Wednesday, 4 July 2018

मेरे लिए मेरा स्वधर्म है ..... "परमात्मा से परमप्रेम, उनकी उपासना और सदाचरण .....

मेरे लिए मेरा स्वधर्म है ..... "परमात्मा से परमप्रेम, उनकी उपासना और सदाचरण|"
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इसके अतिरिक्त अन्य सब लौकिक धर्म है| "स्वधर्म" ही सर्वाधिक महत्वपूर्ण है, अन्य कुछ भी नहीं| परमात्मा की परम कृपा से मुझे स्वधर्म का अच्छी तरह बोध और ज्ञान है, किसी भी तरह का कोई संशय नहीं है| इस संसार को मैनें बहुत समीप से देखा है जिस पर से मेरी आस्था हट गयी है| किसी पर भी अब विश्वास नहीं रहा है| श्रद्धा और विश्वास एकमात्र परमात्मा पर ही है| इसी क्षण से आगे जीवन के अंत तक स्वधर्म में ही स्थिर रहने का प्रयास होगा|
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भगवान भी कहते हैं ...
"श्रेयान्स्वधर्मो विगुणः परधर्मात्स्वनुष्ठितात्| स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मो भयावहः||"३:३५||
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राग द्वेष से भरा मनुष्य तो परधर्म को भी स्वधर्म मान लेता है| परन्तु यह उसकी भूल है| जब भगवान से ये शब्द लिखने की प्रेरणा मिली है तो इसी क्षण से स्वधर्म में स्थित रहने का पूरा प्रयास होगा|
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मेरी प्रार्थना है कि सभी अपने स्वधर्म को समझें और उस का आचरण करें|

ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
३ जुलाई २०१८

भगवान का अनुस्मरण कैसे हो ?.....

भगवान का अनुस्मरण कैसे हो ?.....
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भगवान का अनुस्मरण कैसे हो ? यह एक अत्यधिक महत्वपूर्ण विषय है जिस की हम उपेक्षा नहीं कर सकते| इसकी उपेक्षा से भविष्य में हमें सुख की नहीं अपितु दुःखों ही दुःखों की प्राप्ति होगी| इस जन्म में तो हम अपना प्रारब्ध भुगत रहे हैं, पर आगे के जन्मों में हमारी क्या गति होगी यह भगवान के लिए हमारे द्वारा किये गए अनुस्मरण पर निर्भर है|
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गीता में भगवान कहते हैं .....
तस्मात्सर्वेषु कालेषु मामनुस्मर युध्य च| मय्यर्पितमनोबुद्धिर्मामेवैष्यस्यसंशयम्||८:७||
अर्थात् ..... इसलिये तू सब समयमें मेरा अनुस्मरण कर और युद्ध भी कर| मेरे में मन और बुद्धि अर्पित करनेवाला तू निःसन्देह मेरे को ही प्राप्त होगा|
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अंतकाल की भावना ही अगले जन्म में अन्य शरीर की प्राप्ति का कारण होती है| इस लिए भगवान ने यह बात कही है| पता नहीं कौन सा क्षण या कौन सी साँस अंतिम हो| भगवान हमें आदेश देते हैं कि हर समय हम उनका स्मरण भी करें और स्वधर्म रूपी युद्ध यानी अपने कर्त्तव्य भी शास्त्राज्ञानुसार निभाते रहें| यह भगवान की आज्ञा है जिसका हमें पालन सदा बिना किसी संशय के करना चाहिए|
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स्वनामधन्य भाष्यकार भगवान शंकर ने उपरोक्त श्लोक का स्पष्ट अर्थ किया है .... "तस्मात् सर्वेषु कालेषु माम् अनुस्मर यथाशास्त्रम्| युध्य च युद्धं च स्वधर्मं कुरु| मयि वासुदेवे अर्पिते मनोबुद्धी यस्य तव स त्वं मयि अर्पितमनोबुद्धिः सन् मामेव यथास्मृतम् एष्यसि आगमिष्यसि असंशयः न संशयः अत्र विद्यते||"
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हम अपना मन और बुद्धि भगवान को अर्पित करें .....
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भगवान ने हम को सब कुछ दिया है अतः हमारा भी दायित्व बनता है कि हम भी भगवान को कुछ दें| भगवान हमसे क्या माँगते हैं????? वे हम से हमारा मन और बुद्धि ही तो माँग रहे हैं| क्या हम अपना मन और बुद्धि भी भगवान को अर्पित नहीं कर सकते?????
यदि नहीं कर सकते तो हमारा जीवन व्यर्थ है और हम इस पृथ्वी पर भार ही हैं|
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ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
३ जुलाई २०१८