Friday, 8 April 2022

जो भी अस्तित्व है वह भगवान का है, जो भी उपासना हो रही है, वहाँ उपास्य और उपासक -- भगवान स्वयं हैं ---

 जो भी अस्तित्व है वह भगवान का है, जो भी उपासना हो रही है, वहाँ उपास्य और उपासक -- भगवान स्वयं हैं ---

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प्रातःकाल ब्रह्म मुहूर्त में उठते ही लघुशंकादि से निवृत होकर मेरुदंड को उन्नत रखते हुए पूर्व या उत्तर दिशा की ओर मुंह कर के अपने आसन पर बैठ जाएँ। दृष्टिपथ भ्रूमध्य की ओर, व चेतना -- उत्तरा-सुषुम्ना (आज्ञाचक्र और सहस्त्रारचक्र के मध्य) में रहे। तभी एक चमत्कार घटित हो जाता है, जिसका मैं साक्षीमात्र ही रह जाता हूँ।
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यहाँ तो मैं हूँ ही नहीं। मेरा अस्तित्व-बोध एक मिथ्या भ्रम है। यहाँ तो परमपुरुष वासुदेव भगवान श्रीकृष्ण स्वयं पद्मासन में ध्यानस्थ बैठे हैं। उनके अतिरिक्त इस पूरी सृष्टि में कोई अन्य है ही नहीं। स्वयं को भूल जाएँ। भगवान स्वयं बिन्दु, नाद, और कला से परे हैं। उन्हें स्वयं का ध्यान करने दें। हम एक साक्षीमात्र यानि निमित्तमात्र होकर रहें।
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ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
९ अप्रेल २०२१

परमात्मा की चेतना यानि कूटस्थ चैतन्य में जीना हमारा स्वभाव बने ---

 परमात्मा की चेतना यानि कूटस्थ चैतन्य में जीना हमारा स्वभाव बने ---

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गुरु महाराज के उपदेश व आज्ञा से हम ज्योतिर्मय कूटस्थ बिन्दु पर ध्यान करते हैं| अजपा-जप का अभ्यास करते-करते जब सुषुम्ना में प्राण तत्व जागृत होकर कूटस्थ बिन्दु पर प्रहार करता है, तब विक्षुब्ध हुये बिन्दु से नाद की सृष्टि होती है| फिर कला यानि आकारों की उत्पत्ति होती है| यह नाद ही अक्षर शब्दब्रह्म है जो भगवान् का कूटस्थ विग्रह है| इस चेतना में निरंतर स्थिति "कूटस्थ चैतन्य" और "ब्राह्मी स्थिति" कहलाती है|
गीता में भगवान कहते हैं --
"द्वाविमौ पुरुषौ लोके क्षरश्चाक्षर एव च| क्षरः सर्वाणि भूतानि कूटस्थोऽक्षर उच्यते||१५:१६||"
अर्थात् इस लोक में क्षर (नश्वर) और अक्षर (अनश्वर) ये दो पुरुष हैं, समस्त भूत क्षर हैं और 'कूटस्थ' अक्षर कहलाता है||
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कूटस्थ पर ध्यान हमें सच्चिदानन्दमय बना देता है| कर्ताभाव से मुक्त होकर कर्ता तो भगवान श्रीकृष्ण को ही बनाएँ| हमारी साधना में यदि कोई कमी होगी तो उसका शोधन वे कर देंगे| हमारा वास्तविक "स्व" तो परमात्मा है जिसकी चेतना में जीना हमारा स्वभाव है| निरंतर ब्रह्म-चिंतन और भक्ति ही हमारा स्वभाव है, अन्यथा हम अभाव ग्रस्त हैं| अभाव में जीने से हमारा पतन सुनिश्चित है| माया के विक्षेप और आवरण बहुत अधिक शक्तिशाली हैं जो हमें निरंतर अधोगामी बनाते है| सिर्फ भगवान की भक्ति और उनका ध्यान ही हमारी रक्षा कर सकते हैं| जब हम स्वभाव में जीते हैं तब पूर्णतः सकारात्मक होते हैं, अन्यथा बहुत अधिक नकारात्मक|
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हमारा वास्तविक "स्व" तो परमात्मा है, जिनकी चेतना में जीना हमारा वास्तविक और सही स्वभाव है| हम अपने स्वभाव में जीएँ और स्वभाव के विरुद्ध जो कुछ भी है उसका परित्याग करें| निरंतर अभ्यास करते करते परमात्मा व गुरु की असीम कृपा से निरंतर ब्रह्म-चिंतन और भक्ति ही हमारा स्वभाव बन जाता है| जब भगवान ह्रदय में आकर बैठ जाते हैं तब वे फिर बापस नहीं जाते| यह स्वाभाविक अवस्था कभी न कभी तो सभी को प्राप्त होती है| सरिता प्रवाहित होती है, पर किसी के लिए नहीं| प्रवाहित होना उसका स्वभाव है| व्यक्ति .. स्वयं में जब परमात्मा को व्यक्त करना चाहता है, यह उसका स्वभाव है|
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जो लोग सर्वस्व यानि समष्टि की उपेक्षा करते हुए इस मनुष्य देह के हित की ही सोचते हैं, प्रकृति उन्हें कभी क्षमा नहीं करती| वे सब दंड के भागी होते हैं| समस्त सृष्टि अपना परिवार है और समस्त ब्रह्माण्ड अपना घर| यह देह रूपी वाहन और यह पृथ्वी भी बहुत छोटी है अपने निवास के लिए| अपना प्रेम सर्वस्व में पूर्णता से व्यक्त हो| हम समष्टि का चिंतन करेंगे तो समष्टि भी हमारा चिंतन करेगी| इसलिए सदा कूटस्थ चैतन्य में स्थित रहें|
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परमात्मा की सर्वश्रेष्ठ साकार अभिव्यक्ति आप सब को सादर नमन !
ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
८ अप्रेल २०२१