Saturday, 29 October 2022

निज आत्मा में श्रद्धा-विश्वास हो ---

 निज आत्मा में श्रद्धा-विश्वास हो ---

.
जिसकी जैसी भी श्रद्धा है, वह उसी पर अडिग रहे। इस सृष्टि में जो कुछ भी प्राप्त होता है, वह निज श्रद्धा से ही होता है। बिना श्रद्धा-विश्वास के कोई भी कार्य सफल नहीं हो सकता।
"जहाँ है श्रद्धा वहाँ है प्रेम, जहाँ है प्रेम वहीं है शांति।
जहाँ होती है शांति, वहीं विराजते हैं ईश्वर।
जहाँ विराजते हैं ईश्वर, वहाँ किसी अन्य की आवश्यकता ही नहीं है।"
''भवानी शंकरौ वन्दे श्रद्धा विश्वास रूपिणौ।
याभ्यां बिना न पश्यन्ति सिद्धाः स्वान्तःस्थमीश्वरम्॥" (रा.मा.बालकाण्ड २)
.
श्रद्धा-विश्वास निज आत्मा में हो, अन्यत्र कहीं भी नहीं। सत्य का अनुसंधान स्वयं में करें, कहीं बाहर नहीं। गीता में भगवान कहते हैं --
"श्रद्धावाँल्लभते ज्ञानं तत्परः संयतेन्द्रियः।
ज्ञानं लब्ध्वा परां शान्तिमचिरेणाधिगच्छति॥४:३९॥"
"अज्ञश्चाश्रद्दधानश्च संशयात्मा विनश्यति।
नायं लोकोऽस्ति न परो न सुखं संशयात्मनः॥४:४०॥"
अर्थात् -- श्रद्धावान्, तत्पर और जितेन्द्रिय पुरुष ज्ञान प्राप्त करता है। ज्ञान को प्राप्त करके शीघ्र ही वह परम शान्ति को प्राप्त होता है॥४:३९॥
अज्ञानी तथा श्रद्धारहित और संशययुक्त पुरुष नष्ट हो जाता है, (उनमें भी) संशयी पुरुष के लिये न यह लोक है, न परलोक और न सुख॥४:४०॥
.
किसी में बुद्धिभेद उत्पन्न कर उसकी श्रद्धा को भंग नहीं करना चाहिए। दूसरों को सुधारने का प्रयास -- निज आचरण से ही होना चाहिए। भगवान कहते हैं --
"न बुद्धिभेदं जनयेदज्ञानां कर्मसङ्गिनाम्॥
जोषयेत्सर्वकर्माणि विद्वान् युक्तः समाचरन्॥३:२६॥
अर्थात - ज्ञानी पुरुष कर्मों में आसक्त अज्ञानियों की बुद्धि में भ्रम उत्पन्न न करे, स्वयं (भक्ति से) युक्त होकर कर्मों का सम्यक् आचरण कर उनसे भी वैसा ही कराये॥
.
इस से अधिक और लिखने की आवश्यकता नहीं है क्योंकि जो भी इस लेख को पढ़ रहे हैं, वे सब विवेकशील समझदार मनीषी हैं। परमात्मा के सर्वश्रेष्ठ साकार रूप आप सब को नमन।
"ॐ विश्वानि देव सवितर्दुरितानि परासुव। यद् भद्रं तन्न आ सुव॥"
ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२९ सितंबर २०२२

No comments:

Post a Comment