यज्ञ का अवशिष्ट भोजन क्या है ? उसका आहार कैसे करें ? .....
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यह समझने में थोड़ा जटिल विषय है पर इसे समझना अति आवश्यक है| गीता में भगवान कहते हैं ... "यज्ञशिष्टाशिनः सन्तो मुच्यन्ते सर्वकिल्बिषैः| भुञ्जते ते त्वघं पापा ये पचन्त्यात्मकारणात् || ३:१३||" अर्थात् "यज्ञ के अवशिष्ट अन्न को खाने वाले श्रेष्ठ पुरुष सब पापों से मुक्त हो जाते हैं किन्तु जो लोग केवल स्वयं के लिये ही पकाते हैं वे तो पापों को ही खाते हैं|" अब इस विषय को ठीक से समझा जाए ताकि हम पाप के भागी न बनें|
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विस्तार में न जाकर संक्षेप में कहना चाहूँगा कि हमारे शास्त्रों के अनुसार रसोईघर में भोजन बनाने की प्रक्रिया में प्रमादवश अनायास ही कुछ अशुद्धियाँ और पाँच प्रकार के पाप सब से ही होते हैं| उन के परिमार्जन के लिए पञ्च महायज्ञ करते हैं, जिन से वे दोष दूर हो जाते हैं| ये पञ्च महायज्ञ वेदोक्त है जिनको करने का आदेश यजुर्वेद के शतपथ ब्राह्मण में है, और मनु महाराज ने भी मनुस्मृति में इनको करने का आदेश दिया है|
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भोजन बनाकर देवताओं को भी उनका भाग दें, गाय, कुत्ते व पक्षियों को भी दें, अतिथि को भी भोजन कराएँ, माता-पिता जीवित हैं तो पहले उनको भोजन कराएँ|
फिर गीता के चौथे अध्याय के चौबीसवें मन्त्र ....
"ॐ ब्रह्मार्पणं ब्रह्म हविर्ब्रह्माग्नौ ब्रह्मणा हुतम् ब्रह्मैव तेन गन्तव्यं ब्रह्मकर्मसमाधिना" द्वारा भगवान को निवेदित करने के पश्चात् गीता के पन्द्रहवें अध्याय के चौदहवें मन्त्र ....
"ॐ अहं वैश्वानरो भूत्वा प्राणिनां देहमाश्रितः प्राणापानसमायुक्तः पचाम्यन्नं चतुर्विधम्" के अर्थ को मानसिक रूप से समझते हुए ही भोजन करें| भोजन से पूर्व आचमन करें और पहले ग्रास के साथ "ॐ प्राणाय स्वाहा" मन्त्र अवश्य मानसिक रूप से बोलें|
उपरोक्त तो कम से कम अनिवार्य से अनिवार्य आवश्यकता है| विस्तार करने के लिए अन्नपूर्णा के मन्त्र का भी पाठ कर सकते हैं, पञ्च प्राणों का कवल भी प्रथम पांच ग्रासों के साथ कर सकते हैं|
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जहाँ तक मैं समझता हूँ उपरोक्त विधि से भोजन करने से कोई दोष नहीं लगता| उपरोक्त विधि ही वह यज्ञ है जिसको करने का आदेश भगवान दे रहे हैं| ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
३१ मार्च २०१८
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यह समझने में थोड़ा जटिल विषय है पर इसे समझना अति आवश्यक है| गीता में भगवान कहते हैं ... "यज्ञशिष्टाशिनः सन्तो मुच्यन्ते सर्वकिल्बिषैः| भुञ्जते ते त्वघं पापा ये पचन्त्यात्मकारणात् || ३:१३||" अर्थात् "यज्ञ के अवशिष्ट अन्न को खाने वाले श्रेष्ठ पुरुष सब पापों से मुक्त हो जाते हैं किन्तु जो लोग केवल स्वयं के लिये ही पकाते हैं वे तो पापों को ही खाते हैं|" अब इस विषय को ठीक से समझा जाए ताकि हम पाप के भागी न बनें|
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विस्तार में न जाकर संक्षेप में कहना चाहूँगा कि हमारे शास्त्रों के अनुसार रसोईघर में भोजन बनाने की प्रक्रिया में प्रमादवश अनायास ही कुछ अशुद्धियाँ और पाँच प्रकार के पाप सब से ही होते हैं| उन के परिमार्जन के लिए पञ्च महायज्ञ करते हैं, जिन से वे दोष दूर हो जाते हैं| ये पञ्च महायज्ञ वेदोक्त है जिनको करने का आदेश यजुर्वेद के शतपथ ब्राह्मण में है, और मनु महाराज ने भी मनुस्मृति में इनको करने का आदेश दिया है|
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भोजन बनाकर देवताओं को भी उनका भाग दें, गाय, कुत्ते व पक्षियों को भी दें, अतिथि को भी भोजन कराएँ, माता-पिता जीवित हैं तो पहले उनको भोजन कराएँ|
फिर गीता के चौथे अध्याय के चौबीसवें मन्त्र ....
"ॐ ब्रह्मार्पणं ब्रह्म हविर्ब्रह्माग्नौ ब्रह्मणा हुतम् ब्रह्मैव तेन गन्तव्यं ब्रह्मकर्मसमाधिना" द्वारा भगवान को निवेदित करने के पश्चात् गीता के पन्द्रहवें अध्याय के चौदहवें मन्त्र ....
"ॐ अहं वैश्वानरो भूत्वा प्राणिनां देहमाश्रितः प्राणापानसमायुक्तः पचाम्यन्नं चतुर्विधम्" के अर्थ को मानसिक रूप से समझते हुए ही भोजन करें| भोजन से पूर्व आचमन करें और पहले ग्रास के साथ "ॐ प्राणाय स्वाहा" मन्त्र अवश्य मानसिक रूप से बोलें|
उपरोक्त तो कम से कम अनिवार्य से अनिवार्य आवश्यकता है| विस्तार करने के लिए अन्नपूर्णा के मन्त्र का भी पाठ कर सकते हैं, पञ्च प्राणों का कवल भी प्रथम पांच ग्रासों के साथ कर सकते हैं|
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जहाँ तक मैं समझता हूँ उपरोक्त विधि से भोजन करने से कोई दोष नहीं लगता| उपरोक्त विधि ही वह यज्ञ है जिसको करने का आदेश भगवान दे रहे हैं| ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
३१ मार्च २०१८