Sunday 30 May 2021

राग-द्वेष से रहित होकर ही हम प्रसन्न और स्वस्थ रह सकते हैं, दूसरा कोई उपाय नहीं है .....

 राग-द्वेष से रहित होकर ही हम प्रसन्न और स्वस्थ रह सकते हैं, दूसरा कोई उपाय नहीं है .....

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भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं .....
"ध्यायतो विषयान्पुंसः सङ्गस्तेषूपजायते| सङ्गात् संजायते कामः कामात्क्रोधोऽभिजायते||२:६२||"
अर्थात विषयों का चिन्तन करने वाले पुरुष की उसमें आसक्ति हो जाती है| आसक्ति से इच्छा और इच्छा से क्रोध उत्पन्न होता है||
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"क्रोधाद्भवति संमोहः संमोहात्स्मृतिविभ्रमः| स्मृतिभ्रंशाद् बुद्धिनाशो बुद्धिनाशात्प्रणश्यति||२:६३||"
अर्थात क्रोध से उत्पन्न होता है मोह और मोह से स्मृति विभ्रम| स्मृति के भ्रमित होने पर बुद्धि का नाश होता है और बुद्धि के नाश होने से वह मनुष्य नष्ट हो जाता है||
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"रागद्वेषवियुक्तैस्तु विषयानिन्द्रियैश्चरन्| आत्मवश्यैर्विधेयात्मा प्रसादमधिगच्छति||२:६४||"
अर्थात आत्मसंयमी (विधेयात्मा) पुरुष रागद्वेष से रहित अपने वश में की हुई (आत्मवश्यै) इन्द्रियों द्वारा विषयों को भोगता हुआ प्रसन्नता (प्रसादम्) (प्रसादः प्रसन्नता स्वास्थ्यम्) प्राप्त करता है||
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"प्रसादे सर्वदुःखानां हानिरस्योपजायते| प्रसन्नचेतसो ह्याशु बुद्धिः पर्यवतिष्ठते||२:६५||"
अर्थात प्रसाद के होने पर सम्पूर्ण दुखों का अन्त हो जाता है और प्रसन्नचित्त पुरुष की बुद्धि ही शीघ्र ही स्थिर हो जाती है||
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"नास्ति बुद्धिरयुक्तस्य न चायुक्तस्य भावना| न चाभावयतः शान्तिरशान्तस्य कुतः सुखम्||२:६६||"
अर्थात (संयमरहित) अयुक्त पुरुष को (आत्म) ज्ञान नहीं होता और अयुक्त को भावना और ध्यान की क्षमता नहीं होती भावना रहित पुरुष को शान्ति नहीं मिलती अशान्त पुरुष को सुख कहाँ?
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राग-द्वेष से मुक्त होने का उपाय भी बड़े स्पष्ट रूप से गीता में बताया गया है| अतः गीता का नित्य स्वाध्याय करें|
ॐ तत्सत् !! ॐ नमो भगवते वासुदेवाय !! ॐ ॐ ॐ !!
३० मई २०२०

Saturday 29 May 2021

'सिद्धि' शब्द का अर्थ .....

 'सिद्धि' शब्द का अर्थ .....

मैंने एक स्थान पर 'सिद्धि' शब्द का प्रयोग जिस अर्थ में किया, अनेक लोगों ने उस का प्रतिवाद किया| उन सब को बताना चाहता हूँ कि ..... 'सिद्धि' का शाब्दिक अर्थ है - 'पूर्णता', 'प्राप्ति', 'सफलता' आदि। यह शब्द महाभारत में मिलता है। पंचतंत्र में कोई असामान्य कौशल या क्षमता अर्जित करने को 'सिद्धि' कहा गया है। मनुस्मृति में इसका प्रयोग 'ऋण चुकता करने' के अर्थ में हुआ है। योगदर्शन में महर्षि पातंजलि ने आठ सिद्धियाँ बताई हैं .... अणिमा. महिमा, गरिमा, लघिमा, प्राप्ति, प्राकाम्य, ईशित्व और वशित्व| भगवत पुराण में भगवान श्रीकृष्ण ने दस सिद्धियाँ बताई हैं..... अनूर्मिमत्वम्, दूरश्रवण, दूरदर्शनम्, मनोजवः, कामरूपम्, परकायाप्रवेशनम्, स्वछन्द मृत्युः, देवानां सह क्रीडा अनुदर्शनम्, यथासंकल्पसंसिद्धिः और आज्ञा अप्रतिहता गतिः| !! इति !!

चीन ने क्या कभी अन्य किसी देश से कोई युद्ध जीता है?

 चीन ने क्या कभी अन्य किसी देश से कोई युद्ध जीता है?

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हमें चीन से डरने की कोई आवश्यकता नहीं है| आमने सामने की लड़ाई में चीनी सेना भारत की सेना के सामने नहीं टिक सकती| वर्तमान चीन के पास आणविक अस्त्र हैं, यही उसकी शक्ति है| बाकी तो सब उस की दादागिरी है| वह दूसरे देशों पर अपनी संख्या के बल पर धौंस जमाता है| निष्पक्ष दृष्टि से आप चीन का पूरा इतिहास देख लें, चीन ने कभी भी किसी भी देश के विरुद्ध आज तक कोई भी युद्ध नहीं जीता है| चीनी कोई लड़ाकू जाति नहीं है| उनमें क्रूरता ही क्रूरता और धूर्तता भरी हुई है पर उन में साहस नहीं है|
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चीन में जो शक्तिशाली महान शासक हुए वे सब मंगोल थे चीनी नहीँ| अपनी अत्यधिक गतिशील और अनुशासित अश्वारोही सेना के बल पर मंगोलों ने चीन पर लंबे समय तक राज्य किया| चीन का सबसे अधिक शक्तिशाली और महान शासक कुबलई (कैवल्य) खान (कान्ह) था जो चंगेज़ (गंगेश) खान (कान्ह) का पोता था| वह बौद्ध मतानुयायी था जिसका पृथ्वी के २०% भाग पर अधिकार था| चीन की दीवार चीनियों ने मंगोल आक्रमणकारियों से रक्षा के लिए बनवाई थी| पर उस से कोई फर्क नहीं पड़ा| चीन पर अधिकांश समय तक राज्य तो मंगोलों ने ही किया| प्राचीन संस्कृत साहित्य में जिस शिवभक्त किरात जाति का उल्लेख है वह मंगोल जाति ही है|
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चीन पर अंग्रेजों ने बड़ी आसानी से अपनी धूर्तता से अधिकार कर अपना राज्य स्थापित किया| बाद में जापान ने चीन पर क्रूरता से अधिकार किया|
१९६२ में हम चीन से सैनिक दृष्टि से नहीं हारे थे, भारत के राजनीतिक नेतृत्व की अपरिपक्वता और भूलों से हारे थे| भारत ने अपनी हार के कारणों की जांच Lieutenant general Henderson Brooks और Brigadier P S Bhagat (later lieutenant general) से करवाई थी| वह रिपोर्ट इतनी अधिक गोपनीय है कि उसकी सिर्फ एक ही प्रति छपी जिसको पढ़ने का अधिकार सिर्फ प्रधानमंत्री को है| कुछ वर्ष पूर्व एक ऑस्ट्रेलियन पत्रकार Neville Maxwell ने उसके अनेक अंश पता नहीं कैसे लीक कर दिए थे जिन पर ब्रिटेन में एक पुस्तक भी छपी| उस रिपोर्ट में सारा दोष भारत के तत्कालीन राजनीतिक नेतृत्व (प्रधान मंत्री) पर डाला गया था|
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१९६७ में चीन ने एक बार फिर दुःसाहस किया, तब भारतीय सेना ने चीन की सेना को हराकर भगा दिया था| चीनी सैनिक एक तो इस लिए डरते हैं कि वे अपने परिवार के इकलौते पुरुष सदस्य हैं, जिनके मरने पर उनका वंशनाश हो जाएगा| दूसरा उनका भोजन इतना अधिक आसुरी/राक्षसी है कि उनकी कामुकता अत्यधिक प्रबल है जिसके कारण उन में यौन-विकृतियाँ बहुत अधिक हैं| अतः उनमें कोई नैतिक बल और साहस नहीं है| उनकी शक्ति उनके अणुबम ही हैं|
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चीन ने १७ फरवरी १९७९ को वियतनाम पर आक्रमण किया था जो १६ मार्च १९७९ तक चला| चीन की इस यूद्ध मे बुरी तरह से हार हुई और उसके २०,००० सैनिक मारे गए| जब वियतनाम जैसा देश चीन को हरा सकता है तो भारत के सामने चीन की सेना कैसे टिक सकती है?
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चीन की सीमा से १४ देश जुड़े हैं पर २३ देशों से उसके सीमा विवाद चल रहे हैं| उसकी सीमा .... तजाकिस्तान, किर्गिज़स्तान, अफगानिस्तान, पाकिस्तान, भारत, नेपाल, भूटान, म्यांमार, लाओस, वियतनाम, उत्तरी कोरिया, मंगोलिया, रूस, व कजाकिस्तान से लगती है| चीन की सीमायें भले ही सिर्फ १४ देशों के साथ मिलती हैं, लेकिन इसका सीमा विवाद २३ देशों के साथ है| चीन का इन्डोनेशिया, मलेशिया, ब्रुनेई आदि देशों के साथ भी विवाद चल रहा है| चीन मध्ययुग के देश की तरह वर्ताव कर रहा है|
कोरोना वायरस को फैलाना चीन का पूरे विश्व पर एक जैविक आक्रमण है| विश्व के अधिकांश देश मिलकर चीन से बदला तो अवश्य लेंगे|
कृपा शंकर
२९ मई २०२०

हमारी कोई समस्या नहीं है, समस्या हम स्वयं हैं ---

 हमारी कोई समस्या नहीं है, समस्या हम स्वयं हैं ---

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हमारी एकमात्र समस्या --परमात्मा से पृथकता है। यह बिना शरणागति और समर्पण के दूर नहीं होगी। परमात्मा का ध्यान और चिंतन ही सत्संग है। यह सत्संग मिल जाए तो सारी समस्याएँ सृष्टिकर्ता परमात्मा की हो जायें।
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हम साधना करते हैं, मंत्रजाप करते हैं, पर हमें सिद्धि नहीं मिलती। इसका मुख्य कारण है -- असत्यवादन। झूठ बोलने से वाणी दग्ध हो जाती है, और किसी भी स्तर पर मन्त्रजाप का फल नहीं मिलता। इस कारण कोई साधना सफल नहीं होती। सत्य और असत्य के अंतर को शास्त्रों में, और विभिन्न मनीषियों ने स्पष्टता से परिभाषित किया है। सत्य बोलो पर अप्रिय सत्य से मौन अच्छा है। प्राणरक्षा और धर्मरक्षा के लिए बोला गया असत्य भी सत्य है, और जिस से किसी की प्राणहानि और धर्म की ग्लानि हो वह सत्य भी असत्य है। जिस की हम निंदा करते हैं उसके अवगुण हमारे में भी आ जाते हैं| जो लोग झूठे होते हैं, चोरी करते हैं, और दुराचारी होते हैं, वे चाहे जितना मंत्रजाप करें, और चाहे जितनी साधना करें उन्हें कभी कोई सिद्धि नहीं मिलेगी।
ॐ तत्सत्
२९ मई २०१६

"गीता के अनुसार तप" का अर्थ क्या है? ---

 "गीता के अनुसार तप" का अर्थ क्या है? ---

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भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं --
"देवद्विजगुरुप्राज्ञपूजनं शौचमार्जवम्। ब्रह्मचर्यमहिंसा च शारीरं तप उच्यते॥१७:१४॥"
अर्थात् -- "देव, द्विज (ब्राह्मण), गुरु और ज्ञानी जनों का पूजन, शौच, आर्जव (सरलता), ब्रह्मचर्य और अहिंसा, यह शरीर संबंधी तप कहा जाता है॥
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भाष्यकार भगवान आचार्य शंकर ने इसकी व्याख्या यों की है --
"देवाश्च द्विजाश्च गुरवश्च प्राज्ञाश्च देवद्विजगुरुप्राज्ञाः तेषां पूजनं देवद्विजगुरुप्राज्ञपूजनम्? शौचम्? आर्जवम् ऋजुत्वम्? ब्रह्मचर्यम् अहिंसा च शरीरनिर्वर्त्यं शारीरं शरीरप्रधानैः सर्वैरेव कार्यकरणैः कर्त्रादिभिः साध्यं शारीरं तपः उच्यते॥"
अर्थात् -- देव, ब्राह्मण, गुरु, और बुद्धिमान ज्ञानी -- इन सबका पूजन;
शौच (पवित्रता), आर्जव (सरलता), ब्रह्मचर्य और अहिंसा --
ये सब शरीर सम्बन्धी (शरीरद्वारा किये जानेवाले) तप कहे जाते हैं, अर्थात् शरीर जिनमें प्रधान है; ऐसे समस्त कार्य कर्ता द्वारा किये जायें, वे शरीर सम्बन्धी तप कहलाते हैं।

भगवान की भक्ति कभी न मिटने वाले छूत के रोग से भी अधिक संक्रामक है ---

 भगवान की भक्ति कभी न मिटने वाले छूत के रोग से भी अधिक संक्रामक है ---

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उर्दू भाषा का एक शेर है -- "इश्क़ ने 'ग़ालिब' निकम्मा कर दिया, वर्ना हम भी आदमी थे काम के।" इश्क़ का एक अर्थ भक्ति भी होता है। जो भगवान की भक्ति में पड़ जाता है वह दुनियाँ के किसी काम का नहीं रहता। उसको भगवान के अलावा और कुछ भी दिखाई नहीं देता। भगवान की भक्ति सबसे अधिक संक्रामक छूत का रोग है, जो एक बार लगने के बाद ठीक नहीं होता। कोई इसका उपचार करना चाहे तो चाहकर भी उपचार नहीं कर सकता, क्योंकि उपचार करने वाला स्वयं इसका शिकार हो जाता है। यह भगवान का रास्ता बड़ा खतरनाक है। इसमें थोड़ी दूर चलते ही फिर पीछे दिखना बंद हो जाता है। पीछे लौटना चाहो तो भी नहीं लौट सकते। आस-पास काँटों से भरी हुई खाइयाँ हैं, उनमें भले ही गिर जाओ लेकिन पीछे नहीं लौट सकते। पीछे लौटने के सारे मार्ग बंद होते रहते हैं, जिन पुलों को आप पार करते हो, पार करते ही वे पुल टूट जाते हैं। इस मार्ग का पथिक अन्य किसी भी काम का नहीं रहता।
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जैसे किसी भी शिवालय में नंदी की दृष्टि भगवान शिव की ओर ही निरंतर रहती है, इधर-उधर कहीं भी नहीं घूमती, वैसे ही एक भक्त की दृष्टि सिर्फ भगवान की ओर ही होती है। इधर-उधर कहीं भी नहीं जाती। गुरु-चरणों का ध्यान करते करते भगवान स्वयं सामने आ जाते हैं, और अपना स्वयं का ध्यान करने लगते हैं। सारी साधना वे स्वयं ही करते हैं। भक्त को तो बगल में बैठाकर कह देते हैं --
"मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु।
मामेवैष्यसि युक्त्वैवमात्मानं मत्परायणः॥९:३४॥"
"मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु।
मामेवैष्यसि सत्यं ते प्रतिजाने प्रियोऽसि मे॥१८:६५॥"
"सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज।
अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः॥१८:६६॥"
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आप जंगल में जा रहे और अचानक सामने से एक शेर आ जाये तो आप क्या कर सकेंगे? जो करना है वह तो शेर ही करेगा। ऐसे ही भगवान जब दृष्टि, दृश्य और दृष्टा बन जाएँ तब जो कुछ भी करना है, वह तो वे ही करेंगे। हम तो निमित्त मात्र है। हमारा कोई पृथक अस्तित्व नहीं है।
ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२९ मई २०२१

तीन अत्यंत महत्वपूर्ण बाते हैं जिनका ध्यान प्रत्येक साधक को रखना चाहिए, अन्यथा शत-प्रतिशत भटकाव निश्चित है ---

तीन अत्यंत महत्वपूर्ण बाते हैं जिनका ध्यान प्रत्येक साधक को रखना चाहिए, अन्यथा शत-प्रतिशत भटकाव निश्चित है ---
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(१) आध्यात्मिक साधना का प्रथम, अंतिम और एकमात्र उद्देश्य परमात्मा की प्राप्ति यानि आत्म-साक्षात्कार है, और कुछ भी नहीं। इस मार्ग में शत-प्रतिशत समर्पण की आवश्यकता है -- परमात्मा के अतिरिक्त अन्य कोई भी भावना/कामना हृदय या मन में नहीं होनी चाहिए। यश, मान-सम्मान, कीर्ति, प्रसिद्धि, और सिद्धियों को प्राप्त करने की भावना/कामना छोड़नी पड़ेंगी। यदि उपरोक्त में से किसी को भी प्राप्त करने की कामना आप में है तो अन्य बहुत सारे मार्ग आपके लिए हैं, आध्यात्म नहीं। यहाँ भगवान आपका १००% मांगते हैं, ९९.९९% भी नहीं चलेगा। आपका एकमात्र संबंध परमात्मा से है, बाकी अन्य सब रंगमंच के कलाकारों की तरह परमात्मा की अभिव्यक्तियाँ हैं, परमात्मा नहीं।
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(२) अपनी-अपनी गुरु-परंपरा का पूर्ण सम्मान करो। अपनी जो भी आध्यात्मिक समस्या है, उसका समाधान अपनी गुरु-परंपरा में ही करो, उससे बाहर नहीं। जहाँ से आपने आध्यात्मिक दीक्षा ली है, वहीं पर अपनी आध्यात्मिक जिज्ञासा का समाधान करें। इधर-उधर कहीं पर भी न भटकें। अच्छे संत-महात्माओं का सत्संग करें अवश्य, लेकिन सत्संग के लिए ही। मेरा संपर्क भारत की प्रायः सभी आध्यात्मिक परम्पराओं से है, सभी का मैं पूर्ण सम्मान करता हूँ, और प्रायः सभी के महात्माओं का मैंने, खूब सत्संग लाभ लिया है। उन सभी महात्माओं से मुझे बहुत प्रेम भी मिला है। लेकिन ईश्वर-लाभ मुझे मेरे सद्गुरु से ही मिला है।
अब एक अत्यधिक महत्वपूर्ण बात है --
यदि आप पायें कि गुरु का आचरण व उसके विचार गलत हैं, और वह आपको परमात्मा की उपलब्धि नहीं करा सकता तो ससम्मान गुरु का भी त्याग कर दें। सद्गुरु की प्राप्ति साधक को उसके अच्छे कर्मों से ही होती है, अन्यथा नहीं। जैसी आपकी भावना होती है, वैसे ही गुरु मिलेंगे। पर किसी का भी आपको निरादर करने का अधिकार नहीं है।
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(३) मुझे भारत से प्रेम है क्योंकि भारत मेरी पुण्यभूमि है। भगवान की और धर्म की सर्वश्रेष्ठ अभिव्यक्ति भारत में ही हुई है। यह राम और कृष्ण की लीलाभूमि रही है। भगवान के सभी अवतार यहाँ हुए हैं, और सृष्टि के आदिकाल से ही सभी महापुरुषों के चरण कमल इस भूमि पर पड़े हैं।
भारत में और धर्म में कभी अंतर्विरोध नहीं हो सकता क्योंकि सनातन धर्म ही भारत है, और भारत ही सनातन धर्म है।
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परमात्मा की सर्वश्रेष्ठ अभिव्यक्ति आप सब निजात्मगण को सादर नमन!!
(मेरे से वे ही जुड़ें जिनके हृदय में परमात्मा और भारतभूमि से प्रेम है। अन्य सब मुझे unfriend कर के विष (जहर) मिले शहद की तरह त्याग दें। मेरा भी अनमोल समय नष्ट न करें, और अपना भी)
ॐ तत्सत् ||
कृपा शंकर
२९ मई २०२१
पुनश्च :--- उपरोक्त लेख में "गुरु-परंपरा" के स्थान पर "साधना-परंपरा" पढ़ें। इनमें अति अल्प भेद है। "साधना-परंपरा" अधिक उचित शब्द है।

Thursday 27 May 2021

क्या वर्तमान सभ्यता और मनुष्य जाति नष्ट हो जायेगी ?

"मनुष्य नाम की एक जाति ने कुछ लाख वर्ष तक इस पृथ्वी ग्रह पर निवास और राज्य किया था, फिर अपने लोभ और अहंकार के कारण वह जाति उसी तरह नष्ट हो गई जैसे कभी डायनासोर हुए थे।" ---

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यह हो सकता है भविष्य में पृथ्वी पर राज्य करने वाली किसी मनुष्येतर अन्य जाति के इतिहास में पढ़ाया जाये। जिस तरह पृथ्वी पर कभी डायनासोर रहते थे, उन्हीं का राज्य था, फिर वे लुप्त हो गए। वैसे ही मनुष्य जाति भी लुप्त हो सकती है। हमारे से अधिक उन्नत दूसरे विज्ञानमय लोकों के प्राणी हैं, वे भी आकर इस पृथ्वी पर अधिकार और राज्य कर सकते हैं। मुझे कभी-कभी कुछ ऐसा लगता भी है।
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सन २०३० ई. से पेट्रोलियम तेल के कुएँ बहुत तेजी से सूखने आरंभ हो जाएँगे। तेल की कीमत अप्रत्याशित तरीके से बढ़ने लगेगी। इस बीच बचे-खुचे तेल पर अधिकार के लिए महाशक्तियाँ आपस में एक दूसरे से घातक युद्ध करेंगी। उनके बीच हुए युद्धों में ही अधिकांश मनुष्य जाति नष्ट हो जाएगी। वर्तमान पेट्रोलियम तेल उत्पादक देश तो जल कर भस्म हो जाएँगे।
अमेरिका और रूस आजकल अरब देशों में इतना हस्तक्षेप क्यों कर रहे हैं? उनका उद्देश्य तेल की लूट ही है।
सन २०५० ई. तक पृथ्वी से पेट्रोलियम तेल पूरी तरह समाप्त हो जाएगा। पता नहीं फिर ऊर्जा का मुख्य स्त्रोत क्या होगा?
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अब तो सूचना प्रोद्योगिकी इतनी विकसित हो चुकी है कि पृथ्वी पर कहीं कुछ भी होता है तो तुरंत पता चल जाता है। वह जमाना लौट कर बापस नहीं आ सकता जब लाखों लुटेरे आते थे, और अनेक सभ्यताओं को नष्ट कर करोड़ों लोगों का नर-संहार और लूट कर चले जाते थे। उन्होने ऐसे पंथ भी बना लिए थे जो उनके आक्रमण की भूमिका तैयार करते, और उनके अनैतिक राज्य को कायम भी रखते। सारी सूचना प्रोद्योगिकी -- उपग्रहों की संचार व्यवस्था पर निर्भर है। उपग्रहों को नष्ट कर दिये जाने की स्थिति में वह भी धराशायी हो जाएगी।
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वर्तमान विकास काल में सत्य तो अब छिपाया नहीं जा सकेगा। जब सत्य का बोध होगा तो मनुष्य के सोच-विचार भी बदलेंगे। अगले बीस वर्षों के बाद का युग दूसरा ही होगा। हमारे से अधिक उन्नत और सत्यनिष्ठ दूसरे विज्ञानमय लोकों के मनुष्य जैसे ही लगते प्राणी भी आकर पृथ्वी पर अधिकार और राज्य कर सकते हैं। वैसे भी अब समय आ गया है कि इस पृथ्वी पर से झूठ-कपट व अधर्म का राज्य समाप्त हो, और धर्म की पुनर्प्रतिष्ठा हो। भगवान किसी न किसी रूप में तो यह काम करेंगे ही। मनुष्य जाति अपने उद्देश्य में विफल रही है। मनुष्यों की स्वयं से ही आस्था समाप्त हो रही है।
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चीनियों की सोच है कि इस पृथ्वी पर से उनके अतिरिक्त अन्य सब लोग नष्ट हो जायें, सिर्फ चीनी ही बचें। इसीलिए उन्होने विश्व के अन्य सभी देशों को नष्ट करने के लिए जैविक अस्त्र के रूप में विषाणुओं को फैलाया जिन से कोरोना महामारी फैली और लाखों लोग मरे। ऐसी ही सोच जिहादियों, क्रूसेडरों और अन्य भी अनेक गोपनीय पश्चिमी दानव समाजों की है, जो चाहते हैं कि सिर्फ उन्हीं के आदमी जीवित रहें, बाकी के या तो नष्ट हो जाएँ या गुलाम होकर रहें। विश्व में इतने सारे रासायनिक और नाभिकीय आणविक अस्त्र है जो इस पृथ्वी ग्रह को सैंकड़ों बार नष्ट कर सकते हैं। उनका प्रयोग जब होगा तब शायद ही कोई मनुष्य इस पृथ्वी पर जीवित बचे। बड़े भयानक युद्ध हो सकते हैं, पृथ्वी के संसाधनों पर अधिकार के लिए, जिनसे मनुष्य जाति पूरी तरह नष्ट हो सकती है।
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मेरी बात को लोग अभी तो एक गल्प समझेंगे, लेकिन इसके घटित होने की पूरी संभावना है। वह दिन देखने के लिए मैं जीवित नहीं रहूँगा, पर यह दृश्य सूक्ष्म जगत से अवश्य देखूंगा।
२५ मई २०२१

सृष्टि का एक रहस्य यह भी है ---

 सृष्टि का रहस्य ---

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जब भगवान ही हमारे हो गए तो और पाने के लिए बाकी कुछ भी नहीं रह गया है| सब कुछ तो प्राप्त कर लिया है| मैं और मेरे प्रभु एक हैं, अब उन में और मुझ में कोई भेद नहीं रह गया है| सृष्टि का रहस्य है कि समृद्धि के चिंतन से समृद्धि आती है, प्रचूरता के चिंतन से प्रचूरता आती है, अभावों के चिंतन से अभाव आते हैं, दरिद्रता के चिंतन से दरिद्रता आती है, दु:खों के चिंतन से दु:ख आते हैं, पाप के चिंतन से पाप आते हैं, और हम वैसे ही बन जाते हैं जैसा हम सोचते हैं| जिस भी भाव का चिंतन हम निरंतर करते हैं, प्रकृति वैसा ही रूप लेकर हमारे पास आ जाती है और हमारे चारों ओर की सृष्टि वैसी ही बन जाती है| ये विचार, ये भाव ही हमारे "कर्म" हैं जिनका फल भोगने को हम बाध्य हैं| पूरी सृष्टि में जो कुछ भी हो रहा है वह हम सब मनुष्यों के सामुहिक विचारों का ही घनीभूत रूप है| इसमें भगवान का कोई दोष नहीं है| हब सब भगवान के ही अंश हैं, हम सब ही भगवान में एक हैं, पृथक पृथक नहीं, हम ही भगवान हैं, यह देह नहीं|
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जब भी हम किसी से मिलते हैं या कोई हम से मिलता है तो आपस में एक दूसरे पर प्रभाव पड़े बिना नहीं रहता| किसी के विचारों का प्रभाव अधिक शक्तिशाली होता है किसी का कम| इसीलिये साधक एकांत में रहना अधिक पसंद करते हैं| किसी महान संत ने ठीक ही कहा है कि ईश्वर से संपर्क करने के लिए एकांतवास की कीमत चुकानी पडती है| एक विद्यार्थी जो डॉक्टर बनना चाहता है उसे अपनी ही सोच के विद्यार्थियों के साथ रहना होगा| जो जैसा बनना चाहता है उसे वैसी ही अनुकूलता में रहना होता है|
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इसी तरह संसार की जटिलताओं में रहते हुए ईश्वर पर ध्यान करना अति मानवीय कार्य है जिसे हर कोई नहीं कर सकता है| इसे कोई लाखों में से एक ही कर सकता है| लोग उस लाखों में से एक का ही उदाहरण देते हुए दूसरों को निरुत्साहित करते हैं| जो ईश्वर को प्राप्त करना चाहते हैं उन्हें हर प्रतिकूलता पर प्रहार करना होगा| सबसे महत्वपूर्ण है अपने विचारों पर नियंत्रण| इसके लिए अपने अनुकूल वातावरण निर्मित करना पड़ता है|
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स्वामी रामतीर्थ स्वयं को बादशाह राम कहते थे| उनके लिए पूरी सृष्टि उनका परिवार थी, समस्त ब्रह्माण्ड उनका घर, और पूरा भारत ही उनकी देह थी|| बिना रुपये पैसे के पूरे विश्व का भ्रमण कर लिया, विदेशों में खूब प्रवचन दिए और जिस भी वस्तु की उन्हें आवश्यकता होती, प्रकृति उन्हें उस वस्तु की व्यवस्था कैसे भी स्वयं कर देती| अगर हमारे संकल्प में गहनता है तो इस सृष्टि में कुछ भी हमारे लिए अप्राप्य नहीं है| तपस्वी संत महात्मा एकांत में रहते है| भगवन उनकी व्यवस्था स्वयं कर देते हैं क्योंकि वे निरंतर भगवान का ही चिंतन करते है|
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अपने ह्रदय और मन को शांत रखो| जो कुछ भी परमात्मा का है वह सब हमारा ही है| यह समस्त सृष्टि हमारी ही है| जहाँ तक हमारी कल्पना जाती है वहां तक के हम ही सम्राट हैं| सृष्टि के सारे सद्गुण हमारे ही हैं| अपने आप को परमात्मा को सौंप दो| परमात्मा का सब कुछ हमारा ही है| स्वयं परमात्मा ही हमारे हैं| जब भगवान ही हमारे हो गए तो और पाने के लिए बाकी क्या बचा रह गया है ???. हमें आभारी होना चाहिए कि भगवान ने हमें स्वस्थ देह दी है, अपना चिंतन दिया है, अहैतुकी प्रेम दिया है, हमारे सिर पर एक छत दी है, अच्छा पौष्टिक भोजन मिल रहा है, स्वच्छ जल और हवा मिल रही है, पूरे विश्व में हमारे शुभचिंतक मित्र है जो हम से प्रेम करते हैं, और हमारे गुरु महाराज हैं जो निरंतर हमारा मार्गदर्शन करते हैं|
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जिस आसन पर बैठ कर हम भगवान का ध्यान करते हैं वह हमारा सिंहासन है| जहाँ तक हमारी कल्पना जाती है वहाँ तक के हम सम्राट हैं| हम स्वयं ही वह सब हैं| पूरी सृष्टि हमारा परिवार है, समस्त ब्रह्मांड हमारा घर है, हम परमात्मा की दिव्य संतान हैं| जो कुछ भी भगवान का वैभव है उस पर हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है| वह सब हम स्वयं ही हैं| हम स्वयं ही परम ब्रह्म हैं| हम और हमारे परम पिता परमात्मा एक हैं|
शिवमस्तु ! ॐ शिव ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२६ मई २०१३

जानने योग्य सिर्फ भगवान ही हैं ---

 जानने योग्य सिर्फ भगवान ही हैं ---

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मनुष्य का हृदय तो थोड़ी सी भक्ति से ही तृप्त हो जाता है, लेकिन मन सदा ही अतृप्त रहता है। अतृप्त मन को जब भगवान की भूख लगनी आरंभ हो जाये तब मान लेना चाहिये कि कोई पुण्योदय हुआ है। भगवान भी सबके हृदय में तो रहते हैं, लेकिन मन में कम ही आते हैं। इसलिए मन की बात न सुनें, हृदय की ही सुनें। मन धोखा दे सकता है, परंतु हृदय नहीं, क्योंकि हृदय में भगवान है।
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भगवान कहते हैं ---
"सर्वस्य चाहं हृदि सन्निविष्टो मत्तः स्मृतिर्ज्ञानमपोहनं च।
वेदैश्च सर्वैरहमेव वेद्यो वेदान्तकृद्वेदविदेव चाहम्॥१५:१५॥"
अर्थात् -- मैं ही समस्त प्राणियों के हृदय में स्थित हूँ। मुझसे ही स्मृति, ज्ञान और अपोहन (उनका अभाव) होता है। समस्त वेदों के द्वारा मैं ही वेद्य (जानने योग्य) वस्तु हूँ तथा वेदान्त का और वेदों का ज्ञाता भी मैं ही हूँ॥
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अतः जानने योग्य सिर्फ भगवान ही हैं। उनकी कृपा ही किसी को सर्वज्ञ बना सकती है।
ॐ तत्सत् !! ॐ स्वस्ति !!
कृपा शंकर
२७ मई २०२१

जो और जैसी बात अंतर्प्रज्ञा यानि अंतर्चेतना में सही लगे वही बात बोलनी चाहिए, अन्यथा मौन रहना ही अच्छा है ---

 जो और जैसी बात अंतर्प्रज्ञा यानि अंतर्चेतना में सही लगे वही बात बोलनी चाहिए, अन्यथा मौन रहना ही अच्छा है ---

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अंतर्चेतना में भगवान की जो छवि मेरे समक्ष है, वह इस जीवनकाल में ही नहीं, अनंतकाल तक बनी रहे, और यह पृथक अस्तित्व भी उसी में विलीन हो जाये। यह कोई कामना नहीं बल्कि हृदय की गहनतम अभीप्सा है। सब कुछ तो "वे" ही हैं।
भगवान कहते हैं ---
"शनैः शनैरुपरमेद् बुद्ध्या धृतिगृहीतया।
आत्मसंस्थं मनः कृत्वा न किञ्चिदपि चिन्तयेत् ॥६:२५॥"
अर्थात् -- शनै शनै धैर्ययुक्त बुद्धि के द्वारा उपरामता (शांति) को प्राप्त होवे। मन को आत्मा में स्थित करके फिर अन्य कुछ भी चिन्तन न करे॥
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शनैः शनैः धैर्ययुक्त बुद्धि द्वारा मन को आत्मा में स्थित करके अर्थात् यह सब कुछ आत्मा ही है उससे अतिरिक्त अन्य कुछ भी नहीं है, इस प्रकार मन को आत्मामें अचल करके अन्य किसी भी वस्तु का चिन्तन न करे।
मुमुक्षुत्व और फलार्थित्व -- दोनों साथ साथ नहीं हो सकते। जब मुमुक्षुत्व जागृत होता है तब शनैः शनैः सब कामनाएँ नष्ट होने लगती हैं, क्योंकि तब कर्ताभाव ही समाप्त हो जाता है।
भगवान कहते हैं ---
"ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम्।
मम वर्त्मानुवर्तन्ते मनुष्याः पार्थ सर्वशः॥४:११॥"
अर्थात् -- जो मुझे जैसे भजते हैं मैं उन पर वैसे ही अनुग्रह करता हूँ। हे पार्थ सभी मनुष्य सब प्रकार से मेरे ही मार्ग का अनुवर्तन करते हैं॥
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जहाँ राग-द्वेष और अहंकार है वहाँ आत्मभाव नहीं हो सकता। जो भगवान के लिए व्याकुल हैं, भगवान भी उन के लिए व्याकुल हैं|
भगवान् कहते हैं ---
"सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज।
अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः॥१८:६६॥"
अर्थात् सब धर्मों का परित्याग करके तुम एक मेरी ही शरण में आओ। मैं तुम्हें समस्त पापों से मुक्त कर दूँगा, तुम शोक मत करो।
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हम सब तरह की चिंताओं को त्याग कर भगवान में ही स्थित हो जाएँ, यही गुरु महाराज की शिक्षाओं का भी सार है।
ॐ तत्सत् !! ॐ नमो भगवते वासुदेवाय !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२७ मई २०२१

हमारे शास्त्रों के अनुसार आतताई का वध कोई पाप नहीं, कर्तव्य है ---

 हमारे शास्त्रों के अनुसार आतताई का वध कोई पाप नहीं, कर्तव्य है ---

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"आततायिनमायान्तं हन्यादेवाविचारयन्।
नाततायिवधे दोषो हन्तुर्भवति कश्चन॥" -- मनु स्मृति ( ८ | ३५०-३५१ )
अपना अनिष्ट करने के लिए आते हुए आततायी को बिना विचारे ही मार डालना चाहिए | आततायी के मारने से मारनेवाले को कुछ दोष नहीं होता॥
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"अग्निदो गरदश्चैव शस्त्रपाणिर्धनापहः।
क्षेत्रदारापहर्ता च षडेते ह्याततायिन॥" -- वसिष्ठस्मृति ( ३ | १९ )
आग लगानेवाला, विष देनेवाला , हाथ में शस्त्र लेकर मारने को उद्यत , धन हरण करने वाला , जमीन छीननेवाला और स्त्री का हरण करनेवाला - ये छहों ही आततायी है॥

भगवान की भक्ति और हमारा आत्मबल ही हमारी रक्षा कर सकता है ---


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भगवान का खूब ध्यान करें| हर प्रकार से अपनी सुरक्षा की व्यवस्था कर के रखें|
अगले चार-पाँच महीने मुझे लगता है कि शुभ नहीं हैं| अभी तो चीन द्वारा छेड़ा हुआ कोरोना जैविक विश्व युद्ध चल रहा है जो अस्त्र-शस्त्रों के प्रयोग पर कभी भी आ सकता है| कहीं यह आणविक युद्ध पर न आ जाए| लाशों के ढेर पर बैठकर चीन, रूस और अमेरिका क्या उत्सव मनायेंगे? ये ही देश है जो मानवता को नष्ट कर सकते हैं|
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चीन और पाकिस्तान मिल कर भारत पर युद्ध थोप सकते हैं| पाकिस्तान तो अति शीघ्र ही भुखमरी और विखंडन का शिकार होने वाला है| चीन के उकसावे पर और भी अधिक खुल कर भारत से युद्ध प्रारंभ कर सकता है|
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चीन की सेना भारत के सामने पारंपरिक युद्ध में नहीं टिक सकती| चीनी सैनिक एक तो इस लिए डरते हैं कि वे अपने परिवार के इकलौते पुरुष सदस्य हैं जिनके मरने पर उनका वंशनाश हो जाएगा| दूसरा उनका भोजन इतना अधिक आसुरी/राक्षसी है कि उनकी कामुकता अत्यधिक प्रबल है जिसके कारण उन में यौन विकृतियाँ बहुत अधिक हैं| अतः उनमें कोई नैतिक बल और साहस नहीं है| उनकी शक्ति उनके अणुबम ही हैं|
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भारत की रक्षा हमारा आत्मबल, आस्तिकता, आस्था व निष्ठा करेगी|
ॐ तत्सत् ||
कृपा शंकर
२८ मई २०२०