Saturday 29 October 2022

ईश्वर की उपासना --- अपने आप में ही सबसे बड़ी सेवा है ---

 ईश्वर की उपासना --- अपने आप में ही सबसे बड़ी सेवा है, जो हम अपने धर्म, राष्ट्र, समाज, और सभी प्राणियों की कर सकते हैं। हमारे अस्तित्व में निरंतर परमात्मा की अभिव्यक्ति हो। हम जहाँ भी हैं, जो भी हैं, वहीं सर्वश्रेष्ठ और सुन्दरतम हैं। हमारी उपस्थिति ही परमात्मा का प्रमाण है। भगवान स्वयं हमारे माध्यम से सारा कार्य कर रहे हैं।

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अन्तर्मन में यह जानने की कभी एक जिज्ञासा थी कि देवताओं को स्वयं के अस्तित्व का बोध कैसा होता है? बात आई-गई हो गई, मुझे याद ही नहीं था कि ऐसी भी मेरी कभी कोई जिज्ञासा हुई थी। आज प्रातः उठते ही गुरुकृपा कहो या हरिःकृपा; वह अनुभूति भगवान ने करा ही दी। लगभग आधे घंटे तक मैं निर्विकल्प समाधि में देवत्व की चेतना में था। उस समय के भाव और अनुभूतियाँ शब्दों में व्यक्त नहीं हो सकतीं। उस समय मैं कोई मनुष्य नहीं स्वयं देवता था। यह अनुभूति जीवन में पहली बार हुई और अति आनंददायक थी। थोड़ी देर पश्चात पुनश्च मनुष्य की पीड़ादायक चेतना में लौट आया।
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निमित्तमात्र होकर कूटस्थ सूर्यमण्डल में पुरुषोत्तम का ध्यान करते करते अपने आप ही क्रिया-योग साधना होने लगती है। यज्ञ में यजमान की तरह, मैं तो एक निमित्त मात्र हूँ। कर्ता और भोक्ता तो भगवान स्वयं हैं। भगवान कहते है --
"सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज।
अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः॥"
अर्थात् - सब धर्मों का परित्याग करके तुम एक मेरी ही शरण में आओ, मैं तुम्हें समस्त पापों से मुक्त कर दूँगा, तुम शोक मत करो॥ (Abandoning all duties, take refuge in Me alone: I will liberate thee from all sins; grieve not.)
(शरणागति क्या होती है, यह भी भगवान की कृपा से ही समझ में आता है).
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सृष्टि का संचालन भगवान की प्रकृति अपने नियमानुसार करती है। नियमों को न समझना हमारा अज्ञान है। भगवान का आदेश है --
"तस्मात्सर्वेषु कालेषु मामनुस्मर युध्य च।
मय्यर्पितमनोबुद्धिर्मामेवैष्यस्यसंशयम्॥८:७॥"
अर्थात् - " इसलिए, तुम सब काल में मेरा निरन्तर स्मरण करो; और युद्ध करो। मुझ में अर्पण किये मन, बुद्धि से युक्त हुए, निःसन्देह तुम मुझे ही प्राप्त होओगे॥"
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भगवान कहते हैं --
"यो मां पश्यति सर्वत्र सर्वं च मयि पश्यति।
तस्याहं न प्रणश्यामि स च मे न प्रणश्यति॥६:३०॥"
अर्थात जो सबमें मुझको देखता है और सबको मुझमें देखता है उसके लिये मैं अदृश्य नहीं होता और वह मेरे लिये अदृश्य नहीं होता।
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इससे अधिक और कुछ लिखना इस समय मेरे लिए संभव नहीं है। आप सब को अपने साथ लेकर ही भगवान वासुदेव अपने स्वयं का ध्यान करते हैं। आप सब पर उनकी परम कृपा है। ॐ तत्सत ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१८ सितंबर २०२२

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