राग-द्वेष से रहित होकर ही हम प्रसन्न और स्वस्थ रह सकते हैं, दूसरा कोई उपाय नहीं है .....
=
भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं .....
"ध्यायतो विषयान्पुंसः सङ्गस्तेषूपजायते| सङ्गात् संजायते कामः कामात्क्रोधोऽभिजायते||२:६२||"
अर्थात विषयों का चिन्तन करने वाले पुरुष की उसमें आसक्ति हो जाती है| आसक्ति से इच्छा और इच्छा से क्रोध उत्पन्न होता है||
.
"क्रोधाद्भवति संमोहः संमोहात्स्मृतिविभ्रमः| स्मृतिभ्रंशाद् बुद्धिनाशो बुद्धिनाशात्प्रणश्यति||२:६३||"
अर्थात क्रोध से उत्पन्न होता है मोह और मोह से स्मृति विभ्रम| स्मृति के भ्रमित होने पर बुद्धि का नाश होता है और बुद्धि के नाश होने से वह मनुष्य नष्ट हो जाता है||
.
"रागद्वेषवियुक्तैस्तु विषयानिन्द्रियैश्चरन्| आत्मवश्यैर्विधेयात्मा प्रसादमधिगच्छति||२:६४||"
अर्थात आत्मसंयमी (विधेयात्मा) पुरुष रागद्वेष से रहित अपने वश में की हुई (आत्मवश्यै) इन्द्रियों द्वारा विषयों को भोगता हुआ प्रसन्नता (प्रसादम्) (प्रसादः प्रसन्नता स्वास्थ्यम्) प्राप्त करता है||
.
"प्रसादे सर्वदुःखानां हानिरस्योपजायते| प्रसन्नचेतसो ह्याशु बुद्धिः पर्यवतिष्ठते||२:६५||"
अर्थात प्रसाद के होने पर सम्पूर्ण दुखों का अन्त हो जाता है और प्रसन्नचित्त पुरुष की बुद्धि ही शीघ्र ही स्थिर हो जाती है||
.
"नास्ति बुद्धिरयुक्तस्य न चायुक्तस्य भावना| न चाभावयतः शान्तिरशान्तस्य कुतः सुखम्||२:६६||"
अर्थात (संयमरहित) अयुक्त पुरुष को (आत्म) ज्ञान नहीं होता और अयुक्त को भावना और ध्यान की क्षमता नहीं होती भावना रहित पुरुष को शान्ति नहीं मिलती अशान्त पुरुष को सुख कहाँ?
.
राग-द्वेष से मुक्त होने का उपाय भी बड़े स्पष्ट रूप से गीता में बताया गया है| अतः गीता का नित्य स्वाध्याय करें|
ॐ तत्सत् !! ॐ नमो भगवते वासुदेवाय !! ॐ ॐ ॐ !!
३० मई २०२०