Saturday, 29 October 2022

कौन सा मत/संप्रदाय/सिद्धान्त सर्वश्रेष्ठ है?

 मैं सत्य-सनातन-हिन्दू-धर्म के सभी संप्रदायों का सम्मान समभाव से करता हूँ। मैंने हिन्दू-धर्म के लगभग सभी प्रमुख संप्रदायों के संत-महात्माओं के साथ सत्संग किया है। सभी संप्रदायों में एक से बढ़कर एक तपस्वी और विद्वान साधु हैं। जितना सम्मान मैं शंकराचार्यों का करता हूँ, उतना ही सम्मान वैष्णवाचार्यों का करता हूँ। मैं अपना एक निजी विचार व्यक्त कर रहा हूँ ---

प्रश्न :--- कौन सा मत/संप्रदाय/सिद्धान्त सर्वश्रेष्ठ है?
उत्तर :--- हम स्वभावतः उसी मत या संप्रदाय की ओर आकृष्ट होते हैं, जिस के संस्कार हमारे में पूर्वजन्मों से होते हैं। फिर भी मैं बड़ी स्पष्टता से कहता हूँ कि वही सिद्धान्त सर्वश्रेष्ठ है जो हमें शीघ्रातिशीघ्र इसी जीवन में ईश्वर की प्राप्ति करा दे। मनुष्य जीवन का लक्ष्य ईश्वर की प्राप्ति है, और जो हमारे में परमात्मा के प्रति परमप्रेम जागृत कर हमे आनंदमय बना दे, वही मत/सिद्धान्त सर्वश्रेष्ठ है। जो हमें ईश्वर से दूर ले जाये वह सिद्धान्त गलत है।
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कृपा शंकर
१३ सितंबर २०२२

स्वयं का पिंडदान ---

 स्वयं का पिंडदान ---

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जब यह दृढ़ अनुभूति हो जाये कि मैं यह भौतिक शरीर नहीं, एक शाश्वत आत्मा हूँ, उसी समय हमारा स्वयं का पिंडदान हो जाता है। मूलाधारस्थ कुंडलिनी -- "पिंड" है। गुरु-प्रदत्त विधि से बार-बार कुंडलिनी महाशक्ति को मूलाधार-चक्र से उठाकर सहस्त्रार में भगवान विष्णु के चरण-कमलों (विष्णुपद) में अर्पित करना यथार्थ "पिंडदान" है। इसे श्रद्धा के साथ करना "श्राद्ध" है।
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लेकिन शास्त्रों के आदेशानुसार गृहस्थों का दायित्व है कि परिवार में अपने से बड़े-बूढ़ों की सेवा करे, और पितृ-पक्ष में पूरी श्रद्धा से अपने पित्तरों का श्राद्ध करे। इस विषय पर मनु महाराज और याज्ञवल्क्य ऋषि के शास्त्रों में कथन ही अंतिम प्रमाण हैं।
ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
१४ सितंबर २०२२

परमात्मा के ध्यान से प्राप्त आनंद ही वास्तविक सत्संग है ---

 परमात्मा के ध्यान से प्राप्त आनंद ही वास्तविक सत्संग है ---

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बंद आँखों के अंधकार के पीछे सर्वव्यापी ज्योतिर्मय ब्रह्म के रूप में परमात्मा की अनुभूति सभी ध्यान साधकों को होती है। सारी सृष्टि ही इस ब्रह्मज्योति में समाहित हो जाती है। प्रणव की ध्वनि भी इसी ज्योति में लिपटी रहती है। इस का दर्शन, श्रवण और निरंतर अनुभूति होते रहना -- परम सौभाग्य की बात होती है। "कूटस्थ" शब्द का प्रयोग इसी के लिए होता है। निरंतर इस के चैतन्य में बने रहना "कूटस्थ चैतन्य" कहलाता है। कूटस्थ चैतन्य में निरंतर स्थिति -- "ब्राह्मी स्थिति" है।
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मेरे लिए सूक्ष्म देह में मेरुदंडस्थ सुषुम्ना नाड़ी ही पूजा की वेदी और मंडप है, जहाँ भगवान वासुदेव स्वयं बिराजमान हैं। सहस्त्रार-चक्र में दिखाई दे रही ज्योति "विष्णुपद" है। ये ही गुरु महाराज के चरण-कमल हैं। इनका ध्यान -- गुरु-चरणों का ध्यान है। इनमें स्थिति -- श्रीगुरुचरणों में आश्रय है।
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कुंडलिनी महाशक्ति का सहस्त्रार और ब्रह्मरंध्र से भी ऊपर उठकर अनंत महाकाश से परे परमशिव से स्थायी मिलन जीवनमुक्ति और मोक्ष है। यही अपने सच्चिदानंद रूप में स्थित हो जाना है।
ॐ तत्सत् !!
कृपा शंकर
१४ सितंबर २०२२

"खान" शब्द भगवान श्रीकृष्ण के एक नाम "कान्ह" का अपभ्रंस है ---

 "खान" शब्द भगवान श्रीकृष्ण के एक नाम "कान्ह" का अपभ्रंस है ---

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भगवान श्रीकृष्ण के देवलोक गमन के पश्चात भी सैंकड़ों वर्षों तक पूरे विश्व में उनकी उपासना की जाती थी। प्राचीन संस्कृत साहित्य में जिस शिव भक्त "किरात" जाति का उल्लेख है, वह "मंगोल" जाति ही है। उन में "कान्ह" शब्द बहुत सामान्य था, जो अपभ्रंस होकर "हान" हो गया। चीन के बड़े बड़े सामंत स्वयं के नाम के साथ "हान" की उपाधी बड़े गर्व के साथ लगाते थे। यही "हान" शब्द और भी अपभ्रंस होकर "खान" हो गया। प्रख्यात इतिहासकार श्री पुरुषोत्तम नागेश ओक, और अन्य अनेक इतिहासकारों का यही मत है।
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मंगोलिया के महा नायक चंगेज़ खान का वास्तविक नाम मंगोल भाषा में "गंगेश हान" (अंग्रेजी में Genghis Khan) था। यह उसका संस्कृत भाषा में एक हिन्दू नाम था। वह किसी आसुरी दैवीय शक्ति का उपासक था, जो उसे बता देती थी कि उसे कहाँ कहाँ और कैसे आक्रमण करना है, और कैसे विजय प्राप्त करनी है। वह सदा विजयी रहा। कालांतर में उसके सगे पौत्र कुबलई खान (चंगेज़ खान के सबसे छोटे बेटे तुलई खान का बेटा) ने बौद्ध मत स्वीकार कर लिया और बौद्ध मत का प्रचार किया।
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"कुबलई" शब्द संस्कृत भाषा के "कैवल्य" शब्द का अपभ्रंस है। कुबलई खान के समय ही चीनी लिपि का अविष्कार हुआ। उसी के समय मार्को पोलो ने चीन की यात्रा की थी। कुबलाई खान का राज्य उत्तर में साईबेरिया की बाइकाल झील (विश्व की सर्वाधिक गहरी मीठे पानी की झील) से दक्षिण में विएतनाम तक, और पूर्व में कोरिया से लेकर पश्चिम में कश्यप सागर तक था। पिछले एक हज़ार में हुआ वह अकेला ही इस पृथ्वी के २०% भूभाग का शासक था। उसी ने तिब्बत के प्रथम दलाई लामा की नियुक्ति की थी।
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वर्तमान में जो इतिहास पढ़ाया जाता है ,वह पश्चिमी लेखकों का लिखा हुआ है।
पश्चिमी लोगों ने अपने से अतिरिक्त अन्य सब की अत्यधिक कपोल कल्पित बुराइयाँ ही की हैं। योरोपियन लोग इतिहास के सबसे बड़े लुटेरे थे, अतः उन्होंने अपने से अलावा सबको लुटेरा ही बताया है। भारत में आया पहला यूरोपीय व्यक्ति वास्को-डी-गामा था जो एक नर पिशाच समुद्री डाकू था। भारत में जो अँग्रेज़ सबसे पहिले आये वे सब भी लुटेरे समुद्री डाकू थे। भारत पर जिन यूरोपीयों ने अधिकार किया वे सब -- चोर, लुटेरे डाकू, धूर्त, और बदमाश श्रेणी के सजा पाए हुए लोग थे, जिन्हें अपनी सजा काटने के लिए यहाँ भेजा गया था। विश्व में सबसे अधिक नर-संहार और लूट-खसोट यूरोपीय लोगों ने ही की है।
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योरोपियन इतिहासकारों ने सिकंदर को महान योद्धा और चंगेज़ खान को लुटेरा सिद्ध किया है। निष्पक्ष दृष्टी से देखने पर मुझे चंगेज़ खान की उपलब्धियाँ सिकंदर से बहुत अधिक लगती हैं। मंगोलिया कभी विभिन्न घूमंतू जातियों द्वारा शासित था। चंगेज़ खान ने मंगोलियाई साम्राज्य की स्थापना की। पश्चिमी एशिया में इस्लाम के अनुयायियों का मंगोलों ने बहुत बड़ा नरसंहार किया था। बग़दाद का खलीफा जो इस्लामी जगत का मुखिया था, एक नौका में बैठकर टाइग्रस नदी में भाग गया था, जिसे चंगेज़ खान की मंगोल सेना नदी के मध्य से पकड़ लाई और एक गलीचे में लपेट कर लाठियों से पीट पीट कर हत्या कर दी। कालांतर में पश्चिमी एशिया में बचे खुचे मंगोलों ने इस्लाम अपना लिया, पर इस्लाम मंगोलिया की मुख्य भूमि तक कभी भी नहीं पहुँच पाया।
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चंगेज़ खान के भय से ही आतंकित होकर मध्य एशिया के कुछ मुसलमान कश्मीर में शरणार्थी होकर आये और आगे जाकर छल-कपट से कश्मीर के शासक बन गए व हिन्दुओं पर बहुत अधिक अत्याचार किये। इसका वर्णन "राजतरंगिनी" नामक ग्रंथ में उसके लेखक कल्हन ने किया है।
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चंगेज़ खान का अधिकाँश समय घोड़े की पीठ पर ही व्यतीत होता था। घोड़े की पीठ पर चलते चलते ही वह सो भी लेता था। चंगेज खान के समय ही घोड़े पर बैठने की आधुनिक काठी व काठी के नीचे पैर रखने के लोहे के मजबूत पायदान का आविष्कार हुआ था। बहुत तेजी से भागते हुए घोड़े की पीठ पर से तीर चलाकर अचूक निशाना लगाने का उसे पक्का अभ्यास था, जो प्रायः उसके सभी अश्वारोहियों को भी था। जो उसके सामने समर्पण कर देता, उसे तो वह जीवित छोड़ देता था, अन्य सब का वह बड़ी निर्दयता से वध करा देता था।
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एक और प्रश्न उठता है यदि चंगेज़ खान मात्र लुटेरा था तो उसका पोता कुबलई ख़ान (मंगोल भाषा में Хубилай хаан; चीनी में 忽必烈; २३ सितम्बर १२१५ – १८ फ़रवरी १२९४) चीन का सबसे महान शासक कैसे हुआ? कुबलई ख़ान -- चंगेज़ ख़ान के सबसे छोटे बेटे तोलुइ ख़ान का बेटा था। उसके राज्य में मंगोलों से एक समय पूरा यूरोप और एशिया काँपती थी।
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वर्षों पूर्व जापान और दक्षिण कोरिया के कुछ प्रसिद्ध बौद्ध मठों के भ्रमण का मुझे अवसर मिला था। बहुत पुरानी बातें हो गई हैं, जो अब स्मृति से लुप्त हो रही हैं। कई पुराने चित्र और फोटोग्राफ भी थे। अब पता नहीं कहाँ हैं। सब महत्वहीन बातें हो गई हैं। आप ने इस लेख को पढ़ा, इसके लिए आपको धन्यवाद और नमन !!
ॐ तत्सत् !!
कृपा शंकर
१७ मई २०१५
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नीचे का पहला चित्र चंगेज़ खान का है, और दूसरा चित्र उसके पोते कुबलई खान का है।

भारत के मूस्लिम समाज में "खान" शब्द का प्रचलन कैसे हुआ? ----

 (प्रश्न): भारत के मूस्लिम समाज में "खान" शब्द का प्रचलन कैसे हुआ?

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(उत्तर): दक्षिण भारत के कुछ अति अति अल्प भागों में इस्लाम का आगमन अरब व्यापारियों के साथ हुआ था। लेकिन इस्लाम मुख्यतः मध्य एशिया, विशेषकर उज्बेकिस्तान के आक्रमणकारियों के द्वारा अफगानिस्तान के मार्ग से भारत में आया था। ये स्वयं को तुर्क कहते थे। तुर्की की सल्तनत-ए-उस्मानिया के प्रति उनमें बहुत सम्मान था। "हान" से अपभ्रंस होकर बने "खान" शब्द का तत्कालीन प्रचलित अर्थ था -- "महाराजाधिराज", "महाराजा" आदि। १२वीं तथा १३वीं सदी ई. में तुर्क लोग "खान" शब्द का प्रयोग राज्य के सर्वोच्च अधिकारी के लिए किया करते थे। यह शब्द सत्ता के शिखर पर बैठे व्यक्ति के लिए ही प्रयुक्त होता था। बाद में अफगानिस्तान में स्वयं के नाम के साथ "खान" लिखने का एक प्रचलन सा चल पड़ा था। इस तरह भारत के पठानों में खान शब्द सामान्य हो गया, और अनेक लोग अपने नाम के साथ "खान" लिखने लगे।
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आज से ३४ वर्ष पूर्व सन १९८८ में मध्य एशिया के दो तातार मुसलमान विद्वानों से मेरी भेंट और चर्चा यूक्रेन के ओडेसा नगर में हुई थी। उन्होने मुझे बड़े सम्मान से अपने घर पर निमंत्रित किया और सप्रमाण कई बातें बताईं। उनमें से एक तो अति वृद्धा विदुषी महिला डेन्टिस्ट डॉक्टर थी जो चीन की जेलों में एक राजनीतिक वंदी के रूप में १० वर्ष बिता चुकी थी। उसके स्वर्गीय पति मंचूरिया में एक व्यापारी थे। अपनी खोई हुई बेटी उसे यूक्रेन के ओडेसा नगर में मिली। फिर वह भी वहीं बस गई। अब तो वह विदुषी महिला जीवित नहीं है, लेकिन उसकी विद्वता और ज्ञान बहुत अधिक था। उस ने रूसी भाषा में लिखी इतिहास की अनेक पुस्तकें दिखाईं और बताया कि इस्लाम के आगमन से पूर्व पूरे मध्य एशिया में बौद्ध मत था, और बौद्ध मत से पूर्व सनातन हिन्दू धर्म था।
॥इति॥

प्रकृति के अटल शाश्वत नियम ---

 प्रकृति के अटल शाश्वत नियम ---

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पुनर्जन्म/मृत्यु, दुःख/सुख, यश/अपयश, हानि/लाभ आदि में भगवान का कोई हस्तक्षेप नहीं होता है। यह कार्य हमारे पूर्व के कर्मों के अनुसार प्रकृति अपने नियमों से करती है। प्रकृति के नियमों को न जानना हमारा अज्ञान है। जब तक भगवत्-प्राप्ति नहीं होती तब तक कर्मफलों को भोगने के लिए किसी न किसी रूप में पुनर्जन्म होता ही रहेगा। इसे कोई नहीं रोक सकता।
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हमारा पुनर्जन्म होगा या नहीं ? इसे जानने का एक सीधा सा तरीका है। यदि किसी भी व्यक्ति में भौतिक मृत्यु के समय कुछ कामना हो जैसे -- opposite sex के प्रति आकर्षण, किसी से बदला लेने की भावना, या कुछ सांसारिक लाभ प्राप्त करने की इच्छा आदि, --- तो उसका पुनर्जन्म निश्चित है।
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पुनर्जन्म न हो, इसका उपाय श्रीमद्भगवद्गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने बताया है। सत्यनिष्ठा, भक्ति और समर्पण के संस्कारों के साथ, किशोरावस्था से ही किसी बालक में Opposite sex के प्रति आकर्षण की दिशा यदि परमात्मा की ओर मोड़ दी जाये, तो वह इस जन्म में ही परमात्मा को प्राप्त कर सकता है। विषय-वासनाओं के चिंतन के स्थान पर हरिःचिंतन करें। यदि वेदान्त-वासना जागृत हो जाये तो अन्य कुछ चाहिये भी नहीं।
ॐ तत्सत् !!
कृपा शंकर
१६ सितंबर २०२२

ईश्वर को प्राप्त करने का हठ भी बहुत गलत है ---

 ईश्वर को प्राप्त करने का हठ भी बहुत गलत है। ऐसा हठ नहीं करना चाहिए। क्या पता हमारा यह भौतिक शरीर -- ईश्वर के तेज को सहन करने में समर्थ है या नहीं। एक २४ वोल्ट के बल्ब को करोड़ों वोल्ट की विद्युत के साथ जोड़ देने से उस बल्ब की क्या हालत होगी, वैसी ही हालत हमारी देह की भी हो सकती है।

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एक निजी अनुभूति है जिसे बताने की मुझे आंतरिक अनुमति है। आज प्रातः के ध्यान में जब मेरी चेतना सूक्ष्म जगत में थी, तब किसी सूक्ष्म जगत की एक अदृश्य महान आत्मा ने ही मुझसे एक बात कही। उसने कहा कि तुम्हारा यह शरीर ईश्वर की आंशिक चेतना को सहन करने में भी असमर्थ है। ईश्वर की अनुभूति अपने आप ही होने दो, कोई हठ मत करो, अन्यथा यह शरीर रूपी साधन ही नष्ट हो जाएगा। कहने वाले के शब्द बहुत स्पष्ट और प्रभावी थे, अभी तक मुझे ज्यों के त्यों याद हैं।
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पूरी बात समझ में आ गई। अब कोई जल्दी नहीं है। भगवान मिलें या न मिलें, सब कुछ उन पर निर्भर है। मैं उनके प्रति समर्पित हूँ। उन की पूर्ण कृपा मुझ अकिंचन पर है। भगवान से भी कुछ नहीं चाहिए। उनकी उपस्थिती का आभास ही मेरा आनंद और सत्संग है।
ॐ तत्सत् !!
कृपा शंकर
१७ सितंबर २०२२

ईश्वर की उपासना --- अपने आप में ही सबसे बड़ी सेवा है ---

 ईश्वर की उपासना --- अपने आप में ही सबसे बड़ी सेवा है, जो हम अपने धर्म, राष्ट्र, समाज, और सभी प्राणियों की कर सकते हैं। हमारे अस्तित्व में निरंतर परमात्मा की अभिव्यक्ति हो। हम जहाँ भी हैं, जो भी हैं, वहीं सर्वश्रेष्ठ और सुन्दरतम हैं। हमारी उपस्थिति ही परमात्मा का प्रमाण है। भगवान स्वयं हमारे माध्यम से सारा कार्य कर रहे हैं।

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अन्तर्मन में यह जानने की कभी एक जिज्ञासा थी कि देवताओं को स्वयं के अस्तित्व का बोध कैसा होता है? बात आई-गई हो गई, मुझे याद ही नहीं था कि ऐसी भी मेरी कभी कोई जिज्ञासा हुई थी। आज प्रातः उठते ही गुरुकृपा कहो या हरिःकृपा; वह अनुभूति भगवान ने करा ही दी। लगभग आधे घंटे तक मैं निर्विकल्प समाधि में देवत्व की चेतना में था। उस समय के भाव और अनुभूतियाँ शब्दों में व्यक्त नहीं हो सकतीं। उस समय मैं कोई मनुष्य नहीं स्वयं देवता था। यह अनुभूति जीवन में पहली बार हुई और अति आनंददायक थी। थोड़ी देर पश्चात पुनश्च मनुष्य की पीड़ादायक चेतना में लौट आया।
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निमित्तमात्र होकर कूटस्थ सूर्यमण्डल में पुरुषोत्तम का ध्यान करते करते अपने आप ही क्रिया-योग साधना होने लगती है। यज्ञ में यजमान की तरह, मैं तो एक निमित्त मात्र हूँ। कर्ता और भोक्ता तो भगवान स्वयं हैं। भगवान कहते है --
"सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज।
अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः॥"
अर्थात् - सब धर्मों का परित्याग करके तुम एक मेरी ही शरण में आओ, मैं तुम्हें समस्त पापों से मुक्त कर दूँगा, तुम शोक मत करो॥ (Abandoning all duties, take refuge in Me alone: I will liberate thee from all sins; grieve not.)
(शरणागति क्या होती है, यह भी भगवान की कृपा से ही समझ में आता है).
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सृष्टि का संचालन भगवान की प्रकृति अपने नियमानुसार करती है। नियमों को न समझना हमारा अज्ञान है। भगवान का आदेश है --
"तस्मात्सर्वेषु कालेषु मामनुस्मर युध्य च।
मय्यर्पितमनोबुद्धिर्मामेवैष्यस्यसंशयम्॥८:७॥"
अर्थात् - " इसलिए, तुम सब काल में मेरा निरन्तर स्मरण करो; और युद्ध करो। मुझ में अर्पण किये मन, बुद्धि से युक्त हुए, निःसन्देह तुम मुझे ही प्राप्त होओगे॥"
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भगवान कहते हैं --
"यो मां पश्यति सर्वत्र सर्वं च मयि पश्यति।
तस्याहं न प्रणश्यामि स च मे न प्रणश्यति॥६:३०॥"
अर्थात जो सबमें मुझको देखता है और सबको मुझमें देखता है उसके लिये मैं अदृश्य नहीं होता और वह मेरे लिये अदृश्य नहीं होता।
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इससे अधिक और कुछ लिखना इस समय मेरे लिए संभव नहीं है। आप सब को अपने साथ लेकर ही भगवान वासुदेव अपने स्वयं का ध्यान करते हैं। आप सब पर उनकी परम कृपा है। ॐ तत्सत ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१८ सितंबर २०२२

प्रार्थना योग्य कौन है? ---

 प्रार्थना योग्य कौन है?

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प्रार्थना उसी की की जाती है जिसके प्रति श्रद्धा हो। श्रद्धा के बिना किया हुआ कोई भी साधना कभी सफल नहीं हो सकती। श्रद्धा के बिना किया हुआ कोई लौकिक कर्म भी कभी सफल नहीं होता। श्रद्धा किसी गलत दिशा में हो तो निराशा ही हाथ लगती है। गीता में भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं --
"श्रद्धावाँल्लभते ज्ञानं तत्परः संयतेन्द्रियः।
ज्ञानं लब्ध्वा परां शान्तिमचिरेणाधिगच्छति॥४:३९॥"
अर्थात् - श्रद्धावान्, तत्पर और जितेन्द्रिय पुरुष ज्ञान प्राप्त करता है। ज्ञान को प्राप्त करके शीघ्र ही वह परम शान्ति को प्राप्त होता है॥
"अज्ञश्चाश्रद्दधानश्च संशयात्मा विनश्यति।
नायं लोकोऽस्ति न परो न सुखं संशयात्मनः॥४:४०॥"
अर्थात् - अज्ञानी तथा श्रद्धारहित और संशययुक्त पुरुष नष्ट हो जाता है, (उनमें भी) संशयी पुरुष के लिये न यह लोक है, न परलोक और न सुख॥
"योगसंन्यस्तकर्माणं ज्ञानसंछिन्नसंशयम्।
आत्मवन्तं न कर्माणि निबध्नन्ति धनञ्जय॥४:४१॥"
अर्थात् - जिसने योगद्वारा कर्मों का संन्यास किया है, ज्ञानद्वारा जिसके संशय नष्ट हो गये हैं, ऐसे आत्मवान् पुरुष को, हे धनंजय ! कर्म नहीं बांधते हैं॥
"तस्मादज्ञानसंभूतं हृत्स्थं ज्ञानासिनाऽऽत्मनः।
छित्त्वैनं संशयं योगमातिष्ठोत्तिष्ठ भारत॥४:४२॥"
इसलिये अपने हृदय में स्थित अज्ञान से उत्पन्न आत्मविषयक संशय को ज्ञान खड्ग से काटकर, हे भारत ! योग का आश्रय लेकर खड़े हो जाओ॥
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रामचरितमानस के मंगलाचरण में लिखा है --
"भवानी शंकरौ वन्दे,श्रद्धा विश्वास रुपिणौ।
याभ्यां बिना न पश्यन्ति,सिद्धा: स्वन्तस्थमीश्वरं॥"
अर्थात् - मैं भवानी और शंकर की वन्दना करता हूँ, जो श्रद्धा और विश्वास के रूप में सबके हृदय में वास करते हैं। बिना श्रद्धा और विश्वास के सिद्ध भी अपने अंदर बैठे ईश्वर को नहीं देख सकते हैं।
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इसलिए मैं यही बात कहना चाहता हूँ की जिस विषय में श्रद्धा हो, वहीं अपना मन लगायें। यदि भगवान में श्रद्धा नहीं हो तो बेकार की बातों से यहाँ अपना समय नष्ट न करें। मेरा यह फेसबुक पेज सिर्फ श्रद्धावानों के लिए है। मैं भी इस भौतिक शरीर में जीवित हूँ तो भगवान में श्रद्धा के कारण ही हूँ। भगवान में श्रद्धा ही मेरा जीवन है।
ॐ तत्सत् !!
कृपा शंकर
१९ सितंबर २०२२

एक दिव्य अनुभुति जो २४ सितंबर २०२२ को हुई ---

 दिनांक २४ सितंबर २०२२

आज का दिन बड़ा शुभ दिन है। लगता है कि ग्रह-नक्षत्र सभी अनुकूल हैं। आने वाला हर दिन इसी की तरह मंगलमय, शुभ और अनुकूल रहे।
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आज प्रातः उठते ही एक विराट पर्वतमाला के दर्शन हुये जो पता नहीं कहाँ है। उन पर्वतों पर बहुत मोटी बर्फ ही बर्फ जमी हुई थी। फिर एक भूकंप आया और सारी बर्फ टूट कर नीचे की ओर गिरने लगी। बड़ी भयानक ध्वनि के साथ हिम-स्खलन (Avalanche) हुआ और मैं उस विराट हिमराशि में पता नहीं कहाँ लुप्त हो गया। चारों ओर हिम ही हिम, और कुछ भी नहीं। बड़ा ही आनंददायक अनुभव था।
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उस विराट हिम-राशि के रूप में स्वयं परमात्मा आए और मुझ अकिंचन को पता नहीं स्वयं में कहाँ विलीन कर दिया। हे प्रभु, आपकी जय हो। बहुत बड़ी कृपा की है आप ने। आप की यह कृपा सदा बनी रहे। आप की जय हो।
ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२४ सितंबर २०२२

सती सावित्री ---

 सती सावित्री ---

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सती सावित्री की अमर कथा महाभारत के वनपर्व में आती है, जिसे मार्कन्डेय ऋषि ने महाराजा युधिष्ठिर को सुनाई थी। अपनी आध्यात्मिक चेतना से इस युग में महर्षि श्रीअरविंद ने अङ्ग्रेज़ी भाषा के महानतम महाकाव्य "SAVITRI" की रचना कर के सावित्री के नाम को वर्तमान काल में फिर से अमर कर दिया है।
महाभारत के अनुसार मद्र देश के राजा अश्वपति ने अपनी पुत्री सावित्री का विवाह सत्यवान से कर दिया था, जो शाल्व देश के राजा द्युमत्सेन के पुत्र थे।
शाल्व राज्य महाभारत काल में भारत का एक पश्चिमी राज्य था। इसकी दो राजधानियाँ थीं -- शोभा और मत्रिकावती। महाभारत में शाल्व वंश का वर्णन है। इतिहासकारों ने इस वंश के आठवीं सदी तक के इतिहास को भी खोज निकाला है।
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मैं जो लिखने जा रहा हूँ, वह विवादास्पद असत्य या सत्य कुछ भी हो सकता है। मेरी बात यदि असत्य या कोई भ्रम लगे तो इसे एक गल्प समझकर भूल जाना; यदि इसमें सत्य का कुछ अंश लगे तो इस पर विचार करना।
एक दिन मैं ध्यान कर रहा था। मन में यह जानने की जिज्ञासा हुई कि सत्यवान की असमय हुई मृत्यु के पश्चात सावित्री और मृत्यु के देवता यमराज के मध्य संवाद कहाँ किस स्थान पर हुआ था? यह प्रश्न मन में अनेक बार कई दिनों तक आया। एक बार अचानक ही एक दृश्य मानस पटल पर उतरा। एक लंबी बर्फ से ढकी पर्वतमाला के पूर्व दिशा की ओर के एक वन का दृश्य दिखाई दिया। वह पर्वतमाला आग्नेय दिशा से वायव्य दिशा की ओर जा रही थी। पता नहीं इस तरह के पर्वत कहाँ है?
भारत के पश्चिम-उत्तर में कश्यप सागर (Caspian Sea) से लेकर कृष्ण सागर (Black Sea) तक की लगभाग १०० कि.मी. लंबी काकेशस पर्वत शृंखला अवश्य है। इसके पूर्व में रूस है, और पश्चिम में अज़रबेज़ान, आर्मेनिया और जॉर्जिया हैं। यह क्षेत्र भी कभी भारत का ही भाग रहा होगा। मुझे लगता है वह घटना इसी क्षेत्र में कहीं हुई होगी।
२८ सितंबर २०२२

ब्राह्मणों के संस्कार ब्राह्मण बालकों में कैसे जागृत किए जाएँ ? ---

 ब्राह्मणों के संस्कार ब्राह्मण बालकों में कैसे जागृत किए जाएँ ? ---

(१) प्रत्येक ब्राह्मण बालक को उपनयन संस्कार के साथ साथ संध्या विधि सिखा देनी चाहिए।
(२) अभ्यास कराते कराते निम्न पाँच वैदिक सूक्तों का पाठ भी कंठस्थ करा देना चाहिए --
(१) भद्र सूक्त, (२) पुरुष सूक्त, (३) श्री सूक्त, (४) रुद्र सूक्त और (५) सूर्यसूक्त॥
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सायं प्रातः दिन में दो बार संध्या/गायत्रीजप/प्राणायाम; और दिन में एक बार उपरोक्त पांचों सूक्तों का पाठ -- अपने धर्म पर अडिग बना देगा। ये वैदिक सूक्त बहुत छोटे छोटे हैं, लेकिन बहुत अधिक प्रभावशाली हैं।
जो बालक अङ्ग्रेज़ी स्कूलों में पढे हैं, और संस्कृत नहीं पढ़ सकते, उन्हें भी अभ्यास द्वारा ये सिखा देने चाहियें।
किसी भी परिस्थिति में एक दिन में कम से कम दस (की संख्या में) गायत्री मंत्र का जप तो अनिवार्य है।
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भद्र सूक्त का पाठ :---
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आ नो भद्राः क्रतवो यन्तु विश्वतोऽदब्धासो अपरीतास उद्भिदः।
देवा नो यथा सदमिद् वृधे असन्नप्रायुवो रक्षितारो दिवे दिवे ॥१॥
देवानां भद्रा सुमतिर्ऋजूयतां देवाना, रातिरभि नो निवर्तताम् ।
देवाना, सख्यमुपसेदिमा वयं देवा न आयुः प्रतिरन्तु जीवसे ॥२॥
तान्पूर्वया निविदा हूमहे वयं भगं मित्रमदितिं दक्षमस्रिधम् ।
अर्यमणं वरुण सोममश्विना सरस्वती नः सुभगा मयस्करत् ॥३॥
तन्नो वातो मयोभु वातु भेषजं तन्माता पृथिवी तत्पिता द्यौः।
तद् ग्रावाणः सोमसुतो मयोभुवस्तदश्विना शृणुतं धिष्ण्या युवम् ॥४॥
तमीशानं जगतस्तस्थुषस्पतिं धियञ्जिन्वमवसे हूमहे वयम् ।
पूषा नो यथा वेदसामसद् वृधे रक्षिता पायुरदब्धः स्वस्तये ॥५॥
स्वस्ति न इन्द्रो वृद्धश्रवाः स्वस्ति नः पूषा विश्ववेदाः।
स्वस्ति नस्तार्क्ष्यो अरिष्टनेमिः स्वस्ति नो बृहस्पतिर्दधातु ॥६॥
पृषदश्वा मरुतः पृश्निमातरः शुभं यावानो विदथेषु जग्मयः।
अग्निर्जिह्वा मनवः सूरचक्षसो विश्वे नो देवा अवसागमन्निह ॥७॥
भद्रं कर्णेभिः शृणुयाम देवा भद्रं पश्येमाक्षभिर्यजत्राः।
स्थिरैरङ्गैस्तुष्टुवार्छ सस्तनूभिर्व्यशेमहि देवहितं यदायुः॥८॥
शतमिन्नु शरदो अन्ति देवा यत्रा नश्चक्रा जरसं तनूनाम् ।
पुत्रासो यत्र पितरो भवन्ति मा नो मध्या रीरिषतायुर्गन्तोः॥९॥
अदितिद्यौरदितिरन्तरिक्षमदितिर्माता स पिता स पुत्रः।
विश्वे देवा अदितिः पञ्च जना अदितिर्जातमदितिर्जनित्वम् ॥१०॥
द्यौः शान्तिरन्तरिक्ष शान्तिः पृथिवी शान्तिरापः शान्तिरोषधयः शान्तिः ।
वनस्पतयः शान्तिर्विश्वे देवाः शान्तिर्ब्रह्म शान्तिः सर्व,
शान्तिः शान्तिरेव शान्तिः सा मा शान्तिरेधि ॥११॥
ॐ शांति शांति शांति॥
इति: भद्र सूक्तम्॥ [शु० यजुर्वेद ]
२५ सितंबर २०२२

इस समय सबसे बड़ी चुनौती है -- "स्वधर्म की रक्षा" ---

 इस समय सबसे बड़ी चुनौती है -- "स्वधर्म की रक्षा", जो स्वधर्म के पालन से ही हो सकती है। स्वधर्म क्या है? इसे भगवान श्रीकृष्ण ने श्रीमद्भगवद्गीता में बहुत अच्छी तरह से समझाया है। भारत का प्राण है "श्रीमद्भगवद्गीता", जिसने भारत की रक्षा घोर कलियुग में की है, और सदा करेगी।

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पूर्ण भक्ति के साथ -- श्रीमद्भगवद्गीता का नियमित स्वाध्याय, तदानुसार आचरण, व कूटस्थ-सूर्यमण्डल में पुरुषोत्तम का नियमित ध्यान -- इसी जीवन में भगवत्-प्राप्ति करा देंगे जो जीवन का एकमात्र उद्देश्य है। किसी भी तरह का संशय हो तो किन्हीं ब्रह्मनिष्ठ श्रौत्रीय आचार्य से मार्गदर्शन लें। अभी इस समय और कुछ भी लिखने योग्य नहीं है।
ॐ तत्सत् !!
कृपा शंकर
२५ सितंबर २०२२

जब भगवान की अनन्य अव्यभिचारिणी भक्ति प्राप्त हो जाये, तभी मानिए कि आध्यात्म में कुछ उपलब्धि हुई है, अन्यथा हम बिलकुल शून्य हैं ---

जब भगवान की अनन्य अव्यभिचारिणी भक्ति प्राप्त हो जाये, तभी मानिए कि आध्यात्म में कुछ उपलब्धि हुई है, अन्यथा हम बिलकुल शून्य हैं ---

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हम एक शाश्वत आत्मा हैं, यह देह नहीं। आत्मा का स्वधर्म है -- निज जीवन में परमात्मा से परमप्रेम, व स्वयं के माध्यम से निरंतर परमात्मा की अभिव्यक्ति। यही सत्य-सनातन-धर्म है। हम सदा अपने स्वधर्म का पालन पूर्ण श्रद्धा, विश्वास व निष्ठा से करें।
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भारत में सनातन धर्म की रक्षा, पुनर्प्रतिष्ठा और वैश्वीकरण स्वयं भगवान की परम कृपा से ही होगा, जिसके लिए वे वचनबद्ध हैं। अधर्मी तमोगुणी आसुरी दानव समाज ने इस सनातन धर्म को नष्ट करने का सदा भरपूर प्रयास किया है, और अभी भी कर रहा है। दानव समाज -- एक असत्य और अंधकार की शक्ति है, जिस का पराभव सुनिश्चित है। हम अपने स्वधर्म का अनवरत रूप से निरंतर सदा पालन करते रहें, तभी हमारी रक्षा होगी।
इसके लिए --
(१) परमप्रेम (भक्ति) के साथ भगवान का सदा स्मरण करते रहें। उनकी निरंतर उपस्थिती का सदा आभास रहे।
(२) संस्कृत भाषा का मूलभूत ज्ञान प्राप्त करना ही होगा। यह देवत्व की भाषा है।
(३) अपनी सभी कमजोरियों को दूर करें। हम हर तरह से (भौतिक, आर्थिक, प्राणिक, मानसिक, ज्ञान-विज्ञानमय, व आध्यात्मिक रूप से) शक्तिशाली बनें।
(४) नित्य सायं/प्रातः नियमित रूप से निमित्त मात्र होकर संध्या करें। जिनका उपनयन संस्कार हो चुका है वे गायत्री मंत्र के साथ करें। अन्य सब अपनी अपनी श्रद्धानुसार किसी अन्य वैदिक/पौराणिक मंत्र के साथ करें। कमर को सीधी, व ठुड्डी को भूमि के समानान्तर रखते हुए, ऊनी कंबल के आसन पर बैठकर, पूर्व या उत्तर दिशा की ओर मुंह रखते हुए, भ्रूमध्य में भगवान नारायण, या शिव, या उनके किसी अवतार, या अपने गुरु का ध्यान करें। बैठने में कठिनाई हो तो नितंबों के नीचे एक गद्दी या तकिया लगा लें। हर श्वास के रेचक-पूरक के साथ साथ अजपा-जप (हंसः योग) करें। कुंभक के समय प्रणव या गुरु-प्रदत्त बीज मंत्र का मानसिक श्रवण करें। जब सुषुम्ना की ब्रह्मनाड़ी में कुंडलिनी जागृत हो जाये (जो साधना में बड़ी सामान्य से सामान्य और बहुत छोटी से छोटी नगण्य धटना है, कोई बड़ी बात नहीं है) तो उसके साथ साथ ज्योतिर्मय कूटस्थ सूर्यमण्डल में परमशिव या पुरुषोत्तम का ध्यान करें।
(५) उपासना के पश्चात समष्टि के कल्याण की प्रार्थना करें।
(६) पूरे दिन जो भी कार्य करें, उसमें कर्ता भगवान को ही बनायें, स्वयं निमित्त मात्र होकर ही रहे। जीवन के केंद्र-बिन्दु स्वयं परमात्मा हों।
(७) हठयोग के अनेक आसन, मुद्राएँ, बंध, और क्रियाएँ साधना में बड़ी सहायक है। वे किसी हठयोग गुरु से सीखें।
(८) दिन में एक बार संस्कृत भाषा में ही वेदमंत्रों का पाठ करें। वे बड़े शक्तिशाली है। उन्हें कोई छोटा-मोटा (दानव समाज के अनुसार भेड़-बकरी-गायें चराने वाले आर्य गड़रियों के गीत) शब्दजाल न समझें। वेदों में प्रार्थना के रूप में अनेक सूक्त है। उनमें से मुख्य हैं -- पुरुष सूक्त, श्री सूक्त, रुद्र सूक्त, सूर्यसूक्त, और भद्र सूक्त। इनमें से किसी एक का या सभी का श्रद्धा भक्ति से पाठ करें।
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आज से शारदीय नवरात्रों का आरंभ है। भगवती से प्रार्थना है की मेरा मन स्वयं में लगाए रखें। किसी भी तरह का कोई भटकाव न हो। संसार के लिए मैं उपलब्ध नहीं रहूँगा।
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आपको किसी भी तरह का कोई संशय या जिज्ञासा हो तो किन्हीं ब्रहमनिष्ठ श्रौत्रीय आचार्य के चरणों में बैठकर उन से अपने संशयों का निवारण करें। ॐ तत्सत् !!
कृपा शंकर
२६ सितंबर २०२२

"अनन्य योग" व "अव्यभिचारिणी भक्ति" --- (Amended & Re-Posted)

भगवान श्रीकृष्ण ने महाभारत में दो बार, दो अलग-अलग स्थानों पर, दो सगे भाइयों -- युधिष्ठिर व अर्जुन को "अव्यभिचारिणी भक्ति" का उपदेश दिया है। जिस के जीवन में यह "अव्यभिचारिणी भक्ति" और "अनन्य योग" फलीभूत हो जाते हैं, उसे इसी जीवन में भगवत्-प्राप्ति हो सकती है।
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महाभारत के अनुशासन पर्व में भगवान श्रीकृष्ण ने महाराजा युधिष्ठिर को तंडि ऋषि कृत "शिवसहस्त्रनाम" का उपदेश दिया है, जो भगवान श्रीकृष्ण को उपमन्यु ऋषि से प्राप्त हुआ था। उसका १६६वां श्लोक है --
"एतद् देवेषु दुष्प्रापं मनुष्येषु न लभ्यते।
निर्विघ्ना निश्चला रुद्रे भक्तिर्व्यभिचारिणी॥"
(यहाँ "निर्विघ्ना" और "निश्चला" शब्दों का भी प्रयोग हुआ है)
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महाभारत के भीष्म पर्व में कुरुक्षेत्र की रण-भूमि में भगवान श्रीकृष्ण अपने प्रिय शिष्य अर्जुन को जो भगवद्गीता का उपदेश देते हैं, उसके १३वें अध्याय का ११वां श्लोक है --
"मयि चानन्ययोगेन भक्तिरव्यभिचारिणी।
विविक्तदेशसेवित्वमरतिर्जनसंसदि॥"
अर्थात् - अनन्ययोग के द्वारा मुझमें अव्यभिचारिणी भक्ति; एकान्त स्थान में रहने का स्वभाव और (असंस्कृत) जनों के समुदाय में अरुचि॥
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भगवान श्रीकृष्ण ने अनन्ययोग के लिए अव्यभिचारिणी भक्ति, एकान्तवास के स्वभाव, और (असंस्कृत) जनों के समुदाय में अरुचि का होना बताया है।सत्यनिष्ठा पूर्वक भगवान के सिवा अन्य कुछ भी प्रिय न लगे, वह अव्यभिचारिणी भक्ति है। ऐसे नहीं कि जब सिनेमा अच्छा लगे तब सिनेमा देख लिया, नाच-गाना अच्छा लगे तब नाच-गाना कर लिया, गप-शप अच्छी लगे तब गप-शप कर ली; और भगवान अच्छे लगे तब भगवान की भक्ति कर ली। ऐसी भक्ति व्यभिचारिणी होती है। "सिर्फ भगवान ही अच्छे लगें, भगवान के सिवा अन्य कुछ भी अच्छा न लगे, निरंतर भगवान का ही स्मरण रहे वह "अव्यभिचारिणी भक्ति" है।"
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वेदान्त के दृष्टिकोण से स्वयं में भगवान की धारणा कर के कि मेरे सिवा अन्य कोई नहीं है, मैं ही सर्वत्र और सर्वस्व हूँ, अनन्य भक्ति है।
अनन्य अव्यभिचारिणी भक्ति, एकांतवास और कुसंग-त्याग को भगवान ने "अनन्य-योग" बताया है।
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स्वनामधन्य भाष्यकार भगवान आचार्य शंकर ने अपने भाष्य में लिखा है -- "मयि च इश्वरे अनन्ययोगेन अपृथक्समाधिना न अन्यो भगवतो वासुदेवात् परः अस्ति। अतः स एव नः गतिः इत्येवं निश्चिता अव्यभिचारिणी बुद्धिः अनन्ययोगः। तेन भजनं भक्तिः न व्यभिचरणशीला अव्यभिचारिणी। सा च ज्ञानम्।"
अर्थात् -- "मुझ ईश्वर में अनन्य योगसे -- एकत्वरूप समाधियोग से अव्यभिचारिणी भक्ति। भगवान वासुदेव से परे अन्य कोई भी नहीं है। अतः वही हमारी परमगति है। इस प्रकार की जो निश्चित अविचल बुद्धि है, वही अनन्य योग है। उस से युक्त होकर भजन करना ही कभी विचलित न होनेवाली अव्यभिचारिणी भक्ति है। वह भी ज्ञान है।"
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यह "अनन्य-योग" भगवान श्रीकृष्ण को सर्वाधिक प्रिय है। जो उन को प्रिय है, वह ही हमें भी प्रिय होना चाहिए। विश्वगुरु भगवान श्रीकृष्ण ही हमारे परमेष्ठी परात्पर परमगुरु हैं। हम सब उनको पूर्ण सत्यनिष्ठा से शरणागति द्वारा समर्पित हों। इस समर्पण में कोई कमी न हो।
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हमारे भगवान बड़े ईर्ष्यालु प्रेमी हैं, वे हमारा शत-प्रतिशत प्यार माँगते हैं। जरा सी भी कमी हो तो वे हम से विमुख हो जाते हैं। और प्यार भी वे ऐसा माँगते हैं जिसमें निरंतर वृद्धि होती रहे। जैसे एक छोटे बच्चे को मनाते हैं, वैसे ही उन्हें भी मनाना पड़ता है। लेकिन जब उनसे प्यार हो ही गया है तो भला-बुरा सब लिखना ही पड़ेगा।
संत मलूकदास जी के शब्दों में --
"दीनदयाल सुनी जबतें, तब तें हिय में कुछ ऐसी बसी है,
तेरो कहाय के जाऊँ कहाँ मैं, तेरे हित की पट खैंचि कसी है।
तेरोइ एक भरोसो मलूक को, तेरे समान न दूजो जसी है,
ए हो मुरारि पुकारि कहौं अब मेरी हँसी नहीं तेरी हँसी है॥"
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गीता में भगवान कहते हैं ...
"ब्रह्मणो हि प्रतिष्ठाऽहममृतस्याव्ययस्य च।
शाश्वतस्य च धर्मस्य सुखस्यैकान्तिकस्य च॥१४:२७॥"
अर्थात् - "क्योंकि मैं अमृत, अव्यय, ब्रह्म, शाश्वत धर्म और ऐकान्तिक अर्थात् पारमार्थिक सुख की प्रतिष्ठा हूँ॥"
इसी भाव में स्थित होकर उनका ध्यान करना चाहिए। हम यह नश्वर देह नहीं, शाश्वत आत्मा हैं। उनमें समर्पित होने पर पृथक आत्मा का बोध भी नहीं रहता, वे ही वे रह जाते हैं और कर्ता भाव विलुप्त हो कर उपास्य, उपासना और उपासक वे स्वयं ही हो जाते हैं। ध्यान करते करते उपास्य के गुण उपासक में भी आ ही जाते हैं।
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भक्ति में व्यभिचार वह है जहाँ भगवान के अलावा अन्य किसी से भी प्यार हो जाता है भगवान हमारा शत-प्रतिशत प्यार माँगते हैं। हम जरा से भी इधर-उधर हो जाएँ तो वे चले जाते हैं। इसे समझना थोड़ा कठिन है। हम हर विषय में, हर वस्तु में भगवान की ही भावना करें, और उसे भगवान की तरह ही प्यार करें। सारा जगत ब्रह्ममय हो। ब्रह्म से पृथक कुछ भी न हो। यह अव्यभिचारिणी भक्ति है। गीता में भगवान कहते हैं --
"बहूनां जन्मनामन्ते ज्ञानवान्मां प्रपद्यते।
वासुदेवः सर्वमिति स महात्मा सुदुर्लभः॥७:१९॥"
अर्थात् - बहुत जन्मोंके पश्चात् ज्ञानी पुरुष "सर्व जगत वासुदेवमय है" ऐसा मानकर मुझको भजता है; वह महात्मा अत्यन्त दुर्लभ है॥
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इस स्थिति को हम ब्राह्मीस्थिति भी कह सकते हैं। भगवान कहते हैं --
"विहाय कामान्यः सर्वान्पुमांश्चरति निःस्पृहः।
निर्ममो निरहंकारः स शान्तिमधिगच्छति ॥२:७१॥
एषा ब्राह्मी स्थितिः पार्थ नैनां प्राप्य विमुह्यति।
स्थित्वास्यामन्तकालेऽपि ब्रह्मनिर्वाणमृच्छति॥२:७२॥"
अर्थात् - जो पुरुष सब कामनाओं को त्यागकर स्पृहारहित, ममभाव रहित, और निरहंकार हुआ विचरण करता है, वह शान्ति प्राप्त करता है॥
हे पार्थ यह ब्राह्मी स्थिति है। इसे प्राप्त कर पुरुष मोहित नहीं होता। अन्तकाल में भी इस निष्ठा में स्थित होकर ब्रह्मनिर्वाण (ब्रह्म के साथ एकत्व) को प्राप्त होता है।।
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गोस्वामी तुलसीदास जी ने रामचरितमानस में इसे "अनपायनी भक्ति" कहा है। भक्ति अनपायनी हो, इसका अर्थ है कि उसमें "अपाय" न हो। हमारी भक्ति में निरंतर वृद्धि हो, कभी भी कोई कमी न हो| भगवान् के चरणों में हमारी भक्ति दिन-प्रतिदिन बढ़ती जाये, कभी घटे नहीं --
"बार बार बर मागउं हरषि देहु श्रीरंग।
पद सरोज अनपायनी भगति सदा सतसंग॥"
प्रेम ऐसा होना चाहिए जो हर क्षण बढ़े, उसमें कभी कोई कमी न आने पाये। यह अनपायिनी भक्ति है। यह भक्ति हर सांस के साथ बढ़ती है। यह "परमप्रेम" है जिसे भक्ति-सूत्रों में देवर्षि नारद ने "भक्ति" कहा है। भक्ति में हमें -- धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष -- की भी कामना नहीं होनी चाहिए।
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प्रख्यात वैदिक विद्वान श्री अरुण कुमार उपाध्याय जी के अनुसार यहाँ चारिणी का अर्थ चलने वाली है, उसमें ३ उपसर्ग लगा दिये हैं - अ, वि, अभि। अर्थात् किसी प्रकार छोड़ कर जाने वाली नहीं। तुलसीदास जी ने अनपायिनी शब्द का प्रयोग किया है। इसका अर्थ है -- बिना पैर वाली भक्ति, जो राम को छोड़ कर कहीं नहीं जाय।
"नाथ भगति अति सुखदायनी। देहु कृपा करि अनपायनी॥" (सुन्दर काण्ड, ३३/१)
श्रीसूक्त में 'अनपगामिनी' शब्द का प्रयोग है। जो लक्ष्मी किसी अन्य स्थान नहीं जाये --
"तां म आवह जातवेदो लक्ष्मीमनपगामिनीम्। यस्यां हिरण्यं विन्देयं गामश्वं पुरुषानहम्॥२॥"
(पाठभेद-(१) लक्ष्मीमलप-काशीकर, संस्कार भास्कर, (२) गामश्वान्-काशीकर, (३) लक्ष्मी तन्त्र में अनपगामिनीम् है, पर बाद में अनपायिनीयम् पाठ का प्रचलन लगता है।)
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ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२७ सितंबर २०२२