Saturday, 30 November 2024

अपने आवरण को हटाइये, मैं प्रतीक्षारत हूँ ---

 हे भगवन, हे परमात्मा, हे पुरुषोत्तम, आपको नमन !! आप के कूटस्थ सूर्यमण्डल का आवरण बहुत अधिक ज्योतिर्मय है, जिसका भेदन करने में मैं असमर्थ हूँ। आपके स्वरूप का बोध मुझ अकिंचन को नहीं हो रहा है। आप अपना दर्शन भी दो। मेरी अंतर्दृष्टि आपके ज्योतिर्मय आवरण का भेदन करने में असमर्थ है। मेरा चिंतन, मनन, निदिध्यासन और ध्यान इस समय कुछ भी काम नहीं आ रहा है। हे सत्यस्वरूप, अपने आवरण को हटाइये, मैं प्रतीक्षारत हूँ। ॐ ॐ ॐ !!

कृपा शंकर
१ दिसंबर २०२४

"ॐ नमस्तुभ्यं नमो मह्यं तुभ्यं मह्यं नमोनमः। अहं त्वं त्वमहं सर्वं जगदेतच्चराचरम्॥" ---

 "ॐ नमस्तुभ्यं नमो मह्यं तुभ्यं मह्यं नमोनमः। अहं त्वं त्वमहं सर्वं जगदेतच्चराचरम्॥"

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हे परमात्मा, हे प्रभु, हे ईश्वर, -- मैं किस को नमन करूँ? तुम को नमन करूँ, या स्वयं को नमन करूँ? जो तुम हो वही मैं हूँ, और जो मैं हूँ वह ही तुम हो। मैं तुम्हें भी और स्वयं को भी, दोनों को ही नमन करता हूँ। दोनों में कोई भेद नहीं है।
ब्रह्मज्ञान की प्राप्ति और आत्म-साक्षात्कार का यही मार्ग परमात्मा ने मुझे दिखाया है। यही उच्चतम ब्रह्मविद्या है, यही भूमा-विद्या है, और यही वेदान्त की पराकाष्ठा है।
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उपरोक्त स्तुति बड़ी ही विलक्षण है। यह स्तुति स्कन्दपुराण के दूसरे खण्ड (वैष्णवखण्ड, पुरुषोत्तमजगन्नाथमाहात्म्य) के सताइसवें अध्याय के पंद्रहवें श्लोक से आरंभ होती है। ब्रह्माजी यहाँ भगवान विष्णु की स्तुति कर रहे हैं। विष्णु के साथ साथ स्वयं को भी नमन कर रहे हैं, और यह भी कह रहे है कि जो तुम हो, वही मैं हूँ; जो मैं हूँ, वही तुम हो। अतः दोनों को नमन।
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मुमुक्षुगण के साथ, भविष्य में चर्चा केवल ब्रह्मज्ञान, ब्रह्मविद्या और वेदान्त की ही करेंगे, नहीं तो परमशिव की ही उपासना करेंगे। जिनकी ब्रह्मविद्या और ब्रह्मज्ञान में रुचि है वे ही मेरे साथ रहें।
हे अपारपारभूताय ब्रह्मरूप आपको नमन॥ ॐ तत्सत्॥
कृपा शंकर
३० नवंबर २०२४

जन्म के साथ ही पूर्ण ज्ञान, पूर्ण भक्ति और पूर्ण वैराग्य हो ---

 जन्म के साथ ही पूर्ण ज्ञान, पूर्ण भक्ति और पूर्ण वैराग्य हो ---

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आध्यात्मिक सफलता के लिए ज्ञान, भक्ति और वैराग्य -- इन तीनों का होना बहुत आवश्यक है। इनमें से एक की भी कमी हो तो ईश्वर की प्राप्ति नहीं हो सकती। ज्ञान और भक्ति पर तो मैंने बहुत कुछ लिखा है, अब और लिखने की इच्छा नहीं है। जिस विषय पर इस समय लिखना चाहता हूँ, उसी पर लिख कर अपनी लेखनी को विराम देना चाहता हूँ।
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बिना प्रबल साहस के वैराग्य कभी सफल नहीं हो सकता। विरक्त होने के लिए दृढ़ इच्छा-शक्ति और अडिग साहस होना चाहिए। राग यानि मोह तो बिलकुल भी नहीं हो। हरेक व्यक्ति में कुछ न कुछ कमियाँ होती है, जिन्हें स्वीकार करने में संकोच नहीं करना चाहिए। मैं अपने अवगुण और गुण सभी को बहुत अच्छी तरह से समझता हूँ। अपनी सभी कमियों और अच्छाइयों का मुझे पता है, और उन्हें स्वीकार भी करता हूँ। इसी जन्म में ईश्वर और गुरु की कृपा से अपनी कमियों से मुक्ति भी पा लूँगा, इतना आत्म-विश्वास है।
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सन् १९८० से १९८५ ई. तक मुझे बहुत गहरा वैराग्य हुआ था, लेकिन निम्न तीन कारणों से वैराग्य पूर्णतः फलीभूत नहीं हो सका, और सफलता नहीं मिली ---
(१) जितना साहस चाहिए था, उतना साहस मैं नहीं जुटा सका।
(२) मोह से जितनी मुक्ति चाहिये थी, वह भी कभी नहीं मिली।
(३) जिह्वा के स्वाद और नींद पर कभी विजय न पा सका।
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संभवतः पूर्वजन्मों में उतने अच्छे कर्म नहीं किए, जितने करने चाहिये थे। इसी लिए ये कमियाँ रहीं। भगवान से प्रार्थना है कि यदि वे मुझे फिर कभी मनुष्य योनि में जन्म दें (जो बहुत दुर्लभ है) तो जन्म के साथ ही पूर्ण ज्ञान, पूर्ण भक्ति और पूर्ण वैराग्य हो। गुरुकृपा पूर्णत: फलीभूत हो।
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इस जन्म में भगवान की कृपा से मुझमें एक ही गुण था, जिससे मुझे सबसे अधिक लाभ हुआ। वह गुण था -- "अभीप्सा", यानि भगवान को पाने की एक अति अति प्रबल प्यास और तड़प। इसके अतिरिक्त अन्य कोई गुण मुझमें नहीं था। इस गुण का यह लाभ हुआ कि मैंने अनगिनत बहुत सारे ग्रन्थों का स्वाध्याय किया जिससे बौद्धिक स्तर पर किसी भी तरह की कोई शंका नहीं रही। ईश्वर की बहुत अधिक कृपा मुझ अकिंचन पर रही, जिस के कारण अनेक महान आत्माओं से सत्संग लाभ हुआ जो मनुष्य जीवन में अति दुर्लभ है।
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अब और कुछ लिखने को नहीं है। मैं अपने विचारों पर बहुत दृढ़ हूँ, जो बदल नहीं सकते। जैसे काली कंबल पर दूसरा कोई रंग नहीं चढ़ सकता वैसे ही मुझ पर भी कोई दूसरा रंग नहीं चढ़ सकता। मुझे सुधारने के लिए वीडियो आदि न भेजें, और न ही किन्हीं समूहों में सम्मिलत होने का आग्रह करें। मैं व्यक्तिगत रूप से हर किसी से नहीं मिलता। मैं उन्हीं से मिलता हूँ जिनके हृदय में भगवान को पाने की अभीप्सा यानि एक प्रबल प्यास और तड़प है।
मेरी परिचित और अपरिचित सभी महान आत्माओं को मैं नमन करता हूँ। मैं आप सब के साथ एक हूँ। आपमें और मुझमें कोई भेद नहीं है।
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ॐ नमो भगवते वासुदेवाय !! ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१ दिसंबर २०२३