Tuesday 5 May 2020

होली का आध्यात्मिक महत्व और रहस्य :-----

होली का आध्यात्मिक महत्व और रहस्य :-----
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आध्यात्मिक साधना और मंत्र सिद्धि के लिए चार रात्रियों का बड़ा महत्त्व है| ये हैं .... (१)कालरात्रि (दीपावली), (२)महारात्रि (महाशिवरात्रि), (३)मोहरात्रि (जन्माष्टमी). और (४)दारुण रात्रि (होली)| इन रात्रियों को किया गया ध्यान, जप-तप, भजन ... कई गुणा अधिक फलदायी होता है| इस अवसर का लाभ अवश्य उठाना चाहिए| होली की कथा का ज्ञान तो सभी को होना चाहिए| हमारे समय तो पाठ्य पुस्तकों में होली का इतिहास पढ़ाया जाता था| पर उसे हिन्दू-द्रोह के कारण धर्म-निरपेक्षता के नाम पर अब हटा दिया गया है|
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हृदय में परमात्मा के प्रति परमप्रेम जागृत कर त्याग और तपस्या के द्वारा निज जीवन में भौतिक देह की चेतना से ऊपर उठने की साधना तो हमें नित्य करनी ही चाहिए| पर होली के अवसर पर अपने बुरे-अच्छे सारे कर्म और उनके फलों की आहुति कूटस्थ में जल रही परमात्मा की विवेकाग्नि में एक विशेष विधि से अर्पित कर देनी चाहिए, जिसके बारे में कभी लिखूंगा|
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हिरण्य का अर्थ है स्वर्ण यानि Gold, तथा कशिपु का अर्थ है मुलायम बिस्तर| यह हिरण्यकशिपु नाम का असुर स्वर्ण के पलंग पर मुलायम बिस्तरों में सोता था और सारी पृथ्वी का स्वर्ण इसने एकत्र कर रखा था| इसकी रुचि सिर्फ स्वर्ण और सुंदर स्त्रियों में थी| अमर होकर यह धूर्त इन्हीं का भोग करना चाहता था| इसने इस हेतु बड़ी कठोर तपस्या की और ब्रह्मा जी से अमरता का वरदान मांगा| ब्रह्मा जी ने अमरता का वरदान देने में अपनी असमर्थता बताई तो हिरण्यकशिपु ने उनसे प्रार्थना की कि मैं किसी भी मनुष्य, पशु, देवता या ८४ लाख योनियों के अंतर्गत किसी भी जीव द्वारा न मारा जाऊँ| उसने यह प्रार्थना की कि मैं न तो पृथ्वी पर, न जल में, न ही किसी शस्त्र-अस्त्र से मरुँ| इस प्रकार मूर्खतावश हिरण्यकशिपु ने सोचा कि इन प्रबंधों द्वारा वह मृत्यु से बच जायेगा| उसके पुत्र प्रहलाद में इससे विपरीत गुण थे| वह भगवान का परम भक्त था| हिरण्यकशिपु ने अपने पुत्र प्रहलाद को भगवान से विमुख करने के लिए कठोरतम यातनायें दीं| पर उनका कोई प्रभाव नहीं पड़ा| उसकी एक होलिका नामक बहिन थी जिसे अग्नि में न जलने की सिद्धि थी| हिरण्यकशिपु के आदेश से होलिका प्रहलाद को गोद में लेकर प्रज्ज्वलित अग्नि में प्रवेश कर गई| आश्चर्य! होलिका तो अग्नि में जल कर भस्म हो गई पर प्रहलाद का बाल भी बांका न हुआ| हिरण्यकशिपु ने पूछा कि क्या तुम्हारा भगवान इस अग्नि से गर्म हुए लौह-स्तंभ में भी है? प्रहलाद के हाँ कहने पर हिरण्यकशिपु ने उस लौह-स्तंभ पर अपनी गदा से प्रहार किया| उसे समय उस लौह स्तम्भ को फाड़कर नृसिह प्रकट हुए, उनका आधा शरीर सिंह का था और आधा मनुष्य का| बड़ी भयानक गर्जना उन्होनें की और हिरण्यकशिपु को बलात अपनी गोद में लिटाकर अपने नाखूनों से उसका वक्षस्थल विदीर्ण कर उसे मृत्यु प्रदान की|
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यह हिरण्यकशिपु ही फिर रावण और कंस के रूप में आया| वास्तव में वह हिरण्यकशिपु कभी मरा ही नहीं, आज भी लोभ और अहंकार के रूप में हम सब के भीतर बैठा हुआ है| उसको अपनी भक्ति द्वारा हटाना हमारा कार्य है| प्रह्लाद शब्द का अर्थ है आह्लाद, प्रसन्नता, और आनंद| हृदय में भक्ति होगी तो आनंद की प्राप्ति होगी|
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हम यह देह नहीं, शाश्वत आत्मा हैं| आत्म-विस्मृति सब दुःखों का कारण है| इन रात्रियों को अपने आत्म-स्वरुप यानि सर्वव्यापी परमात्मा का ध्यान यथासंभव अधिकाधिक करें| इन रात्रियों में सुषुम्ना नाड़ी में प्राण-प्रवाह अति प्रबल रहता है अतः निष्ठा और भक्ति से की गई साधना निश्चित रूप से सफल होती है| इस सुअवसर का सदुपयोग करें और समय इधर उधर नष्ट करने की बजाय आत्मज्ञान ही नहीं बल्कि धर्म और राष्ट्र के अभ्युदय के लिए भी साधना करें| धर्म और राष्ट्र की रक्षा के लिए एक विराट आध्यात्मिक ब्रह्मशक्ति के जागरण की हमें आवश्यकता है| यह कार्य हमें ही करना पड़ेगा| अन्य कोई विकल्प नहीं है|
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कर्मफलों से मुक्त कैसे हों? .....
जब तक लोभ और अहंकार का एक अणुमात्र भी हमारे अंतःकरण में है तब तक कर्मफलों से मुक्ति असंभव है| कर्म फलों को भस्म ही करना है तो अच्छे और बुरे दोनों को ही एक साथ करना होगा| प्राण-तत्व से जुड़ी हुई एक विधि है जिसका ज्ञान निष्ठावान साधकों को भगवान स्वयं करा देते हैं| सर्वप्रथम गीता में बताई हुई अव्यभिचारिणी अनन्य भक्ति को जागृत करें, तब आगे का कार्य भगवान स्वयं करेंगे|
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इस त्योहार को प्राचीन काल में नवान्नेष्टि पर्व के नाम से मनाया जाता था| यह नए अन्न का यज्ञ है| इस पर्व पर लोग विशाल सामूहिक यज्ञों का आयोजन किया करते थे| इस पर्व पर नया अन्न तैयार हो जाता है और नये कच्चे अन्न की बालों को भूनकर खाने से कफ-पित्त (जो इन दिनों में ज्यादा बढ़े होते हैं) जैसे रोग शांत होते हैं| चरकऋषि ने इस प्रकार के कच्चे अन्न को भूनकर खाने को ‘होलक’ कहा है जिसे आजकल होला कहते हैं| भारत अपने इस पर्व की ऐतिहासिकता, प्राचीनता, पावनता और वैज्ञानिकता को विश्व के समक्ष सही स्वरूप में स्थापित करने में असफल रहा है|
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इस अवसर पर एक बार गीता के आत्मसंयमयोग नाम के छठे अध्याय का स्वाध्याय करना चाहिए और कूटस्थ में भगवान का ध्यान करना चाहिए|
आप सब को नमन! होली की हार्दिक शुभ कामनाएँ!
ॐ तत्सत् ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
९ मार्च २०२०

स्त्री और पुरुष दोनों एक ही गाडी के दो पहिये होते हैं .....

स्त्री और पुरुष दोनों एक ही गाडी के दो पहिये होते हैं| दोनों एक दूसरे पर निर्भर हैं| न तो स्त्री के बिना पुरुष रह सकता है और न पुरुष के बिना स्त्री| स्त्री जहाँ भाव प्रधान है, वहीं पुरुष विवेक प्रधान| मूल रूप से दोनों आत्मा हैं, आत्मा के कोई लिंग नहीं होता| भारत में स्त्रियों की स्थिति विदेशी आक्रमणों से पूर्व तक विश्व में सर्वाधिक सम्माननीय थी| भारत की नारियाँ विद्वान् और वीरांगणा होती थीं| भारत पर विदेशी आक्रमणकारी, पुरुषों को मार कर उनकी स्त्रियों का बलात् अपहरण कर लेते थे| आतताइयों द्वारा उन पर बहुत अधिक अत्याचार होता था| या तो वे बेच दी जाती या उन्हें घर में रखैल की तरह रख लिया जाता| इस कारण पर्दाप्रथा और बालविवाह का आरम्भ हुआ| जौहर की प्रथा क्षत्रानियों ने अपने मान सम्मान की रक्षा के लिए आरम्भ कीं|
अंग्रेजों ने अपनी सैनिक छावनियों के आसपास वैश्यालय स्थापित किये जहाँ वे भारतीय विधवाओं को बलात् अपहरण कर उन्हें वैश्या बना देते थे ताकि उनके अँगरेज़ सिपाही बापस अपने देश जाने की जल्दी न करें| इस कारण विधवा-दहन यानि सतीप्रथा का आरम्भ हुआ| जहाँ जहाँ अंग्रेजों की छावनियाँ थीं उनके आसपास के क्षेत्रों में ही विधवाएँ आत्मदाह कर लेती थी या उन्हें आत्मदाह के लिए बाध्य कर दिया जाता था| वहीं से सतीप्रथा का आरम्भ हुआ|
स्त्रियों पर अबसे अधिक अत्याचार यूरोप में ही हुए जहाँ डायन होने के संदेह में करोड़ों महिलाओं की ह्त्या कर दी जाती थी| भारत में स्त्रियों की दुर्दशा विदेशी आक्रमणकारियों के कारण ही हुई| पर अब भारत का पुनर्जागरण हो रहा है| पुरुषों के साथ साथ महिलाएँ भी प्रबुद्ध होंगी|
महिला उत्थान के नाम पर आज जहाँ स्त्री-पुरुष दोनों को एक-दूसरे के विरुद्ध खडा किया जा रहा है उसका मैं विरोध करता हूँ| दोनों मिलकर सहयोग और प्रेम से रहें और दोनों मिलकर अपने जीवन के परम लक्ष्य परमात्मा को प्राप्त करें| ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
८ मार्च २०२०

भक्ति करने का कर्ताभाव एक धोखा है ....

भगवान की भक्ति करने का कर्ताभाव एक धोखा है, भक्ति भी वे हैं, और भक्त भी वे स्वयं ही हैं, कहीं कोई भेद नहीं है .....
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एक प्रेमी के लिए प्रेम करने का भाव एक मायावी धोखा है| प्रेम के पात्र तो सिर्फ भगवान हैं, अन्य कोई नहीं| प्रेम भी वे है, और प्रेमी भी वे ही हैं| करुणावश वे स्वयं ही स्वयं को प्रेम कर रहे हैं| प्रेम का ही दूसरा नाम भक्ति है| यह भक्ति करने और भक्त होने का भ्रम अंततः एक धोखा ही है| हम तो हैं ही नहीं| जो कुछ भी है, वह वे भगवान स्वयं ही हैं| वे स्वयं ही स्वयं को याद करते हैं| वे स्वयं ही यह "मैं" बन गए हैं| हम तो एक निमित्त मात्र हैं| इस देह के अंत समय में भी हे भगवन, तुम स्वयं ही स्वयं को याद कर लेना| यह तुम्हारा ही वचन है ...
"अहं स्मरामि मद्भक्तं नयामि परमां गतिम्|"
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हे मेरे उपास्य आराध्य देव, मैं तुम्हारा स्मरण/मनन/चिंतन/ध्यान करने में असमर्थ हूँ| तुम्हारी माया से पार पाना संभव नहीं है| तुम स्वयं ही यह जीवात्मा हो, अब तुम स्वयं ही इस जीवात्मा का उद्धार करो| मैं शाश्वत जीवात्मा, यह देह नहीं, फिर भी इसी की सुख-सुविधा और विलास में डूबा हुआ हूँ| इस की चेतना से निकलने में असमर्थ हूँ| अब तुम ही अनुग्रह करो| मैं तुम्हारी शरणागत हूँ| यह सर्वस्व बापस तुम्हें ही समर्पित कर रहा हूँ| मेरा लक्ष्य और गति तुम स्वयं हो| मैं इस मायावी विक्षेप और आवरण से जकड़ा हुआ हूँ, अब मेरी रक्षा करो| ये तुम्हारे ही वचन हैं ....
"सकृदेव प्रपन्नाय तवास्मीति च याचते| अभयं सर्वभूतेभ्यो ददाम्येतद् व्रतं मम||"
"सनमुख होइ जीव मोहि जबहीं| जन्म कोटि अघ नासहिं तबहीं||"
"अनन्याश्चिन्तयन्तो मां ये जनाः पर्युपासते| तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यहम्||"
"तस्मात्त्वमुत्तिष्ठ यशो लभस्व जित्वा शत्रून् भुङ्क्ष्व राज्यं समृद्धम्|
मयैवैते निहताः पूर्वमेव निमित्तमात्रं भव सव्यसाचिन्||"
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हे रामा पुरुषोत्तमा नरहरे नारायण केशवा| गोविन्द गरुड़ध्वजा गुणनिधे दामोदर माधवा||
हे कृष्ण कमलापते यदुपते सीतापते श्रीपते| बैकुण्ठाधिपते चराचरपते लक्ष्मीपते पाहिमाम्||"
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"कायेन वाचा मनसेंद्रियैर्वा| बुद्ध्यात्मना वा प्रकृतिस्वभावात्| करोमि यद्यत् सकलं परस्मै| नारायणायेति समर्पयामि||"
Whatever I perform with my body, speech, mind, limbs, intellect, or my inner self either intentionally or unintentionally, I dedicate it all to Thee.
ॐ तत्सत् | ॐ ॐ ॐ ||
कृपा शंकर
८ मार्च २०२०

संक्षेप में नादानुसंधान .....

संक्षेप में नादानुसंधान .....
"नास्ति नादात परो मन्त्रो न देव: स्वात्मन: पर:| नानु सन्धात परा पूजा नहि तृप्ते: परम सुखं||"
There is no mantra superior to Nada and there is no other deity superior to Atma. No worship is superior to the worship of soul. स्थिर तन्मयता (Stable total identification) ही नादानुसंधान है|
मन्त्रयोग संहिता में आठ प्रमुख बीज मन्त्रों का उल्लेख है जो शब्दब्रह्म ओंकार की ही अभिव्यक्तियाँ हैं| लिंग पुराण के अनुसार ओंकार का प्लुत रूप नाद है| मन्त्र में पूर्णता "ह्रस्व", "दीर्घ" और "प्लुत" स्वरों के ज्ञान से ही आती है जिसके साथ पूरक मन्त्र की सहायता से विभिन्न सुप्त शक्तियों का जागरण होता है| वर्णात्मक और ध्वन्यात्मक नाद, बिंदु और मुद्राओं व साधन क्रम का ज्ञान सद्गुरु ही करा सकता है|
बीजमंत्रों, अजपा-जप, षटचक्र साधना, योनी मुद्रा में ज्योति दर्शन, और नाद व ज्योति तन्मयता, खेचरी मुद्रा, साधन क्रम आदि का ज्ञान ब्रह्मनिष्ठ श्रौत्रीय सिद्ध गुरु की कृपा से ही हो सकता है| साधना में सफलता भी गुरु कृपा से ही होती है और ईश्वर लाभ भी गुरु कृपा से होता है| हम सब जीव से शिव बनें और परमात्मा में हमारी जागृति हो|
जब साधक को मेरुशीर्ष (खोपड़ी के पीछे का भाग) में प्रणव ध्वनि जिसे अनाहत नाद भी कहते हैं, सुननी आरम्भ हो जाए और ईश्वर लाभ के अतिरिक्त अन्य कोई कामना नहीं है तो अन्य बीज मन्त्रों के जाप की आवश्यकता नहीं है| फिर साधक इस ध्वनि को ही सुनता रहे और इसी का ही मानसिक जप करता रहे| इस ध्वनी को सम्पूर्ण सृष्टि में और उससे भी परे विस्तृत कर दे और अपने स्वयं के अस्तित्व को भी उसी में समर्पित कर दे| एक बार आँख खोलकर अपनी देह को देखो और यह भाव दृढ़ करो कि मैं यह शरीर नहीं हूँ, बल्कि मैं सम्पूर्ण अस्तित्व और उससे भी परे जो है वह सब मैं ही हूँ| अपने आप को उस पूर्णता में समर्पित कर दें| परमात्मा का परम प्रेम यह ओंकार की ध्वनि ही है और वह परम प्रेम जिससे यह सम्पूर्ण सृष्टि बनी है वह परम प्रेम मैं ही हूँ| जप करते हुए इस ध्वनी को सुनते रहें| मन में पूर्ण समर्पण का भाव हो यानि मैं यह देह नहीं बल्कि सर्व व्यापक ओंकार रूप परमात्मा का अमृत पुत्र हूँ, मै और मेरे प्रभु एक ही हैं| मैं उनसे पृथक नहीं हूँ|
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यह एक गुरुप्रदत्त ज्ञान है जो सदगुरु की कृपा से ही प्राप्त होता है| यहाँ जो लिखा है वह मात्र पाठक की रुचि जागृत करने के लिए है| भगवान से प्रेम होगा तो वे गुरुरूप में भी आयेंगे और ज्ञान प्रदान करेंगे| ॐ तत्सत् ॐ ॐ ॐ ||
कृपा शंकर
६ मार्च २०२०

मंदिरों का महत्व .....

मंदिरों का महत्व .....
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मंदिरों के महत्व को नकारा नहीं जा सकता| उनकी पुनर्प्रतिष्ठा करनी ही पड़ेगी| मंदिर सामूहिक साधना के केंद्र हैं| जहाँ अनेक लोग साधना करते हैं वहाँ ऐसे स्पंदनों का निर्माण हो जाता है कि नवागंतुक की चेतना भी भक्ति से भर जाती है| उनकी स्थापत्य कला भी ऐसी होती है जहाँ सूक्ष्म दिव्य स्पंदनों का निर्माण और संरक्षण बहुत दीर्घकाल तक रहता है| मंदिरों में आरती व भजन पूजन, भक्तों के कल्याण के लिए होते है| विधिवत आरती के समय उपस्थित भक्तों के ह्रदय भक्ति से भर जाते हैं| ठाकुर जी कोे हमसे हमारे परमप्रेम के अतिरिक्त अन्य कुछ भी नहीं चाहिए| सारे कर्मकांड भक्ति जगाने के लिए हैं|
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मंदिरों में नियमित जाने से भक्तों का आपस में मिलना-जुलना होता है इससे उनमें पारस्परिक प्रेम बना रहता है| मंदिर का शिखर दूर से ही दिखाई देता है अतः इसे ढूँढने में कठिनाई नहीं होती| मंदिर के साथ धर्मशाला भी होती है ताकि आगंतुक वहां विश्राम कर सकें| प्रसाद के रूप में क्षुधा शांति की भी व्यवस्था होती है| अंग्रेजों के शासन से पूर्व मंदिरों के साथ साथ विद्यालय भी होते थे जहां नि:शुल्क शिक्षा दी जाती थी| अंग्रेजों ने ऐसे सभी विद्यालय नष्ट करवा दिए| मंदिरों के पुजारी व महंत धर्म-प्रचारक होते थे| हिन्दू साधू संतों के हाथ में ही मंदिरों की व्यवस्था होनी चाहिए| उन्हें फिर से धर्म-प्रचार के केन्द्रों के रूप में पुनर्प्रतिष्ठित करना ही पड़ेगा|
हरिः ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ ||
कृपा शंकर
६ मार्च २०२०

मंदिरों में आरती के समय जाने से हृदय में भक्ति जागृत होती है ----

मंदिरों में आरती के समय जाने से हृदय में भक्ति जागृत होती है ----
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किसी भी मंदिर में जहाँ ठाकुर जी की आरती विधि विधान से होती है, नियमित रूप से आरती के समय जाने पर हृदय में भक्ति निश्चित रूप से जागृत होती है| आरती के समय बजाये जाने वाले घंटा, घड़ियाल, नगाड़े व शंख आदि की ध्वनि अनाहत चक्र पर चोट करती है| अनाहत चक्र से ही आध्यात्म का आरम्भ होता है और वहीं भक्ति का जागरण होता है| अनाहत चक्र का स्थान है मेरु दंड में ह्रदय की पीछे थोडा सा ऊपर पल्लों (shoulder blades) के बीच में| जो साधक नियमित रूप से ध्यान करते हैं उन्हें अनाहत चक्र के जागृत होने पर ऐसी ही ध्वनि सुनती है जो ह्रदय में दिव्य प्रेम की निरंतर वृद्धि करती है| उसी ध्वनी की ही नक़ल कर भारत में आरती के समय मंदिरों में घंटा, घड़ियाल, नगाड़े व टाली आदि बजाने की परम्परा आरम्भ की गयी| मंदिरों में होने वाली घंटा-ध्वनि भी अनाहत चक्र को आहत करती है| फिर मंदिरों के शिखर आदि के बनाने की शैली भी ऐसी होती है कि वहाँ दिव्य स्पंदन बनते हैं और खूब देर तक बने रहते है| वहाँ जाते ही शांति का आभास होता है| बिना तुलसी-चरणामृत लिए प्रातःकाल कुछ भी आहार ग्रहण नहीं करना चाहिए| पूरे दिन प्रभु का स्मरण रखें| यदि भूल जाएँ तो याद आते ही पुनश्चः प्रारम्भ कर दें|
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कभी ऐसे स्थान पर जाएँ जहाँ सरोवर हो या नदी के बहते हुए जल की ध्वनि आ रही हो, वहाँ विशुद्धि चक्र पर (कंठकूप के पीछे गर्दन के मूल में) ध्यान करना चाहिए| इससे विशुद्धि चक्र आहत होता है और चैतन्य के विस्तार की अनुभूति होती है| ऐसे स्थान पर गहरा ध्यान करने पर यह अनुभूति शीघ्र होती है कि आप यह देह नहीं बल्कि सर्वव्यापक चैतन्य हैं|
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आज्ञाचक्र पर ध्यान करते करते प्रणव की ध्वनि (समुद्र की गर्जना जैसी) सुननी आरम्भ हो जाती है तब उसी पर ध्यान करना चाहिए| मूलाधारचक्र पर भ्रमर या मधुमक्खियों के गुंजन, स्वाधिष्ठानचक्र पर बांसुरी कि ध्वनि, मणिपुरचक्र पर वीणा की ध्वनि, अनाहतचक्र पर घंटे,घड़ियाल,नगाड़े आदि की मिलीजुली ध्वनि, विशुद्धिचक्र पर बहते जल की ध्वनि, और आज्ञाचक्र पर समुद्र की गर्जना जैसी ध्वनि सुनाई देती है| इन ध्वनियों से इन चक्रों की जागृति भी होती है|
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साधना के लिए नीचे से ऊपर की ओर निम्न बीजमंत्रों का क्रमशः जाप करें| नीचे के तीन चक्रों पर कम समय दें और ऊपर के तीन चक्रों पर अधिक|
मूलाधार पर लं लं लं लं लं ......| स्वाधिष्ठान पर वं वं वं वं वं .....| मणिपुर पर रं रं रं रं रं .......| अनाहत पर यं यं यं यं यं .....| विशुद्धि पर हं हं हं हं हं .....| आज्ञाचक्र पर ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ .....| सहस्त्रार में स्थिति सद्गुरु की कृपा से ही होती है| चक्र जागरण का एकमात्र उद्देश्य है चेतना और भक्ति का विस्तार| कुण्डलिनी जागरण भी स्वतः ही होता है जो हमारी चेतना को ईश्वर की चेतना से संयुक्त कर देता है|
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साधना में सबसे बड़ी और पूर्ण आवश्यक है --- भक्ति| बिना भक्ति के आप कितनी भी यंत्रवत (mechanical) साधना कर लो, कुछ भी लाभ नहीं होगा|
लोग मुझसे प्रश्न करते हैं कि भक्ति से क्या लाभ होगा? यदि दो पैसे का लाभ हो तो भक्ति करें अन्यथा क्यों समय नष्ट करें| मैं पूरी गारंटी के साथ कहता हूँ कि भगवान की भक्ति से लाभ ही लाभ होगा| अधिकाँश लोगों के लिए ईश्वर तो एक साधन है और संसार साध्य| पर वास्तविकता इससे विपरीत है|
नारद भक्ति-सूत्र में नारद जी कहते हैं कि भगवान के भक्त अपने कुल, जाति का ही गौरव नहीं होते वल्कि पूरे विश्व को ही गौरवान्वित करते हैं| ऐसे दिव्य पुरुष संसार के प्राणियों में दयाभाव व सहिष्णुता बढ़ाकर जगत की वासना को शुद्ध करते हैं| ऐसे प्राणी धरती पर चलते फिरते भगवान हैं| वे जहाँ रहते हैं वह स्थान तीर्थ बन जाता है| भक्तों के पितृगण आनंदित होते हैं, देवता नृत्य करते हैं और यह पृथ्वी इनसे सनाथ हो जाती है|
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भक्ति के मार्ग में अग्रसर होने के लिए किसी शुभ समय की प्रतीक्षा न करें| अभी इसी समय से बढकर कोई और अच्छा समय है ही नहीं| अपने जीवन का केंद्रबिंदु परमात्मा को ही बनाएं, जीवन का हर कार्य उन्हीं की प्रसन्नता के लिए करें और उन्हीं को कर्ता, साक्षी और दृष्टा भी बनाएँ|
हरिः ॐ तत्सत् | ॐ ॐ ॐ ||
कृपा शंकर
६ मार्च २०२०

होली की दारुण रात्रि की तैयारी अभी से करें .....

होली की दारुण रात्रि की तैयारी अभी से करें .....
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सर्वप्रथम भगवान नृसिंह और भक्त प्रहलाद को नमन| उन की परम कृपा मुझ अकिंचन पर निरंतर बनी रहे| भगवान नृसिंह ने जिस तरह हिरण्यकशिपु को अपनी गोद में लेटाकर उसका वक्षस्थल विदीर्ण कर दिया था, वैसे ही वे मेरे लोभ व अहंकार रूपी हिरण्यकशिपु को मार डालें| कुछ बचे तो उन का प्रेम ही बचे, बाकी सब नष्ट हो जाये| असत्य का जो आवरण मुझे परमात्मा से दूर रखे हुए है, वह आवरण, इस नश्वर देह का बोध और इसकी चेतना भी नष्ट हो जाए| हमारे राष्ट्र भारतवर्ष के भीतर और बाहर के सभी शत्रुओं का नाश हो| भारतवर्ष में कहीं भी असत्य का अंधकार न रहे|
इस सुअवसर का सदुपयोग करें और समय इधर उधर नष्ट करने की बजाय आत्मज्ञान ही नहीं बल्कि धर्म और राष्ट्र के अभ्युदय के लिए भी साधना करें| एक विराट आध्यात्मिक शक्ति के जागरण की हमें आवश्यकता है| यह कार्य हमें करना ही पड़ेगा| अन्य कोई विकल्प नहीं है|
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पुनश्चः आप सब को नमन और होली की शुभ कामनाएँ| ॐ तत्सत् ||
कृपा शंकर
५ मार्च २०२०

जेहि बिधि नाथ होइ हित मोरा, करहु सो बेगि दास मैं तोरा .....

जेहि बिधि नाथ होइ हित मोरा, करहु सो बेगि दास मैं तोरा .....
भगवान हमें बुरे विचारों और बुरी संगत से बचायें| सुना था कि मनुष्य के रूप में जन्म मिलना बड़ा दुर्लभ है| पर आजकल तो बड़ा सुलभ हो गया है| ये ८४ लाख वाला चक्र अब समाप्त हो गया लगता है| समाज में भ्रम की स्थिति उत्पन्न कर समाज को भ्रमित रखने के लिए बहुत सारे असुरों ने जन्म ले लिया है| इनका आनन्द सिर्फ नशा और सेक्स ही होता है| ये दूसरों के दुःख में सुखी और दूसरों के सुख में दुःखी होते हैं| लोगों में असंतोष को जन्म देकर उनमें द्वेष पैदा करना इनका स्वभाव होता है| धर्म से लोगों को विमुख करना और अन्याय का समर्थन, इनका मनोरंजन होता है| ये बड़े शक्तिशाली लोग हैं| इन से से दूर रहने में ही कल्याण है| भगवान हम सब की रक्षा करें|
५ मार्च २०२० 

तत्व रूप में भगवान श्रीकृष्ण स्वयं ही गुरु-रूप परमब्रह्म हैं ....

ॐ कृष्णाय वासुदेवाय हरये परमात्मने| प्रणत: क्लेशनाशाय गोविंदाय नमो नम:||
तत्व रूप में भगवान श्रीकृष्ण स्वयं ही गुरु-रूप परमब्रह्म हैं| वे ही आत्मगुरु है, वे ही विश्वगुरु हैं, परमब्रह्म और परमशिव भी वे ही हैं| हम उन के एक उपकरण मात्र हैं, कर्ता तो वे ही हैं| हमारा पूरा अन्तःकरण (मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार) उन्हें ही समर्पित हो| आज्ञाचक्र में उनके बीजमंत्र के जप से अज्ञानरूपी रुद्र-ग्रंथि का भेदन होता है| ज्योतिर्मय आकाश-तत्व कूटस्थ में उन के ध्यान, और प्राण-तत्व के साथ मेरुदंड के चक्रों में उनके भागवत मंत्र के जप से कुंडलिनी महाशक्ति जागृत होती है, जो अंततः ब्रह्मरंध्र का भेदन कर अनंतता से परे परमशिव से एकाकार हो जाती है| वे ही मोक्ष है, वे ही मुक्ति हैं, वे ही उपास्य हैं, वे ही उपासना हैं, और वे ही उपासक हैं| वे हमारी सतत रक्षा करें और इतनी सामर्थ्य और शक्ति दें कि हम पूर्णरूपेण समर्पित होकर उनके साथ एक हो सकें|
ॐ क्लीं कृष्णाय नमः|| ॐ नमो भगवते वासुदेवाय|| ॐ ॐ ॐ ||
कृपा शंकर
५ मार्च २०२०

रक्त से किस की प्यास बुझती है? आतंक क्या है? आतंकवादी कौन है? आतंक का सामना कैसे करें? ....

रक्त से किस की प्यास बुझती है? आतंक क्या है? आतंकवादी कौन है? आतंक का सामना कैसे करें?
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रक्त से नरपिशाचों और हिंसक पशुओं की ही प्यास बुझती है| हिंसा और अत्याचार के द्वारा, जोर जुल्म से, तलवार की नोक पर दूसरों से अपनी बात मनवाना आतंक है, और जो ऐसा करते हैं, वे आतंकवादी है| भारत पिछले एक हजार वर्षों से आतंकवाद को झेल रहा है| आतंकवादी चाहते हैं कि या तो हम उनके गुलाम बन कर रहें, या उनकी बात स्वीकार कर उनके साथ एक हो जाएँ| हाल ही में दिल्ली और देश के अन्य भागों में हुए दंगे करने और कराने वाले ..... नरपिशाच, हिंसक-पशु आतंकवादी ही थे| उनका यह कृत्य ही आतंक था|
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अब भारत को अपना आत्मबल जागृत कर उठना ही होगा| भारत का भविष्य ही इस पृथ्वी का और सृष्टि का भविष्य है| मनुष्य अपनी निजी शक्ति से पिशाचों से युद्ध नहीं कर सकता| उसे दैवीय सहायता की आवश्यकता पड़ती ही है| अपने निज जीवन में परमात्मा की शक्ति को अवतरित कर के ही हम पैशाचिक शक्तियों को पराभूत कर सकते हैं| इसके लिए हम निजस्वभावानुसार भगवान श्रीराम या श्रीकृष्ण या श्रीहनुमान या भगवती दुर्गा की आराधना करते हुए स्वयं शक्तिशाली बनें और अपनी कमजोरियों को दूर कर भारतवर्ष की रक्षा करें|
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भारत विजयी होगा, निश्चित रूप से होगा| ॐ तत्सत् ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
५ मार्च २०२०

भगवान को निश्चित रूप से पाने का सबसे सरल व लघुत्तम (shortcut) मार्ग :----

भगवान को निश्चित रूप से पाने का सबसे सरल व लघुत्तम (shortcut) मार्ग :----
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परमात्मा की अनंतता और सर्वव्यापकता का निरंतर सचेतन अभ्यास बहुत बड़ी साधना है| भगवान कोई ऊपर से उतर कर आने वाली चीज नहीं हैं| वे निरंतर हमारे चैतन्य में हैं| वे यहीं है, इसी समय हैं और कभी हम से दूर हो ही नहीं सकते| सतत रूप से उनका स्मरण तो करना ही होगा| भगवान कहते हैं ....
"अनन्यचेताः सततं यो मां स्मरति नित्यशः| तस्याहं सुलभः पार्थ नित्ययुक्तस्य योगिनः||१८:१४||
अनन्य चित्त वाला योगी सर्वदा निरन्तर प्रतिदिन मुझ परमेश्वरका स्मरण किया करता है| (छः महीने या एक वर्ष ही नहीं, जीवनपर्यन्त जो निरन्तर मेरा स्मरण करता है) हे पार्थ उस नित्यसमाधिस्थ योगीके लिये मैं सुलभ हूँ|
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"मय्येव मन आधत्स्व मयि बुद्धिं निवेशय| निवसिष्यसि मय्येव अत ऊर्ध्वं न संशयः||१२:८||"
तुम अपने मन और बुद्धि को मुझमें ही स्थिर करो, तदुपरान्त तुम मुझमें ही निवास करोगे, इसमें कोई संशय नहीं है||
"अथ चित्तं समाधातुं न शक्नोषि मयि स्थिरम्| अभ्यासयोगेन ततो मामिच्छाप्तुं धनञ्जय||१२:९||"
हे धनंजय ! यदि तुम अपने मन को मुझमें स्थिर करने में समर्थ नहीं हो, तो अभ्यासयोग के द्वारा तुम मुझे प्राप्त करने की इच्छा (अर्थात् प्रयत्न) करो||
"अभ्यासेऽप्यसमर्थोऽसि मत्कर्मपरमो भव| मदर्थमपि कर्माणि कुर्वन् सिद्धिमवाप्स्यसि||१२:१०||"
यदि तुम अभ्यास में भी असमर्थ हो तो मत्कर्म परायण बनो; इस प्रकार मेरे लिए कर्मों को करते हुए भी तुम सिद्धि को प्राप्त करोगे||
"अथैतदप्यशक्तोऽसि कर्तुं मद्योगमाश्रितः| सर्वकर्मफलत्यागं ततः कुरु यतात्मवान्||१२:११||"
"श्रेयो हि ज्ञानमभ्यासाज्ज्ञानाद्ध्यानं विशिष्यते| ध्यानात्कर्मफलत्यागस्त्यागाच्छान्तिरनन्तरम्||१२:१२||"
और यदि इसको भी करने के लिए तुम असमर्थ हो, तो आत्मसंयम से युक्त होकर मेरी प्राप्ति रूप योग का आश्रय लेकर, तुम समस्त कर्मों के फल का त्याग करो||
अभ्यास से ज्ञान श्रेष्ठ है; ज्ञान से श्रेष्ठ ध्यान है और ध्यान से भी श्रेष्ठ कर्मफल त्याग है; त्याग से तत्काल ही शान्ति मिलती है||
"अद्वेष्टा सर्वभूतानां मैत्रः करुण एव च| निर्ममो निरहङ्कारः समदुःखसुखः क्षमी||१२:१३||"
भूतमात्र के प्रति जो द्वेषरहित है तथा सबका मित्र तथा करुणावान् है; जो ममता और अहंकार से रहित, सुख और दु:ख में सम और क्षमावान् है||
"सन्तुष्टः सततं योगी यतात्मा दृढनिश्चयः| मय्यर्पितमनोबुद्धिर्यो मद्भक्तः स मे प्रियः||१२:१४||"
जो संयतात्मा, दृढ़निश्चयी योगी सदा सन्तुष्ट है, जो अपने मन और बुद्धि को मुझमें अर्पण किये हुए है, जो ऐसा मेरा भक्त है, वह मुझे प्रिय है||
"यस्मान्नोद्विजते लोको लोकान्नोद्विजते च यः| हर्षामर्षभयोद्वेगैर्मुक्तो यः स च मे प्रियः||१२:१५||"
जिससे कोई लोक (अर्थात् जीव, व्यक्ति) उद्वेग को प्राप्त नहीं होता और जो स्वयं भी किसी व्यक्ति से उद्वेग अनुभव नहीं करता तथा जो हर्ष, अमर्ष (असहिष्णुता) भय और उद्वेगों से मुक्त है,वह भक्त मुझे प्रिय है||
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सबसे अंत में यह सदा याद रखें .....
"यत्र योगेश्वरः कृष्णो यत्र पार्थो धनुर्धरः| तत्र श्रीर्विजयो भूतिर्ध्रुवा नीतिर्मतिर्मम||१८:७८||"
जहाँ योगेश्वर श्रीकृष्ण हैं और जहाँ धनुर्धारी अर्जुन है वहीं पर श्री, विजय, विभूति और ध्रुव नीति है, ऐसा मेरा मत है||
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निरंतर हृदय में उन की उपस्थिति का आभास और अपने सभी कर्मों व कर्मफलों का उन्हें समर्पण ...... उन्हें पाने का सब से आसान Short Cut है|
ॐ तत्सत् | ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ||
कृपा शंकर
३ मार्च २०२०

हारिये ना हिम्मत, बिसारिये न हरिः नाम -----

हारिये ना हिम्मत, बिसारिये न हरिः नाम| जब भी समय मिले तब कूटस्थ सूर्यमण्डल में पुरुषोत्तम का ध्यान करें| गीता में जिस ब्राह्मी स्थिति की बात कही गई है, निश्चय पूर्वक प्रयास करते हुए आध्यात्म की उस परावस्था में रहें| सारा जगत ही ब्रह्ममय है| हमारे हृदय में इतनी पवित्रता हो जिसे देखकर श्वेत कमल भी शरमा जाए| किसी भी परिस्थिति में परमात्मा के अपने इष्ट स्वरूप की उपासना न छोड़ें| पता नहीं कितने जन्मों में किए हुए पुण्य कर्मों के फलस्वरूप हमें भक्ति का यह अवसर मिला है| कहीं ऐसा न हो कि हमारी ही उपेक्षा से परमात्मा को पाने की हमारी अभीप्सा ही समाप्त हो जाए| जीवन में अंधकारमय प्रतिकूल झंझावात आते ही रहते हैं जिनसे हमें विचलित नहीं होना चाहिए| इनसे तो हमारी प्रखर चेतना ही जागृत होती है व अंतर का सौंदर्य और भी अधिक निखर कर बाहर आता है| समस्त सृष्टि चैतन्य का एक खेल मात्र है| जो कुछ भी देश-काल में घटित हो रहा है वह एक विराट चुम्बकीय क्षेत्र के दो विपरीत ध्रुवों के बीच का तनाव या घर्षण मात्र है| इसे ईश्वर के मन का एक विचार भी कह सकते हैं| प्रकृति, माया और जीव उसी परम चैतन्य की अभिव्यक्तियाँ हैं| सृष्टि के इस रहस्य को समझ कर उस परम चैतन्य से अंततः जुड़ना ही मनुष्य जीवन का ध्येय है| कभी भी विचलित न हों| हम सब सच्चिदानंद परमात्मा की ही अभिव्यक्तियाँ हैं|
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आध्यात्म में जितना हमें परमात्मा से प्रेम है उतना ही इस भौतिक जगत में अपने राष्ट्र भारतवर्ष की अस्मिता से भी है| राष्ट्र की अस्मिता की रक्षा के लिए शस्त्र भी धारण करना पड़े तो वह भी धारण करेंगे, प्राणोत्सर्ग भी करना पड़े तो वह भी करेंगे| पता नहीं कितनी बार शस्त्रास्त्र धारण किये हैं और प्राण भी दिए हैं| राष्ट्र को अब और खंडित नहीं होने देंगे|
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ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१ मार्च २०२०

पश्चिम एशिया में कभी भी युद्ध हुआ तो भारत के लिए एक दुविधा उत्पन्न हो जाएगी .....

पश्चिम एशिया में कभी भी युद्ध हुआ तो भारत के लिए एक दुविधा उत्पन्न हो जाएगी| जिस तुर्की के अंतिम खलीफा अब्दुल मज़ीद को बापस सत्ता दिलाने के लिए गांधी ने भारत में खिलाफत आंदोलन आरंभ किया था, वह #तुर्की अब खुल कर भारत का शत्रु बन गया है| परसों तुर्की ने भारत पर मुसलमानों के नर-संहार का आरोप लगाया है|
मुस्लिम देशों के सबसे बड़े वैश्विक मंच इस्लामिक सहयोग संगठन (ओआईसी) ने भी परसों गुरुवार को भारत के विरुद्ध दिल्ली में हुई हिंसा पर सख्त प्रतिक्रिया दी है| इस्लामिक सहयोग संगठन ने भारत पर मुसलमानों को निशाना बनाने का आरोप लगाते हुए भारत की निंदा की है|
पुनश्च: :---- जिस तरह पाकिस्तान ने विभाजन के पश्चात वहाँ बचे हिए हिंदुओं का व्यापक नरसंहार किया था, उसी तरह तुर्की ने भी सन १९१४ से १९२३ तक अपने अनातोलिया प्रांत में ग्रीक ईसाइयों का, और इजमीर प्रांत में आर्मेनियन ईसाइयों का बहत बड़ा नरसंहार किया था| सन १९७४ में तुर्की ने साइप्रस पर आक्रमण कर के वहाँ के ईसाइयों को मारकर भगा दिया था| तुर्की अब एजियन सागर में स्थित ग्रीक द्वीपों पर अधिकार करना चाहता है क्योंकि ये द्वीप कभी सल्तनत-ए-उस्मानिया (Ottoman Empire) के आधीन थे| इस सल्तनत के समय तुर्की का भूभाग बहुत अधिक विशाल था पर बाद में हुए युद्धों में पराजित हुआ तुर्की सिमट गया और अनेक अंतर्राष्ट्रीय संधियों के कारण उसे अधिकाँश भूभाग छोड़ने पड़े| उन क्षेत्रों में ईसाइयों और मुसलमानों के मध्य अनेक धर्मयुद्ध हुए थे| आज के युग में उन की कल्पना भी भयानक है| यूरोप के अनेक देशों में बहुत बड़ी संख्या में तुर्क बसे हुए हैं| तुर्की को पूरी उम्मीद है कि विदेशों में बसे तुर्क उस की पूरी सहायता करेंगे|
तुर्की का इतिहास अधिक पुराना नहीं है| सन १०७१ में मंज़िकेर्त के युद्ध में ईसाई बिरज़ेन्ताइन साम्राज्य को हराकर जिहादियों ने तुर्की का इस्लामी साम्राज्य स्थापित किया| था| वर्तमान तुर्की गणराज्य की स्थापना तो सान १९२३ में ही हुई थी| तुर्की में ईसाईयों के वर्चस्व को अहल-अल-सलीब कहा जाता है जिन पर विजय का उन्माद वहाँ के दोनों राजनीतिक दल भड़का रहे हैं| पूरे पूर्वी यूरोप में तुर्की के विरुद्ध जन भावनाएँ हैं, क्योंकि पूर्व में तुर्कों ने वहाँ बहुत अधिक अत्याचार किये हैं| तुर्की महत्व बास्फोरस जलडमरूमध्य से है जिसे वह अनेक अंतर्राष्ट्रीय संधियों के कारण बंद नहीं कर सकता|

कृपा शंकर 
२९ फरवरी २०२० 

भारत की हिन्दू विरोधी राजनीति -----

भारत की हिन्दू विरोधी राजनीति -----
मैं भारत की अब तक की सारी हिन्दू विरोधी राजनीति से पूरी तरह निराश हूँ| मेरी पीड़ा भारत के सारे हिन्दू समाज की पीड़ा है| एक षड़यंत्र के अंतर्गत भारत के हिन्दू युवाओं को धार्मिक शिक्षा से वंचित कर धर्मविहीन कर दिया गया है| भारत के सारे क्रांतिकारियों को, समाजसेवकों को, और अनगिनत देशभक्तों को जीवन में अपना सर्वश्रेष्ठ करने की प्रेरणा हिन्दू धर्म की शिक्षा से मिली, न कि धर्मनिरपेक्षता से| अभी भी जो व्यक्ति देश व समाज की परोपकारी सेवा कर रहे हैं, उनके पीछे उनकी हिन्दू धर्म की शिक्षा है, न कि अन्य कोई कारण|
सनातन हिन्दू धर्म कहता है .....
"अष्टादशपुराणानां सारं व्यासेन कीर्तितम्| परोपकार: पुण्याय पापाय परपीडनम् ||"
अठारह पुराणों के सार रूप में महर्षि व्यास ने सिर्फ दो बातें कही हैं ... "दूसरों का उपकार करने से पुण्य होता है, और दुःख देने से पाप|
संत तुलसीदास जी कहते हैं .....
"परहित सरिस धरम नहि भाई| परपीड़ा सम नहि अधिकाई||"
अर्थात परोपकार के बराबर कोई धर्म नहीं है, और परपीड़ा के बराबर कोई पाप|
वे तो सारे जगत को ही सीताराममय मानते हैं .....
"सियाराममय सब जग जानी| करहु प्रणाम जोरि जुग पानी||"
अर्थात पूरे संसार में श्री राम का निवास है, सबमें भगवान हैं और हमें उनको हाथ जोड़कर प्रणाम कर लेना चाहिए|
गीता में भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं .....
"बहूनां जन्मनामन्ते ज्ञानवान्मां प्रपद्यते| वासुदेवः सर्वमिति स महात्मा सुदुर्लभः||"
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भारत में मुस्लिम और ईसाई अपने बच्चों को मदरसों में और कान्वेंट स्कूलों में अपने धर्म की शिक्षा दे सकते हैं, और उस शिक्षा को सरकारी मान्यता प्राप्त है| हिंदुओं के गुरुकुलों को सरकारी मान्यता प्राप्त नहीं है| वहाँ से पढे-लिखे युवकों को कोई सरकारी नौकरी नहीं मिल सकती| भारत का संविधान घोर हिन्दू विरोधी है, यह हिंदुओं को अपने धर्म की शिक्षा का अधिकार नहीं देता|
भारत के सभी सिनेमाओं में हिंदुओं को चरित्रहीन दुर्जन चोर बदमाश दिखाया जाता है| पर अन्य धर्मावलम्बियों को सज्जन व चरित्रवान दिखाया जाता है| हिंदुओं को उनके धर्म से विमुख कर दिया गया है| हिंदुओं के मंदिरों पर सरकारी अधिकार है| मंदिरों की आय से धर्मशिक्षा दी जानी चाहिए पर उसकी सरकारी लूट जारी है| उस धन को लूटकर अन्य मतावलंबियों को दिया जाता है| शिक्षा में पाठ्यक्रमों से देशभक्ति की रचनाओं को हटा दिया गया है|
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धर्मशिक्षा के अभाव के कारण भारत का हिन्दू युवा स्वयं को दीन-हीन, कुंठित व आत्मबलहीन महसूस कर रहा है| आध्यात्मिक साधना से ही आत्मबल आता है| पिछले कांग्रेसी शासन में तो सांप्रदायिकता विरोधी अधिनियम लाकर हिंदुओं का अस्तित्व मिटाने की ही तैयारी कर ली गई थी| हिन्दू धर्म की कुछ कुछ रक्षा वर्तमान सरकार के द्वारा हुई है, पर यह पर्याप्त नहीं है| यदि यही स्थिति बनी रही तो भारत से हिन्दू धर्म समाप्त हो जाएगा| दुर्भाग्य से ऐसा हुआ तो भारत, भारत ही नहीं रहेगा| भारत का अस्तित्व सनातन धर्म पर ही निर्भर है| ॐ तत्सत् |
कृपा शंकर
२९ फरवरी २०२०

हमारा लोभ और अहंकार .... ये दो सबसे बड़ी बाधाएँ हैं .....

गीता में एक बड़ा रहस्यमय श्लोक है जो वर्तमान परिप्रेक्ष्य में अति गंभीरता से विचारणीय एक महत्वपूर्ण विषय है| यहाँ भगवान हमें अहंकार पर विजय पाने का निर्देश देते हैं| परमात्मा के मार्ग में हमारा लोभ और अहंकार .... ये दो सबसे बड़ी बाधाएँ हैं| अति अति संक्षेप में ही इस पर चर्चा करेंगे| गीता में भगवान कहते हैं.....
"यस्य नाहंकृतो भावो बुद्धिर्यस्य न लिप्यते| हत्वापि स इमाँल्लोकान्न हन्ति न निबध्यते ||१८:१७||"
इसका भावार्थ यह है कि जिस पुरुष में अहंकार का भाव नहीं है और बुद्धि किसी (गुण दोष) से लिप्त नहीं होती, वह पुरुष इन सब लोकों को मारकर भी वास्तव में न मारता है और न (पाप, पुण्य से) बँधता है||
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अनेक महान आचार्यों ने इस पर खूब लिखा है| मैं कर्ता या अकर्ता हूँ ये दो प्रकार के मनोभाव हैं| अहंकारशून्य आत्मज्ञ पुरुष को ये दोनों ही भाव नहीं रहते| आत्मा के शुद्ध स्वरुप में कोई 'अध्यास' नहीं है| कौन भोक्ता है और कौन कर्ता है, इसके समझने से पूर्व यह जान लें कि मैं कौन हूँ और मेरा स्वरुप क्या है| "अध्यास", अद्वैत वेदांत का एक पारिभाषिक शब्द है| एक वस्तु में दूसरी वस्तु का भास 'अध्यास' कहलाता है|
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परमात्मा के साकार रूप आप सब को सप्रेम सादर नमन !
ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२७ फरवरी २०२०

"भ्रामरी गुहा" का रहस्य ....

"भ्रामरी गुहा" का रहस्य ....
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गुरु की आज्ञा से जब आज्ञाचक्र पर ध्यान करते हैं, तब गुरुकृपा से धीरे-धीरे वहाँ एक प्रकाशपुंज के दर्शन होने लगते हैं| उस प्रकाशपुंज को हम 'ज्योतिर्मय ब्रह्म' कहते हैं जिसका ध्यान किया जाता है| फिर धीरे-धीरे आरंभ में भ्रमर गुंजन की सी एक ध्वनि सुनाई देने लगती है| उस ध्वनि को 'अनाहत नाद' कहते हैं जिसे सुनते हुए गुरु-प्रदत्त बीजमंत्र का मानसिक जप करते हैं| यह आध्यात्मिक साधना, गुरु की आज्ञा से गुरु के निर्देशन में ही की जाती है|
वह प्रकाश-पुंज, भ्रमर की तरह डोलता है जिसके मध्य के स्थिर बिन्दु को प्रतीकात्मक रूप से 'भ्रामरी गुफा' कहते हैं| उसमें स्वाभाविक रूप से प्रवेश करते हैं तब बड़ी दिव्य अनुभूतियाँ और आनंद की प्राप्ति होती है| भगवान की माया भी उस समय अति सक्रिय हो जाती है| माया के दो अस्त्र होते हैं..... एक तो है आवरण, और दूसरा है विक्षेप| आवरण कहते हैं अज्ञान के उस पर्दे को जो सत्य का बोध नहीं होने देता| जब हम किसी बिन्दु पर मन को एकत्र करते हैं, तब अचानक ही कोई दूसरा विचार आकर हमें भटका देता है| उस भटकाव को जो हमें एकाग्र नहीं होने देता, विक्षेप कहते हैं| जब तक हमारे मन में किसी भी तरह का कोई लोभ और अहंकार हैं, तब तक यह माया उसी अनुपात में हमें आवरण और विक्षेप के रूप में बाधित करती रहेगी| इस से पार जाने के लिए भक्ति और समर्पण का आश्रय लेना पड़ता है| बिना भक्ति के कोई प्रगति नहीं हो सकती| यह शाश्वत नियम है जो भ्रामरी गुफा का रहस्य है|
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माया को महाठगिनी कहा गया है जो आवरण और विक्षेप के रूप में हमें ठगती रहती है| हमारे मन में जितना अधिक लोभ और अहंकार है, माया भी उसी अनुपात में हमें उतना ही दुःखी करती है| अतः भगवान की भक्ति का आश्रय लें| अपने लोभ और अहंकार पर जिसने विजय पा ली, वह ही वास्तव में सच्चा विजयी है| ॐ तत्सत्
कृपा शंकर
२७ फरवरी २०२०
भारतीय इतिहास में कन्नौज अधिपति जयचन्द्र ..... (लेखक: श्री अरुण उपाध्याय)
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अंग्रेजी शासन में जिन लोगों ने विद्रोह किया उनको अंग्रेजों ने कायर कहा तथा विद्रोह दबाने में जिनने अंग्रेजों की सहायता की उनको वीर जाति कहा तथा उनको सेना में प्रमुखता दी। उत्तर प्रदेश तथा बिहार के कई भागों में जहां कुंवर सिंह, तात्या टोपे, झांसी की रानी लक्ष्मीबाई आदि के नेतृत्व में जहां विद्रोह हुआ वहां उन्नति के कार्य नहीं हुए तथा अधिकांश क्षेत्रों में छोटी लाइन रेल बनी। इसका कुप्रभाव आज तक है।
मुस्लिम शासन में भी जिन लोगों ने विद्रोह किया उनकी निन्दा के साहित्य लिखे गये। अकबर के समय सबसे शक्तिशाली हिन्दूराज्य गोण्डवाना था। रानी दुर्गावती के नेतृत्व में जो शासक वर्ग था वे आज कल दलित गोण्ड कहे जाते हैं, जिनमें पूर्व राज परिवार के लोग अपने को राजगोण्ड कहते हैं। किन्तु उनके जो रसोइया तथा पुरोहित अकबर को भेद दे रहे थे उनको अकबर ने नमकहरामी जागीर दी (काशी, मिथिला के राजा, नासिक के किलेदार) और वे सम्मानित गिने जाते हैं। वृन्दावनलाल वर्मा के ऐतिहासिक उपन्यास ’रानी दुर्गावती’ के परिशिष्ट में अबुल फजल को उद्धृत किया है।
इसी क्रम में मुहम्मद गोरी के सबसे प्रबल प्रतिद्वन्द्वी कन्नौज के महाराज जयचन्द का भी देशद्रोही के रूप में बहुत प्रचार हुआ, जो उस क्षेत्र तथा राजा के रूप में अन्याय है तथा देशभक्त वीरों की निष्ठा भंग करता है।
देशभक्त या देशद्रोही का निर्णय कभी कभी कठिन होता है। केवल असफल होना देशद्रोह नहीं है। निर्णय की भूल या साधन की कमी से असफलता हो जाती है। भारत में वीरता तथा देशभक्ति के लिए अद्वितीय मेवाड़ का राजवंश १३०० वर्षों तक भारत की स्वाधीनता के लिए सतत संघर्ष करता रहा। बाबर के आक्रमण के समय मेवाड़ के राणा सांगा ने बाबर को इब्राहिम लोदी के विरुद्ध आक्रमण के लिए बुलाया था। यह सनातन नीति है कि एक शत्रु को दबाने के लिए अन्य की सहायता ली जाती है। भगवान् राम ने भी रावण को हराने के लिए किष्किन्धा राज्य की सहायता ली जिसका राजा बालि रावण का मित्र था। वहां के असन्तुष्ट सुग्रीव पक्ष को सत्ता दिला कर अपने पक्ष में किया था। राणा सांगा ने पुराने तथा नये विदेशियों को आपस में लड़ाने के लिए बुलाया था. जो पूरी तरह उचित था। उसके बाद अकबर के समय भी नये विदेशियों को भगाने के लिए शेरशाह सूरी के लड़के हाकिम खान सूर ने पहले अपने दीवान हेमचन्द्र को राजा बनवाया तथा बाद में राणा प्रताप के सेनापति के रूप में लड़े। किन्तु इब्राहिम लोदी के हारने के बाद राणा सांगा की भी पराजय हुई। उसमें राणा सांगा द्वारा बाबर को बुलाने की भूल नहीं थी। मुख्य कारण दो थे-बाबर की तोप के मुकाबले राणा सांगा के पास कोई हथियार नहीं था। भारत के शस्त्र बल की कमी ८०० वर्षों से चली आ रही है। अभी पिछले ६ वर्षों में भारत में शस्त्र निर्माण पर जोर दिया जा रहा है। राणा सांगा भारी क्षति के बाद बिना तोप के भी जीत गये होते यदि उनके कुछ मुख्य सहायक ठीक अवसर पर धोखा नहीं देते। उनकी नीति से पूरा भारत स्वाधीन होता तथा वे भी तोपखाना आदि बनवाते। मेवाड़ के सभी राजा देश रक्षा के लिए बलिदान करते रहे हैं।
कन्नौज के राजा जयचन्द्र के विषय में जानने के लिए राज व्यवस्था के विषय में चर्चा आवश्यक है। आधुनिक राजनीति शास्त्र के अनुसार विश्व में कोई भी शासन नहीं चल रहा है जैसे भारत का वंशानुगत प्रजातन्त्र। राज्य की स्थापना के ७ तत्त्वों में केवल ४ की ही व्याख्या की जाती है-भूमि, प्रजा, शासन. सम्प्रभुता। किन्तु ३ अन्य मुख्य तत्त्वों का विचार नहीं होता है यद्यपि उनका महत्त्व ज्ञात है। बिना कोष के शासन व्यवस्था नहीं चलती। इसे राजसूय यज्ञ कहा है। प्रजा से कर ले कर देश की व्यवस्था तथा रक्षा होती है जिसको रघुवंश के आरम्भ में सूर्य द्वारा जालाशयों से जल खींचने से तुलना की गयी है। सूर्य जल खींच कर स्वयं नहीं रखता, वह लोगों के लिए वर्षा कर देता है। कोष का महत्त्व सिद्धान्त रूप में नहीं मानने के कारण भारत के राजनैतिक दलों को विविध अनैतिक उपायों से धन संग्रह करना पड़ता है, जो भ्रष्टाचार की गंगोत्री है। ९ प्रकार के दुर्ग (नव दुर्गा प्रतीक) भी देश की स्थायी रक्षा के लिए आवश्यक हैं। यह प्राचीन काल से सर्वमान्य सिद्धान्त है। सप्तम तत्त्व है पुरोहित तत्त्व। इसका अर्थ यह नहीं है कि वह राजा के घर में पूजा करवायेगा। रघुकुल के पुरोहित वसिष्ठ ने कभी पूजा या यज्ञ नहीं करवाया था। वह केवल नीति-निर्धारण करते थे। महाभारत में पाण्डव जब वनवास के लिए जाने लगे तो भगवान् कृष्ण ने कहा कि उनको एक पुरोहित नियुक्त करना चाहिये तब उन लोगों ने महर्षि धौम्य को पुरोहित बनाया। वनवास तथा अज्ञातवास के १३ वर्षों में वे पाण्डवों के साथ कभी नहीं रहे, पूजा करवाने का कोई प्रश्न ही नहीं था। वे पाण्डवों के प्रतिनिधि रूप में राजधानी हस्तिनापुर में रहते थे, जैसे भारत के हर राज्य ने सर्वोच्च न्यायालयतथा स्थानीय उच्च न्यायालय में अपना पक्ष रखने महाधिवक्ता रखते हैं। भगवान् कृष्ण के दूत बनने के पहले धौम्य ही दूत बन कर गये थे तथा उनके १२ प्रश्न वैसे ही थे जैसे आजकल लोकसभा तथा विधानसभा में प्रश्न पूछे जाते हैं। दूतों के भी कई स्तर होते हैं-प्रधानमन्त्री स्तर पर जो निर्णय या सन्धि होती है, वह शासन सचिव स्तर पर नहीं हो सकती। अतः सन्धि-विग्रह का निर्णय करने के लिये भगवान् कृष्ण को दूत बन कर जाना पड़ा।
आज का पुरोहित तत्त्व संविधान, कानून तथा प्रजा का धर्म है। धर्म से प्रजा का धारण होता है तथा विश्व के सभी राज्य धर्म आधारित हैं, नकली राजनीति शास्त्र कुछ भी प्रचार करे।
नीति निर्धारण के लिये सम्प्रभुता पर विचार करना आवश्यक है। आधुनिक राजनीति शास्त्र में इसे सर्वोच्च माना गया है। किन्तु भारत में इसके ८ स्तर माने गये हैं-१. राजा-भोज, महाभोज, २. सम्राट्-चक्रवर्त्ती, सार्वभौम, ३. स्वराट्-इन्द्र, महेन्द्र, ४. विराट्-ब्रह्मा, विष्णु। (पण्डित मधुसूदन ओझा का ’जगद्गुरुवैभवम्’-राजस्थानीग्रन्थागार, जोधपुर में ४/३)
ऐतरेय ब्राह्मण (३७/२)-तानहमनुराज्याय साम्राज्याय भौज्याय स्वाराज्याय पारमेष्ठ्याय राज्याय महाराज्याया ऽऽधिपत्याय स्वावश्याया ऽऽतिष्ठायाऽऽरोहामि।
किसी क्षेत्र में अन्न आदि के उत्पादन का प्रबन्ध करने वाला भोज है। कुछ भोजों का समन्वय करनेवाला महाभोज है। पूरे भारत पर शासन करने वाला सम्राट् है-देश के भीतर व्यापार तथा यातायात की सुविधा करने वाला चक्रवर्त्ती तथा देश के बाहर भी ऐसा सम्बन्ध रखने वाला सार्वभौम है। कई देशों पर प्रभुत्व रखने वाला इन्द्र तथा महाद्वीप पर प्रभुत्व रखने वाला महेन्द्र है। विश्व पर ज्ञान का प्रभाव ब्रह्मा का था, बल का प्रभाव विष्णु का है।
प्राचीन काल में काशी ही मुख्य भोज क्षेत्र था, जहां का राजा दिवोदास तथा उसका पुत्र सुदास था-
इमे भोजा अङ्गिरसो विरूपा दिवस्पुत्रासो असुरस्य वीराः।
विश्वामित्राय ददतो मघानि सहस्रसावे प्रतिरन्त आयुः॥ (ऋक्, ३ /५३/७)
= ये भोज कई प्रकार का उत्पादन (विरूपा आंगिरस) करते हैं, ये देवपुत्र (दिवोदास) असुरों को जीतने वाले हैं। इन्होंने विश्वामित्र के हजारों यज्ञों के लिये प्रचुर सम्पत्ति दी।
महाँ ऋषिर्देवजा देवजूतोऽस्तभ्नात्सिन्धुमर्णवं नृचक्षाः।
विश्वामित्रो यदवहत्सुदासमपियायत कुशिकेभिरिन्द्रः॥९॥
= महान् देवजूत (देव काम में जुता हुआ, दिवोदास) तथा उनके सहायक विश्वामित्र ने सिन्धु तथा अर्णव तक लोगों को गठित किया तथा काशिराज सुदास के यज्ञ में गये। कौशिकों के कार्य से इन्द्र प्रसन्न हुए।
यह विश्वामित्र कान्यकुब्ज (कन्नौज) के ही राजा थे, जो बाद में ऋषि हुए।
काशी ही भोजों की पुष्करिणी (गह्वर-वारि) थी, जिसके पालक गहरवार हुए-
भोजायाश्वं संमृजन्त्याशुं भोजायास्तेकन्या शुम्भमाना।
भोजस्येदं पुष्करिणीव वेश्म परिष्कृतं देवमानेव चित्रम्॥१०॥
= भोज तेज गति वाले घोड़े उत्पन्न करते हैं, उनकी कन्यायें सुशोभित रहती हैं। भोजों का निवास पुष्करिणी के समान निर्मल तथा देव-मान जैसा सज्जित होता है।
देवानां माने (निर्माणे) प्रथमा अतिष्ठन् कृन्तत्रा (अन्तरिक्ष, विकर्तन = मेघ) देषामुत्तराउदायन्।
त्रयस्तपन्ति (त्रिशूल) पृथिवी मनूपा (जल से भरा क्षेत्र) द्वा (वायु + आदित्य) वृवूकं वहतः पुरीषम् (बुरबक या मूर्ख बहाते हैं पुरीष या मल)। (ऋग्वेद, १०/२७/३०) = यह वाराणसी (त्रिशूल पर स्थित) देवों की प्रथम पुरी है जहां वर्षा, जल, अन्न भरा है। पुरी का अर्थ है जल, अन्न से भरा (निरुक्त, २/२२)
रघुवंश में रघु के पुत्र अज विवाह के लिए विदर्भ राजकुमारी इन्दुमती के स्वयंवर में गये थे। वहां विदर्भ राजा को भोजराज तथा इन्दुमती को भोजकन्या कहा गया है-
आप्तः कुमारानयनोत्सुकेन भोजेन दूतो रघवे विसृष्टः (५/३९)
इतश्चकोराक्षि विलोकयेति पूर्वानुशिष्टां निजगाद भोज्याम् (६/५९)
तत्रार्चितो भोजपतेः पुरोधा (७/२०), इतिस्वसुर्भोजकुलप्रदीपः (७/२९)
उत्तर प्रदेश वर्षा से पूर्ण भाग था, अतः यहां के क्षत्रिय वृष्णि (वर्षा क्षेत्र वाले) जिसमें भगवान् कृष्ण का जन्म हुआ। लोगों का अन्न से पालन करने के कारण ये भोज थे। मथुरा के राजा उग्रसेन तथा उनके पुत्र कंस को प्रशंसा में भोज कहा गया है।
भागवत पुराण, स्कन्ध १०, अध्याय १- श्लाघ्नीय गुणः शूरैर्भवान् भोज यशस्करः॥३७॥
उग्रसेनं च पितरं यदु-भोजान्धकाधिपम्॥६९॥
पश्चिमोत्तर सीमा के रक्षकों को कुक्कुर कहते थे, अंग्रेजी में watchdog। यह प्रशंसात्मक शब्द था। इनके वंशज खोखर हैं, जो अधिकांश मुस्लिम हो गये। जो बचने के लिये पूर्व की तरफ चले गये उनका स्थान असम का कोकराझार है। दक्षिण पूर्व के समुद्र तट पर हर वर्ष अन्धक आता है (आन्धी, जिसमें दीखता नहीं है), वह आन्ध्र है जहां के अन्धक थे। हय (घोड़ा) की सेना वाले हैहय थे, मल्ल युद्ध में चुनौती देने वाले तालजंघ (जांघ पर थपकी देते हैं) थे। रक्षा व्रत (सत्व) के पालक राजस्थान के सात्वत थे।
भागवत पुराण, स्कन्ध ११, अध्याय ३०-दाशार्ह-वृष्ण्य-न्धक-भोज-सात्वता मध्वर्बुदा-माथु-रशूरसेनाः॥
विसर्जनाः कुकुराः कुन्तयश्च मिथस्ततस्तेऽश्चविसृज्यसौ हृदम्॥१८॥
ब्रह्माण्ड पुराण (१/२/१६)-इत्येते अपरान्ताश्च शृणुध्वं विन्ध्यवासिनः॥६३॥
उत्तमानां दशार्णाश्च भोजाः किष्किन्धकैः सह॥६४॥
(२/३/६१)-कृतां द्वारावतीं नाम बहु द्वारां मनोरमाम्। भोज वृष्ण्यन्धकैर्गुप्तां वसुदेव पुरोगमैः॥२३॥
(२/३/६९)-जयध्वजस्य पुत्रस्तु तालजंघः प्रतापवान्॥५१॥
तेषां पञ्च गणाः ख्याता हैहयानां महात्मनाम्। वीतिहोत्राश्च संजाता भोजाश्चावन्तयस्तथा।।५२॥
तुण्डिकेराश्च विक्रान्तास्तालजंघास्तथैव च॥५३॥
श्री रमाशंकर त्रिपाठी के कन्नौज के इतिहास में लिखा है कि चारणों के अनुसार जयचन्द्र के पूर्वज ययाति के वंशज काशी के राजा देवदास थे। इनको पुराणों में धन्वन्तरि का अवतार दिवोदास लिखा है तथा ऋग्वेद के वर्णन के अनुसार ये पुष्करिणी द्वारा पालन करते थे, अतः इनको भोज कहा जाता था। आज भी प्राचीन काशी राज्य की भाषा ही भोजपुरी कही जाती है। कालान्तर में विदर्भ राज, मथुरा के कंस तथा मालवा के सभी राजाओं को भोज कहा गया है।
जयचन्द्र के समय भी कन्नौज राज्य ही भारत का भोज राज्य था। उनका प्रत्यक्ष शासन वर्तमान उत्तर प्रदेश, उत्तराखण्ड, पश्चिमी बिहार तथा झारखण्ड (काशी राजधानी द्वारा) पर था। प्रभाव क्षेत्र में महोबा, मालवा, कलिंग या उत्कल था। हर्षवर्धन (६०६-६४७ ई.) की तरह वे भारत की ६०% से अधिक लोगों के शासक थे। छोटे अधिकारी या छोटे राजा ही शत्रुओं को सहायता के लिए बुलाते हैं। अतः जयचन्द की दृष्टि में पूरे भारत की रक्षा थी। यह इसी से स्पष्ट है कि उनका कोई भी युद्ध व्यक्तिगत वीरता दिखाने या विवाह करने के लिए नहीं हुआ था, यह राज्य विस्तार और संगठन के लिए था। आज तक भारत में वीरता की प्रेरणा देने के लिए आल्हा-उदल के गीत बिहार से राजस्थान तक गाये जाते हैं। वे मूलतः महोबा के थे जो जयचन्द्र का आश्रित राज्य था। बाद में वे स्वयं जयचन्द्र के ही पास रहे। भारत के वीरों का यही आदर्श रहा है जिससे सभी विदेशी डरते थे-बरस अठारह क्षत्री जीये, बाकी जीवन के धिक्कार। लोक गीतों को रोचक बनाने के ले सिनेमा कहानियों की तरह विवाह को प्राथमिकता दी गयी है। विवाह मूल उद्देश्य नहीं था, युद्ध के बाद सन्धि के लिये प्रायः विवाह होते थे। लोकगीतों या इतिहास में भी केवल मुख्य नेताओं की ही कीर्ति रहती है। युद्ध में लाखों लोगों के काम या कौशल का वर्णन सम्भव नहीं है, यदि टेलीकास्ट भी किया जाय। किन्तु सेनापति की रणनीति तथा व्यक्तिगत शौर्य निश्चित रूप से अधिक महत्त्वपूर्ण है।
पृथ्वीराज चौहान की प्रशस्ति में उनके मित्र तथा दरबारी चन्द बरदायी ने पृथ्वीराज रासो लिखा था। उसमें भी जयचन्द्र की निन्दा नहीं है। वरन् द्वितीय तराइन युद्ध में स्वयं पृथ्वीराज की ही निन्दा की है कि वे सोये रहते थे तथा डर से कोई अधिकारी उनको गोरी के आक्रमण के विषय में खबर नहीं दे रहा था। पृथ्वीराज लगातार महीनों तक नहीं सो सकते थे, उनके कहने का आशय यह था कि वह व्यसन में डूबने के कारण राज कार्य पर ध्यान नहीं दे रहे थे। इसके अतिरिक्त अहंकार या मनमानी के कारण अपने ३ प्रमुख सेनापतियों चामुण्ड राय, नरनाह कान्ह तथा धीर पुण्डीर को निष्कासित किया या बन्दी बना लिया था। इस अवसर पर भी मेवाड़ के राजा समर सिंह ही देश रक्षा के लिये सबसे सचेष्ट रहे। वे पृथ्वीराज चौहान के बहनोई भी थे। गोरी की सेना पृथ्वीराज चौहान की सेनाओं से २० बार पराजित हुई थी तथा तराइन के प्रथम युद्ध (११९१ ई) में वह स्वयं बन्दी हुआ था। अतः अन्तिम युद्ध की तैयारी के लिए उसने ३ लाख सेना एकत्र की तथा शत्रुओं को पकड़ने के लिये जाल द्वारा घेरने वाले दल (महातिर) तैयार किये। अपने जासूसों से राणा समर सिंह को खबर मिली तो उनको लगा कि इस बार बचना कठिन है। अतः उन्होंने अपना श्राद्ध कर पुत्र का राजतिलक किया तथा उपलब्ध १०,००० सेना के साथ दिल्ली के लिये चल पड़े। वहां पृथ्वीराज चौहान को जगाया तथा निष्कासित सेनापतियों को बुलाने के लिए कहा। उनको लज्जा आ रही थी तो राणा समर सिंह स्वयं गये। सभी सेनापतियों ने राजा का अन्याय भूल कर पूरे परिवार के साथ युद्ध में अपनी बलि दी थी। पृथ्वीराज चौहान मूलतः अजमेर के राजा थे तथा दिल्ली का राज्य अपने नाना अनंगपाल के उत्तराधिकारी के रूप में मिला था। अजमेर में उनकी मुख्य सेना का एक भी आदमी नहीं पहुंच पाया। स्वयं दिल्ली की भी पूरी सेना इकट्ठा नहीं कर पाये। उनको सपादलक्ष अर्थात् १२५,००० सेना वाला कहते थे। बहुत सेना पिछले ४-५ वर्षों के कई निरर्थक युद्धों में नष्ट हो गयी तथा वह १०,००० सेना भी एकत्र नहीं कर पाये। राणा समर सिंह की सेना मिलाने पर१८००० के करीब सेना थी। कोई भी बहादुरी उनको ३ लाख सेना से नहीं बचा सकती थी, जिसका अनुमान राणा समरसिंह पहले ही कर चुके थे। इस परिस्थिति में भी जयचन्द्र को दोष देना उचित नहीं है। वह सीमा प्रदेश के शासक नही थे, अतः पश्चिम सीमा से आक्रमण की जानकारी उनको नहीं हो सकती थी। ३ बार सिन्धु तट तक जा कर उन्होंने गोरी पर आक्रमण किया था जिसका उल्लेख पृथ्वीराज रासो में भी है। इसके लिए वे पृथ्वीराज के राज्य से हो कर ही जा सकते थे। पर इसमें पृथ्वीराज चौहान से कोई सहायता नहीं मिली। तराइन के द्वितीय युद्ध की खबर मिलने में समर सिंह को कम से कम १० दिन लगे होंगे। उसके बाद सेना तैयार करने, पुत्र का अभिषेक में २-३ दिन लगे। फिर सेना सहित दिल्ली जाने में भी कमसे कम १० दिन लगेंगे। उसके बाद स्वयं दिल्ली की सेना बुलाने में समय लगा। तब तक गोरी तराइन में डट चुका था। कहा जाता है कि वह सन्धि का प्रस्ताव देकर धोखा दे रहा था। पर यह समय भी नहीं मिलता तो पृथ्वीराज सेना एकत्र नहीं कर सकते थे। यदि राणा समर सिंह के पहुंचने पर जयचन्द्र को निमन्त्रण जाता, तो सन्देश भेजने में ३ दिन, सेना की तैयारी में ३ दिन तथा दिल्ली तक कूच करने में ७ दिन लगते। उससे बहुत पहले युद्ध का फैसला हो चुका था।
जयचन्द्र ने ३ बार सिन्धु तट तक जा कर गोरी पर आक्रमण किया था। पृथ्वीराज चौहान केवल अपनी रक्षा के लिए लड़ते रहे। यदि रक्षात्मक युद्ध लगातार ५० बार भी जीतें तो कभी न कभी हारना ही है। भारत की यही युद्ध नीति अभी तक चल रही है। इस नीति वाले पृथ्वीराज की निन्दा नहीं कर सकते, जयचन्द की कीर्ति निश्चित रूप से कहनी चाहिये।
आक्रमण करने के लिए संगठन यातायात की आवश्यकता होता है। पहले कम से कम १ लाख की संगठित सेना हो, उसके बाद उनके हथियार, अभ्यास, यात्रा व्यवस्था, प्रति ३५-४० किलोमीटर पर छावनी तथा भोजन व्यवस्था करनी होगी। इसके लिए किसी ने योजना नहीं बनायी। कुछ सीमा तक केवल मेवाड़ तथा कन्नौज ने तैयारी की थी।
पृथ्वीराज रासो के अनुसार पृथ्वीराज को बन्दी बना कर उनको गजनी ले जाकर अन्धा कर दिया तथा चन्द बरदायी के परामर्श से शब्दबेधी बाण से गोरी को मारा। उसके बाद चन्दबरदाई तथा पृथ्वीराज ने एक दूसरे को मार दिया। चन्द बरदाई ने फुसफुसा कर कहा था-चार बांस चौबीस गज अंगुल अष्ट प्रमाण। ता ऊपर सुलतान है, मत चूके चौहान। यह दूसरे किसी ने नहीं सुना था, दोनों मारे गये, फिर यह कहानी किसे मालूम हुई? यह पृथ्वीराज की दुःखद पराजय के बाद उनकी सम्मान रक्षा के लिए लिखी गई है। बाकी सभी लेखकों ने लिखा है कि पृथ्वीराज की अधिकांश सेना अजमेर में थी अतः गोरी ने उसे जीतना कठिन समझा और अपने अधीन पृथ्वीराज को अजमेर का राजा बनाया। पृथ्वीराज को बहुत अपमानजनक लगता था कि गोरी अजमेर के सिंहासन पर बैठता था तथा उससे दूरी पर अधीनस्थ राजा के रूप में पृथ्वीराज बैठते थे। अतः उन्होंने मन्त्री से कह कर अपना धनुष बाण मंगवाया जिससे वे सिंहासन पर बैठने के समय गोरी को मार सकें। मन्त्री ने धनुष बाण दे दिये किन्तु गोरी से चुगली भी कर दी। गोरी को विश्वास नहीं हुआ। उसने जांच के लिए अपनी मूर्ति सिंहासन पररख दी जिसे पृथ्वीराज ने बाण से तोड़ दिया। उस पर गोरी ने उनको गड्ढे में फेंक कर ऊपर से पत्थर फेंक कर मार डाला। २ महीने अधीनस्थ राजा रहने पर पृथ्वीराज चौहान का पुत्र गोविन्दराय ७ वर्ष तक गोरी तथा उसके बाद कुतुबुद्दीन ऐबक के अधीन अजमेर के राजा रहे। यह प्रायः सभी समकालीन लेखकों का वर्णन है।
इसके विपरीत जयचन्द्र ने इटावा के निकट चन्दावर में गोरी का मुकाबला किया तथा दुर्घटना के कारण जीता हुआ युद्ध हार गये। उसके बाद उनके पुत्र हरिश्चन्द्र ने ७ वर्षों तक कन्नौज-काशी में युद्ध जारी रखा तथा हारने पर मारवाड़ में स्वाधीन राठौर राज्य स्थापित किया। किसी भी घटना से यह संकेत नहीं मिलता कि जयचन्द्र ने कभी गोरी की सहायता की या उससे समझौता भी किया। बल्कि पृथ्वीराज चौहान तथा उनके पुत्र को समझौता करना पड़ा।
पृथ्वीराज रासो तथा अन्य ग्रन्थों के अनुसार मेवाड़ की सहायता के लिए पृथ्वीराज ने कई बार गुजरात के सोलंकी राजा भीमदेव (भोला भीम) को अर्बुद पर्वत के निकट पराजित किया था। भीमदेव ने अपने सेनापति मकवाना को पत्र सहित गोरी के पास भेजा था कि वह पृथ्वीराज चौहान पर आक्रमण करे तो भीमदेव सहायता करेंगे। इस पर गोरी को अपना अपमान लगा कि उसको भीमदेव की सहायता लेनी पड़े तथा उसने मकवाना को मार दिया। अतः सभी लेखकों के अनुसार केवल भीमदेव ने गोरी को आमन्त्रित किया था। पर वह गोरी की सहायता करना चाहता था इसलिए भोला बन गया और विरोध करने के कारण जयचन्द्र द्रोही हो गये।
मिर्जापुर के प्रख्यात इतिहासकार श्री जितेन्द्र सिंह संजय के संकलित साहित्य से कुछ उद्धरण दिए जाते हैं।
नयचन्द्र ने अपनी पुस्तक 'रम्भामंजरी' में लिखा है-
पितामहेन तज्जन्मदिने दशार्णदेशेसु प्राप्तं प्रबलम्
यवन सैन्य जितम् अतएव तन्नाम जैत्रचन्द्रः।[1]
अर्थात् इनके जन्म के दिन पितामह ने युद्ध में यवन-सेना पर विजय प्राप्त की अतः इनका नाम जैत्रचन्द्र पड़ा।
'पृथ्वीराज रासो' के अनुसार महाराज जयचन्द ने सिन्धु नदी पर मुसलमानों (सुल्तान, गौर) से ऐसा घोर संग्राम किया कि रक्त के प्रवाह से नदी का नील जल एकदम ऐसा लाल हुआ मानों अमावस्या की रात्रि में ऊषा का अरुणोदय हो गया हो। महाकवि विद्यापति ने 'पुरुष परीक्षा' में लिखा है कि यवनेश्वर सहाबुद्दीन गोरी को जयचन्द्र ने कई बार रण में परास्त किया। 'रम्भामञ्जरी' में भी कहा गया है कि महाराज जयचन्द्र ने यवनों का नाश किया। बल्लभदेव कृत 'सुभाषितावली' में वर्णित है कि शहाबुद्दीन मुहम्मद गोरी द्वारा उत्तर-पूर्व के राजाओं का पददलित होना सुनकर महाराज जयचन्द्र ने उसे प्रताड़ित करने हेतु अपने दूत के द्वारा निम्नलिखित पद लिखकर भेजा-
स्वच्छन्दं सैन्य संघेन चरन्त मुक्तो भयं।
शहाबुद्दीन भूमीन्द्रं प्राहिणोदिति लेखकम्।।
कथं न हि विशंकसेन्यज कुरग लोलक्रमं।
परिक्रमितु मीहसे विरमनैव शून्यं वनम्।।
स्थितोत्र गजयूथनाथ मथनोच्छलच्छ्रोणितम्।
पिपासुररि मर्दनः सच सुखेन पञ्चाननः।।
अर्थात् स्वतन्त्र और महती सेना के साथ निर्भय भारतवर्ष में शहाबुद्दीन द्वारा राजाओं का पददलित होना सुनकर महाराज जयचन्द्र ने यह पद्य अपने दूतों से भेजा; ऐ तुच्छ मृगशावक, तू अपनी चंचलता से इस महावन रूपी भारतवर्ष में उछल-कूद मचाये हुए है, तेरी समझ में यह वन शून्य है अथवा तुझ-सा पराक्रमी अन्य जन्तु इस महावन में नहीं है, यह केवल तुझे धोखा और भ्रम है। ठहर ठहर आगे मत बढ़, निःशंकता छोड़ देख यह आगे मृगराज गजराजों के रक्त का पिपासु बैठा है, यह महा-अरिमर्दक है, तेरे ऐसों को मारते इसे कुछ भी श्रम प्रतीत नहीं होता, वह इस समय यहाँ सुख से विश्राम ले रहा है।
महाराज जयचन्द्र के सम्बन्ध में 1186 ई. (1243 वि. सं.) में लिखे गये फ़ैज़ाबाद ताम्र-दानपत्र में वर्णित है-
अद्भुत विक्रमादय जयच्चन्द्राभिधानः पतिर्
भूपानामवतीर्ण एष भुवनोद्धाराय नारायणः।
धीमावमपास्य विग्रह रुचिं धिक्कृत्य शान्ताशया
सेवन्ते यमुदग्र बन्धन भयध्वंसार्थिनः पार्थिकाः।।
छेन्मूच्छीमतुच्छां न यदि केवल येत् कूर्म पृष्टामिधात
त्यावृत्तः श्रमार्तो नमदखिल फणश्वा वसात्या सहस्रम्।
उद्योगे यस्य धावद्धरणिधरधुनी निर्झरस्फारधार-
श्याद्दानन्द् विपाली वहल भरगलद्वैर्य मुद्रः फणीन्द्रः।।[2]
यहाँ अभिलेखकार ने पहले श्लोक में बताया है कि महाराज विजयचन्द्र (विजयपाल = देवपाल) के पुत्र महाराज जयचन्द्र हुए, जो अद्भुत वीर थे। राजाओं के स्वामी महाराज जयचन्द्र साक्षात् नारायण के अवतार थे, जिन्होंने पृथ्वी के सुख हेतु जन्म लिया था। अन्य राजागण उनकी स्तुति करते थे। दूसरे श्लोक में कहा गया है कि उनकी हाथियों की सेना के भार से शेषनाग दब जाते थे और मूर्छित होने की अवस्था को प्राप्त होते थे।
उत्तर भारत में महाराज जयचन्द्र का विशाल साम्राज्य था। उन्होंने अणहिलवाड़ा (गुजरात) के शासक सिद्धराज को हराया था। अपने राज्य की सीमा का उत्तर से लेकर दक्षिण में नर्मदा के तट तक तथा पूर्व में बंगाल के लक्ष्मणसेन के राज्य तक विस्तार किया था। मुस्लिम इतिहासकार इब्न असीर ने अपने इतिहास-ग्रन्थ 'कामिल उत्तवारीख़' में लिखता है कि महाराज जयचन्द्र के समय कन्नौज राज्य की लम्बाई उत्तर में चीन की सीमा से दक्षिण में मालवा प्रदेश तक और चौड़ाई समुद्र तट से दस मैजल लाहौर तक विस्तृत थी। साधारणतः 20 मील (10 कोस) की एक मैजल समझी जाती है। इस प्रकार लाहौर से 200 मील की दूरी तक महाराज जयचन्द्र का साम्राज्य फैला हुआ था। 'योजनशतमानां पृथ्वीम्-असाधयत्' अर्थात् महाराज जयचन्द्र ने 700 योजन पृथ्वी को अपने अधिकार में किया था। इस कथन से यह सिद्ध होता है कि महाराज जयचन्द्र के साम्राज्य का विस्तार 5600 वर्गमील था।
'सूरज प्रकाश' नामक ग्रन्थ के अनुसार सम्राट् जयचन्द्र की सेना में अस्सी हज़ार जिरह बख्तरवाले योद्धा, तीस हज़ार घुड़सवार, तीन लाख पैदल सैनिक, दो लाख तीरन्दाज एवं हज़ारों की संख्या में हाथी सवार योद्धा थे। इसलिए सम्राट् जयचन्द्र को दलपुंगल कहा जाता था। इतिहास में जयचन्द्र के उज्ज्वल चरित्र का वर्णन मिलता है।


(साभार: श्री अरुण उपाध्याय)