Thursday 2 August 2018

गुरु चरणों का ध्यान :----

गुरु चरणों का ध्यान :----
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जैसे जैसे गुरु पूर्णिमा का दिन समीप आता जा रहा है, गुरुचरणों में ध्यान करने की प्रेरणा अधिक से अधिक होती जा रही है| इस तरह की प्रेरणा या विचार जब भी प्रभुकृपा से प्राप्त हो तो उसे तृप्त अवश्य कर लेना चाहिए| आध्यात्म मार्ग के पथिक को गीता में सभी जिज्ञासाओं का समाधान मिल जाता है, वह भी इतना स्पष्ट कि कण मात्र भी संदेह नहीं रहता| मनुष्य की जैसी चेतना होती है वैसी ही प्रेरणा उसे मिलती रहती है|
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उससे पूर्व यह स्पष्ट हो जाना चाहिए कि गुरु कौन है, गुरु सेवा क्या है और गुरु के चरण क्या हैं| आरम्भ मैं एक सामाजिक संस्था से करता हूँ, फिर आध्यात्म पर आऊँगा| भारत में रा.स्व.से.संघ सबसे बड़ी सामाजिक संस्था है| राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ में परम पवित्र भगवा ध्वज को ही गुरु माना गया है, किसी मनुष्य को नहीं| उनके स्वयंसेवक सारी प्रेरणा भगवा ध्वज से ही लेते हैं| उनके लिए संघकार्य ही गुरुसेवा, राष्ट्रधर्म और राष्ट्र की आराधना है| संघ की प्रार्थना और एकात्मता स्तोत्र का पाठ स्वयंसेवकों द्वारा नित्य नियमित होता है| यह एक विशुद्ध सामाजिक कार्य है, इस से एक संतुष्टि तो मिलती है पर आध्यात्मिक अभीप्सा की तृप्ति नहीं होती|
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अब निज जीवन की बात करता हूँ| किशोरावस्था में घर पर ही रामायण और महाभारत का अध्ययन कर लिया था पर उस आयु में जैसी समझ होती है वैसा ही समझ में आया| उन्हीं दिनों एक बार रमण महर्षि की जीवनी कहीं से पढने को मिली, उस से सुप्त आध्यामिकता और बौद्धिक भूख जागृत हो उठी| उस बौद्धिक भूख को तृप्त करने के लिए सम्पूर्ण विवेकानंद साहित्य का अध्ययन दो बार किया| उस से बौद्धिक भूख तो तृप्त हुई पर ह्रदय में जल रही अभीप्सा की अग्नि कभी शांत नहीं हुई| जो भी आध्यात्मिक साहित्य कहीं से भी उपलब्ध हो जाता उसका अध्ययन करता और किसी भी संत-महात्मा के बारे में पता चलता तो उनसे जाकर मिलता| पर वह अभीप्सा दिन प्रतिदिन बढ़ती ही जाती थी, कभी तृप्त नहीं हुई| पूरे भारत के ब्राह्मण परिवारों में गायत्री मन्त्र की साधना सबसे सामान्य बात है| भारत के प्रायः सभी ब्राह्मण गायत्री मंत्र का जाप करते हैं| पारिवारिक संस्कारों के कारण वह ही एकमात्र साधना थी| अन्य कुछ समझ में ही नहीं आता था| धीरे धीरे ईश्वर की कृपा से जीवन में सत्संग लाभ भी हुआ, बहुत ही अच्छे अच्छे संत-महात्माओं से भी मिलना हुआ और मार्गदर्शन व गुरु लाभ भी मिला| ध्यान और क्रियायोग के अभ्यास व निजानुभूतियों से हृदय में जगी हुई अभीप्सा भी तृप्त हुई| वेदान्त का भी निज अनुभूतियों और गुरु कृपा से बोध हुआ| पर यह तो यात्रा का आरम्भ मात्र है| दूसरी या तीसरी कक्षा का ही विद्यार्थी हूँ, अभी तो बहुत पढाई करनी है|
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ध्यान की गहराई में कूटस्थ चैतन्य की अनुभूतियों से ही यह समझ में आया कि कूटस्थ ही गुरु है, सहस्त्रार ही गुरु चरण हैं, और सहस्त्रार में ध्यान ही गुरु चरणों का ध्यान है| सहस्त्रार से परे अनंत आकाश के विस्तार की अनुभूतियों से समझ में आता है कि हम यह देह नहीं, ईश्वर की अनंतता हैं| ईश्वर की अनंतता में ही परमशिव की अवधारणा समझ में आती है, उससे पूर्व नहीं|
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आध्यात्म मार्ग पर चलने के लिए सबसे आवश्यक है .... "अभीप्सा", "भक्ति" और "आत्म संयम"| फिर आगे के सारे द्वार अपने आप ही खुल जाते हैं| गीता का छठा अध्याय ही आत्म-संयम योग है| उसका स्वाध्याय साधकों के लिए अनिवार्य ही समझ लीजिये| 
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इस समय अन्य कुछ भी लिखने की प्रेरणा नहीं मिल रही है| सामने गुरु महाराज के चरण कमलों के अतिरिक्त अन्य कुछ भी दिखाई नहीं दे रहा है| अगले कुछ दिनों तक गुरु चरणों का ही ध्यान करना है और कुछ भी नहीं| इस मंच पर यही कहना चाहता हूँ कि पूरी भक्ति से गुरु चरणों का ही ध्यान करो, आगे के सारे द्वार अपने आप ही खुल जायेंगे|
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सभी को नमन ! ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२१ जुलाई २०१८

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