Thursday 15 July 2021

हम निरंतर अपने आत्म-स्वरूप में रहें ---

 हम निरंतर अपने आत्म-स्वरूप में रहें ---

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यह भाव हर समय बना रहना चाहिए कि परमात्मा निरंतर मेरे साथ एक हैं। वे एक पल के लिए भी मेरे से पृथक नहीं हो सकते। भगवान हैं, यहीं पर हैं, सर्वत्र हैं, इसी समय हैं, सर्वदा हैं, वे ही सब कुछ हैं, और सब कुछ वे ही हैं। वे ही मेरे हृदय में धडक रहे हैं, वे ही इन नासिकाओं से सांसें ले रहे हैं, इन पैरों से वे ही चल रहे हैं, इन हाथों से वे ही हर कार्य कर रहे हैं, इन आँखों से वे ही देख रहे हैं, इस मन और बुद्धि से वे ही सोच रहे हैं, मेरा सम्पूर्ण अस्तित्व वे ही हैं। सारा ब्रह्मांड, सारी सृष्टि वे ही हैं। वे परम विराट और अनंत हैं। मैं तो निमित्त मात्र, उन का एक उपकरण, और उनके साथ एक हूँं। भगवान स्वयं ही मुझे माध्यम बना कर सारा कार्य कर रहे हैं| कर्ता मैं नहीं, स्वयं भगवान हैं। सारी महिमा भगवान की है। भगवान ने जहाँ भी रखा है और जो भी दायित्व दिया है उसे मैं नहीं, स्वयं भगवान ही निभा रहे हैं। वे ही जगन्माता हैं, वे ही परमपुरुष हैं। मैं उन के साथ एक हूँ। कहीं कोई भेद नहीं है।
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जहाँ तक हो सके, हमें अपने सत्य आत्म-स्वरूप का ही ध्यान करना चाहिए। अन्य सब त्याग दें। ज्योतिर्मय ब्रह्म पर ध्यान करते करते, अनंतता और विस्तार की, नाद-श्रवण की, और परमशिव की अनुभूतियाँ होने लगती हैं। यह बुद्धि-जन्य नहीं अपितु अनुभूति-जन्य ज्ञान है। परमशिव ही हमारा सत्य आत्म-स्वरूप है, जिसमें स्थित होते ही हमारे सारे पाप-पुण्य, राग-विराग-द्वेष-अहंकार, संकल्प-विकल्प, इच्छा-अनिच्छा, मोह-तृष्णा, और --- सिद्धि, यश, प्रसिद्धि, मोक्ष और मुक्ति की कामना के सारे बंधन योगाग्नि में भस्म हो जाते हैं।
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“शिवो भूत्वा शिवं यजेत्”– अर्थात् शिव होकर ही शिव की आराधना कीजिये।
आत्मा नित्य मुक्त है, सारे बंधन हमने ही अपने ऊपर अपने अंतःकरण द्वारा थोप रखे हैं। अद्वैत की भावना से इस जगत् का स्वरूप नष्ट हो जाता है। विशुद्ध आत्मा में द्वैत नहीं रहता।
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चित्त वृत्तियों का स्पंदन ही संसार का स्वरूप धारण करता है। चित्त-वृत्तियों का निरोध (नियंत्रण) प्राण-तत्व द्वारा होता है। चित्त के स्पन्दन से ही सांसारिक पदार्थों की अनुभूतियाँ होती हैं। चित्त का स्पंदन प्राण-तत्व के आधीन है। प्राण-तत्व को निरुद्ध करने के लिए ही हम सूक्ष्म प्राणायाम क्रियायोग का अभ्यास करते हैं। हमारा चंचल प्राण ही स्थिर हो जाये तो हमारा संसार, नष्ट हुए के समान है। प्राण-तत्व (कुंडलिनी) को साधते हुए आकाश-तत्व (शिव) का ध्यान करना चाहिए।
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उन्नत साधक को ब्रह्मरंध्र पर और उस से परे भी शिव के विराट स्वरूप का ध्यान करना चाहिए। प्राण-तत्व और आकाश-तत्व की समझ, दो-तीन महीनों की ध्यान-साधना के बाद स्वतः ही स्वयं की अनुभूतियों से आ जाती है। साधना आरंभ करने से पूर्व एक सिद्ध ब्रहमनिष्ठ श्रौत्रीय आचार्य का मार्गदर्शन और सान्निध्य आवश्यक है।
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परमात्मा की सर्वश्रेष्ठ अभिव्यक्तियाँ आप सब को नमन !!
ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
११ मई २०२१

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