Tuesday, 17 December 2024

राष्ट्रहित में ---

 राष्ट्रहित में ---

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जब तक इस शरीर को धारण कर रखा है तब तक मैं सर्वप्रथम भारतवर्ष का एक विचारशील नागरिक हूँ| भारतवर्ष में ही नहीं पूरे विश्व में होने वाली हर घटना का मुझ पर ही नहीं सब पर प्रभाव पड़ता है| आध्यात्म के नाम पर भौतिक जगत से मैं तटस्थ नहीं रह सकता|
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पर यदि भारत, भारत ही नहीं रहेगा तब धर्म भी नहीं रहेगा, श्रुतियाँ-स्मृतियाँ भी नहीं रहेंगी, यानि वेद आदि ग्रन्थ भी नष्ट हो जायेंगे, साधू-संत भी नहीं रहेंगे, सदाचार भी नहीं रहेगा और देश की अस्मिता ही नष्ट हो जायेगी| इसी तरह यदि धर्म ही नहीं रहा तो भारत भी नहीं रहेगा| दोनों एक-दूसरे के पूरक हैं| अतः राष्ट्रहित हमारा सर्वोपरि दायित्व है| धर्म के बिना राष्ट्र नहीं है, और राष्ट्र के बिना धर्म नहीं है| सनातन धर्म ही भारत है और भारत ही सनातन धर्म है|
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सिन्धु नदी के तट पर ऋषियों को वेदों के दर्शन हुए थे| आज सिन्धु नदी के तट पर कहीं पर भी वेदों की ध्वनि नहीं सुनाई देती| भारतवर्ष की अस्मिता सनातन धर्म है, वही इसकी रक्षा कर सकता है| भारतवर्ष की रक्षा न तो मार्क्सवाद कर सकता है, न समाजवाद, न धर्मनिर्पेक्षतावाद न सर्वधर्मसमभाववाद और न अल्पसंख्यकवाद| यदि सनातन धर्म ही नष्ट हो गया तो भारतवर्ष भी नष्ट हो जाएगा| भारत के बिना सनातन धर्म भी नहीं है, और सनातन धर्म के बिना भारत भी नहीं है|
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विश्व का भविष्य भारतवर्ष से है, और भारत का भविष्य सनातन धर्म से है| यदि सनातन धर्म ही नष्ट हो गया तो यह संसार भी नष्ट हो जायेगा|
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भारत की वर्तमान शासन व्यवस्था लोकतंत्रीय संसदीय शासन की है| पर आज लोकतंत्र का स्थान भीड़तंत्र ने ले लिया है| संसद को चलाने में प्रति मिनट २५ लाख रूपये खर्च होते हैं| सांसदों को अत्यधिक वेतन, आर्थिक लाभ, निःशुल्क भव्य निवास, निःशुल्क वाहन, निःशुल्क यात्रा, निःशुल्क फोन, जीवन भर की पेंशन और अन्य दुनिया भर की सुविधाएँ दी जाती हैं| ये सब करदाताओं के पैसों से है | यदि इनका दुरुपयोग होता है तो ये सब बंद होनी चाहिएँ|
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सांसद को उतने ही दिन का वेतन मिलना चाहिए जितने दिन वह संसद में आकर शांति से अपना काम करता है| शोरगुल व हो-हल्ला करने वालों को बाहर का रास्ता दिखा देना चाहिए और उस दिन के लिए उसे कुछ भी पैसा नहीं मिलना चाहिए| अपने जीवन यापन और पेंशन की व्यवस्था भी वे खुद ही करें| हम सोचते हैं कि ये लोग देश का भला करेंगे पर पिछले कुछ दिनों से जो कुछ भी हो रहा है उससे पूरा देश निराश हुआ है|
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इसका विरोध कीजिये जो हर प्रबुद्ध नागरिक का दायित्व है| हमें क्या आवश्यकता है ऐसी व्यवस्था व ऐसे लोगों की जो देशहित में कार्य करने की बजाय अपने दल के हित में और अपने व्यक्तिगत हित में करते हैं? ज़रा जरा सी असंगत बातों पर संसद को ठप्प कर देना क्या उनको शोभा देता है? यह अधर्म नहीं तो और क्या है?
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भारत माता की जय |
जयतु वैदिकी संस्कृतिः जयतु भारतम् | ---जय श्रीराम--- ॐ ॐ ॐ ||
१८ दिसंबर २०१५

भगवान को हम दे ही क्या सकते हैं? सब कुछ तो उनका ही दिया हुआ है .....

 भगवान को हम दे ही क्या सकते हैं? सब कुछ तो उनका ही दिया हुआ है .....

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भगवान को हम दे ही क्या सकते हैं? सब कुछ तो उनका ही दिया हुआ है| हाँ, पर एक चीज ऐसी भी है जो सिर्फ हमारे ही पास है और भगवान भी उसे हमसे बापस पाना चाहते हैं| उस के अतिरिक्त अन्य कुछ भी हमारे पास अपना कहने को नहीं है| वह सिर्फ हम ही उन्हें दे सकते हैं, कोई अन्य नहीं| और वह है ..... हमारा अहैतुकी परम प्रेम||
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इस समस्त सृष्टि का उद्भव परमात्मा के संकल्प से हुआ है और वे ही है जो सब रूपों में स्वयं को व्यक्त कर रहे है| कर्ता भी वे है और भोक्ता भी वे ही है|
वे स्वयं ही अपनी सृष्टि के उद्भव, स्थिति और संहार के कर्ता है| जीवों की रचना भी उन्हीं के संकल्प से हुई है| सारे कर्मों के कर्ता भी वे ही है और भोक्ता भी वे ही है| सृष्टि का उद्देष्य ही यह है कि हम अपनी सर्वश्रेष्ठ सम्भावना को व्यक्त कर पुनश्चः उन्हीं की चेतना में जा मिलें| यह उन्हीं की माया है जो अहंकार का सृजन कर हमें उन से पृथक कर रही है| इस संसार के सारे दु:ख और कष्ट इसी लिए हैं कि हम परमात्मा से अहंकारवश पृथक हैं, और इनसे मुक्ति भी परमात्मा में पूर्ण समर्पण कर के ही मिल सकती है| वे भी सोचते हैं कि कभी न कभी तो कोई उनकी संतान उनको प्रेम अवश्य करेगी| वे भी हमारे प्रेम के बिना दु:खी हैं चाहे वे स्वयं सच्चिदानंद हों|
भगवान हम से प्रसन्न तभी होंगे जब हम अपना पूर्ण अहैतुकी परम प्रेम उन्हें समर्पित कर दें| अन्य कोई मार्ग नहीं है उन को प्रसन्न करने का|
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ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ ||
१८ दिसंबर २०१६

निकट भविष्य में भारत को एक बड़े युद्ध में उतरना पड़ सकता है ---

 निकट भविष्य में भारत को एक बड़े युद्ध में उतरना पड़ सकता है ---

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मैं जो लिखने जा रहा हूँ वह कोई ज्योतिषीय गणना नहीं, वर्तमान विश्व की समसामयिक परिस्थितियों पर आधारित एक यथार्थ आंकलन है, जो सही भी हो सकता है और गलत भी। लेकिन हमें किसी भी परिस्थिति का सामना करने को तैयार रहना चाहिए।
भारत अपने आप को चाहे कितना भी अहिंसा का पुजारी, शांतिप्रिय और गांधीवादी सिद्ध करना चाहे, लेकिन भारत युद्ध से बच नहीं सकता। निकट भविष्य में भारत को एक भयानक युद्ध में उतरना ही पड़ सकता है। युद्ध हिंसा से ही जीते जाते हैं, अहिंसा से नहीं। समय आने पर हिंसक भी होना ही पड़ता है।
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मुझे लगता है कि भारत पर युद्ध -- भारत के कुछ पड़ोसी (चीन, पाकिस्तान, बांग्लादेश) ही थोपेंगे। चीन की यात्रा मैं तीन-चार बार कर चुका हूँ। वहाँ का खानपान ही ऐसा है कि लोगों की सोच ही महा तामसिक है। वे कीड़े-मकोड़े आदि (जो कुछ भी चलता-फिरता है) सब कुछ खा जाते हैं। वहाँ का घी और मक्खन भी जानवरों की चर्बी से बनाया जाता है। उनका भरोसा नहीं किया जा सकता। वे कुत्ते का मांस तक खाते हैं। चीन में हजारों भारतीय काम भी करते हैं, और व्यापार भी। वे अपना खाना खुद बनाकर खाते हैं। आप चीन से आये किसी भी भारतीय को पूछ सकते हैं।
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इस बात की पूरी संभावना है कि अवसर मिलते ही चीन -- पाकिस्तान और बांग्लादेश को भड़का कर उनको अपने साथ लेकर भारत से एक युद्ध छेड़ेगा। यह युद्ध बड़ा भयानक और निर्णायक होगा। संभावना है कि म्यांमार पर भी चीन -- सैनिक आक्रमण कर के अपना अधिकार कर सकता है, क्योंकि चीन के समक्ष म्यामार एक निरीह देश है। बांग्लादेश में वहाँ के कट्टरपंथियों ने वहाँ के हिंदुओं की हत्या करना आरंभ कर दिया है। उसमें अब और तेजी आयेगी। पाकिस्तान में बहुत मुश्किल से १% हिन्दू बचे हैं, वे भी मार दिये जा सकते हैं। हालत बहुत अधिक गंभीर हो जायेगी। विवश होकर भारत को सैनिक हस्तक्षेप करना ही होगा।
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अमेरिका के होने वाले राष्ट्रपति ट्रंप ने चीन को अपना शत्रु नंबर एक बताया है। चीन ने अमेरिका में अपने एक लाख से अधिक युवा अविवाहित पूरी तरह से प्रशिक्षित पुरुष व महिला सैनिकों की घुसपैठ करा दी है। उनका उद्देश्य समय आने पर अमेरिका को पूरी तरह से तोड़ना है। अंततः अमेरिका और चीन में भी युद्ध होना निश्चित है, जिसमें चीन के सात टुकड़े हो सकते हैं।
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भारत में भी चीन और पाकिस्तान के बहुत अधिक समर्थक हैं। वे यहाँ गृह-युद्ध की सी स्थिति उत्पन्न कर सकते हैं। उनसे निपटने की भी तैयारी सभी राष्ट्रप्रेमियों को करनी पड़ेगी। जो कुछ भी विनाश होना है वह अगले एक वर्ष के भीतर भीतर हो जाएगा। फिर नवसृजन का युग आरंभ होगा। ऐसा होता आया है और होता ही रहेगा।
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यह एक आंकलन मात्र है वर्तमान परिप्रेक्ष्य में। लेकिन सजग रहना हमारा काम है। सभी को मंगलमय शुभ कामनाएँ। हरिः ॐ तत्सत् !!
कृपा शंकर
२ दिसंबर २०२४

"ब्रह्मशक्ति" शब्द से मेरा क्या तात्पर्य है? ---

मैं समस्त दैवीय शक्तियों, सप्त चिरंजीवियों, सिद्ध योगियों और तपस्वी महात्माओं का आवाहन और प्रार्थना करता हूँ कि उनके आध्यात्म-बल से भारत में एक ब्रह्मशक्ति का तुरंत प्राकट्य हो। भारत के सभी आंतरिक और बाह्य शत्रुओं का नाश हो। समय आ गया है -- "इस राष्ट्र भारत में धर्म की पुनःस्थापना और वैश्वीकरण हो।" ॐ स्वस्ति !!
ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२ दिसंबर २०२४

. "ब्रह्मशक्ति" शब्द से मेरा क्या तात्पर्य है? ---

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राष्ट्र की ही नहीं, सम्पूर्ण विश्व की सबसे बड़ी आवश्यकता इस समय सत्य-सनातन-धर्म की पुनःप्रतिष्ठा और वैश्वीकरण है। इसके लिए भारत में एक ब्रह्मशक्ति का प्राकट्य परमावश्यक है। ब्रह्मशक्ति का अर्थ है -- हमारी भक्ति और आध्यात्मिक साधना के प्रभाव से प्रकट हुई एक ईश्वरीय शक्ति, जो हमारे चारों ओर छाये हुये अंधकार को दूर करने में हमारी सहायता करे। इसके लिए हमें ईश्वर की उपासना करते हैं।
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सूक्ष्म जगत के कुछ अदृश्य महात्माओं का मुझे संरक्षण और मार्गदर्शन प्राप्त है। वे मुझे भटकने नहीं देते। भटक भी जाता हूँ तो बापस खींचकर ईश्वरीय मार्ग पर ले आते हैं। वे ही प्रेरणा दे रहे हैं कि मुझे अपना शेष सारा जीवन परमात्मा की उपासना में ही व्यतीत करना चहिए। बौद्धिक स्तर पर मुझे किसी भी तरह का कोई संशय नहीं है, हर चीज स्पष्ट है। मुझे कहा गया है कि अपने अन्तःकरण (मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार) का परमात्मा को पूर्ण समर्पण ही परमात्मा की प्राप्ति है। मुझे यह भी कहा गया है कि जन्म-जन्मांतरों से मेरे अवचेतन मन में छिपे सारे कुसंस्कार, सारे पाप और सारी कमियाँ भी भगवत्-प्राप्ति से नष्ट हो जायेंगी। भगवत्-प्राप्ति ही आत्म-साक्षात्कार है जो मेरी सबसे बड़ी और एकमात्र आवश्यकता है।
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अपने दिन का आरंभ, समापन और पूरा दिन परमात्मा की चेतना में ही व्यतीत करें। भगवान ने हम सब को विवेक दिया है। उस ईश्वर-प्रदत्त विवेक के प्रकाश से ही मार्गदर्शन प्राप्त करें और जीवन के सारे कार्य संपादित करें।
ॐ स्वस्ति !! ॐ तत्सत् !!
कृपा शंकर
३ दिसंबर २०२४

सत्य को जानने की शाश्वत जिज्ञासा ही धर्म है ---

 सत्य को जानने की शाश्वत जिज्ञासा ही धर्म है ---

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परमात्मा ही एकमात्र सत्य हैं। अपने विवेक से निर्णय कीजिये कि सत्य और असत्य क्या है। पहले देवों और असुरों में आपस में युद्ध होते थे। कभी देवता प्रबल हो जाते थे, कभी असुर। उसी तरह यह सृष्टि--प्रकाश और अंधकार का खेल है। वैसे ही धर्म और अधर्म हैं।
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जो हमें परमात्मा का साक्षात्कार करवा दे, वही धर्म है। जो हमें परमात्मा से दूर ले जाये वह अधर्म है। बाकी सब बुद्धि-विलास है। जो अधर्म हैं, वे एक आसुरी शक्ति के द्वारा चलाये जा रहे हैं, परमात्मा के द्वारा नहीं। एक असुर है जो असत्य का संचालन कर रहा है। उस असुर का होना भी सृष्टि संचालन के लिए आवश्यक है, लेकिन उसकी प्रबलता न्यूनतम हो। इस प्रश्न पर विचार कीजिये कि मैं कौन हूँ? उस वास्तविक "मैं" की खोज ही परमात्मा की खोज है।
ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
०९ दिसंबर २०२४

किस चीज ने मुझे इस संसार से बांध रखा है? मैं कैसे व क्यों जीवित हूँ? ---

 किस चीज ने मुझे इस संसार से बांध रखा है? मैं कैसे व क्यों जीवित हूँ? ---

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मेरे और इस संसार के मध्य की कड़ी -- ये सांसें हैं। जिस क्षण ये सांसें चलनी बंद हो जायेंगी, उसी क्षण इस संसार से मेरे सारे संबंध टूट जायेंगे।
ये सांसें चल रही हैं, इसके पीछे सुषुम्ना में विचरण कर रही प्राण शक्ति भगवती कुंडलिनी हैं। वे ही मेरा प्राण हैं। परमशिव से एकाकार होने तक वे विचरण करती रहेंगी। जिस जन्म में या जब भी वे परमशिव से मिल कर एकाकार हो जायेंगी, उसी क्षण यह जीवात्मा जीवनमुक्त हो जायेगी।
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जन्म-मरण और जीवन -- ये सब मेरे वश में नहीं हैं। अनेक जन्मों के संचित कर्मफलों के प्रारब्ध को भोगने के लिए हमें यह जीवन मिलता है। लेकिन अब सारा परिदृश्य और धारणा बदल गयी है। जिन्होंने इस समस्त सृष्टि की रचना की है वे जगन्माता ही यह जीवन जी रही हैं। मेरे और इस संसार के मध्य की कड़ी --ये सांसें, जगन्माता का मुझे सबसे बड़ा उपहार है। ये साँसें प्राणशक्ति के स्पंदन और संचलन की प्रतिक्रिया मात्र हैं। जिस क्षण जगन्माता की प्राणशक्ति का यह स्पंदन/संचलन रुक जाएगा, उसी क्षण ये साँसें भी रुक जायेंगी, और यह देह निष्प्राण हो जायेगी।
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परमात्मा को उपलब्ध होने का माध्यम/साधन भी ये साँसें ही हैं। अतः इन्हें व्यर्थ न जाने दें। कई रहस्य हैं जो जगन्माता के अनुग्रह से ही अनावृत होते हैं। वे रहस्य -- रहस्य ही रहें तो ठीक है। यह भी एक रहस्य है।
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हमारा स्वास्थ्य (स्व+स्थ) हमारे विचारों पर निर्भर है। हम जैसा सोचते हैं, वैसे ही बन जाते हैं। हम आलोकमय होंगे तो पूरी सृष्टि आलोकित होगी। हम सब स्वस्थ, प्रसन्न और परमात्मा की चेतना में रहें। सभी में साक्षात नारायण को नमन। ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१० दिसंबर २०२४

गीता जयंती ---

 गीता जयंती ---

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ॐ श्रीपरमात्मने नमः !! मैं आप सब का एक सेवक मात्र हूँ, इसीलिए आप सब से केवल प्रार्थना ही कर सकता हूँ। अन्य कुछ भी मेरे बस की बात नहीं है। आज ५१६१ वीं "गीता-जयंती" पर भगवान श्रीकृष्ण को अपने हृदय में अवतरित अवश्य करें। गीता -- भारत का प्राण है, इस के उपदेशों ने ही भारत को अब तक जीवित रखा है। आज मोक्षदा एकादशी भी है, एकादशी का व्रत न कर सकें तो एक समय ही भोजन करें। एकादशी के दिन भोजन में चावल न लें।
"गीता जयंती" पर मैं इस सृष्टि के सभी प्राणियों में ही नहीं, समस्त जड़-चेतन में परमात्मा को नमन करता हूँ। वे ही यह सारी सृष्टि बन गए है। भगवान वासुदेव के सिवाय अन्य कोई या कुछ भी नहीं है। वे अनन्य हैं।
"बहूनां जन्मनामन्ते ज्ञानवान्मां प्रपद्यते।
वासुदेवः सर्वमिति स महात्मा सुदुर्लभः॥७:१९॥" (गीता)
अर्थात् - बहुत जन्मों के अन्त में (किसी एक जन्म विशेष में) ज्ञान को प्राप्त होकर कि 'यह सब वासुदेव है' ज्ञानी भक्त मुझे प्राप्त होता है; ऐसा महात्मा अति दुर्लभ है॥
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गीता में भगवान ने सिर्फ तीन विषयों -- कर्म, भक्ति और ज्ञान -- पर ही उपदेश देते हुए सम्पूर्ण सत्य-सनातन-धर्म को इन में समाहित कर लिया है। धर्म के किसी भी पक्ष को उन्होंने नहीं छोड़ा है। हम कर्मफलों पर आश्रित न रहकर अपने कर्तव्य-कर्म करते रहें, यह उनकी शिक्षाओं का सार है। भगवान कहते हैं कि हमें अपने सारे संकल्प भगवान को समर्पित कर देने चाहियें। एकमात्र कर्ता वे स्वयं हैं, हम पूर्ण रूप से उनको समर्पित हों। कर्ता भाव से हम मुक्त हों। इन्द्रियों के भोगों तथा कर्मों व संकल्पों को त्यागते ही हम योगारूढ़ हो जाते हैं। हम स्वयं ही अपने मित्र हैं, और स्वयं ही अपने शत्रु हैं। जिसने अपने आप पर विजय प्राप्त कर ली है, उसे परमात्मा नित्य-प्राप्त हैं। हम ज्ञान-विज्ञान से तृप्त, जितेंद्रिय और विकार रहित (कूटस्थ) हों। हमारा मन निरंतर भगवान में लगा रहे। भूख और नींद पर हमारा नियंत्रण हो। हम निःस्पृह होकर अपने स्वरूप में स्थित रहें व तत्व से कभी विचलित न हों।
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अपने मन को परमात्मा में स्थित करके फिर अन्य कुछ भी चिन्तन न करें। यह बड़ी से बड़ी साधना है। यह अस्थिर और चञ्चल मन जहाँ जहाँ विचरण करता है, वहाँ वहाँ से हटाकर इसको एक परमात्मा में ही लगायें। विक्षेप का कारण रजोगुण है। हम सर्वत्र यानि सभी प्राणियों में अपने स्वरूप को देखें, और सभी प्राणियों को अपने स्वरूप में देखें। भगवान कहते हैं --
"यो मां पश्यति सर्वत्र सर्वं च मयि पश्यति।
तस्याहं न प्रणश्यामि स च मे न प्रणश्यति॥६:३०॥"
अर्थात् -- जो सबमें मुझे देखता है, और सब को मुझ में देखता है, उसके लिये मैं अदृश्य नहीं होता, और वह भी मेरे लिये अदृश्य नहीं होता।
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जब हम भगवान को सर्वत्र, और सभी में भगवान को देखते हैं, तो भगवान कभी अदृश्य यानि परोक्ष नहीं होते। यहाँ दृष्टा कौन हैं? दृष्टा, दृश्य और दृष्टि -- सभी भगवान स्वयं हैं। हम कूटस्थ-चैतन्य यानि ब्राह्मी-स्थिति में निरंतर रहें। यह श्रीमद्भगवद्गीता के माध्यम से भगवान का संदेश है। साथ साथ वे यह भी कहते हैं --
"ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम्।
मम वर्त्मानुवर्तन्ते मनुष्याः पार्थ सर्वशः॥४:११॥"
अर्थात् - जो मुझे जैसे भजते हैं, मैं उन पर वैसे ही अनुग्रह करता हूँ; हे पार्थ सभी मनुष्य सब प्रकार से, मेरे ही मार्ग का अनुवर्तन करते हैं॥
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अब हमें क्या करना चाहिए? इस विषय पर भगवान कहते है --
"तस्मात्सर्वेषु कालेषु मामनुस्मर युध्य च।
मय्यर्पितमनोबुद्धिर्मामेवैष्यस्यसंशयम्॥८:७॥"
अर्थात् - इसलिये तू सब समय में मेरा स्मरण कर और युद्ध भी कर। मेरे में मन और बुद्धि अर्पित करनेवाला तू निःसन्देह मेरे को ही प्राप्त होगा।
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अंत में गीता का चरम श्लोक है जिसकी व्याख्या करने में सभी स्वनामधान्य महानतम भाष्यकार आचार्यों ने अपनी सर्वश्रेष्ठ प्रतिभा का प्रदर्शन किया है --
"सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज।
अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः॥१८:६६॥"
अर्थात - सब धर्मों का परित्याग करके तुम एक मेरी ही शरण में आओ, मैं तुम्हें समस्त पापों से मुक्त कर दूँगा, तुम शोक मत करो॥
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वह हर क्षण मंगलमय है जब हृदय में भगवान के प्रति परमप्रेम उमड़े और हम परमप्रेममय हो जाएँ। गीता महात्म्य पर भगवान श्रीकृष्ण ने पद्म पुराण में कहा है कि भवबंधन (जन्म-मरण) से मुक्ति के लिए गीता अकेले ही पर्याप्त ग्रंथ है।
गीता के उपदेश हमें भगवान का ज्ञान कराते हैं। स्वयं भगवान पद्मनाभ के मुखारविंद से हमें गीता का ज्ञान मिला है।
गीता एक सार्वभौम ग्रंथ है। यह किसी काल, धर्म, संप्रदाय या जाति विशेष के लिए नहीं अपितु संपूर्ण मानव जाति के लिए है। इसे स्वयं श्रीभगवान ने अर्जुन को निमित्त बनाकर कहा है इसलिए इस ग्रंथ में कहीं भी श्रीकृष्ण उवाच शब्द नहीं आया है बल्कि श्रीभगवानुवाच का प्रयोग किया गया है। इसके छोटे-छोटे १८ अध्यायों में इतना सत्य, ज्ञान व गंभीर उपदेश हैं, जो मनुष्य को नीची से नीची दशा से उठाकर देवताओं के स्थान पर बैठाने की शक्ति रखते हैं।
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गीता में अर्जुन द्वारा भगवान की स्तुति ---
"त्वमादिदेवः पुरुषः पुराण स्त्वमस्य विश्वस्य परं निधानम्।
वेत्तासि वेद्यं च परं च धाम त्वया ततं विश्वमनन्तरूप॥११:३८॥"
"वायुर्यमोऽग्निर्वरुणः शशाङ्कः प्रजापतिस्त्वं प्रपितामहश्च।
नमो नमस्तेऽस्तु सहस्रकृत्वः पुनश्च भूयोऽपि नमो नमस्ते॥११:३९॥"
"नमः पुरस्तादथ पृष्ठतस्ते नमोऽस्तु ते सर्वत एव सर्व।
अनन्तवीर्यामितविक्रमस्त्वं सर्वं समाप्नोषि ततोऽसि सर्वः॥११:४०॥"
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ॐ तत्सत् !! ॐ स्वस्ति !! ॐ नमो भगवते वासुदेवाय !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
११ दिसंबर २०२४

जिनका हम ध्यान करते हैं, वह तो हम स्वयं हैं ---

ध्यान साधना में सफलता के लिए निम्न सात का होना परम आवश्यक है, अन्यथा सफलता नहीं मिलती है -- (१) भक्ति यानि परम प्रेम॥ (२) परमात्मा को उपलब्ध होने की अभीप्सा॥ (३) दुष्वृत्तियों का त्याग॥ (४) शरणागति और समर्पण॥ (५) आसन, मुद्रा और यौगिक क्रियाओं का ज्ञान॥ (६) दृढ़ मनोबल और बलशाली स्वस्थ शरीर रुपी साधन॥ (७) भगवान की कृपा॥
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कुछ रहस्य हैं जो भगवान की कृपा से ही समझ में आते हैं, लेकिन उनको व्यक्त नहीं किया जा सकता। सतत और दीर्घ अभ्यास, भक्ति व समर्पण के बिना कुछ भी समझ में नहीं आता। अनुभूतियाँ तो हम ज्योतिर्मय ब्रह्म, नाद, निज आत्मा में विचरण, और परमशिव में स्थिति आदि की कर सकते हैं, लेकिन उनके पीछे वर्षों की समर्पित साधना भी होती है। अन्यथा ये सब बातें कल्पनातीत हैं।
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सदा यह भाव रखें कि हमारी देह शिवदेह है, हमारे नेत्र शिवनेत्र हैं, और हम शिव-चैतन्य यानि ब्राह्मीस्थिति में हैं। दोनों आँखों की पुतलियों को भ्रूमध्य की ओर उन्मुख कर जब हम भ्रूमध्य में प्रणव से लिपटी दिव्य ज्योतिर्मय सर्वव्यापी आत्मा का चिंतन करते हैं, तो कुछ कालखंड के पश्चात ध्यान में विद्युत् की आभा के समान देदीप्यमान ब्रह्मज्योति प्रकट होती है। फिर ध्यान उस सर्वव्यापी ब्रह्मज्योति का ही किया जाता है। धीरे धीरे हमारी चेतना भी उसी के साथ एक हो जाती है, और हम शिवभाव में स्थित हो जाते हैं।
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ज्योतिर्मय ब्रह्म के सूर्यमण्डल में सर्वव्यापी भगवान पुरुषोत्तम का ध्यान करें। ध्यान करते करते एक न एक दिन परमशिव की भी अनुभूति हो जाएगी। वे अपरिभाष्य और अवर्णनीय हैं।
"ॐ नमः शिवाय विष्णुरूपाय शिवरूपाय विष्णवे।
शिवस्य हृदयं विष्णु: विष्णोश्च हृदयं शिव:॥" (स्कन्द पुराण)
ॐ तत्सत्॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय॥ ॐ नमः शिवाय॥ ॐ श्रीहरिः॥
कृपा शंकर
११ दिसंबर २०२४ .
पुनश्च: --- इस सांसारिक जीवन के अंतिम क्षण तक कूटस्थ ब्रह्म की चेतना में ही मैं निरंतर रहूँ, इस समय यही एकमात्र अभीप्सा है। इधर-उधर सब तरफ भाग कर देख लिया, कहीं कोई सार की बात नहीं है। मेरी गति परमशिव हैं, यह मायावी सृष्टि नहीं। परमात्मा का संगीत मुझ में निरंतर बह रहा है। ध्यानस्थ होते ही सामने शांभवी मुद्रा में बैठे वासुदेव भगवान श्रीकृष्ण की छवि आ जाती है। हर ओर प्रणव की ध्वनि गूंज रही है। जो वे हैं, वह ही मैं हूँ। मैं उनके साथ एक हूँ। कहीं कोई पृथकता नहीं है। अब और कुछ भी नहीं चाहिये।

परमात्मा की उपासना कौन कर सकता है? ---

 परमात्मा की उपासना कौन कर सकता है? ---

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"भगवान" और "परमात्मा" में बहुत अधिक अंतर है। "भगवान" शब्द को तो विष्णु-पुराण में परिभाषित किया गया है --
"ऐश्वर्यस्य समग्रस्य धर्मस्य यशसः श्रियः।
ज्ञानवैराग्योश्चैव षण्णाम् भग इतीरणा।।" –विष्णुपुराण ६ । ५ । ७४
अर्थात् -- "सम्पूर्ण ऐश्वर्य", "धर्म", "यश", "श्री", "ज्ञान", तथा "वैराग्य" -- ये छः सम्यक् पूर्ण होने पर "भग" कहे जाते हैं और इन छः की जिसमें पूर्णता है, वह भगवान है।
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भगवान तो अनेक महापुरुष बने हैं, लेकिन वे परमात्मा के अंश ही थे। "परमात्मा" तो अपरिभाष्य और अवर्णनीय हैं। वे सब शब्दों से परे हैं। एक आचार्य ने तो यहाँ तक लिखा है कि परमात्मा को परिभाषित करने का प्रयास कनक-कसौटी पर हीरे को कसने का प्रयास है। परमात्मा को हम अनुभूत कर सकते हैं, उनके प्रति समर्पित हो सकते हैं, लेकिन उन्हें किसी भी सीमा में नहीं बांध सकते।
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क्या जल की एक बूंद, महासागर को जान सकती है, या पा सकती है? जल की एक बूंद -- महासागर को समर्पित होकर उसके साथ एक हो सकती है, लेकिन उसे जान या पा नहीं सकती। यह समर्पण ही सबसे बड़ी प्राप्ति यानि उपलब्धि है।
ऐसे ही जीवात्मा-- परमात्मा को समर्पित हो सकती है, उन्हें जान या पा नहीं सकती। परमात्मा को समर्पित होना ही भगवत्-प्राप्ति और आत्म-साक्षात्कार है। यहाँ समर्पण से अभिप्राय हमारे अन्तःकरण (मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार) का पूर्ण समर्पण है। जब हमारा अंतःकरण -- परमात्मा को पूर्ण रूप से समर्पित हो जाता है, तब उसी क्षण हम परमात्मा को उपलब्ध हो जाते हैं, यानि परमात्मा को पा लेते हैं। यही "आत्म-साक्षात्कार" और "भगवत्-प्राप्ति" है।
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कठोपनिषद व मुंडकोपनिषद के अनुसार प्रवचनों यानि उपदेशों को सुनकर या पढ़कर परमात्मा की प्राप्ति नहीं हो सकती। परमात्मा प्रसन्न होकर स्वयं ही अपने रहस्य किसी के समक्ष अनावृत कर सकता है, उसे कोई बाध्य नहीं कर सकता। कठोपनिषद व मुण्डकोपनिषद् कहते हैं --
"नायमात्मा प्रवचनेन लभ्यो न मेधया न बहुना श्रुतेन।
यमेवैष वृणुते तेन लभ्यस्तस्यैष आत्मा विवृणुते तनूं स्वाम्‌॥"
(अयम् आत्मा प्रवचनेन न लभ्यः। न मेधया न बहुधा श्रुतेन। एषः यं एव वॄणुते तेन लभ्यः। तस्य एषः आत्मा त्वां तनूं विवृणुते॥)
अर्थात् -- "यह 'आत्मा' प्रवचन द्वारा लभ्य नहीं हैं, न ही मेधा-शक्ति और न शास्त्रों को बहुत अधिक जानने-सुनने से प्राप्य है। केवल वही 'उसे' प्राप्त कर सकता है जिसका 'यह वरण करता है; केवल उसके प्रति ही यह 'आत्मा' अपने स्वरूप का उद्घाटन करता है।
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उपनिषद और गीता हमारा मार्गदर्शन करती हैं कि कैसे हम परमात्मा को प्राप्त/उपलब्ध हो सकते हैं। उपनिषद वेदों का ही अंतिम भाग यानि प्रत्यक्ष वेद ही हैं, जो अंतिम और एकमात्र प्रमाण है। अतः स्वाध्याय वहीं तक करें जहाँ तक उनसे प्रेरणा मिलती है। बाकी तो उनमें जो मार्गदर्शन दिया हुआ है, उसके अनुसार तपस्या/साधना करें।
परमात्मा को हम स्वाध्याय (यानि शास्त्रों के अध्ययन) द्वारा नहीं, बल्कि तपस्या/साधना/उपासना के द्वारा ही प्राप्त कर सकते हैं। इसलिए पढ़ो कम और ध्यान अधिक करो।
"जहाँ कुछ पाने की भावना हो वहाँ परमात्मा कभी नहीं मिल सकते; जहाँ पूर्ण समर्पण की भावना हो, वहीं परमात्मा उपलब्ध हैं।" यही बात मैं कहना चाहता हूँ।
वेद ही अंतिम प्रमाण हैं, जो यह बात बता रहे हैं।
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अंतिम बात --- यह कहना चाहता हूँ कि परमात्मा से प्रार्थना करें कि आपको कोई श्रौत्रीय ब्रह्मनिष्ठ महात्मा मिले जो आपको सही मार्ग दिखा सके और आपसे साधना/ तपस्या करा सके। जब आपको मार्ग मिल जाये तब आत्मा की साधना करें। मैं आप सब का सेवक हूँ अतः यहाँ जो कुछ भी लिखा है वह आपकी सेवा में अर्पित है। मैं आपका गुरु नहीं, मात्र एक अकिंचन सेवक हूँ। आप सब में मुझे परमात्मा के दर्शन होते हैं, और परमात्मारूप आप सब के श्रीचरणों में अपना प्रणाम निवेदित करता हूँ।
"त्वमादिदेवः पुरुषः पुराण स्त्वमस्य विश्वस्य परं निधानम्।
वेत्तासि वेद्यं च परं च धाम त्वया ततं विश्वमनन्तरूप॥११:३८॥"
"वायुर्यमोऽग्निर्वरुणः शशाङ्कः प्रजापतिस्त्वं प्रपितामहश्च।
नमो नमस्तेऽस्तु सहस्रकृत्वः पुनश्च भूयोऽपि नमो नमस्ते॥११:३९॥"
"नमः पुरस्तादथ पृष्ठतस्ते नमोऽस्तु ते सर्वत एव सर्व।
अनन्तवीर्यामितविक्रमस्त्वं सर्वं समाप्नोषि ततोऽसि सर्वः॥११:४०॥" (गीता)
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ॐ तत्सत् !! ॐ स्वस्ति !! ॐ नमो भगवते वासुदेवाय !! श्रीहरिः !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१३ दिसंबर २०२४

मेरी राष्ट्रभक्ति और धार्मिक आस्था के विरुद्ध सोचने या बोलने वालों से मैं कोई संबंध नहीं रखता ---

आजकल मेरे में न तो धैर्य है, और न मेरे पास समय है बेकार की बहसबाजी करने का। जो भी व्यक्ति सनातन-धर्म, परमात्मा के अस्तित्व, और राष्ट्र के प्रति मेरी आस्था के विरुद्ध कुछ भी कहता है, उसे मैं तत्क्षण अमित्र और अवरुद्ध कर देता हूँ। मैंने साम्यवाद को भी बहुत समीप से देखा है, अनेक कट्टर पूर्व व वर्तमान साम्यवादी देशों का भ्रमण भी किया है। इसी तरह बहुत सारे इस्लामी देशों का भी भ्रमण किया है और उन्हें बहुत समीप से देखा है। देश-विदेश के अनेक पादरियों से भी मेरी मित्रता रही है। बाइबिल के पुराने व सभी नये Testaments को पढ़ा है। सारे इब्राहिमी मज़हबों को अच्छी तरह समझता हूँ। कभी इजराइल जाने का अवसर तो नहीं मिला लेकिन उनके मजहबी साहित्य का कुछ कुछ अध्ययन भी किया है। मुझे जीवन में पूर्ण संतुष्टि है। अब परमात्मा ने ही मुझे इस आयु में जीवित और स्वस्थ रखा है, अतः मेरा समर्पण उन्हीं के प्रति है। .

मेरा उद्देश्य ही परमात्मा के प्रति परमप्रेम (भक्ति) को सभी में जागृत करना है। जिन के हृदय में परमात्मा, सनातन-धर्म, और राष्ट्र के प्रति प्रेम नहीं है, वे तुरंत मुझे अमित्र और अवरुद्ध कर दें। मुझे उनसे कोई प्रयोजन नहीं है। अथर्ववेद में भूमि-सूक्त है जिसमें भूमि की वंदना की गई है। परमात्मा और धर्म की सर्वश्रेष्ठ और सर्वोच्च अभिव्यक्ति भारत में हुई है। अतः भारत, सनातन-धर्म और हिन्दू समाज की निंदा मुझे स्वीकार्य नहीं है। हमारा स्वधर्म है निज जीवन में परमात्मा की अभिव्यक्ति ! दिन में चौबीस घंटे, सप्ताह में सातों दिन, परमात्मा को अपनी स्मृति में रखते हुए, उन्हें कर्ता बनाकर, निमित्त मात्र होकर हर कार्य करें। यही हमारा स्वधर्म है।
परमात्मा की विस्मृति परधर्म है।
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मैं सोशियल मीडिया को छोड़ सकता हूँ, सब कुछ छोड़ सकता हूँ, लेकिन अपनी सनातन आस्था को नहीं। मेरी राष्ट्रभक्ति और धार्मिक आस्था के विरुद्ध सोचने या बोलने वालों से मैं कोई संबंध नहीं रखता। ॐ तत्सत् !!
१३ दिसंबर २०२४

जो समस्या इस समय इस सम्पूर्ण विश्व की है, मेरी समस्या भी वही है। इसका समाधान भी एक ही है --

 जो समस्या इस समय इस सम्पूर्ण विश्व की है, मेरी समस्या भी वही है। इसका समाधान भी एक ही है --

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"जिन्हें अत्यल्प मात्रा में ही सही, परमात्मा और धर्म की समझ है, वे अपने निज जीवन में परमात्मा को व्यक्त करें।"
यही हमारा स्वधर्म है, जिसके पालन के सिवाय अन्य कोई उपाय नहीं है। परमात्मा में मेरी दृढ़ आस्था है, किसी से मेरी कोई अपेक्षा नहीं है। निज जीवन की सारी कमियाँ, दुर्बलताएं, और सारे गुण-दोष, यहाँ तक की स्वयं का अस्तित्व व पृथकता का बोध भी बापस परमात्मा को समर्पित है।
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इस समय इस युग की सबसे बड़ी समस्या है -- "धर्म की पुनःप्रतिष्ठा और वैश्वीकरण"।
धर्म एक ही है, और वह है -- "सनातन धर्म"। अन्य सब रिलीजन और मज़हब हैं। जो व्यष्टि में है वही समष्टि में है। सर्वप्रथम स्वयं के जीवन में धर्म को पुनःप्रतिष्ठित करेंगे तो वह भारत और सम्पूर्ण विश्व में भी पुनःप्रतिष्ठित होगा। हमारा स्वयं का जीवन धर्ममय हो। हम शाश्वत आत्मा हैं। आत्मा का स्वधर्म है -- परमात्मा को उपलब्ध होना। हम परमात्मा को उपलब्ध होकर ही बाहरी विश्व में सकारात्मक परिवर्तन ला सकते हैं, अन्यथा नहीं।
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यदि हम दूसरों से कुछ भी अपेक्षा रखते हैं तो निराशा ही निराशा और धोखा व विश्वासघात ही मिलेगा, और कुछ भी नहीं। अतः जो कुछ भी करना है वह अकेले स्वयं ही करें। परमात्मा समान रूप से सर्वव्यापी है। वे हमारे साथ हर समय व हर स्थान पर हैं। वे स्वयं ही यह विश्व बने हुए हैं। स्वयं निमित्त मात्र होकर उन्हें स्वयं के माध्यम से निरंतर प्रवाहित होने दें। अन्य कोई उपाय नहीं है।
हरिः ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१४ दिसंबर २०२४

ब्रह्मज्ञानी (आत्मज्ञानी) कौन है? ---

  (प्रश्न) ब्रह्मज्ञानी (आत्मज्ञानी) कौन है?

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(उत्तर) ब्रह्मज्ञानी वह है जो ---
"सर्वभूतस्थमात्मानं सर्वभूतानि चात्मनि।
ईक्षते योगयुक्तात्मा सर्वत्र समदर्शनः॥६:२९॥"
अर्थात् -- योगयुक्त अन्त:करण वाला और सर्वत्र समदर्शी योगी आत्मा को (अपने स्वरूप को) सब भूतों में (प्राणियों में) और भूतमात्र को (सम्पूर्ण प्राणियों को) आत्मा में (अपने स्वरूप में) देखता है॥
He who experiences the unity of life sees his own Self in all beings, and all beings in his own Self, and looks on everything with an impartial eye;
"यो मां पश्यति सर्वत्र सर्वं च मयि पश्यति।
तस्याहं न प्रणश्यामि स च मे न प्रणश्यति॥६:३०॥"
जो पुरुष मुझे सर्वत्र देखता है और सबको मुझमें देखता है, उसके लिए मैं नष्ट नहीं होता (अर्थात् उसके लिए मैं दूर नहीं होता) और वह मुझसे वियुक्त नहीं होता॥
He who sees Me in everything and everything in Me, him shall I never forsake, nor shall he lose Me.
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वह व्यक्ति ही ब्रह्मज्ञानी है जो सम्पूर्ण सृष्टि यानि समस्त जड़-चेतन में आत्मतत्त्व को अनुभूत करता है। सभी प्राणी "अमृतपुत्र" हैं, और "अहं ब्रह्मास्मि" का अनुभव ही पूर्णत्व का द्योतक है। आध्यात्मिक दृष्टि से सम्पूर्ण सृष्टि में सर्वत्र व्याप्त आत्मा का अनुभव हमें आत्मसाक्षात्कार करा कर ब्रह्मज्ञानी बना देता है। आत्मा और ब्रह्म का एकत्व उपनिषदों का प्रतिपाद्य विषय है। आत्मज्ञानी यानि ब्रह्मज्ञानी पुरुष सर्वत्र आत्मा का अनुभव करता है।
गीता में जब भगवान कहते हैं -- "जो मुझे सब में और सब को मुझ में देखता है" -- तब यहाँ प्रयुक्त "मैं" शब्द का अर्थ आत्मा है न कि देवकीनन्दन श्रीकृष्ण। यह बात अनेक भाष्यकारों ने कही है। मुझे भी यही प्रतीत होता है।
ईशावास्योपनिषद् का भी यही भाव है। इस अनुभूति के पश्चात ही हम आत्मस्वरूप स्वयं को -- "शिवोऽहम् शिवोऽहम्" या "अहं ब्रह्मास्मि" कह सकते हैं। अति अति संक्षेप में यही ब्रह्मज्ञान है, और यह ब्रह्मज्ञान ही हमें ब्रह्मरूप बना सकता है।
एकत्वभाव में स्थित होकर परमात्मा का निरंतर बोध हमें ब्रह्मज्ञानी बना देता है। इसको हम सदा चिंतन, मनन, निदिध्यासन और ध्यान करते हुए निज जीवन में अभिव्यक्त करें।
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आत्मज्ञान यानि ब्रह्मज्ञान की प्राप्ति के लिये अपने में पूर्णत्व का निरंतर अनुभव, चिंतन, भावना और ध्यान करें। इससे ब्रह्मज्ञान स्वयं प्रकट होता है। ब्रह्मज्ञानी सदा अपरिच्छिन्न परमात्मा की ही उपासना करता है। परिछिन्न की उपासना करने से पूर्णता व आनन्द नहीं प्राप्त होता।
स्वयं की पूर्णता से ही परमशिव परमात्मा को समझ पाते हैं। स्वयं पूर्ण बनेंगे तभी परमात्मा की पूर्णता को समझ पायेंगे। पूर्ण की भाषा पूर्ण के ही समझ में आती है। समस्त कर्म स्वभाव से ही हो रहें हैं, ऐसा जानें और अपने में पूर्णत्व का सदा अनुभव करें, तभी "आत्मज्ञान" संभव है। .
मैं आप सब का सेवक और आपके श्रीचरणों की धूल हूँ। मेरी हर भूल को क्षमा करना आपकी महानता है। पूर्व में मैंने एक-दो बार लिखा था की फेसबुक आदि सोशियल मीडिया पर ब्रह्मज्ञान नहीं मिल सकता। भगवान ने मेरे उस कथन को असत्य बता दिया है। ब्रह्मज्ञान सर्वत्र व सभी को उपलब्ध है, सिर्फ पात्रता होनी चाहिए।
हरिः ॐ तत्सत् !! ॐ स्वस्ति !! ॐ नमो भगवते वासुदेवाय !!
कृपा शंकर
१५ दिसंबर २०२४

एक दिन ध्यान में गुरु महाराज आये थे ---

 एक दिन ध्यान में गुरु महाराज आये, उनकी देह भुवन-भास्कर की तरह देदीप्यमान और घनीभूत प्रकाशमय थी। उनकी आँखें बड़ी तेजस्वी थीं, जिनकी ओर देखा भी नहीं जा रहा था। कुछ समय तक उन्होने बड़े ध्यान से मेरी ओर देखा और मुंह से कुछ कहे बिना ही एक उपदेश देकर अपनी घनीभूत प्रकाशमय देह को परमात्मा के प्रकाश में विलीन कर दिया।

उनका अनकहा आदेश था कि -- "जो मैं हूँ, तुम भी वही बनो, सिर्फ मेरे शब्दों को समझने में कोई सार नहीं है।"
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शास्त्रों में क्या लिखा है, उसे समझने मात्र से कोई लाभ नहीं है। उनकी अभिव्यक्ति, उनका प्राकट्य निज जीवन में हो। चेतना या अस्तित्व ही सब कुछ है। हमारे माध्यम से परमात्मा स्वयं अपनी ही खोज कर रहे हैं। हम वही हैं, जिसकी खोज हम स्वयं कर रहे हैं।
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मधुमक्खियाँ अनेक पुष्पों से पराग एकत्र कर के मधु बनाती हैं। क्या मधु का एक कण भी यह बता सकता है कि वह किस पुष्प से संग्रहित है? उसी तरह विशुद्ध चेतना से एकाकार होते ही हमारी व्यक्तिगत पहिचान समाप्त हो जाती है। महासागर में मिलने के पश्चात जल की एक बूंद अपनी पहिचान खो देती है। परमात्मा की चेतना से ही यह सारा चराचर जगत बना है। उस चेतना में समर्पित होते ही हमारी भी पृथकता समाप्त हो जाती है, और हम परमात्मा के साथ एक हो जाते हैं।
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मैंने जो अनुभूत किया वह उनकी प्रेरणा से ही प्रकाशित कर रहा हूँ।
महादेव महादेव महादेव !! शिवोहं शिवोहं शिवोहं !! अहंब्रह्मास्मि !! ॐ तत्सत् !!
कृपा शंकर
१७ दिसंबर २०२४

16 दिसंबर को विजय दिवस है ----

कल 16 दिसंबर को विजय दिवस है जो 1971 के युद्ध में पाकिस्तान पर भारत की विजय के उपलक्ष्य में मनाया जाता है। इस युद्ध के अंत में ढाका में 93,000 पाकिस्तानी सैनिकों ने आत्मसमर्पण किया था। इस युद्ध में लगभग 3,900 भारतीय सैनिक वीरगति को प्राप्त हुए और 9851 घायल हुए।

इस युद्ध की गाथा बहुत लंबी है जो अनेक बार लिखी जा चुकी है। भारतीय नौसेना ने अपना पूरा पराक्रम इस युद्ध में दिखाया था। पाकिस्तान की एक पनडुब्बी PNS Gazi को विशाखापटनम के पास डुबो दिया गया था। कराची पर भारतीय नौसेना के आक्रमण के पराक्रम को मैंने अपने नौसेना दिवस वाले लेख में लिखा है।
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संक्षिप्त घटना क्रम :--- पाकिस्तान के सैनिक तानाशाह याहिया ख़ां ने 25 मार्च 1971 को पूर्वी पाकिस्तान की जन भावनाओं को सैनिक ताकत से कुचलने का आदेश दे दिया। इसके बाद शेख़ मुजीब को गिरफ़्तार कर लिया गया। तब वहां से लाखों शरणार्थी भारत में आ गए। भारत पर सैनिक हस्तक्षेप का दबाव पड़ने लगा। तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी चाहती थीं कि अप्रैल में आक्रमण किया जाए। लेकिन थल सेनाध्यक्ष जनरल मानेकशॉ ने राजनीतिक दबाव में न झुकते हुए पूरी तैयारी के बिना युद्ध आरंभ करने से मना कर दिया।
3 दिसंबर, 1971 को पाकिस्तान ने युद्ध आरंभ कर दिया और पठानकोट, श्रीनगर, अमृतसर, जोधपुर, आगरा आदि के वायुसेना के हवाई-अड्डों पर बमवारी शुरू कर दी। 4 दिसंबर को भारतीय सेना ने युद्ध आरंभ किया और पूर्व में शीघ्रता से आगे बढ़ते हुए जेसोर और खुलना पर अधिकार कर लिया। 14 दिसंबर को ग्यारह बजे ढाका के गवर्नमेंट हाउस में एक महत्वपूर्ण बैठक थी जिसमें पाकिस्तानी प्रशासन के बड़े अधिकारी भाग ले रहे थे। भारतीय वायुसेना ने उसी समय उस भवन पर बम गिरा कर मुख्य हॉल की छत उड़ा दी। पाकिस्तानी गवर्नर मलिक ने उसी समय लगभग कांपते हाथों से अपना इस्तीफ़ा लिख दिया। 16 दिसंबर को पाकिस्तानी सेना आत्म-समर्पण के लिए तैयार हुई। भारतीय ले.जनरल जैकब के पास केवल 3000 सैनिक थे, वे भी ढाका से 30 किलोमीटर दूर। जब कि नियाजी के पास ढाका में 26,400 सैनिक थे। जैकब के हाथ में कुछ भी नहीं था। वे साहस दिखाते हुये अकेले ही नियाज़ी के कमरे में घुसे तो वहां सन्नाटा छाया हुआ था, और आत्म-समर्पण का दस्तावेज़ मेज़ पर रखा हुआ था।
शाम के साढ़े चार बजे जनरल अरोड़ा हेलिकॉप्टर से ढाका हवाई अड्डे पर उतरे। अरोडा़ और नियाज़ी एक मेज़ के सामने बैठे और दोनों ने आत्म-समर्पण के दस्तवेज़ पर हस्ताक्षर किए। नियाज़ी ने अपने बिल्ले उतारे और अपना रिवॉल्वर जनरल अरोड़ा के हवाले कर दिया। नियाज़ी की आंखों में एक बार फिर आंसू आ गए। अंधेरा घिरने के बाद स्थानीय लोग नियाज़ी की हत्या पर उतारू नजर आ रहे थे। भारतीय सेना के वरिष्ठ अफसरों ने नियाज़ी के चारों तरफ़ एक सुरक्षित घेरा बना दिया। बाद में नियाजी को बाहर निकाला गया।

सन १९७१ के युद्ध में झुंझुनूं के ही मेरे एक पूर्व नौसैनिक मित्र द्वारा किया गया अद्वितीय पराक्रम ---

 

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सन १९७१ के युद्ध में झुंझुनूं के ही मेरे एक पूर्व नौसैनिक मित्र द्वारा किया गया अद्वितीय पराक्रम
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झुंझुनूं के ही मेरे एक पूर्व नौसैनिक मित्र श्री महिपाल सिंह जी ने जो ५३ वर्ष पूर्व उस समय नौसेना की पूर्वी कमांड विशाखापटनम में एक वरिष्ठ Deep Sea Diver थे, एक ऐसा काम किया जिस पर आज विश्वास नहीं होता। लगता है उस समय उनमें उनके कोई इष्ट देवता ही आ गये थे, जिन्होंने उनसे यह काम करवाया, अन्यथा एक सामान्य मनुष्य के लिए तो यह एक असंभव कार्य है।
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पाकिस्तान की एक पनडुब्बी PNS Gazi विशाखापटनम के पास डूबा दी गयी थी, लेकिन किसी को भी पता नहीं था कि पनडुब्बी कहाँ पर डूबी है। वहाँ एक बहुत भयंकर विस्फोट हुआ था और पानी से बुलबुले निकल रहे थे। आसपास मछली पकड़ने वाले मछुहारों ने सोचा कि कोई वायुयान गिरकर डूब गया है। उन्होने इसकी रिपोर्ट नौसेना को की।
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उनकी रिपोर्ट के आधार पर वस्तुस्थिति का पता लगाने मेरे मित्र श्री महिपाल सिंह जी को समुद्र में पानी के नीचे भेजा गया। उन्होंने देखा कि वहाँ तो कोई हवाई जहाज नहीं, एक पनडुब्बी है, जिसका conning tower से आगे का भाग पूरी तरह नष्ट हो गया है, जिसमें से बुलबुले निकल रहे हैं। पीछे का भाग पूरी तरह सुरक्षित है। उन्होने ऊपर आकर सूचना दी तो बहुत बड़ी हलचल हो गई। उन्हें पूर्वी कमांड के वरिष्ठतम अधिकारी ने एक एल्बम से अनेक चित्र दिखाये और पूछा कि इनमें से बताओ कि कौन सी पनडुब्बी है? उन्होने बता दिया कि यह पनडुब्बी है जो वास्तव में एक अमेरिकी थी।
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पूरी आवश्यक सुविधाएं जुटाकर उन्हें दुबारा नीचे भेजा गया तो उन्होंने उस Submarine के Aft Escape Hatch के चारों ओर बारूद लगाकर उड़ा दिया, और उस पूरे Aft Compartment को flood कर उसमें प्रवेश किया। सबसे पहिले पीछे की चारों Torpedo Tubes को चेक किया जो पूरी तरह loaded थीं। फिर एक मृत शरीर को लेकर ऊपर आए। उस मरे हुए पाकिस्तानी नौसैनिक की जेब से जो कागज मिले उनसे पता चला कि यह तो पाकिस्तान की submarine PNS Gazi थी। फिर तो श्री महिपाल सिंह जी के नेतृत्व में गोताख़ोरों की एक पूरी Team नीचे भेजी गयी। उन्होने Submarine के W/T Room को ढूंढ कर वहाँ के सारे कागजात एकत्र किए और पूरी Team बापस ऊपर आ गयी। उन कागजात को सुखाकर उनका अध्ययन किया गया। उससे पूरी कहानी का पता चला।
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महिपाल सिंह जी से मिलने स्वयं रक्षामंत्री बाबू जगजीन राम जी दिल्ली से आए। महिपाल सिंह जी को नौसेना मेडल से पुरष्कृत किया गया। नौसेना की पूर्वी कमांड में वे पूरी Diving Team के Incharge और सबसे वरिष्ठ Deep Sea Diver थे। उनसे ऊपर अन्य कोई नहीं था। आज भी वे झुंझुनूं में ही रहते हैं और उनसे मिलना होता रहता है। मुझे उनसे मित्रता पर गर्व है। उनको स्वस्थ व दीर्घ जीवन की मंगलमय शुभ कामना।
कृपा शंकर
१६ दिसंबर २०२४

भारत का अभ्युदय एक प्रचंड आध्यात्मिक शक्ति से होगा --- .

 भारत का अभ्युदय एक प्रचंड आध्यात्मिक शक्ति से होगा ---

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भारत में एक ब्रह्म शक्ति का जागरण हो रहा है जो समस्त विश्व का रूपांतरण कर देगी|
इसके जागरण कि स्पष्ट अनुभूतियाँ मुझे हो रही हैं| मैं यह नहीं कह सकता कि यह कार्य कब तक पूर्ण पूर्ण होगा| पर यह कार्य धीरे धीरे आरम्भ हो चुका है|
दिव्या चेतना युक्त, दैवीय गुणों से संपन्न महापुरुषों का अवतरण भारत में हो रहा है| उनके प्रभाव से पूरा परिदृश्य बदल जायेगा| ध्यान में यह अनुभूत किया जा सकता है|
यदि समर्थ हुआ तो इस विषय पर कभी लिखूँगा| भविष्य का विज्ञान भी चेतना का विज्ञान होगा| अब समय आ गया है उसके जागृत होने का|
भारत की भूमिका इसमें अग्रणी होगी|
अब तक के विज्ञान का लक्ष्य भौतिक प्रगति थी| भौतिक पदार्थ ऊर्जा की ही घनीभूत अभिव्यक्ति हैं| ऊर्जा भी चेतना की ही अभिव्यक्ति है|
आगे का विज्ञान चेतना का विज्ञान होगा जिसमें ऊर्जा और भौतिक पदार्थ पर मन का और मन पर चेतना का नियंत्रण होगा|
यह विज्ञान भारत के मनीषियों द्वारा फलीभूत होगा जिसमें भारत का आध्यात्म और भारत की आध्यात्मिक शक्ति विश्व का रूपान्तरण करेगी|
वर्तमान पर हावी असत्य और अन्धकार की शक्तियों का पराभव आध्यात्मिक बल द्वारा ही होगा|
ॐ नमः शिवाय | ॐ ॐ ॐ ||
१७ दिसंबर २०१४

भक्ति का दिखावा, भक्ति का अहंकार, और साधना का समर्पण ---

 भक्ति का दिखावा, भक्ति का अहंकार, और साधना का समर्पण ......

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किसी भी साधक के लिए सबसे बड़ी बाधा है .... भक्ति का दिखावा और भक्ति का अहंकार |
कई लोग सिर्फ दिखावे के लिए या अपने आप को प्रतिष्ठित कराने के लिए ही भक्ति का दिखावा करते हैं | वे लोग अन्य किसी को नहीं बल्कि अपने आप को ही ठग रहे हैं | जहाँ तक हो सके अपनी साधना को गोपनीय रखें |
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भक्त या साधक होने का अहंकार सबसे बड़ा अहंकार है | इसके दुष्परिणाम भी सबसे अधिक हैं |
इससे बचने का एक ही उपाय है ..... अपनी भक्ति और साधना का फल तुरंत भगवान को अर्पित कर दो, अपने पास बचाकार कुछ भी ना रखो, सब कुछ भगवान को अर्पित कर दो | अपने आप को भी परमात्मा को अर्पित कर दो | कर्ता भाव से मुक्त हो जाओ | हम भगवान के एक उपकरण या खिलौने के अतिरिक्त अन्य कुछ भी नहीं हैं |
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आप कोई साधना नहीं करते हैं, आपके गुरु महाराज या स्वयं भगवान ही आपके माध्यम से साधना कर रहे हैं ..... यह भाव रखने पर कहीं कोई त्रुटी भी होगी तो उसका शोधन गुरु महाराज या भगवान स्वयं कर देंगे | कर्ता भगवान को बनाइये, स्वयं को नहीं |
प्रभु के प्रेम के अतिरिक्त अन्य कोई भी कामना न रखें | उनके प्रेम पर तो आपका जन्मसिद्ध अधिकार है | अन्य कुछ भी आपका नहीं है |
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ॐ गुरु ॐ | गुरु ॐ | गुरु ॐ || १७ दिसंबर २०१५

हमारी साँसें प्राणों से नियंत्रित होती हैं या प्राण साँसों से ---

हमारी साँसें प्राणों से नियंत्रित होती हैं या प्राण साँसों से नियंत्रित होते हैं इसका मुझे नहीं पता, लेकिन दोनों एक-दूसरे से जुड़े हुए हैं। साँसों पर ध्यान करने से ही प्राण-तत्व की अनुभूति होती है, और प्राण-तत्व ही हमें परमात्मा की अनुभूति कराता है।

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मन में बुरे विचार आते हैं, उस समय हमारी साँसे छोटी हो जाती है, और तेज चलने लगती हैं, यानि उनकी आवृति (frequency) बढ़ जाती है। जब हमारी साँसों की आवृति कम होती है, साँसें लंबी व धीमी गति से चलती हैं तभी मन में सदविचार आते हैं, और भक्ति यानि परमात्मा से परमप्रेम की भावना जागृत होती है।
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इस विषय पर पर्याप्त साहित्य भी उपलब्ध है और साधना पद्धतियाँ भी हैं। इस विषय पर उन्हीं लोगों से संवाद किया जा सकता है जिन्हें परमात्मा से परमप्रेम है। अन्य लोगों से चर्चा करना व्यर्थ है।
आत्मीय रूप से मेरा संपर्क और संबंध उन्हीं से है, जिनके हृदय में भगवान के प्रति भक्ति है। अन्यों से संबंध मेरा प्रारब्ध, विगत में यानि पूर्व जन्मों में किए गए कर्मों का फल है। अब तो हर साँस के साथ कर्म कट रहे हैं। जिनका कुछ भी अहित मनसा-वाचा-कर्मणा मेरे कारण हुआ है, वे मुझे क्षमा करें।
ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१७ दिसंबर २०२३