Thursday 2 August 2018

किस समाज की सेवा ? ....

हम "समाज सेवा" की बात करते हैं, तो किस समाज की बात कर रहे हैं?
"समाज सेवा" के लिए ही तो हमने अपने पैसों से इतने सारे ..... सांसद, विधायक और पार्षद चुने हैं| "समाज सेवा" करना उनका सर्वोपरि धर्म है|
समाज और राष्ट्र की अवधारणा यदि जन मानस में होती तो इतने दुर्दिन नहीं देखने पड़ते| 
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स्वयं को सब प्रकार के विकारों से मुक्त कर समष्टि के साथ एकत्व ही सबसे बड़ी सेवा है|
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ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२ अगस्त २०१८ 

इस मामले में दोषी कौन कौन हैं ? .....

किसी असहाय अबोध बालिका के साथ अन्याय और दुराचार होता है, तो दोषी कौन है .... दुराचारी या असहाय बालिका के पूर्व जन्मों के कर्म?
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कल रिपब्लिक टीवी पर एक वीडियो और बहस देखकर यह प्रश्न उठा है| बिहार के एक सरकारी अनाथालय की अबोध, अनाथ, असहाय लगभग बत्तीस बालिकाओं का, जिनकी आयु सात से पंद्रह वर्ष थी, वर्षों तक सरकारी बलात्कार होता रहा| विरोध करने पर उन्हें बुरी तरह मारा जाता, उन्हें नशे के इंजेक्शन दिए जाते, और अधिक विरोध करने पर दस गूंगी-बहरी असहाय बालिकाओं की ह्त्या कर उनकी लाश को गायब कर दिया गया|
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बलात्कार करने वालों में बड़े बड़े राजनेता, बड़े बड़े सरकारी अधिकारी और बड़े बड़े पत्रकार थे| जो बड़ा सरकारी अधिकारी इस काण्ड का मुख्य अभियुक्त है वह मोटा तगड़ा मुस्टंडा राक्षस, पुलिस हिरासत में इतनी मस्ती से मुस्करा रहा था जैसे कोई उसका कुछ नहीं बिगाड़ सकता| लगता है पूरा प्रशासन ही उसके साथ है|
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रिपब्लिक टीवी चीख चीख कर सारा दोष सुशासन बाबू पर डाल रहा था| सुशासन बाबू ने जब देखा कि उनका पूरा सरकारी तंत्र ही दोषी है तो मामला सीबीआई को दे दिया| अब मामले को दबाने का प्रयास हो रहा है क्योंकि पूरा सरकारी तंत्र ही लपेटे में आता है|
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एक बोलने में असमर्थ बालिका इशारों में बता रही थी कि उसके साथ अधिकारियों द्वारा कैसे मारपीट कर नशे के इंजेक्शन दिए जाते और बलात्कार किया जाता था|
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क्या पोस्को एक्ट में इन दोषी राजनेताओं, सरकारी अधिकारियों और पत्रकारों को मृत्युदंड दिया जाएगा या मामले को दबा दिया जाएगा? लगता है हम ने गलत स्थान पर जन्म ले लिया है| प्रश्न यह है कि इसमें दोषी कौन है? वे प्रभावशाली सरकारी अधिकारी या उन अबोध बालिकाओं के पूर्व जन्मों के कर्मफल?

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२ अगस्त २०१८ 

सारा झूठ हमें पढ़ाया जाता है| दो प्रश्न हैं जिनका सही उत्तर बड़ा शर्मनाक होगा .....

सारा झूठ हमें पढ़ाया जाता है| दो प्रश्न हैं जिनका सही उत्तर बड़ा शर्मनाक होगा .....
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(१) सन १९४८ ई.के भारत-पाक युद्ध में भारत ने पाकिस्तान को हरा दिया था, फिर भी अधिकांश कश्मीर पकिस्तान के कब्जे में क्यों है?
(२) सन १९६२ ई. में हम चीन से पराजित क्यों हुए ? हमने युद्ध से पूर्व तैयारी क्यों नहीं की? चीन के पास उस समय कोई वायुसेना नहीं थी, हमने वायुसेना का प्रयोग क्यों नहीं किया?
हमारी विश्व शांति की बड़ी बड़ी बातें, पंचशील के बड़े बड़े उपदेश और झूठा अहिंसा का दिखावा, सब किस काम आया?
मध्य कालीन भारत का इतिहास देखें तो लगता है हम में यह गलत धारणा भर गई थी कि युद्ध करना सिर्फ क्षत्रियों का काम है| यदि पूरे भारत का हिन्दू समाज एकजुट होकर आतताइयों का सामना करता तो किसी का भी साहस नहीं होता हिन्दुस्थान की ओर आँख उठाकर देखने का|

कृपा शंकर
२ अगस्त २०१८ 
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पुनश्चः :  ----
भारत पर चीन या पाकिस्तान ने नहीं, नेहरू ने आक्रमण किया था, गान्धी की सहायता से। कश्मीर के राजा भारत में बहुत पहले से मिलना चाहते थे पर नेहरू ने अस्वीकार कर दिया कहा कि केवल शेख अब्दुल्ला ही वहां का प्रतिनिधित्व कर सकते हैं (अवैध भाई)। कश्मीर में जैसे ही भारतीय सेना ने मुकाबला शुरु किया, युद्ध बन्द कर दिया। पाकिस्तान को युद्ध करने तथा ३० लाख हिन्दुओं की हत्या के लिये गान्धी ने ५५ करोड़ रुपये दिलवाये। विश्व में शान्तिदूत बनने के लिये पूरा तिब्बत चीन को सौंप दिया। तिब्बत में भी ३० लाख की हत्या करवाई। यदि वह भारत का भाग नहीं था, तो दलाई लामा और अन्य तिब्बतियों को यहां शरण क्यों दी? तिब्बत जीतने के बाद १९५९ से ही चीन का भारत पर आक्रमण आरम्भ हो गया था और उस वर्ष २० अक्टूबर को ५९ सिपाही चुशूल क्षेत्र में मारे गये थे जिनके शोक में भारत के प्रति जोले में १९६० से पुलिस शहीद दिवस मनाया जा रहा है और भारत का प्रत्येक पुलिस सिपाही यह जानता है। तब ३ वर्ष बाद क्यॊ कहा गया कि चीन ने आक्रमण किया है। चीन का आक्रमण १९५१ में ही आरम्भ हो गया था जब ब्रिटेन के प्रधान मन्त्री के लिखित आदेश पर नेहरू ने तिब्बत सौंप दिया।
साभार : श्री अरुण उपाध्याय 

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https://thewire.in/.../india-has-no-tibetan-card-to-play...

शनि के नाम पर भिखारियों को भीख न दें .....

शनि के नाम पर भिखारियों को भीख न दें .....
कुछ लोग शनि के नाम पर हर शनिवार को भीख में रुपये और तेल माँगते हैं| मेरे विचार से ऐसे लोगों को भीख देना एक गलत काम और अंधविश्वास है| गृहणियाँ भयभीत होकर उन्हें दस-पाँच रुपये और तेल दे देती हैं| शनि के नाम पर भिक्षा देने से शनि की कोई दशा नहीं उतरती, बल्कि ऐसे भिखारियों को प्रोत्साहन ही मिलता है|

ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर 
१ अगस्त २०१८ 

आत्मलिंग की अनुभूतियाँ .....

आत्मलिंग की अनुभूतियाँ .....
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आत्मलिंग की अनुभूतियाँ सिद्ध गुरु की परम कृपा से ही होती हैं| इन की एक बार अनुभूतियाँ हों तो पीछे मुड़कर न देखें और ईश्वर की साधना में जुट जाएँ| गुरुकृपा निरंतर हमारा मार्गदर्शन और रक्षा करेगी|
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(१) हमारी सूक्ष्म देह के मूलाधार से सहस्त्रार तक एक ओंकारमय शिवलिंग है| मेरुदंड में सुषुम्ना के सारे चक्र उसी में हैं| मानसिक रूप से उसी में रहते हुए परमशिव अर्थात ईश्वर की कल्याणकारी ज्योतिर्मय सर्वव्यापकता का ध्यान करें| ध्यान भ्रूमध्य से आरम्भ करते हुए सहस्त्रार पर ले जाएँ और श्रीगुरुचरणों में आश्रय लेते हुए वहीं से करें| इस शिवलिंग में स्थिति सब तरह के विक्षेपों से हमारी रक्षा करती है|
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(२) दूसरा सूक्ष्मतर शिवलिंग आज्ञाचक्र से सहस्त्रार तक उत्तर-सुषुम्ना में है| यह सर्वसिद्धिदायक है| जो उच्चतम साधक हैं वे अपनी चेतना को सदा निरंतर इसी में रखते हैं| इसमें स्थिति सिद्ध गुरु की आज्ञा और कृपा से ही होती है|
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इस से आगे की बातों की कुछ निषेधात्मक कारणों से सार्वजनिक चर्चा की अनुमति नहीं है|
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जिसके अन्दर सबका विलय होता है उसे लिंग कहते हैं| स्थूल जगत का सूक्ष्म जगत में, सूक्ष्म जगत का कारण जगत में और कारण जगत का सभी आयामों से परे .... तुरीय चेतना .... में विलय हो जाता है| उस तुरीय चेतना का प्रतीक हैं .... शिवलिंग, जो साधक के कूटस्थ में निरंतर जागृत रहता है| उस पर ध्यान से चेतना ऊर्ध्वमुखी होने लगती है|
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भगवान परमशिव दुःखतस्कर हैं| तस्कर का अर्थ होता है .... जो दूसरों की वस्तु का हरण कर लेता है| भगवन परमशिव अपने भक्तों के सारे दुःख और कष्ट हर लेते हैं| वे जीवात्मा को संसारजाल, कर्मजाल और मायाजाल से मुक्त कराते हैं| जीवों के स्थूल, सूक्ष्म और कारण देह के तीन पुरों को ध्वंश कर महाचैतन्य में प्रतिष्ठित कराते है अतः वे त्रिपुरारी हैं| वे मेरे परम आराध्य देव है|
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ॐ शिव ! ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२४ जुलाई २०१८

आध्यात्मिक रूप से अपनी वाणी को तेजस्वी बनाने के लिए तीन नियम .....

आध्यात्मिक रूप से अपनी वाणी को तेजस्वी बनाने के लिए तीन नियम .....
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(१) समाज में जहाँ कहीं भी जाएँ, नाप-तोल कर कम से कम और सिर्फ आवश्यक, त्रुटिहीन व स्पष्ट शब्दों का ही प्रयोग पूरे आत्मविश्वास से करें| गपशप न करें, गपशप हमारे शब्दों को प्रभावहीन बनाती है|
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(२) आत्मनिंदा, आत्मप्रशंसा और परनिंदा से बचें| किसी की अनावश्यक प्रशंसा भी न करें| दूसरों द्वारा की गयी प्रशंसा और निंदा की ओर ध्यान न दें| किसी की भी बातों से व्यक्तिगत रूप से आहत न हों, और आल्हादित भी न हों|
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(३) परमात्मा की चेतना से बात करें| कुछ भी बोलते समय हमारी आतंरिक चेतना कूटस्थ में हो| अपनी बात को पूरे आत्मविश्वास से प्रस्तुत करें| बोलते समय यह भाव रखें कि स्वयं भगवान हमारी वाणी से बोल रहे हैं|
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उपरोक्त तीनों नियमों का ध्यान रहेगा तो लोग हमारी बात सुनेंगे, उस को याद रखेंगे और उस से प्रभावित भी होंगे|
ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२४ जुलाई २०१८

भोजन ..... एक प्रत्यक्ष वास्तविक यज्ञ और ब्रह्मकर्म है ....

भोजन ..... एक प्रत्यक्ष वास्तविक यज्ञ और ब्रह्मकर्म है ......
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हम जो भोजन करते हैं, वास्तव में वह भोजन हम स्वयं नहीं करते, बल्कि भगवान स्वयं ही प्रत्यक्ष रूप से हमारे माध्यम से करते हैं| 
भोजन इसी भाव से करना चाहिए कि भोजन का हर ग्रास हवि रूप ब्रह्म है जो वैश्वानर रूपी ब्रह्माग्नि को अर्पित है| भोजन कराने वाले भी ब्रह्म हैं और करने वाले भी ब्रह्म ही हैं| सब प्राणियों की देह में वैश्वानर अग्नि के रूप में, प्राण और अपान के साथ मिलकर चार विधियों से अन्न (भक्ष्य, भोज्य, लेह्य, चोष्य) ग्रहण कर वे ही पचाते हैं|
अतः भोजन स्वयं की क्षुधा की शांति और इन्द्रियों की तृप्ति के लिए नहीं, बल्कि एक ब्रह्मयज्ञ रूपी ब्रह्मकर्म के लिए है| यज्ञ में एक यजमान की तरह हम साक्षिमात्र हैं| कर्ता और भोक्ता तो भगवान स्वयं ही हैं| गीता में भगवान ने इसे बहुत अच्छी तरह समझाया है|
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ब्रह्मार्पणं ब्रह्महविर्ब्रह्माग्नौ ब्रह्मणा हुतम् | ब्रह्मैव तेन गन्तव्यं ब्रह्मकर्मसमाधिना ||४:२४||
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अहं वैश्वानरो भूत्वा प्राणिनां देहमाश्रितः| प्राणापानसमायुक्तः पचाम्यन्नं चतुर्विधम् ||१५:१४||
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>>> गहरे ध्यान में मेरुदंड में एक शीत और ऊष्ण प्रवाह की अनुभूति सभी साधकों को होती है जो ऊपर नीचे बहते रहते हैं, वे ही सोम और अग्नि है, वे ही प्राण और अपान है जिनके समायोजन की प्रक्रिया से प्रकट यज्ञाग्नि वैश्वानर है| भोजन हम नहीं बल्कि वैश्वानर के रूप में भगवान स्वयं करते हैं जिससे समस्त सृष्टि का पालन-पोषण होता है| जो भगवान को प्रिय है वही उन्हें खिलाना चाहिए| कर्ताभाव शनेः शनेः तिरोहित हो जाना चाहिए|
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जैसा मैनें अनुभूत किया और अपनी सीमित व अल्प बुद्धि से समझा वैसा ही मेरे माध्यम से यह लिखा गया| यदि कोई कमी या भूल है तो वह मेरी सीमित और अल्प समझ की ही है| कोई आवश्यक नहीं है कि सभी को ऐसा ही समझ में आये| किसी भी प्रकार की त्रुटी के लिए भगवान से क्षमा याचना करता हूँ|
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ॐ तत्सत् | ॐ ॐ ॐ ||
कृपा शंकर
२३ जुलाई २०१७
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पुनश्चः :--- भगवान कहते हैं .....
पत्रं पुष्पं फलं तोयं यो मे भक्त्या प्रयच्छति| तदहं भक्त्युपहृतमश्नामि प्रयतात्मनः ||९:२६||
अर्थात् जो भक्त मुझे पत्र, पुष्प, फल, और जल आदि कुछ भी वस्तु भक्तिपूर्वक देता है, उस प्रयतात्मा ... शुद्धबुद्धि भक्तके द्वारा भक्तिपूर्वक अर्पण किये हुए वे पत्र पुष्पादि मैं ( स्वयं ) खाता हूँ अर्थात् ग्रहण करता हूँ||

अनन्य भक्ति सबसे बड़ी साधना है. हमें अनन्य भक्ति प्राप्त हो ...

अनन्य भक्ति सबसे बड़ी साधना है. हमें अनन्य भक्ति प्राप्त हो ...
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भगवान कहते हैं .....
अनन्याश्चिन्तयन्तो मां ये जनाः पर्युपासते | तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यहम् ||९:२२||
अर्थात् जो अनन्य भाव से युक्त हो कर परम देव मुझ नारायण को आत्म रूप से जानते हुए मेरा निरन्तर चिन्तन करते हुए मेरी श्रेष्ठ निष्काम उपासना करते हैं, निरन्तर मुझमें ही स्थित उन का योगक्षेम मैं वहन करता हूँ|
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यहाँ अप्राप्त वस्तुकी प्राप्ति का नाम "योग" है, और प्राप्त वस्तु की रक्षा का नाम "क्षेम" है| ये दोनों काम भगवान ही करते हैं| योगक्षेम की व्याकुलता सभी में होती है| हमें वह व्याकुलता भगवान को ही सौंप देनी चाहिए| हमारे अवलंबन भगवान ही हों|
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अनन्य भक्ति और अव्यभिचारिणी भक्ति एक ही हैं| भगवान कहते हैं ....
मयि चानन्ययोगेन भक्तिरव्यभिचारिणी | विविक्तदेशसेवित्वमरतिर्जनसंसदि ||१३:११||
अर्थात मुझ ईश्वरमें अनन्य योग (एकत्व रूप) अव्यभिचारिणी भक्ति है| (भगवान् वासुदेव से परे अन्य कोई भी नहीं है, अतः वे ही हमारी परमगति हैं. इस प्रकार की जो निश्चित अविचल बुद्धि है वही अनन्य योग है| उससे युक्त होकर भजन करना ही कभी विचलित न होने वाली अव्यभिचारिणी भक्ति है).
विविक्तदेशसेवित्व अर्थात् एकान्त पवित्र देश सेवन का स्वभाव, और विषयासक्त मनुष्यों के समुदाय में प्रेम का न होना, इसमें सहायक है|
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अनन्य योग द्वारा अव्यभिचारिणी भक्ति का होना, एकान्त स्थान में रहने का स्वभाव होना और विषयासक्त जन समुदाय में प्रीति न होना…. इस प्रकार की जिसकी भक्ति होती है, ऐसा साधक आध्यात्म ज्ञान में नित्य रमण करता है|
परमात्मा को सर्वत्र देखना ज्ञान है, और इस से विपरीत जो है, वह अज्ञान है|
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भगवान आचार्य शंकर के अनुसार .....
गलिते देहाध्यासे विज्ञाते परमात्मनि| यत्र यत्र मनो याति तत्र तत्र समाधयः||
अर्थात् जब देहाध्यास गलित हो जाता है, परमात्मा का ज्ञान हो जाता है| तब जहाँ जहाँ मन जाता है, वहाँ वहाँ समाधि का अनुभव होता है|
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जीवन का हर कार्य, हर क्षण, परमात्मा की प्रसन्नता के लिए हो|
ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२३ जुलाई २०१८

तमसो मा ज्योतिर्गमय .....

तमसो मा ज्योतिर्गमय .....
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सत्य ही नारायण हैं, वे ही अमृत हैं, और वे ही हमें ज्योतिर्मय बना सकते हैं| हमारी हर साधना का लक्ष्य है ...... असत्य से सत्य की ओर गमन| बिना किसी पूर्वाग्रह के जहाँ भी हमें लगे कि असत्य और अन्धकार हमारे साथ है, तो विष की तरह उनका साथ छोड़ देना चाहिए| मेरी यह बात अधिकाँश लोगों को बुरी लगती है, पर यह उनकी समस्या है, मेरी नहीं| हर समाज में अधिकांश लोगों का यही मानना है कि असत्य यानी झूठ-कपट के बिना संसार का काम नहीं चल सकता| धर्म और आध्यात्म की बड़ी बड़ी बातें करने वाले सज्जन लोग भी दो पैसे के लाभ के लिए सत्य का साथ छोड़ देते हैं| उनको नहीं पता कि असत्य और अन्धकार ही मृत्यु है| असत्य से प्राप्त होने वाला लाभ यहीं रह जाएगा, पर जो सदा सत्य हैं वे भगवान सत्य नारायण ही हमारे साथ शाश्वत रूप से रहेंगे| 
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वेदों के ऋषि प्रार्थना करते हैं ..... "ॐ असतोमासद्गमय | तमसोमाज्योतिर्गमय | मृत्योर्मामृतंगमय | ॐ शान्ति शान्ति शान्तिः||" (बृहदारण्यकोपनिषद् १:३:२८)
इसी उपनिषद् के आरम्भ और अंत में पूर्णता के लिए भी प्रार्थना है .....
"पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात्पूर्णमुदच्यते | पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते ||"
सत्य ही पूर्णता है, यही परमात्मा का सर्वोपरी गुण है|
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सत्य की खोज ही अन्धकार से प्रकाश की ओर जाने की यात्रा है| इसका आरम्भ कहाँ से हो? इस यात्रा का आरम्भ वही कर सकता है जिसके हृदय में भगवान के प्रति भक्ति और उन्हें पाने की अभीप्सा हो| अन्य लोगों के लिए यह मार्ग नहीं है| अन्य लोग धीरे धीरे अनेक कष्ट पाकर कुछ जन्मों के बाद इस मार्ग पर आ ही जायेंगे| 
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जहाँ भक्ति और अभीप्सा होगी, वहीं मार्ग भी प्रकट होगा| अतः मैं साधना मार्गों की चर्चा करना यहाँ अनावश्यक समझता हूँ| जो साधक हैं, उन्हें तो मार्ग मिला ही हुआ है और जो निष्ठावान मुमुक्षु हैं उन्हें मार्ग भगवान स्वयं सदगुरु के रूप में दिखाते हैं| जो भगवान को ठगना चाहते हैं उन्हें ठगगुरु मिल जाते हैं| यही चलता आया है और यही चलता रहेगा| 
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निज स्वभाववश कुछ चर्चा यहाँ करने को बाध्य हूँ| जहाँ तक मैं समझता हूँ, सनातन हिन्दू धर्म के सभी सम्प्रदायों में "अजपा-जप" साधना की परंपरा है| यह बहुत ही प्रभावशाली साधना है जिसे प्रत्येक साधक को आरम्भ में सीखना और उसका नियमित अभ्यास करना चाहिए| किसी भी साधना की उपयोगिता उसके अभ्यास में है, न कि सिर्फ बौद्धिक संतुष्टि में| इसका अभ्यास करते करते हमारी सूक्ष्म देह में सुषुम्ना जागृत हो जाती है, और धीरे धीरे कुण्डलिनी महाशक्ति भी जागृत होने लगती है| फिर हमें भगवान का ध्यान करना चाहिए, जिसकी विधि भगवान स्वयं हमें गुरुरूप में बताते हैं| यह अजपाजप की विधि वैदिक् है जिसका वर्णन कठोपनिषद में है|
"हँसः शुचिषद्वसुरान्तरिक्षसद्-
होता वेदिषदतिथिर्दुरोणसत् ।
नृषद्वरसदृतसद्व्योमसद्
अब्जा गोजा ऋतजा अद्रिजा ऋतं बृहत् ||कठोपनिषद २:२:२||
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असत्य से सत्य, अन्धकार से प्रकाश और मृत्यु से अमरता की ओर की यात्रा सनातन धर्म है| यही सृष्टि की प्रक्रिया है| तंत्र की भाषा में हमारी चेतना का निम्नतम बिंदु मूलाधार चक्र है, और उच्चतम बिंदु सहस्त्रार है| हमें अपनी चेतना को मूलाधार चक्र से बार बार उठाते हुए सहस्त्रार तक ले जाना होगा| यह क्रियायोग है| यह उच्चतम साधना इस देह रूपी साधन से हो सकती है| इसके बाद की देहातीत साधनाएँ सिद्धों की हैं|
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तंत्र की भाषा में कहते हैं कि मेरुदंड के मध्य में एक सुषुम्ना नाड़ी है जिसके नीचे ही नीचे मूलाधार चक्र है जहाँ कुण्डलिनी महाशक्ति सो रही है| सिद्ध गुरु की आज्ञा से, गुरुप्रदत्त विधि से इसे जागृत कर क्रमशः छओं चक्रों को भेदते हुए इसे सहस्त्रार तक ले जाते हैं, जहाँ परमशिव से मिलकर अमृतपान होता है| उससे तृप्त होकर कुण्डलिनी बापस लौट आती है| इस प्रक्रिया को बार बार दोहराना पड़ता है| 
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तंत्रराज तंत्र कहता है .....
"पीत्वा पीत्वा पुनः पीत्वा यावत् पतति भूतले | उत्थाय च पुनः पीत्वा पुनर्जन्म न विद्यते ||"
यह तंत्र की भाषा है, कोई शराब पीना नहीं है| यह तो कुण्डलिनी महाशक्ति और परमात्मा परमशिव का मिलन और अमृतपान है|
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भगवान आचार्य शंकर ने भी "सौंदर्य लहरी" ग्रन्थ में लिखा है .....
"महीं मूलाधारे कमपि मणिपूरे हुतवहं, 
स्थितं स्वाधिष्ठाने हृदिमरुतमाकाशमुपरि |
मनोऽपि भ्रूमध्ये सकलमपि भित्वा कुलपथं,
सहस्रारे पद्मे सह रहसि पत्या विहरसि ||९||
भगवान आचार्य शंकर का ग्रन्थ "सौंदर्य लहरी" तंत्र के सर्वश्रेष्ठ ग्रंथों में से है| 
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इस विद्या के बारे में स्कन्दपुराण में भी लिखा है| यह पूरी विद्या कठोपनिषद में है जो एक श्रौत्रीय ब्रह्मनिष्ठ सिद्ध आचार्य के चरणों में बैठकर ही सीखी जा सकती है|
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परमेश्वर की महिमा कोई नहीं बता सकता क्योंकि सब कुछ उसी से महिमान्वित है| (कठ) श्रुति भगवती कहती हैं .....
"न तत्र सूर्यो भाति न चन्द्रतारकं, नेमा विद्युतो भान्ति कुतोऽयमग्निः |
तमेव भान्तमनुभाति सर्वं, तस्य भासा सर्वमिदं विभाति ||"
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हम भगवान को सिर्फ अपना प्रेम ही दे सकते हैं, अन्य कुछ भी नहीं| बाकी सब कुछ तो उसी का है| अपने हृदय का सम्पूर्ण प्रेम परमात्मा को दें|
ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर 
२२ जुलाई २०१८

गुरु चरणों का ध्यान :----

गुरु चरणों का ध्यान :----
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जैसे जैसे गुरु पूर्णिमा का दिन समीप आता जा रहा है, गुरुचरणों में ध्यान करने की प्रेरणा अधिक से अधिक होती जा रही है| इस तरह की प्रेरणा या विचार जब भी प्रभुकृपा से प्राप्त हो तो उसे तृप्त अवश्य कर लेना चाहिए| आध्यात्म मार्ग के पथिक को गीता में सभी जिज्ञासाओं का समाधान मिल जाता है, वह भी इतना स्पष्ट कि कण मात्र भी संदेह नहीं रहता| मनुष्य की जैसी चेतना होती है वैसी ही प्रेरणा उसे मिलती रहती है|
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उससे पूर्व यह स्पष्ट हो जाना चाहिए कि गुरु कौन है, गुरु सेवा क्या है और गुरु के चरण क्या हैं| आरम्भ मैं एक सामाजिक संस्था से करता हूँ, फिर आध्यात्म पर आऊँगा| भारत में रा.स्व.से.संघ सबसे बड़ी सामाजिक संस्था है| राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ में परम पवित्र भगवा ध्वज को ही गुरु माना गया है, किसी मनुष्य को नहीं| उनके स्वयंसेवक सारी प्रेरणा भगवा ध्वज से ही लेते हैं| उनके लिए संघकार्य ही गुरुसेवा, राष्ट्रधर्म और राष्ट्र की आराधना है| संघ की प्रार्थना और एकात्मता स्तोत्र का पाठ स्वयंसेवकों द्वारा नित्य नियमित होता है| यह एक विशुद्ध सामाजिक कार्य है, इस से एक संतुष्टि तो मिलती है पर आध्यात्मिक अभीप्सा की तृप्ति नहीं होती|
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अब निज जीवन की बात करता हूँ| किशोरावस्था में घर पर ही रामायण और महाभारत का अध्ययन कर लिया था पर उस आयु में जैसी समझ होती है वैसा ही समझ में आया| उन्हीं दिनों एक बार रमण महर्षि की जीवनी कहीं से पढने को मिली, उस से सुप्त आध्यामिकता और बौद्धिक भूख जागृत हो उठी| उस बौद्धिक भूख को तृप्त करने के लिए सम्पूर्ण विवेकानंद साहित्य का अध्ययन दो बार किया| उस से बौद्धिक भूख तो तृप्त हुई पर ह्रदय में जल रही अभीप्सा की अग्नि कभी शांत नहीं हुई| जो भी आध्यात्मिक साहित्य कहीं से भी उपलब्ध हो जाता उसका अध्ययन करता और किसी भी संत-महात्मा के बारे में पता चलता तो उनसे जाकर मिलता| पर वह अभीप्सा दिन प्रतिदिन बढ़ती ही जाती थी, कभी तृप्त नहीं हुई| पूरे भारत के ब्राह्मण परिवारों में गायत्री मन्त्र की साधना सबसे सामान्य बात है| भारत के प्रायः सभी ब्राह्मण गायत्री मंत्र का जाप करते हैं| पारिवारिक संस्कारों के कारण वह ही एकमात्र साधना थी| अन्य कुछ समझ में ही नहीं आता था| धीरे धीरे ईश्वर की कृपा से जीवन में सत्संग लाभ भी हुआ, बहुत ही अच्छे अच्छे संत-महात्माओं से भी मिलना हुआ और मार्गदर्शन व गुरु लाभ भी मिला| ध्यान और क्रियायोग के अभ्यास व निजानुभूतियों से हृदय में जगी हुई अभीप्सा भी तृप्त हुई| वेदान्त का भी निज अनुभूतियों और गुरु कृपा से बोध हुआ| पर यह तो यात्रा का आरम्भ मात्र है| दूसरी या तीसरी कक्षा का ही विद्यार्थी हूँ, अभी तो बहुत पढाई करनी है|
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ध्यान की गहराई में कूटस्थ चैतन्य की अनुभूतियों से ही यह समझ में आया कि कूटस्थ ही गुरु है, सहस्त्रार ही गुरु चरण हैं, और सहस्त्रार में ध्यान ही गुरु चरणों का ध्यान है| सहस्त्रार से परे अनंत आकाश के विस्तार की अनुभूतियों से समझ में आता है कि हम यह देह नहीं, ईश्वर की अनंतता हैं| ईश्वर की अनंतता में ही परमशिव की अवधारणा समझ में आती है, उससे पूर्व नहीं|
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आध्यात्म मार्ग पर चलने के लिए सबसे आवश्यक है .... "अभीप्सा", "भक्ति" और "आत्म संयम"| फिर आगे के सारे द्वार अपने आप ही खुल जाते हैं| गीता का छठा अध्याय ही आत्म-संयम योग है| उसका स्वाध्याय साधकों के लिए अनिवार्य ही समझ लीजिये| 
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इस समय अन्य कुछ भी लिखने की प्रेरणा नहीं मिल रही है| सामने गुरु महाराज के चरण कमलों के अतिरिक्त अन्य कुछ भी दिखाई नहीं दे रहा है| अगले कुछ दिनों तक गुरु चरणों का ही ध्यान करना है और कुछ भी नहीं| इस मंच पर यही कहना चाहता हूँ कि पूरी भक्ति से गुरु चरणों का ही ध्यान करो, आगे के सारे द्वार अपने आप ही खुल जायेंगे|
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सभी को नमन ! ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२१ जुलाई २०१८

वर्तमान विषम युग में गीता के अध्ययन और अध्यापन की आवश्यकता .....

वर्तमान विषम युग में गीता के अध्ययन और अध्यापन की आवश्यकता .....
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आजकल दुराचार और हिंसा का प्रभाव बहुत अधिक बढ़ रहा है| इसका कारण धर्मशिक्षा का अभाव है| बाहरी वातावरण से हम भी अछूते नहीं है| गीता का स्वाध्याय, तदनुसार आचरण और भगवान का ध्यान ही हमें सब प्रकार के विकारों से बचा सकता है| मुझे तो हमारे आचरण में परिलक्षित सब प्रकार के विकारों का उपचार गीता में ही दिखाई देता है| 
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गीता के १७ वें अध्याय में भगवान ने हर मनुष्य के स्वभाव के अनुसार आहार, यज्ञ, तप और दान के बारे में बताया है| गीता के इस अध्याय का स्वाध्याय और उसके अनुसार आचरण निश्चित रूप से हमें अनेक बुराइयों से बचाएगा, ऐसा मेरा विश्वास है| साथ साथ ध्यान भी करना होगा|
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विद्यालयों में बाल्यकाल से ही विद्यार्थियों को गीता पढ़ानी चाहिए और ध्यान साधना सिखानी चाहिए| इस अधर्मसापेक्ष (धर्मनिरपेक्ष) व्यवस्था में हिन्दू अपने विद्यालयों में अपने बच्चों को संविधान की धारा ३०(१) के कारण धर्म की शिक्षा भी नहीं दे सकता| मुसलमान और ईसाई अपने बच्चों को कुरआन और बाइबल पढ़ा सकता है पर हिन्दू गीता नहीं पढ़ा सकता| मदरसों और कोंवेंटों को मान्यता प्राप्त है पर गुरुकुलों को नहीं| धर्मशिक्षा के अभाव के कारण ही हमारे बच्चे अधर्मी हो रहे हैं| भविष्य में कभी भगवान की कृपा होगी तभी हिन्दुओं में चेतना आयेगी और वे अपने विरुद्ध हो रहे अन्याय का प्रतिकार कर पायेंगे| अभी तक तो स्थिति निराशाजनक ही है|
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मेरा सुझाव है कि हम अपनी निजी क्षमता में गीता का अध्ययन स्वयं करें और अपने बच्चों को भी करायें| स्वयं भी भगवान का ध्यान करें और अपने बच्चों को भी सिखायें| सिर्फ बातों से काम नहीं होगा| अनवरत प्रयास करना होगा|
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सभी को शुभ कामनाएँ और नमन! ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृप शंकर
२० जुलाई २०१८