Friday 8 April 2022

जो भी अस्तित्व है वह भगवान का है, जो भी उपासना हो रही है, वहाँ उपास्य और उपासक -- भगवान स्वयं हैं ---

 जो भी अस्तित्व है वह भगवान का है, जो भी उपासना हो रही है, वहाँ उपास्य और उपासक -- भगवान स्वयं हैं ---

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प्रातःकाल ब्रह्म मुहूर्त में उठते ही लघुशंकादि से निवृत होकर मेरुदंड को उन्नत रखते हुए पूर्व या उत्तर दिशा की ओर मुंह कर के अपने आसन पर बैठ जाएँ। दृष्टिपथ भ्रूमध्य की ओर, व चेतना -- उत्तरा-सुषुम्ना (आज्ञाचक्र और सहस्त्रारचक्र के मध्य) में रहे। तभी एक चमत्कार घटित हो जाता है, जिसका मैं साक्षीमात्र ही रह जाता हूँ।
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यहाँ तो मैं हूँ ही नहीं। मेरा अस्तित्व-बोध एक मिथ्या भ्रम है। यहाँ तो परमपुरुष वासुदेव भगवान श्रीकृष्ण स्वयं पद्मासन में ध्यानस्थ बैठे हैं। उनके अतिरिक्त इस पूरी सृष्टि में कोई अन्य है ही नहीं। स्वयं को भूल जाएँ। भगवान स्वयं बिन्दु, नाद, और कला से परे हैं। उन्हें स्वयं का ध्यान करने दें। हम एक साक्षीमात्र यानि निमित्तमात्र होकर रहें।
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ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
९ अप्रेल २०२१

ईसाई रिलीजन मुख्यतः दो सिद्धांतों पर खड़ा है ---

 ईसाई रिलीजन मुख्यतः दो सिद्धांतों पर खड़ा है ---

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(१) मूल पाप (Original Sin) की अवधारणा --
मनुष्य जन्म से ही पापी है क्योंकि अदन की वाटिका में आदम ने भले/बुरे ज्ञानवृक्ष से परमेश्वर की आज्ञा की अवहेलना कर के वर्जित फल को खा लिया| इससे परमेश्वर बहुत नाराज हुआ, और उस की दृष्टि में आदम की सारी औलादें जन्म से ही पापी हो गईं| आदमी का हर पाप अदन की वाटिका में आदम के पाप का सीधा परिणाम है| परमेश्वर ने करुणा कर के इंसान को इस पाप से मुक्त करने के लिए अपने एकमात्र पुत्र यीशु (Jesus) को पृथ्वी पर भेजा ताकि जो उस पर विश्वास करेंगे, वे इस पाप से मुक्त कर दिये जाएँगे, और जो उस पर विश्वास नहीं करेंगे उन्हें नर्क की अनंत अग्नि में शाश्वत काल के लिए डाल दिया जाएगा|
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(२) पुनरोत्थान (Resurrection) की अवधारणा --
सूली पर मृत्यु के बाद यीशु मृतकों में से जीवित हो गए, और अन्य भी अनेक मृतकों को खड़ा कर दिया| ईसाई मतावलंबी ईसा के पुनरुत्थान को ईसाई रिलीजन के केंद्रीय सिद्धांत के रूप में मानते हैं| यह चमत्कार उनके अवतार होने को मान्यता प्रदान करता है|
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सत्य क्या है मुझे पता नहीं| सत्य का अनुसंधान करना जिज्ञासु विद्वानों का काम है| पश्चिमी जगत में दो-तीन तरह के विचार फैल रहे हैं| कुछ तो परंपरागत श्रद्धालु हैं| कुछ पश्चिमी विद्वान कह रहे हैं कि ईसा मसीह नाम के व्यक्ति ने कभी जन्म ही नहीं लिया| इनके बारे में कही गई सारी बातें सेंट पॉल नाम के एक पादरी के दिमाग की उपज हैं| कुछ विद्वान कह रहे हैं कि ईसा मसीह ने भगवान श्रीकृष्ण की शिक्षाओं का ही प्रचार किया| उनकी पढ़ाई-लिखाई और मृत्यु भारत में ही हुई|
प्रमाणों और विवेक के आधार पर सत्य का अनुसंधान होना चाहिए| आँख मीच कर किसी की कोई बात नहीं माननी चाहिए|
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वास्तव में चर्च पश्चिमी साम्राज्यवादियों की सेना का अग्रिम अंग था| अपना साम्राज्य फैलाने के लिए साम्राज्यवादियों की सेना जहाँ भी जाती, उस से पूर्व, चर्च के पादरी पहुँच कर आक्रमण की भूमिका तैयार करते थे| विश्व में सबसे अधिक नरसंहार और अत्याचार चर्च ने किए हैं| इसका एक उदाहरण दे रहा हूँ ---
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यह सन १४९२ ई.की बात है| एक बार पुर्तगाल और स्पेन में लूट के माल को लेकर झगड़ा हो गया| दोनों ही देश दुर्दांत समुद्री डाकुओं के देश थे जिनका मुख्य काम ही समुद्रों में लूटपाट और ह्त्या करना होता था| दोनों ही देश कट्टर रोमन कैथोलोक ईसाई थे अतः मामला वेटिकन में उस समय के छठवें पोप के पास पहुँचा| लूट के माल का एक हिस्सा पोप के पास भी आता था| अतः पोप ने सुलह कराने के लिए एक फ़ॉर्मूला खोज निकाला और एक आदेश जारी कर दिया| ७ जून १४९४ को "Treaty of Tordesillas" के अंतर्गत इन्होने पृथ्वी को दो भागों में इस तरह बाँट लिया कि यूरोप से पश्चिमी भाग को स्पेन लूटेगा और पूर्वी भाग को पुर्तगाल|
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वास्कोडिगामा एक लुच्चा लफंगा बदमाश हत्यारा और समुद्री डाकू मात्र था, कोई वीर नाविक नहीं| अपने धर्मगुरु की आज्ञानुसार वह भारत को लूटने के उद्देश्य से ही आया था| कहते हैं कि उसने भारत की खोज की| भारत तो उसके बाप-दादों और उसके देश पुर्तगाल के अस्तित्व में आने से भी पहिले अस्तित्व में था| वर्तमान में तो पुर्तगाल कंगाल और दिवालिया होने की कगार पर है जब कि कभी लूटमार करते करते आधी पृथ्वी का मालिक हो गया था|
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ऐसे ही स्पेन का भी एक लुटेरा बदमाश हत्यारा डाकू था जिसका नाम कोलंबस था| अपने धर्मगुरु की आज्ञानुसार कोलंबस गया था अमेरिका को लूटने के लिए और वास्कोडीगामा आया था भारतवर्ष को लूटने के लिए| कोलंबस अमेरिका पहुंचा तब वहाँ की जनसंख्या दस करोड़ से ऊपर थी| कोलम्बस के पीछे पीछे स्पेन की डाकू सेना भी वहाँ पहुँच गयी| उन डाकुओं ने निर्दयता से वहाँ के दस करोड़ लोगों की ह्त्या कर दी और उनका धन लूट कर यूरोपियन लोगों को वहाँ बसा दिया| वहाँ के मूल निवासी जो करोड़ों में थे, वे कुछ हजार की संख्या में ही जीवित बचे| यूरोप इस तरह अमीर हो गया|
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कितनी दुष्ट राक्षसी सोच वाले वे लोग थे जो उन्होंने मान लिया कि सारा विश्व हमारा है जिसे लूट लो| कोलंबस सन १४९२ ई.में अमरीका पहुँचा, और सन १४९८ ई.में वास्कोडीगामा भारत पहुंचा| ये दोनों ही व्यक्ति नराधम थे, कोई महान नहीं जैसा कि हमें पढ़ाया जाता है|
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आज का अमेरिका उन दस करोड़ मूल निवासियों की लाश पर खडा एक देश है| उन करोड़ों लोगों के हत्यारे आज हमें मानव अधिकार, धर्मनिरपेक्षता, सद्भाव और सहिष्णुता का पाठ पढ़ा रहे हैं|
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ऐसे ही अंग्रेजों ने ऑस्ट्रेलिया में किया| ऑस्ट्रेलिया और न्यूजीलैंड में वहाँ के सभी मूल निवासियों की ह्त्या कर के अंग्रेजों को वहाँ बसा दिया गया| भारत में भी अँगरेज़ सभी भारतीयों की ह्त्या करना चाहते थे, पर कर नहीं पाए|
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यह हम सब अपने विवेक से तय करें कि सत्य क्या है| सभी को धन्यवाद!
ॐ तत्सत !! ॐ नमो भगवते वासुदेवाय !!
कृपा शंकर
८ अप्रेल २०२१

परमात्मा की चेतना यानि कूटस्थ चैतन्य में जीना हमारा स्वभाव बने ---

 परमात्मा की चेतना यानि कूटस्थ चैतन्य में जीना हमारा स्वभाव बने ---

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गुरु महाराज के उपदेश व आज्ञा से हम ज्योतिर्मय कूटस्थ बिन्दु पर ध्यान करते हैं| अजपा-जप का अभ्यास करते-करते जब सुषुम्ना में प्राण तत्व जागृत होकर कूटस्थ बिन्दु पर प्रहार करता है, तब विक्षुब्ध हुये बिन्दु से नाद की सृष्टि होती है| फिर कला यानि आकारों की उत्पत्ति होती है| यह नाद ही अक्षर शब्दब्रह्म है जो भगवान् का कूटस्थ विग्रह है| इस चेतना में निरंतर स्थिति "कूटस्थ चैतन्य" और "ब्राह्मी स्थिति" कहलाती है|
गीता में भगवान कहते हैं --
"द्वाविमौ पुरुषौ लोके क्षरश्चाक्षर एव च| क्षरः सर्वाणि भूतानि कूटस्थोऽक्षर उच्यते||१५:१६||"
अर्थात् इस लोक में क्षर (नश्वर) और अक्षर (अनश्वर) ये दो पुरुष हैं, समस्त भूत क्षर हैं और 'कूटस्थ' अक्षर कहलाता है||
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कूटस्थ पर ध्यान हमें सच्चिदानन्दमय बना देता है| कर्ताभाव से मुक्त होकर कर्ता तो भगवान श्रीकृष्ण को ही बनाएँ| हमारी साधना में यदि कोई कमी होगी तो उसका शोधन वे कर देंगे| हमारा वास्तविक "स्व" तो परमात्मा है जिसकी चेतना में जीना हमारा स्वभाव है| निरंतर ब्रह्म-चिंतन और भक्ति ही हमारा स्वभाव है, अन्यथा हम अभाव ग्रस्त हैं| अभाव में जीने से हमारा पतन सुनिश्चित है| माया के विक्षेप और आवरण बहुत अधिक शक्तिशाली हैं जो हमें निरंतर अधोगामी बनाते है| सिर्फ भगवान की भक्ति और उनका ध्यान ही हमारी रक्षा कर सकते हैं| जब हम स्वभाव में जीते हैं तब पूर्णतः सकारात्मक होते हैं, अन्यथा बहुत अधिक नकारात्मक|
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हमारा वास्तविक "स्व" तो परमात्मा है, जिनकी चेतना में जीना हमारा वास्तविक और सही स्वभाव है| हम अपने स्वभाव में जीएँ और स्वभाव के विरुद्ध जो कुछ भी है उसका परित्याग करें| निरंतर अभ्यास करते करते परमात्मा व गुरु की असीम कृपा से निरंतर ब्रह्म-चिंतन और भक्ति ही हमारा स्वभाव बन जाता है| जब भगवान ह्रदय में आकर बैठ जाते हैं तब वे फिर बापस नहीं जाते| यह स्वाभाविक अवस्था कभी न कभी तो सभी को प्राप्त होती है| सरिता प्रवाहित होती है, पर किसी के लिए नहीं| प्रवाहित होना उसका स्वभाव है| व्यक्ति .. स्वयं में जब परमात्मा को व्यक्त करना चाहता है, यह उसका स्वभाव है|
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जो लोग सर्वस्व यानि समष्टि की उपेक्षा करते हुए इस मनुष्य देह के हित की ही सोचते हैं, प्रकृति उन्हें कभी क्षमा नहीं करती| वे सब दंड के भागी होते हैं| समस्त सृष्टि अपना परिवार है और समस्त ब्रह्माण्ड अपना घर| यह देह रूपी वाहन और यह पृथ्वी भी बहुत छोटी है अपने निवास के लिए| अपना प्रेम सर्वस्व में पूर्णता से व्यक्त हो| हम समष्टि का चिंतन करेंगे तो समष्टि भी हमारा चिंतन करेगी| इसलिए सदा कूटस्थ चैतन्य में स्थित रहें|
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परमात्मा की सर्वश्रेष्ठ साकार अभिव्यक्ति आप सब को सादर नमन !
ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
८ अप्रेल २०२१