Wednesday, 5 February 2025

भगवान की "अनन्य-अव्यभिचारिणी भक्ति" एक बहुत बड़ा आशीर्वाद है ---

गीता में बताई हुई भगवान की "अनन्य-अव्यभिचारिणी भक्ति" भगवान का एक बहुत बड़ा आशीर्वाद और बहुत बड़ी उपलब्धि है, कोई सामान्य क्रिया नहीं ---

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भगवान श्रीकृष्ण ने गीता में जिस अनन्य-अव्यभिचारिणी भक्ति की बात कही है वह कई जन्मों की साधना के उपरांत प्राप्त होने वाली एक बहुत महान उपलब्धि है, कोई सामान्य क्रिया नहीं| यह अनन्य-अव्यभिचारिणी भक्ति एक क्रमिक विकास का परिणाम है, और परमात्मा को उपलब्ध होने की अंतिम सीढ़ी और उनकी परम कृपा है, जिसके उपरांत वैराग्य होना सुनिश्चित है|
"मयि चानन्ययोगेन भक्तिरव्यभिचारिणी| विविक्तदेशसेवित्वमरतिर्जनसंसदि||१३:११||"
इस भक्ति को उपलब्ध होने पर भगवान के अतिरिक्त अन्य कहीं मन नहीं लगता| भक्ति में व्यभिचार वह है जहाँ भगवान के अलावा अन्य किसी से भी प्यार हो जाता है| भगवान हमारा शत-प्रतिशत प्यार माँगते हैं| हम जरा से भी इधर-उधर हो जाएँ तो वे चले जाते हैं| इसे समझना थोड़ा कठिन है| हम हर विषय में, हर वस्तु में भगवान की ही भावना करें, और उसे भगवान की तरह ही प्यार करें| सारा जगत ब्रह्ममय हो जाए| ब्रह्म से पृथक कुछ भी न हो| यह अनन्य अव्यभिचारिणी भक्ति है| भगवान स्वयं कहते हैं .....
"बहूनां जन्मनामन्ते ज्ञानवान्मां प्रपद्यते| वासुदेवः सर्वमिति स महात्मा सुदुर्लभः||७:१९||"
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इस स्थिति को हम ब्राह्मी स्थिति भी कह सकते हैं, जिसके बारे में भगवान कहते हैं .....
"विहाय कामान्यः सर्वान्पुमांश्चरति निःस्पृहः| निर्ममो निरहंकारः स शान्तिमधिगच्छति||२:७१||"
"एषा ब्राह्मी स्थितिः पार्थ नैनां प्राप्य विमुह्यति| स्थित्वास्यामन्तकालेऽपि ब्रह्मनिर्वाणमृच्छति||२:७२||"
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व्यावहारिक व स्वभाविक रूप से यह अनन्य-अव्यभिचारिणी भक्ति तब उपलब्ध होती है जब भगवान की परम कृपा से हमारी घनीभूत प्राण-चेतना कुंडलिनी महाशक्ति जागृत होकर आज्ञाचक्र का भेदन कर सहस्त्रार में प्रवेश कर जाती है| तब लगता है कि अज्ञान क्षेत्र से निकल कर ज्ञान क्षेत्र में हम आ गए हैं| सहस्त्रार से भी परे ब्रह्मरंध्र का भेदन करने पर अन्य उच्चतर लोकों की और उनसे भी परे परमशिव की अनुभूतियाँ होती हैं| फिर ज्ञाता, ज्ञान और ज्ञेय .... एक ही हो जाते हैं| उस स्थिति में हम कह सकते हैं .... "शिवोहम् शिवोहम् अहं ब्रह्मास्मि"| फिर कोई अन्य नहीं रह जाता और हम स्वयं ही अनन्य हो जाते हैं|
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भगवान वासुदेव की अनंत कृपा सभी पर बनी रहे|
ॐ तत्सत् ! ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ! ॐ नमः शिवाय | ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
६ फरवरी २०२०

हम आध्यात्म के मार्ग पर चल पड़े हैं, यह चलना ही महत्वपूर्ण है ---

फरवरी १९७९ में मैंने ध्यान साधना के मार्ग पर चलना आरंभ किया था| उस समय तक मैं दिशाहीन था| कोई विशेष व्यवहारिक जानकारी नहीं थी| हालाँकि एक संस्कारी उच्च ब्राहमण परिवार में जन्म लेने के कारण अच्छे धार्मिक संस्कार और अनेक आगम ग्रन्थों का स्वाध्याय था| जैसे-जैसे साधना के मार्ग पर आगे बढ़ने लगा, वैसे-वैसे अज्ञान का आवरण हटता गया|

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अब इस समय मेरा अनुभव तो यह है कि ज्ञान हम सब में पहिले से ही है, लेकिन उस पर अज्ञान का एक आवरण पड़ा हुआ है| जैसे जैसे हमारी साधना आगे बढ़ती है वैसे वैसे वह अज्ञान का आवरण हटता जाता है| बीच-बीच में विक्षेप भी बहुत आते हैं| महत्वपूर्ण बात यह है कि हम आध्यात्म के मार्ग पर चल पड़े हैं| यह चलना ही महत्वपूर्ण है| साधना करते करते एक न एक दिन जब यह आवरण हट ही जाएगा तब हम पाएंगे कि हम परमात्मा के साथ एक हैं|
ॐ तत्सत् !! गुरु ॐ !! जय गुरु !!
6 फरवरी 2021

कोई सांसारिक अभिलाषा अब नहीं रही है ---

 कोई सांसारिक अभिलाषा अब नहीं रही है ---

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🌹जैसे जैसे भौतिक आयु बढ़ रही है वैसे-वैसे ही समय के साथ-साथ स्मरण शक्ति का क्षय होने लगा है, और यह शरीर रूपी वाहन भी बड़ी तेजी से कमजोर होता जा रहा है| आजकल हृदय को तृप्ति, शांति, व आनंद सिर्फ परमात्मा के स्मरण व ध्यान में ही मिलता है| अन्यत्र कहीं भी मन नहीं लगता| अन्य कहीं मन लगाने का प्रयत्न करते भी हैं तो बड़ी पीड़ा होती है| इसलिए इस दीपक में जितना भी तेल बचा है, यानि बची-खुची जो भी प्राण-ऊर्जा है, वह परमात्मा को समर्पित है| इस जीवन का अवशिष्ट समय भी परमात्मा को ही समर्पित है| किसी भी तरह की कोई सांसारिक अभिलाषा अब नहीं रही है|
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🌹परमात्मा की बड़ी कृपा है कि मन में और विचारों में किसी भी तरह का कोई संशय नहीं रहा है| कोई भी आध्यात्मिक रहस्य -- अब रहस्य नहीं है, विचारों में पूरी स्पष्टता है, और किसी भी तरह का कोई भ्रम नहीं है| सामने का मार्ग प्रकाशमय और बड़ा उज्ज्वल है, जिसमें किसी भी तरह की कोई बाधा या अवरोध नहीं है|
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🙏सामने कूटस्थ सूर्यमण्डल में ज्योतिर्मय पुरुषोत्तम परमशिव भगवान नारायण स्वयं बिराजमान हैं| जो करना है वह वे ही करेंगे| जीवन उन को समर्पित है| अब सब उन्हीं का काम है जो वे जानें| ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
६ फरवरी २०२१

मैं सारी सृष्टि में व्याप्त हूँ, और सभी के हृदयों में उपासना कर रहा हूँ; भगवान मुझे नित्य प्राप्त हैं ---

 

🌹 मैं सारी सृष्टि में व्याप्त हूँ, और सभी के हृदयों में उपासना कर रहा हूँ; भगवान मुझे नित्य प्राप्त हैं ---
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🌹 गीता के छठे अध्याय "आत्मसंयम योग" में भगवान कहते हैं -- "प्रशान्त अन्त:करण से निर्भय और ब्रह्मचर्य में स्थित होकर, मन को संयमित कर के अपने चित्त को निजात्मा में ही लगायें। किसी भी तरह की स्पृहा न हो। समस्त कामनाओं का परित्याग कर के, मन के द्वारा इन्द्रिय समुदाय को सब ओर से सम्यक् प्रकार से वश में कर के, शनै: शनै: धैर्ययुक्त बुद्धि के द्वारा उपरामता (शांति) को प्राप्त हों, और मन को आत्मा में स्थित कर के फिर अन्य कुछ भी चिन्तन न करें।"
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🌹 भगवान हमारे चैतन्य में ही हैं, कहीं बाहर नहीं। भगवान में हम दृढ़ निश्चयपूर्वक स्थित हों। सदा यह भाव रखें कि इस सृष्टि में मैं ही सभी की आत्मा हूँ, और सारे प्राणी मेरी ही आत्मा में हैं। भगवान कहते हैं --
"यो मां पश्यति सर्वत्र सर्वं च मयि पश्यति।
तस्याहं न प्रणश्यामि स च मे न प्रणश्यति॥६:३०॥"
अर्थात् - जो मुझे सर्वत्र देखता है, और सब को मुझ में देखता है, उसके लिए मैं नष्ट नहीं होता, और वह मुझ से वियुक्त नहीं होता॥
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🌹 ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
६ फरवरी २०२३
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मैं भगवान के साथ सत्संग के लिए ही लिखता हूँ। मन प्रसन्नता से मग्न है। आज का दिन कुछ विशेष है। जिधर भी देखता हूँ उधर भगवान ही दिखाई दे रहे हैं। पूरी प्रकृति में उन के सिवाय कोई अन्य नहीं है। ॐ ॐ ॐ !!