
मैं सारी सृष्टि में व्याप्त हूँ, और सभी के हृदयों में उपासना कर रहा हूँ; भगवान मुझे नित्य प्राप्त हैं ---
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गीता के छठे अध्याय "आत्मसंयम योग" में भगवान कहते हैं -- "प्रशान्त अन्त:करण से निर्भय और ब्रह्मचर्य में स्थित होकर, मन को संयमित कर के अपने चित्त को निजात्मा में ही लगायें। किसी भी तरह की स्पृहा न हो। समस्त कामनाओं का परित्याग कर के, मन के द्वारा इन्द्रिय समुदाय को सब ओर से सम्यक् प्रकार से वश में कर के, शनै: शनै: धैर्ययुक्त बुद्धि के द्वारा उपरामता (शांति) को
प्राप्त हों, और मन को आत्मा में स्थित कर के फिर अन्य कुछ भी चिन्तन न करें।"
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भगवान हमारे चैतन्य में ही हैं, कहीं बाहर नहीं। भगवान में हम दृढ़ निश्चयपूर्वक स्थित हों। सदा यह भाव रखें कि इस सृष्टि में मैं ही सभी की आत्मा हूँ, और सारे प्राणी मेरी ही आत्मा में हैं। भगवान कहते हैं --
"यो मां पश्यति सर्वत्र सर्वं च मयि पश्यति।
तस्याहं न प्रणश्यामि स च मे न प्रणश्यति॥६:३०॥"
अर्थात् - जो मुझे सर्वत्र देखता है, और सब को मुझ में देखता है, उसके लिए मैं नष्ट नहीं होता, और वह मुझ से वियुक्त नहीं होता॥
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ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
६ फरवरी २०२३
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मैं भगवान के साथ सत्संग के लिए ही लिखता हूँ। मन प्रसन्नता से मग्न है। आज का दिन कुछ विशेष है। जिधर भी देखता हूँ उधर भगवान ही दिखाई दे रहे हैं। पूरी प्रकृति में उन के सिवाय कोई अन्य नहीं है। ॐ ॐ ॐ !!
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