तमसो मा ज्योतिर्गमय .....
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सत्य ही नारायण हैं, वे ही अमृत हैं, और वे ही हमें ज्योतिर्मय बना सकते हैं| हमारी हर साधना का लक्ष्य है ...... असत्य से सत्य की ओर गमन| बिना किसी पूर्वाग्रह के जहाँ भी हमें लगे कि असत्य और अन्धकार हमारे साथ है, तो विष की तरह उनका साथ छोड़ देना चाहिए| मेरी यह बात अधिकाँश लोगों को बुरी लगती है, पर यह उनकी समस्या है, मेरी नहीं| हर समाज में अधिकांश लोगों का यही मानना है कि असत्य यानी झूठ-कपट के बिना संसार का काम नहीं चल सकता| धर्म और आध्यात्म की बड़ी बड़ी बातें करने वाले सज्जन लोग भी दो पैसे के लाभ के लिए सत्य का साथ छोड़ देते हैं| उनको नहीं पता कि असत्य और अन्धकार ही मृत्यु है| असत्य से प्राप्त होने वाला लाभ यहीं रह जाएगा, पर जो सदा सत्य हैं वे भगवान सत्य नारायण ही हमारे साथ शाश्वत रूप से रहेंगे|
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वेदों के ऋषि प्रार्थना करते हैं ..... "ॐ असतोमासद्गमय | तमसोमाज्योतिर्गमय | मृत्योर्मामृतंगमय | ॐ शान्ति शान्ति शान्तिः||" (बृहदारण्यकोपनिषद् १:३:२८)
इसी उपनिषद् के आरम्भ और अंत में पूर्णता के लिए भी प्रार्थना है .....
"पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात्पूर्णमुदच्यते | पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते ||"
सत्य ही पूर्णता है, यही परमात्मा का सर्वोपरी गुण है|
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सत्य की खोज ही अन्धकार से प्रकाश की ओर जाने की यात्रा है| इसका आरम्भ कहाँ से हो? इस यात्रा का आरम्भ वही कर सकता है जिसके हृदय में भगवान के प्रति भक्ति और उन्हें पाने की अभीप्सा हो| अन्य लोगों के लिए यह मार्ग नहीं है| अन्य लोग धीरे धीरे अनेक कष्ट पाकर कुछ जन्मों के बाद इस मार्ग पर आ ही जायेंगे|
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जहाँ भक्ति और अभीप्सा होगी, वहीं मार्ग भी प्रकट होगा| अतः मैं साधना मार्गों की चर्चा करना यहाँ अनावश्यक समझता हूँ| जो साधक हैं, उन्हें तो मार्ग मिला ही हुआ है और जो निष्ठावान मुमुक्षु हैं उन्हें मार्ग भगवान स्वयं सदगुरु के रूप में दिखाते हैं| जो भगवान को ठगना चाहते हैं उन्हें ठगगुरु मिल जाते हैं| यही चलता आया है और यही चलता रहेगा|
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निज स्वभाववश कुछ चर्चा यहाँ करने को बाध्य हूँ| जहाँ तक मैं समझता हूँ, सनातन हिन्दू धर्म के सभी सम्प्रदायों में "अजपा-जप" साधना की परंपरा है| यह बहुत ही प्रभावशाली साधना है जिसे प्रत्येक साधक को आरम्भ में सीखना और उसका नियमित अभ्यास करना चाहिए| किसी भी साधना की उपयोगिता उसके अभ्यास में है, न कि सिर्फ बौद्धिक संतुष्टि में| इसका अभ्यास करते करते हमारी सूक्ष्म देह में सुषुम्ना जागृत हो जाती है, और धीरे धीरे कुण्डलिनी महाशक्ति भी जागृत होने लगती है| फिर हमें भगवान का ध्यान करना चाहिए, जिसकी विधि भगवान स्वयं हमें गुरुरूप में बताते हैं| यह अजपाजप की विधि वैदिक् है जिसका वर्णन कठोपनिषद में है|
"हँसः शुचिषद्वसुरान्तरिक्षसद्-
होता वेदिषदतिथिर्दुरोणसत् ।
नृषद्वरसदृतसद्व्योमसद्
अब्जा गोजा ऋतजा अद्रिजा ऋतं बृहत् ||कठोपनिषद २:२:२||
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असत्य से सत्य, अन्धकार से प्रकाश और मृत्यु से अमरता की ओर की यात्रा सनातन धर्म है| यही सृष्टि की प्रक्रिया है| तंत्र की भाषा में हमारी चेतना का निम्नतम बिंदु मूलाधार चक्र है, और उच्चतम बिंदु सहस्त्रार है| हमें अपनी चेतना को मूलाधार चक्र से बार बार उठाते हुए सहस्त्रार तक ले जाना होगा| यह क्रियायोग है| यह उच्चतम साधना इस देह रूपी साधन से हो सकती है| इसके बाद की देहातीत साधनाएँ सिद्धों की हैं|
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तंत्र की भाषा में कहते हैं कि मेरुदंड के मध्य में एक सुषुम्ना नाड़ी है जिसके नीचे ही नीचे मूलाधार चक्र है जहाँ कुण्डलिनी महाशक्ति सो रही है| सिद्ध गुरु की आज्ञा से, गुरुप्रदत्त विधि से इसे जागृत कर क्रमशः छओं चक्रों को भेदते हुए इसे सहस्त्रार तक ले जाते हैं, जहाँ परमशिव से मिलकर अमृतपान होता है| उससे तृप्त होकर कुण्डलिनी बापस लौट आती है| इस प्रक्रिया को बार बार दोहराना पड़ता है|
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तंत्रराज तंत्र कहता है .....
"पीत्वा पीत्वा पुनः पीत्वा यावत् पतति भूतले | उत्थाय च पुनः पीत्वा पुनर्जन्म न विद्यते ||"
यह तंत्र की भाषा है, कोई शराब पीना नहीं है| यह तो कुण्डलिनी महाशक्ति और परमात्मा परमशिव का मिलन और अमृतपान है|
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भगवान आचार्य शंकर ने भी "सौंदर्य लहरी" ग्रन्थ में लिखा है .....
"महीं मूलाधारे कमपि मणिपूरे हुतवहं,
स्थितं स्वाधिष्ठाने हृदिमरुतमाकाशमुपरि |
मनोऽपि भ्रूमध्ये सकलमपि भित्वा कुलपथं,
सहस्रारे पद्मे सह रहसि पत्या विहरसि ||९||
भगवान आचार्य शंकर का ग्रन्थ "सौंदर्य लहरी" तंत्र के सर्वश्रेष्ठ ग्रंथों में से है|
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इस विद्या के बारे में स्कन्दपुराण में भी लिखा है| यह पूरी विद्या कठोपनिषद में है जो एक श्रौत्रीय ब्रह्मनिष्ठ सिद्ध आचार्य के चरणों में बैठकर ही सीखी जा सकती है|
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परमेश्वर की महिमा कोई नहीं बता सकता क्योंकि सब कुछ उसी से महिमान्वित है| (कठ) श्रुति भगवती कहती हैं .....
"न तत्र सूर्यो भाति न चन्द्रतारकं, नेमा विद्युतो भान्ति कुतोऽयमग्निः |
तमेव भान्तमनुभाति सर्वं, तस्य भासा सर्वमिदं विभाति ||"
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हम भगवान को सिर्फ अपना प्रेम ही दे सकते हैं, अन्य कुछ भी नहीं| बाकी सब कुछ तो उसी का है| अपने हृदय का सम्पूर्ण प्रेम परमात्मा को दें|
ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२२ जुलाई २०१८