दो साँसों के बीच के सन्धिक्षण सर्वसिद्धिप्रद हैं। परमात्मा ही साँस ले रहे हैं। यह रहस्यों का रहस्य है। एक समय आता है जब - परमात्मा, गुरु और स्वयं में कोई भेद नहीं रहता। मेरे सद्गुरु, परमात्मा, और मैं -- हम तीनों एक हैं। इनमें कोई भेद नहीं है। परमात्मा कहीं बाहर नहीं, मेरा स्वयं का अस्तित्व है। मैं यह शरीर नहीं, बल्कि सम्पूर्ण सृष्टि की अनंतता और परमप्रेम हूँ। मैं कुछ भी नहीं हूँ, और सर्वस्व भी हूँ। सारी समस्याओं का स्थायी समाधान आध्यात्मिक साधना द्वारा ही किया जा सकता है। ॐ तत्सत् !!
कृपा शंकर
२८ सितंबर २०२२
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