वर्तमान विषम युग में गीता के अध्ययन और अध्यापन की आवश्यकता .....
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आजकल दुराचार और हिंसा का प्रभाव बहुत अधिक बढ़ रहा है| इसका कारण धर्मशिक्षा का अभाव है| बाहरी वातावरण से हम भी अछूते नहीं है| गीता का स्वाध्याय, तदनुसार आचरण और भगवान का ध्यान ही हमें सब प्रकार के विकारों से बचा सकता है| मुझे तो हमारे आचरण में परिलक्षित सब प्रकार के विकारों का उपचार गीता में ही दिखाई देता है|
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गीता के १७ वें अध्याय में भगवान ने हर मनुष्य के स्वभाव के अनुसार आहार, यज्ञ, तप और दान के बारे में बताया है| गीता के इस अध्याय का स्वाध्याय और उसके अनुसार आचरण निश्चित रूप से हमें अनेक बुराइयों से बचाएगा, ऐसा मेरा विश्वास है| साथ साथ ध्यान भी करना होगा|
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विद्यालयों में बाल्यकाल से ही विद्यार्थियों को गीता पढ़ानी चाहिए और ध्यान साधना सिखानी चाहिए| इस अधर्मसापेक्ष (धर्मनिरपेक्ष) व्यवस्था में हिन्दू अपने विद्यालयों में अपने बच्चों को संविधान की धारा ३०(१) के कारण धर्म की शिक्षा भी नहीं दे सकता| मुसलमान और ईसाई अपने बच्चों को कुरआन और बाइबल पढ़ा सकता है पर हिन्दू गीता नहीं पढ़ा सकता| मदरसों और कोंवेंटों को मान्यता प्राप्त है पर गुरुकुलों को नहीं| धर्मशिक्षा के अभाव के कारण ही हमारे बच्चे अधर्मी हो रहे हैं| भविष्य में कभी भगवान की कृपा होगी तभी हिन्दुओं में चेतना आयेगी और वे अपने विरुद्ध हो रहे अन्याय का प्रतिकार कर पायेंगे| अभी तक तो स्थिति निराशाजनक ही है|
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मेरा सुझाव है कि हम अपनी निजी क्षमता में गीता का अध्ययन स्वयं करें और अपने बच्चों को भी करायें| स्वयं भी भगवान का ध्यान करें और अपने बच्चों को भी सिखायें| सिर्फ बातों से काम नहीं होगा| अनवरत प्रयास करना होगा|
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सभी को शुभ कामनाएँ और नमन! ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृप शंकर
२० जुलाई २०१८
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आजकल दुराचार और हिंसा का प्रभाव बहुत अधिक बढ़ रहा है| इसका कारण धर्मशिक्षा का अभाव है| बाहरी वातावरण से हम भी अछूते नहीं है| गीता का स्वाध्याय, तदनुसार आचरण और भगवान का ध्यान ही हमें सब प्रकार के विकारों से बचा सकता है| मुझे तो हमारे आचरण में परिलक्षित सब प्रकार के विकारों का उपचार गीता में ही दिखाई देता है|
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गीता के १७ वें अध्याय में भगवान ने हर मनुष्य के स्वभाव के अनुसार आहार, यज्ञ, तप और दान के बारे में बताया है| गीता के इस अध्याय का स्वाध्याय और उसके अनुसार आचरण निश्चित रूप से हमें अनेक बुराइयों से बचाएगा, ऐसा मेरा विश्वास है| साथ साथ ध्यान भी करना होगा|
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विद्यालयों में बाल्यकाल से ही विद्यार्थियों को गीता पढ़ानी चाहिए और ध्यान साधना सिखानी चाहिए| इस अधर्मसापेक्ष (धर्मनिरपेक्ष) व्यवस्था में हिन्दू अपने विद्यालयों में अपने बच्चों को संविधान की धारा ३०(१) के कारण धर्म की शिक्षा भी नहीं दे सकता| मुसलमान और ईसाई अपने बच्चों को कुरआन और बाइबल पढ़ा सकता है पर हिन्दू गीता नहीं पढ़ा सकता| मदरसों और कोंवेंटों को मान्यता प्राप्त है पर गुरुकुलों को नहीं| धर्मशिक्षा के अभाव के कारण ही हमारे बच्चे अधर्मी हो रहे हैं| भविष्य में कभी भगवान की कृपा होगी तभी हिन्दुओं में चेतना आयेगी और वे अपने विरुद्ध हो रहे अन्याय का प्रतिकार कर पायेंगे| अभी तक तो स्थिति निराशाजनक ही है|
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मेरा सुझाव है कि हम अपनी निजी क्षमता में गीता का अध्ययन स्वयं करें और अपने बच्चों को भी करायें| स्वयं भी भगवान का ध्यान करें और अपने बच्चों को भी सिखायें| सिर्फ बातों से काम नहीं होगा| अनवरत प्रयास करना होगा|
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कृप शंकर
२० जुलाई २०१८
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