा के प्रेम में मग्न रहें। वहाँ तो परमात्मा ही परमात्मा हैं, न कि हम।
ॐ तत्सत्। ॐ ॐ ॐ॥
कृपा शंकर
२० मई २०२१

जगन्माता के किस रूप की प्रार्थना करें? ---

 जगन्माता के किस रूप की प्रार्थना करें? ---

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सृष्टि को चलाना भगवती जगन्माता का काम है, हमारा नहीं, ऐसी हमारी आस्था है। वे सृष्टि को अपने नियमों के अनुसार चला रही हैं, जिन्हें हम नहीं समझ पाते। यह हमारी कमी है। प्रातः उठते ही सर्वप्रथम प्रणाम, माता को ही करने का मन करता है। माता के किस रूप की प्रार्थना करें? यह पहले समझ में नहीं आता था। लेकिन जब से विचारों में परिपक्क्वता आयी है, सर्वप्रथम प्रणाम इस जन्म की अपनी स्वर्गीय लौकिक माता को ही स्वाभाविक रूप से होता है। मेरे लिए मेरी लौकिक माता साक्षात भगवती थीं, कोई सामान्य मानवी महिला नहीं। उठते ही सर्वप्रथम मानसिक रूप से मैं उनके श्रीचरणों में भगवती के साधना मंत्र "ॐ ह्रीं" से प्रणाम करता हूँ। फिर अपने स्वर्गीय पिता, और ब्रह्मलीन सद्गुरू को उनके श्रीचरणों में "ॐ ऐं" मंत्र से करता हूँ। भगवती के दैवीय सौम्यतम रूप की कल्पना करता हूँ तो भगवती सीता जी का ही विग्रह मेरे समक्ष आता है। फिर भगवती सीता जी के ही श्रीचरणों में मानसिक रूप से रामचरितमानस में दिये मंत्र -- "उद्भव स्थिति संहार कारिणीं क्लेश हारिणीम्, सर्वश्रेयस्करीं सीतां नतोऽहं राम वल्लभाम्" -- से ही होता है। तंत्र की सभी उग्र और सौम्य देवियों का मुझे ज्ञान है, लेकिन उन सब से अधिक सौम्य तो भगवती सीता जी ही हैं। वे ही मेरे हृदय-साम्राज्य पर राज्य करती हैं, और भगवान श्रीराम ही मेरे हृदय के राजा हैं। अन्य किसी का राज्य मुझे स्वीकार्य नहीं है।
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अब रही बात साधना-पद्धतियों और मंत्रों की, तो वे गोपनीय हैं, जिन की चर्चा सार्वजनिक मंचों पर नहीं की जा सकतीं। कर्ता के स्थान पर तो मैं नहीं, ध्यान में भगवान श्रीकृष्ण को ही पाता हूँ। वे स्वयं ही अपने महेश्वर परमशिव रूप का ध्यान करते हैं। मैं तो कहीं पर भी नहीं हूँ, साक्षी रूप में भी नहीं। वे ही एकमात्र कर्ता और भोक्ता हैं।
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जो बातें मैं राजनीति, सामाजिकता, धर्म आदि की करता हूँ, वे सब पूर्व-जन्मों के संस्कारों के कारण हैं। वे भी अब अधिक दिनों तक नहीं रहेंगे। परमात्मा के सिवाय अन्य कुछ भी चेतना में नहीं रहेगा। परमात्मा -- धर्म और अधर्म से भी परे हैं।
ॐ तत्सत् !! ॐ स्वस्ति !!
कृपा शंकर
१८ मई २०२१

भगवान के ध्यान में सदा देह-विहीनता और सर्वव्यापकता के भाव में रहें ---

 भगवान के ध्यान में सदा देह-विहीनता और सर्वव्यापकता के भाव में रहें ---

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जो भी भजन, सत्संग, हरिचर्चा, जप आदि साधना/उपासना हम करते हैं, वह हरिःकृपा से ही संभव हैं। भगवान की कृपा के बिना क्या मजाल कि कोई भगवान का नाम भी ले ले !! भगवान हमें माध्यम बनाकर स्वयं ही स्वयं की उपासना करते हैं। आज प्रातः तीन बजे एक अति अति गहन अनुभूति द्वारा यह पूर्णतः स्पष्ट हो गया।
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पूर्ण भक्ति पूर्वक हमारा भाव सदा यही रहना चाहिये कि भगवान स्वयं ही उपासक, उपास्य और उपासना हैं; वे ही दृष्टा, दृश्य और दृष्टि हैं। हम जब परमशिव और भगवान विष्णु के माहेश्वर तेज का ध्यान करते हैं, तब कर्ता भी भगवान विष्णु को ही बनायें। वे अपना ध्यान स्वयं ही कर रहे हैं। अपनी पृथकता का बोध और अहंभाव उनको पूरी तरह समर्पित कर दें। उनकी कृपा के बिना उनके आंशिक तेज को भी कोई सहन नहीं कर सकता।
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भगवान के ध्यान में सदा देह-विहीनता और सर्वव्यापकता के भाव में रहें।
ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१८ मई २०२१

स्वनामधन्य भाष्यकार भगवान आचार्य शंकर को नमन ---

 स्वनामधन्य भाष्यकार भगवान आचार्य शंकर को नमन

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आज से २५२८ वर्ष, यानि ईसा से ५०७ वर्ष पूर्व वैशाख शुक्ल पंचमी को केरल प्रांत के कालड़ी ग्राम में विश्व की एक महानतम प्रतिभा का जन्म हुआ जो कालांतर में आचार्य शंकर के नाम से प्रसिद्ध हुई। इनके पिता का नाम शिवगुरू तथा माता का नाम आर्याम्बा था। ८ वर्ष की आयु में ओंकारेश्वर के पास नर्मदा तट पर आचार्य गोविंदपाद से कार्तिक शु0 ११ को आपने सन्यास ग्रहण किया। आपके जीवन पर बहुत कुछ लिखा जा चुका है। आप शाक्षात शिव ही थे।
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मनोबुद्धय्हंकार चित्तानि नाहं
श्रोत्रजिव्हे न च घ्राणनेत्रे
न च व्योमभूमिर्न तेजो न वायुः
चिदानन्दरूपः शिवोऽहम् शिवोऽहम ॥1॥
मैं न तो मन हूं‚ न बुद्धि‚ न अहांकार‚ न ही चित्त हूं
मैं न तो कान हूं‚ न जीभ‚ न नासिका‚ न ही नेत्र हूं
मैं न तो आकाश हूं‚ न धरती‚ न अग्नि‚ न ही वायु हूं
मैं तो मात्र शुद्ध चेतना हूं‚ अनादि‚ अनंत हूं‚ अमर हूं।
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न च प्राणसंज्ञो न वै पंचवायुः
न वा सप्तधातुः न वा पंचकोशः
न वाक्पाणिपादं न चोपस्थपायु
चिदानन्दरूपः शिवोऽहम् शिवोऽहम ॥2॥
मैं न प्राण चेतना हूं‚ न ही ह्यशरीर को चलाने वालीहृ पञ्च वायु हूं
मैं न ह्यशरीर का निर्माण करने वालीहृ सात धातुएं हूं‚ और न ही ह्यशरीर केहृ पाँच कोश
मैं न वाणी हूं‚ न हाथ हूं‚ न पैर‚ न ही विसर्जन की इंद्रियां हूं
मैं तो मात्र शुद्ध चेतना हूं‚ अनादि‚ अनंत हूं‚ अमर हूं।
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न मे द्वेषरागौ न मे लोभ मोहौ
मदो नैव मे नैव मात्सर्यभावः
न धर्मो न चार्थोन कामो न मोक्षः
चिदानन्दरूपः शिवोऽहम् शिवोऽहम ॥3॥
न मुझे किसी से वैर है‚ न किसी से प्रेम‚ न मुझे लोभ है‚ न मोह
न मुझे अभिमान है‚ न ईष्र्या
मैं धर्म‚ धन‚ लालसा एवं मोह से परे हूं
मैं तो मात्र शुद्ध चेतना हूं‚ अनादि‚ अनंत हूं‚ अमर हूं।
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न पुण्यं न पापं न सौख्यं न दुःखं
न मन्त्रो न तीर्थो न वेदा न यज्ञः
अहं भोजनं नैव भोज्यं न भोक्ता
चिदानन्दरूपः शिवोऽहम् शिवोऽहम ॥4॥
मैं पुण्य‚ पाप‚ सुख और दुख से विलग हूं
न मैं मंत्र हूं‚ न तीर्थ‚ न ज्ञान‚ न ही यज्ञ
न मैं भोजन हूं‚ न ही भोगने योग्य हूं‚ और न ही भोक्ता हूं
मैं तो मात्र शुद्ध चेतना हूं‚ अनादि‚ अनंत हूं‚ अमर हूं।
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न मे मृत्युशंका न मे जातिभेदः
पिता नैव मे नैव माता न जन्म
न बन्धुर्न मित्रं गुरुर्नैव शिष्यं
चिदानन्दरूपः शिवोऽहम् शिवोऽहम ॥5॥
न मुझे मृत्यु का डर है‚ न जाति का भय
मेरा न कोई पिता है‚ न माता‚ न ही मैं कभी जन्मा था
मेरा न कोई भाई है‚ न मित्र‚ न गुरु‚ न शिष्य
मैं तो मात्र शुद्ध चेतना हूं‚ अनादि‚ अनंत हूं‚ अमर हूं।
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अहं निर्विकल्पो निराकार रूपो
विभुत्वाच्च सर्वत्र सर्वेन्द्रियाणाम्
न चासंगत नैव मुक्तिर्न मेयः
चिदानन्दरूपः शिवोऽहम् शिवोऽहम ॥6॥
मै निर्विकल्प हूं‚ निराकार हूं
मैं विचार विमुक्त हूं‚ और सर्व इंद्रियों से पृथक हूं
न मैं कल्पनीय हूं‚ न आसक्ति हूं‚ न ही मुक्ति हूं
मैं तो मात्र शुद्ध चेतना हूं‚ अनादि‚ अनंत हूं‚ अमर हूं।
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∼ आदि शंकराचार्य
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१७ मई २०२१

वर्तमान क्षण ---

 वर्तमान क्षण ---

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जिस क्षण में हम जी रहे हैं, वह क्षण हमारे जीवन का सर्वश्रेष्ठ और सर्वाधिक महत्वपूर्ण व चुनौतीपूर्ण समय है। इस काल में हम अपना सर्वश्रेष्ठ करें। भगवान का इतना बड़ा ऋण हम सब पर है कि उस से हम कभी भी उऋण नहीं हो सकते, सिर्फ समर्पित ही हो सकते हैं। भगवान की इस से बड़ी कृपा और क्या हो सकती है कि उन्होंने हमें अपना उपकरण बनाया है। वे ही हमारे माध्यम से स्वयं को व्यक्त कर रहे हैं। प्रयासपूर्वक अपनी चेतना सदा आज्ञाचक्र पर या उस से ऊपर ही रखें। आज्ञाचक्र ही हमारा वास्तविक हृदय है। प्रभु के चरण कमल सहस्त्रार हैं। ब्रह्मरंध्र से ऊपर ब्रह्मांड की अनंतता से भी परे हमारा वास्तविक अस्तित्व है, यह देह भी उसी का एक भाग है। हम यह देह नहीं, यह देह हमारे अस्तित्व का एक छोटा सा भाग, और उस अनंतता को पाने का एक साधन मात्र है.
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अपने पूर्ण प्रेम से परमात्मा की इस परम ज्योतिर्मय विराट अनंतता पर ध्यान करें। यही पूर्णता है, यही परमशिव है, यही परब्रह्म है। अपने हृदय का सम्पूर्ण प्रेम उन्हें समर्पित कर दें, कुछ भी बचा कर न रखें। अपना सम्पूर्ण अस्त्तित्व, अपना सब कुछ उन्हें समर्पित कर दें। अभी तो हम अपने प्रारब्ध कर्मों का फल भुगत रहे हैं, लेकिन परमात्मा को समर्पित होते ही सारे संचित कर्म नष्ट हो जाते हैं, और हम मुक्त हो जाते हैं। यही परमगति है।
ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१६ मई २०२१

हम निरंतर अपने आत्म-स्वरूप में रहें ---

 हम निरंतर अपने आत्म-स्वरूप में रहें ---

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यह भाव हर समय बना रहना चाहिए कि परमात्मा निरंतर मेरे साथ एक हैं। वे एक पल के लिए भी मेरे से पृथक नहीं हो सकते। भगवान हैं, यहीं पर हैं, सर्वत्र हैं, इसी समय हैं, सर्वदा हैं, वे ही सब कुछ हैं, और सब कुछ वे ही हैं। वे ही मेरे हृदय में धडक रहे हैं, वे ही इन नासिकाओं से सांसें ले रहे हैं, इन पैरों से वे ही चल रहे हैं, इन हाथों से वे ही हर कार्य कर रहे हैं, इन आँखों से वे ही देख रहे हैं, इस मन और बुद्धि से वे ही सोच रहे हैं, मेरा सम्पूर्ण अस्तित्व वे ही हैं। सारा ब्रह्मांड, सारी सृष्टि वे ही हैं। वे परम विराट और अनंत हैं। मैं तो निमित्त मात्र, उन का एक उपकरण, और उनके साथ एक हूँं। भगवान स्वयं ही मुझे माध्यम बना कर सारा कार्य कर रहे हैं| कर्ता मैं नहीं, स्वयं भगवान हैं। सारी महिमा भगवान की है। भगवान ने जहाँ भी रखा है और जो भी दायित्व दिया है उसे मैं नहीं, स्वयं भगवान ही निभा रहे हैं। वे ही जगन्माता हैं, वे ही परमपुरुष हैं। मैं उन के साथ एक हूँ। कहीं कोई भेद नहीं है।
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जहाँ तक हो सके, हमें अपने सत्य आत्म-स्वरूप का ही ध्यान करना चाहिए। अन्य सब त्याग दें। ज्योतिर्मय ब्रह्म पर ध्यान करते करते, अनंतता और विस्तार की, नाद-श्रवण की, और परमशिव की अनुभूतियाँ होने लगती हैं। यह बुद्धि-जन्य नहीं अपितु अनुभूति-जन्य ज्ञान है। परमशिव ही हमारा सत्य आत्म-स्वरूप है, जिसमें स्थित होते ही हमारे सारे पाप-पुण्य, राग-विराग-द्वेष-अहंकार, संकल्प-विकल्प, इच्छा-अनिच्छा, मोह-तृष्णा, और --- सिद्धि, यश, प्रसिद्धि, मोक्ष और मुक्ति की कामना के सारे बंधन योगाग्नि में भस्म हो जाते हैं।
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“शिवो भूत्वा शिवं यजेत्”– अर्थात् शिव होकर ही शिव की आराधना कीजिये।
आत्मा नित्य मुक्त है, सारे बंधन हमने ही अपने ऊपर अपने अंतःकरण द्वारा थोप रखे हैं। अद्वैत की भावना से इस जगत् का स्वरूप नष्ट हो जाता है। विशुद्ध आत्मा में द्वैत नहीं रहता।
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चित्त वृत्तियों का स्पंदन ही संसार का स्वरूप धारण करता है। चित्त-वृत्तियों का निरोध (नियंत्रण) प्राण-तत्व द्वारा होता है। चित्त के स्पन्दन से ही सांसारिक पदार्थों की अनुभूतियाँ होती हैं। चित्त का स्पंदन प्राण-तत्व के आधीन है। प्राण-तत्व को निरुद्ध करने के लिए ही हम सूक्ष्म प्राणायाम क्रियायोग का अभ्यास करते हैं। हमारा चंचल प्राण ही स्थिर हो जाये तो हमारा संसार, नष्ट हुए के समान है। प्राण-तत्व (कुंडलिनी) को साधते हुए आकाश-तत्व (शिव) का ध्यान करना चाहिए।
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उन्नत साधक को ब्रह्मरंध्र पर और उस से परे भी शिव के विराट स्वरूप का ध्यान करना चाहिए। प्राण-तत्व और आकाश-तत्व की समझ, दो-तीन महीनों की ध्यान-साधना के बाद स्वतः ही स्वयं की अनुभूतियों से आ जाती है। साधना आरंभ करने से पूर्व एक सिद्ध ब्रहमनिष्ठ श्रौत्रीय आचार्य का मार्गदर्शन और सान्निध्य आवश्यक है।
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परमात्मा की सर्वश्रेष्ठ अभिव्यक्तियाँ आप सब को नमन !!
ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
११ मई २०२१

ध्यान अपनी गुरु-परंपरानुसार निमित्त मात्र होकर करें ---

पूर्ण भक्ति और सत्यनिष्ठा से कूटस्थ में ज्योतिर्मय ब्रह्म की अनंतता/सर्व-व्यापकता का अधिकाधिक ध्यान अपनी गुरु-परंपरानुसार निमित्त मात्र होकर करें। अनंतता ही हमारी देह है, यह भौतिक शरीर नहीं। भौतिक शरीर तो एक वाहन/साधन मात्र है, जिस पर हम यह लोकयात्रा कर रहे हैं। ध्यान के समय कमर सीधी रहे, दृष्टिपथ भ्रूमध्य में रहे, और जीभ ऊपर पीछे की ओर मुड़कर तालु से सटी रहे। ऊनी कंबल पर पूर्व या उत्तर दिशा की ओर मुंह कर के बैठें। यदि खेचरी-मुद्रा सिद्ध है, तो खेचरी मुद्रा में ही ध्यान करें।

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ध्यान में चेतना जितनी देर तक इस भौतिक शरीर से बाहर रहेगी, उतनी ही त्वरित प्रगति होगी। साधनाकाल में आवश्यक है -- पवित्रता से बनाया हुआ शुद्ध शाकाहारी सात्विक भोजन, अच्छे आचार-विचार, कुसंग का पूर्णतः त्याग, और पवित्र सात्विक जीवन।
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भगवान श्रीकृष्ण योगेश्वर और जगतगुरु हैं। उन्हीं को अपने जीवन का केंद्रबिंदु व कर्ता बनायें। इस देह को अपना एक उपकरण बनाकर वे ही ध्यान करते हैं। हम तो साक्षी मात्र हैं। भगवान स्वयं ही हंसः योग, लय योग, व क्रिया योग आदि कर रहे हैं। वे स्वयं ही अपना स्मरण हर समय हमारे माध्यम से करते हैं।
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शिव-संहिता में महामुद्रा की विधि दी हुई है। ध्यान से पूर्व महामुद्रा का अभ्यास करें। जब भी थक जाएँ, महामुद्रा का फिर अभ्यास करे। जो योगमार्ग के पथिक हैं, उन्हें श्रीमद्भगवद्गीता, श्वेताश्वतरोपनिषद, शिव-संहिता, योग-दर्शन, घेरण्ड-संहिता, व हठयोग-प्रदीपिका आदि ग्रन्थों का स्वाध्याय अवश्य कर लेना चाहिए। गीता पाठ तो नित्य करें। हर घर में शिव पूजा और गीता पाठ नित्य होना चाहिए। रामायण और महाभारत हरेक घर में अनिवार्य रूप से होनी चाहिये, जिनका स्वाध्याय सब को करना चाहिये। जो समझ सकते हैं, उन्हें उपनिषदों का स्वाध्याय भी करना चाहिये।
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सारे ग्रंथ इंटरनेट पर उपलब्ध हैं, जिन्हें डाउनलोड कर के प्रिंट भी कर सकते हैं। अनेक प्रकाशन हैं और पुस्तकों की अनेक बड़ी-बड़ी दुकानें हैं, जहाँ सारे ग्रंथ बिक्री के लिए उपलब्ध हैं। निःशुल्क तो कुछ भी नहीं है, हर चीज की कीमत चुकानी पड़ती है। भगवान की कृपा भी तभी होती है जब हम अपने हृदय का प्रेम उन्हें अर्पित करते हैं।
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कुछ लोग कहते हैं कि भगवान का ध्यान करते करते मर गए तो क्या होगा?
इसका उत्तर है कि जो नारकीय जीवन तुम जी रहे हो, उस से तो लाख गुणा अच्छा है कि भगवान की स्मृति में तुम्हारी मृत्यु हो जाये। प्रत्येक आत्मा का स्वधर्म है -- परमात्मा को पाने की अभीप्सा। इस स्वधर्म का पालन करते-करते मृत्यु को प्राप्त होना अनेक जन्मों के पुण्यों का फल है। भगवान कहते हैं --
"श्रेयान्स्वधर्मो विगुणः परधर्मात्स्वनुष्ठितात्। स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मो भयावहः॥३:३५॥"
ॐ तत्सत् !! ॐ ऐं गुरवे नमः !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
११ मई २०२१

भगवती छिन्नमस्ता ---

 भगवती छिन्नमस्ता ---

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आज पता नहीं क्यों भगवती छिन्नमस्ता अपनी परम कृपा करते हुए मुझे बार-बार याद आ रही हैं। मेरी चेतना में वे ही छाई हुई हैं। लगता है इसके पीछे कोई न कोई रहस्य है। मैं तो उनका बालक हूँ, वे जो भी काम मुझ अकिंचन से लेना चाहें वह लें, मैं तो एक निमित्त मात्र हूँ। उन का विग्रह बड़ा ही आकर्षक और प्रिय है, जिसे समझने वाले ही समझते हैं। वे स्वयं ही अपने आप आकर मुझ अकिंचन पर अपनी कृपा वर्षा कर रही हैं। उन की महिमा अपार है, जिसका वर्णन करने की सामर्थ्य मुझ अकिंचन में नहीं है। फिर भी अपनी अति अल्प और अति सीमित बुद्धि से प्रयास करता हूँ। कोई त्रुटि हो तो भगवती मुझे क्षमा करें। हे भगवती, तुम्हारी जय हो!!
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भगवती छिन्नमस्ता ने कामदेव और उनकी कामासक्ता धर्मपत्नी रति को एक बड़े पद्म (कमल के फूल) में लिटा रखा है, और दंडायमान होकर उन पर वीर-मुद्रा में खड़ी हैं। भगवती के देह की प्रभा करोड़ों सूर्यों के समान है, लेकिन वे परम मंगलमयी हैं। जो वीर साधक वासनाओं पर विजय पा सकता है, वह ही भगवती की साधना कर सकता है। भगवती के साधक के आसपास किसी तरह की कोई सांसारिक वासना आ भी नहीं सकती, क्योंकि वे परम वैराग्य प्रदान करती हैं।
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वे दिगंबरा हैं, दशों-दिशाएँ उनके वस्त्र हैं। वे सर्वव्यापी हैं। उनके मस्तक में सर्पाबद्ध मणि है, तीन नेत्र हैं और वक्ष स्थल पर कमल की माला है। उनके देह की कान्ति जावा पुष्प की तरह रक्तवर्णा है। उनके दाहिने हाथ में खड़ग है, जिस से उन्होने अपना स्वयं का सिर काट कर बाएँ हाथ में ले रखा है, जिस का मुंह ऊपर की ओर है। अपने साधक का सारा अहंकार भी वे इसी तरह नष्ट कर के उसकी चेतना को ऊर्ध्वमुखी कर देती हैं। वे वेदान्त की मूर्ति हैं।
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उनके धड़ से शोणित की तीन धाराएँ निकल रही हैं। बीच की रुधिर धारा ज्ञान की धारा है, जो सुषुम्ना नाड़ी में जागृत कुंडलिनी महाशक्ति की प्रतीक है। अहंभाव से मुक्त होने पर ही कुंडलिनी, आज्ञाचक्र का भेदन कर सहस्त्रार में प्रवेश करती है। इस ज्ञानधारा का पान वे स्वयं कर रही हैं। यह बताता है कि अपने साधक को वे परमशिव भाव में स्थित कर ही देती हैं।
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बाईं ओर से निकलती हुई रुधिर की धारा, बल की धारा है, जो खंग-खप्पर धारिणी, मायारूपी, कृष्णवर्णा, अति बलशाली, अज्ञसेविका सखी डाकिनी महाशक्ति के मुँह में गिर रही है जो प्रलय काल के समान सम्पूर्ण जगत् का भक्षण करने में समर्थ है, लेकिन ज्ञानशून्य है। इसके तीनों नेत्र बिजली के समान चंचल हैं, हृदय में सर्प विराजमान है, और अत्यधिक भयानक स्वरूप है।
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दाहिनी ओर से निकलती रक्त की धारा क्रिया रूपी है, जो देवी के दाहिने भाग में खड़ी श्वेतवर्णा, खुले केश, कैंची और खप्पर धारण किये, विद्या-साधिका वर्णिनी महाशक्ति के मुँह में गिरती है। यह सखी बड़े उच्च स्तर की साधिका है, जिनके मस्तक में नागमणि सुशोभित है।
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काली, तारा, छिन्नमस्ता, षोडशी, भुवनेश्वरी, त्रिपुर भैरवी, धूमावती, बगलामुखी, मातंगी व कमला --- इन देवियों को दस महाविद्या कहा जाता हैं। इनका संबंध भगवान विष्णु के दस अवतारों से हैं। जैसे भगवान श्रीराम की शक्ति तारा है, भगवान श्रीकृष्ण की शक्ति काली है, वैसे ही भगवान नृसिंह की शक्ति छिन्नमस्ता है। भगवती छिन्नमस्ता और भगवान नृसिंह के बीजमंत्र भी एक हैं।
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जहाँ तक मुझे पता है, भगवती छिन्नमस्ता के मुख्यतः दो ही मंदिर भारत में हैं -- एक तो झारखंड में रामगढ़ के पास राजरप्पा में है, दूसरा हिमाचल प्रदेश के ऊना जिले का प्रसिद्ध चिंत्यपूर्णी मंदिर है।
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दसों महाविद्याओं की उत्पत्ति पंचप्राणों (प्राण, अपान, समान, व्यान और उदान) से होती है। पंचप्राणों के पाँच सौम्य और पाँच उग्र रूप ही दस महाविद्याएँ हैं| ये पंचप्राण ही गणपति गणेश जी के गण हैं, जिनके अधिपती ओंकार रूप में गणपति गणेश जी स्वयं हैं।
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तिब्बत का वज्रयान बौद्धमत -- भगवती छिन्नमस्ता की ही साधना है| वज्रयान का साधना मंत्र है --- "ॐ मणिपद्मे हुं"। "ॐ" -- तो परमात्मा का वाचक है। "हुं" -- भगवती छिन्नमस्ता का बीज मंत्र है। "मणिपद्मे" का अर्थ है --- जो देवी, मणिपुर चक्र के पद्म में निवास करती हैं। अतः "ॐ मणिपद्मे हुं" का अर्थ हुआ -- मैं मणिपुर चक्र के पद्म में स्थित छिन्नमस्ता देवी को नमन करता हूँ। मणिपुर पद्म में ही उनका निवास है। भगवती छिन्नमस्ता सुषुम्ना नाड़ी की उपनाड़ी "वज्रा" में विचरण करती हैं, इसलिए उनके अनुयायी तिब्बत के लामाओं का मत "वज्रयान" कहलाता है। वज्रयान मत के लामा चिंत्यपूर्णि मंदिर में आराधना के लिए खूब आते हैं।
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सुषुम्ना नाड़ी में चित्रा, वज्रा, और ब्राह्मी उपनाड़ियों का रहस्य यह है कि कुंडलिनी महाशक्ति जागृत होकर यदि सुषुम्ना की उपनाड़ी ब्राह्मी में प्रवेश करती हैं तो ब्रह्मज्ञान प्राप्त होता है, वज्रा में सारी सिद्धियाँ प्राप्त होती हैं, और चित्रा में ब्रह्मज्ञान और सिद्धियों के अतिरिक्त अन्य सब कुछ प्राप्त हो जाता है। यह एक गोपनीय विद्या है जिसकी चर्चा सार्वजनिक रूप से करने का निषेध है।
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गुरु गोरखनाथ ने सारी सिद्धियाँ भगवती छिन्नमस्ता से प्राप्त की थीं। अपने एक ग्रंथ (गोरक्ष-पद्धति या गोरक्ष संहिता) )के द्वितीय अध्याय के आरंभ में गुरु गोरखनाथ ने माँ छिन्नमस्ता की बड़ी सुंदर स्तुति लिखी है। छिन्नमस्ता की साधना वैदिक काल से ही है। वैदिक काल में इस साधना का नाम दूसरा था। कभी विस्तार से लिखने कि आज्ञा मिली तब ही और लिख पाऊँगा, अभी तो इतना ही लिखने का आदेश है। ॐ तत्सत् !!
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मैं भगवती छिन्नमस्ता को बारंबार प्रणाम करता हूँ, जिनकी परम कृपा मुझे परमशिव भाव में स्थित कर रही है। भगवती की परम कृपा बनी रहे, और अन्य कुछ भी नहीं चाहिए।
"ॐ श्रीं ह्रीं क्लीं ऐं वज्रवैरोचनीये हुं हुं फट् स्वाहा॥"
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कृपा शंकर
१० मई २०२१