जो भी साधनाएँ मेरे माध्यम से नहीं हो रही हैं, या हो रही हैं, उन सब की अकर्ता और कर्ता -- भगवती महाकाली हैं ---
जिन माँ के प्रकाश से सारी आकाश-गंगाएँ, उनके नक्षत्रमंडल और सारा ब्रह्मांड प्रकाशित हैं, उन माँ का नाम -- पता नहीं "काली" क्यों रख दिया? वे समस्त अस्तित्व हैं। सृष्टि, स्थिति और संहार -- उन की अभिव्यक्ति है। माँ के वास्तविक सौन्दर्य को तो गहन ध्यान में तुरीय चेतना में ही अनुभूत किया जा सकता है। उनकी साधना जिस साकार विग्रह रूप में की जाती है, वह प्रतीकात्मक है ---
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"माँ के विग्रह में चार हाथ है। अपने दो दायें हाथों में से एक से माँ सृष्टि का निर्माण कर रही है, और एक से अपने भक्तों को आशीर्वाद दे रही है। माँ के दो बाएँ हाथों में से एक में कटार है, और एक में कटा हुआ नरमुंड है जो संहार और स्थिति के प्रतीक हैं। ये प्रकृति के द्वंद्व और द्वैत का बोध कराते हैं। माँ के गले में पचास नरमुंडों की माला है जो वर्णमाला के पचास अक्षर हैं। यह उनके ज्ञान और विवेक के प्रतीक हैं। माँ के लहराते हुए काले बाल माया के प्रतीक हैं। माँ के विग्रह में उनकी देह का रंग काला है, क्योंकि यह प्रकाशहीन प्रकाश और अन्धकारविहीन अन्धकार का प्रतीक हैं, जो उनका स्वाभाविक काला रंग है। किसी भी रंग का ना होना काला होना है जिसमें कोई विविधता नहीं है। माँ की दिगंबरता दशों दिशाओं और अनंतता की प्रतीक है। उनकी कमर में मनुष्य के हाथ बंधे हुए हैं, वे मनुष्य की अंतहीन वासनाओं और अंतहीन जन्मों के प्रतीक हैं। माँ के तीन आँखें हैं जो सूर्य चन्द्र और अग्नि यानि भूत भविष्य और वर्तमान की प्रतीक हैं। माँ के स्तन समस्त सृष्टि का पालन करते हैं। उनकी लाल जिह्वा रजोगुण की प्रतीक है जो सफ़ेद दाँतों यानि सतोगुण से नियंत्रित हैं। उनकी लीला में एक पैर भगवान शिव के वक्षस्थल को छू रहा है जो दिखाता है कि माँ अपने प्रकृति रूप में स्वतंत्र है पर शिव यानि पुरुष को छूते ही नियंत्रित हो जाती हैं। माँ का रूप डरावना है क्योंकि वे किसी भी बुराई से समझौता नहीं करती, पर उसकी हँसी करुणा की प्रतीक है।"
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सौम्य रूप में वे भगवती सीता हैं, और उग्र रूप में महाकाली।
हारिणीं सर्वदुःखानां प्रत्यूहव्यूहदारिणीम्।
महाकालीमहं वन्दे साक्षात् सीतास्वरूपिणीम्॥
सम्पूर्ण दुःखों की संहारिका, विघ्नवृृन्द को विद्ध्वस्त करने वाली,साक्षात्
सीतास्वरूपिणी भगवती महाकाली की मैं वन्दना करता हूँ॥
हे भगवती महाकाली, अब तुम और छिप नहीं सकती। तुमने अपना रहस्य मुझमें अनावृत कर दिया है। मैं जान गया हूँ कि तुम कौन हो। तुम मेरे प्राण हो। मैं तृप्त हूँ। मुझे अब और कुछ नहीं चाहिए।
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जगन्माता के सभी रूप तुम ही हो। तुम ही महालक्ष्मी हो, तुम ही महासरस्वती हो, तुम ही उमा हो, तुम ही भगवती सीता और राधा हो जिसने इस सृष्टि को धारण कर रखा है। तुम ही भगवती महाकुंडलिनी हो जो मेरे इस सूक्ष्म देह की ब्रह्मनाड़ी में सचेतन रूप से विचरण कर रही है। परमशिव और मेरे मध्य की कड़ी तुम ही हो। मुझे अपनी गोद में रखो। स्वयं को मुझ में व्यक्त करो। मैं आपके साथ एक हूँ। आपकी पूर्णता हूँ। ॐ ॐ ॐ !!
ॐ तत्सत् !!
कृपा शंकर
२६ सितंबर २०२२