लगभग ४५ वर्ष पूर्व मुझे एक सिद्ध महात्मा ने कहा था कि मेरे सारे आध्यात्मिक संकल्प-विकल्प, आकांक्षाएँ, और भागदौड़ व्यर्थ हैं, जिनका तब तक कोई लाभ नहीं है, जब तक कर्मों के सारे बंधन न कट जाएँ| उन्होने यह भी कहा कि एक एकांत कक्ष की व्यवस्था कर लो और वहाँ एकांत में शिव का ध्यान करो, जिन की कृपा से सारे कर्मफलों से मुक्त होकर जीवनमुक्त हो जाओगे| काश! उनकी बात मैं ठीक से समझ पाता| मेरा उनसे बहुत लंबा वार्तालाप हुआ था| जो भी प्रश्न मेरे मन में आते, बिना पूछे ही उनका उत्तर वे तुरंत दे देते|
अन्य भी अनेक ईश्वर को उपलब्ध महात्माओं से मेरा सत्संग हुआ है| सब ने भक्ति, और समर्पण पर ही उपदेश दिये हैं|
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गीता में भगवान श्रीकृष्ण का निम्न उपदेश दसों बार पढ़ा है और समझने का स्वांग भी रचा है, पर कभी व्यवहार में परिवर्तित नहीं कर पाया ---
"मयि चानन्ययोगेन भक्तिरव्यभिचारिणी| विविक्तदेशसेवित्वमरतिर्जनसंसदि||१३:११||"
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हे प्रभु अब किसी कामना का जन्म ही न हो| बस सिर्फ तुम ही तुम रहो| आज तुम्हारी बात मैं समझ पाया हूँ| तुम्हारे से अन्य कोई नहीं है| जो तुम हो वह ही मैं हूँ| तुम ने जहां भी मुझे रखा है, वहीं तुम हो| तुम में और मुझ में कहीं कई अंतर नहीं है| ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२५ मार्च २०२१