Monday, 31 July 2017

प्रकृति अपने नियमों के अनुसार चलती है हमारी मनमर्जी से नहीं .......

प्रकृति अपने नियमों के अनुसार चलती है हमारी मनमर्जी से नहीं .......
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प्रकृति अपने नियमों के अनुसार चलती है, उन नियमों को समझने का प्रयास न करना हमारी भूल है, प्रकृति की नहीं| समुद्र में ज्वार-भाटा तो आता ही रहता है जो प्रकृति के नियमानुसार बिलकुल सही समय पर आता है, उसमें एक क्षण की भी भूल नहीं होती| जो इस विषय के जानकार होते हैं वे वर्षों पहले ही गणना कर के बता देते हैं कि पृथ्वी के किस किस भाग पर किस समय ज्वार आयेगा, कब तक रहेगा, वहाँ समुद्र का जल स्तर उस समय कितना होगा, व महत्वपूर्ण नक्षत्रों और चन्द्रमा की उस समय क्या स्थिति होगी| समुद्रों में जो नौकानयन करते हैं उनके पास हर वर्ष एक वर्ष आगे तक का एक पंचांग (Almanac) रहता है जिसमें यह पूरी जानकारी रहती है| उस पंचांग को वही समझ सकता है जिसको नौकानयन की विद्या आती है, अन्य कोई नहीं|
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ऐसे ही संसार में जन्म-मरण और संचित/प्रारब्ध कर्मफलों की प्राप्ति आदि का ज्ञान निश्चित रूप से कहीं न कहीं और किसी न किसी को ज्ञात अवश्य है| यदि हमें नहीं ज्ञात है तो इसमें दोष हमारे अज्ञान का है, प्रकृति का नहीं| यदि हमें नहीं पता है तो उसका अनुसंधान करना पड़ेगा|
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जैसे समुद्र में ज्वार-भाटे को रोका नहीं जा सकता वैसे ही जन्म-मरण और प्रारब्ध कर्मों से प्राप्त होने वाले फलों को कोई रोक नहीं सकता है| महात्मा लोग कहते हैं कि वेदों में जीवनमुक्त होने का पूरा ज्ञान है| पर उसे समझने की पात्रता भी चाहिए और सही समझाने वाला भी चाहिए|
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जितना अब तक इस लेख में लिखा गया है, उससे अधिक लिखने का मुझे न तो अधिकार है और न मेरी पात्रता है|
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जिसे डॉक्टरी पढनी है उसे मेडिकल कॉलेज में भर्ती होना होगा, जिसे इंजीनियरिंग पढनी है उसे इंजीनियरिंग कॉलेज में भर्ती होना होगा, जिसे जो भी विद्या पढनी है उसे उसी तरह के महाविद्यालय में प्रवेश लेना होगा| पासबुक पढ़कर या नक़ल मार कर कोई हवाई जहाज का पायलट या समुद्री जहाज का कप्तान नहीं बन सकता है|
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वैसे ही श्रुतियों यानि वेदों -उपनिषदों का ज्ञान प्राप्त करने के लिए हमें किसी श्रौत्रिय ब्रह्मनिष्ठ सिद्ध आचार्य की खोज करनी होगी और नम्रता से निवेदन करना होगा, तभी वे अनुग्रह करके हमारा मार्गदर्शन करेंगे, अन्यथा नहीं| वहाँ ट्यूशन फीस, डोनेशन और रुपयों का लोभ देने से काम नहीं चलेगा| दो-चार लाख रूपये खर्च कर बिना पढ़े हम पीएचडी की डिग्री तो प्राप्त कर सकते हैं पर ब्रह्मविद्या का ज्ञान नहीं|
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हे प्रभु, मोह और तृष्णा से हमें मुक्त करो, धर्माचरण में आने वाले कष्टों से पार जाने की शक्ति दो, शास्त्राज्ञाओं को समझने व उनका पालन करने की क्षमता दो, विविदिषा व वैराग्य दो| हमें अपनी पूर्णता दो और अपने साथ एक करो|
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ॐ शांति शांति शांति | ॐ ॐ ॐ ||


कृपाशंकर
३१ जुलाई २०१७

इस देह में हम जीवन्मुक्त होने के लिए ही आये हैं ......

इस देह में हम जीवनमुक्त होने के लिए ही आये हैं .....
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इस देह में हम जीवनमुक्त होने के लिए ही आये हैं| सभी गुणों से हमें मुक्त होना ही होगा| जैसे तमोगुण और रजोगुण में विकृतियाँ हैं वैसे ही सतोगुण में भी हैं| इन तीनों गुणों से परे हो कर ही हम कामनाओं से मुक्त हो सकते हैं| कामनाओं से मुक्ति ही जीवन्मुक्ति है|

भगवान श्रीकृष्ण का आदेश है ....

त्रैगुण्यविषया वेदा निस्त्रैगुण्यो भवार्जुन |
निर्द्वन्द्वो नित्यसत्त्वस्थो निर्योगक्षेम आत्मवान् ||


स्वामी रामसुखदास जी ने इसका अनुवाद यों किया है ......

"वेद तीनों गुणोंके कार्यका ही वर्णन करनेवाले हैं, हे अर्जुन तू तीनों गुणोंसे रहित हो जा, निर्द्वन्द्व हो जा, निरन्तर नित्य वस्तुमें स्थित हो जा योगक्षेमकी चाहना भी मत रख और परमात्मपरायण हो जा|"
इस श्लोक की आध्यात्मिक व्याख्या बहुत गहरी है| इन तीनों गुणों के प्रभाव से जो भी शरीर हमें मिलते हैं वे सब दुःदायक होते हैं| सब की अपनी अपनी पीड़ाएँ हैं| उपनिषदों में विस्तार से सभी के दोष बताये गए हैं| इस देह में दुबारा न आना पड़े इसकी भी विधी शास्त्रों में वर्णित है| यह संसार या कोई भी सांसारिक व्यक्ति हमारा इष्ट नहीं हो सकता|

ज्ञान प्राप्त करने के लिए कष्ट तो हमें उठाना ही पड़ेगा, संसार में धक्के भी खाने होंगे| अपने निज विवेक को काम में लें| सारे कार्य अपने निज विवेक के प्रकाश में करें|

ॐ तत्सत् | ॐ ॐ ॐ ||

क्या परमात्मा से भी अधिक कोई अन्य वस्तु प्रिय हो सकती है ?....

क्या परमात्मा से भी अधिक कोई अन्य वस्तु प्रिय हो सकती है ?
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भगवान श्रीकृष्ण ने गीता के छठे अध्याय में कहा है .........

"यं लब्ध्वा चापरं लाभं मन्यते नाधिकं ततः |
यस्मिन्स्थितो न दुःखेन गुरुणापि विचाल्यते ||"

जिस (आत्म) लाभ को पाने के पश्चात् हम पाते हैं कि इससे अधिक अन्य कुछ भी प्राप्य नहीं है| उस (आत्म तत्व) में स्थित होने के पश्चात् बड़े से बड़ा दुःख भी हमें विचलित नहीं कर सकता|

इस से हम अंदाज़ कर सकते हैं की हम कहाँ और किस स्थिति में खड़े हैं|
कई बार मन में लालच आ जाता है, और हमें परमात्मा से भी अधिक लाभ अन्य वस्तुओं या अनुष्ठानों में दृष्टिगत होने लगता है जो यह स्पष्ट बताता है कि हम अभी तक निःस्पृह नहीं हुए हैं|

क्या परमात्मा से भी अधिक कोई अन्य वस्तु प्रिय हो सकती है ?