परमात्मा के ध्यान से प्राप्त आनंद ही वास्तविक सत्संग है ---
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बंद आँखों के अंधकार के पीछे सर्वव्यापी ज्योतिर्मय ब्रह्म के रूप में परमात्मा की अनुभूति सभी ध्यान साधकों को होती है। सारी सृष्टि ही इस ब्रह्मज्योति में समाहित हो जाती है। प्रणव की ध्वनि भी इसी ज्योति में लिपटी रहती है। इस का दर्शन, श्रवण और निरंतर अनुभूति होते रहना -- परम सौभाग्य की बात होती है। "कूटस्थ" शब्द का प्रयोग इसी के लिए होता है। निरंतर इस के चैतन्य में बने रहना "कूटस्थ चैतन्य" कहलाता है। कूटस्थ चैतन्य में निरंतर स्थिति -- "ब्राह्मी स्थिति" है।
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मेरे लिए सूक्ष्म देह में मेरुदंडस्थ सुषुम्ना नाड़ी ही पूजा की वेदी और मंडप है, जहाँ भगवान वासुदेव स्वयं बिराजमान हैं। सहस्त्रार-चक्र में दिखाई दे रही ज्योति "विष्णुपद" है। ये ही गुरु महाराज के चरण-कमल हैं। इनका ध्यान -- गुरु-चरणों का ध्यान है। इनमें स्थिति -- श्रीगुरुचरणों में आश्रय है।
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कुंडलिनी महाशक्ति का सहस्त्रार और ब्रह्मरंध्र से भी ऊपर उठकर अनंत महाकाश से परे परमशिव से स्थायी मिलन जीवनमुक्ति और मोक्ष है। यही अपने सच्चिदानंद रूप में स्थित हो जाना है।
ॐ तत्सत् !!
कृपा शंकर
१४ सितंबर २०२२
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