(प्रश्न) ब्रह्मज्ञानी (आत्मज्ञानी) कौन है?
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(उत्तर) ब्रह्मज्ञानी वह है जो ---
"सर्वभूतस्थमात्मानं सर्वभूतानि चात्मनि।
ईक्षते योगयुक्तात्मा सर्वत्र समदर्शनः॥६:२९॥"
अर्थात् -- योगयुक्त अन्त:करण वाला और सर्वत्र समदर्शी योगी आत्मा को (अपने स्वरूप को) सब भूतों में (प्राणियों में) और भूतमात्र को (सम्पूर्ण प्राणियों को) आत्मा में (अपने स्वरूप में) देखता है॥
He who experiences the unity of life sees his own Self in all beings, and all beings in his own Self, and looks on everything with an impartial eye;
"यो मां पश्यति सर्वत्र सर्वं च मयि पश्यति।
तस्याहं न प्रणश्यामि स च मे न प्रणश्यति॥६:३०॥"
जो पुरुष मुझे सर्वत्र देखता है और सबको मुझमें देखता है, उसके लिए मैं नष्ट नहीं होता (अर्थात् उसके लिए मैं दूर नहीं होता) और वह मुझसे वियुक्त नहीं होता॥
He who sees Me in everything and everything in Me, him shall I never forsake, nor shall he lose Me.
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वह व्यक्ति ही ब्रह्मज्ञानी है जो सम्पूर्ण सृष्टि यानि समस्त जड़-चेतन में आत्मतत्त्व को अनुभूत करता है। सभी प्राणी "अमृतपुत्र" हैं, और "अहं ब्रह्मास्मि" का अनुभव ही पूर्णत्व का द्योतक है। आध्यात्मिक दृष्टि से सम्पूर्ण सृष्टि में सर्वत्र व्याप्त आत्मा का अनुभव हमें आत्मसाक्षात्कार करा कर ब्रह्मज्ञानी बना देता है। आत्मा और ब्रह्म का एकत्व उपनिषदों का प्रतिपाद्य विषय है। आत्मज्ञानी यानि ब्रह्मज्ञानी पुरुष सर्वत्र आत्मा का अनुभव करता है।
गीता में जब भगवान कहते हैं -- "जो मुझे सब में और सब को मुझ में देखता है" -- तब यहाँ प्रयुक्त "मैं" शब्द का अर्थ आत्मा है न कि देवकीनन्दन श्रीकृष्ण। यह बात अनेक भाष्यकारों ने कही है। मुझे भी यही प्रतीत होता है।
ईशावास्योपनिषद् का भी यही भाव है। इस अनुभूति के पश्चात ही हम आत्मस्वरूप स्वयं को -- "शिवोऽहम् शिवोऽहम्" या "अहं ब्रह्मास्मि" कह सकते हैं। अति अति संक्षेप में यही ब्रह्मज्ञान है, और यह ब्रह्मज्ञान ही हमें ब्रह्मरूप बना सकता है।
एकत्वभाव में स्थित होकर परमात्मा का निरंतर बोध हमें ब्रह्मज्ञानी बना देता है। इसको हम सदा चिंतन, मनन, निदिध्यासन और ध्यान करते हुए निज जीवन में अभिव्यक्त करें।
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आत्मज्ञान यानि ब्रह्मज्ञान की प्राप्ति के लिये अपने में पूर्णत्व का निरंतर अनुभव, चिंतन, भावना और ध्यान करें। इससे ब्रह्मज्ञान स्वयं प्रकट होता है। ब्रह्मज्ञानी सदा अपरिच्छिन्न परमात्मा की ही उपासना करता है। परिछिन्न की उपासना करने से पूर्णता व आनन्द नहीं प्राप्त होता।
मैं आप सब का सेवक और आपके श्रीचरणों की धूल हूँ। मेरी हर भूल को क्षमा करना आपकी महानता है। पूर्व में मैंने एक-दो बार लिखा था की फेसबुक आदि सोशियल मीडिया पर ब्रह्मज्ञान नहीं मिल सकता। भगवान ने मेरे उस कथन को असत्य बता दिया है। ब्रह्मज्ञान सर्वत्र व सभी को उपलब्ध है, सिर्फ पात्रता होनी चाहिए।
हरिः ॐ तत्सत् !! ॐ स्वस्ति !! ॐ नमो भगवते वासुदेवाय !!
कृपा शंकर
१५ दिसंबर २०२४
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