Monday, 18 November 2024

पश्चिमी (ईसाई) देशों के पहिनावे में महिलाओं को कम से कम वस्त्र क्यों पहिनाये जाते हैं, और पुरुषों को खूब अधिक?

पश्चिमी (ईसाई) देशों के पहिनावे में महिलाओं को कम से कम वस्त्र क्यों पहिनाये जाते हैं, और पुरुषों को खूब अधिक? .

मैंने कई पश्चिमी (ईसाई) देशों में खूब भ्रमण किया है, अतः उन की मानसिकता को खूब अच्छी तरह से समझता हूँ। कई पादरियों से और प्रोटेस्टेंट सिस्टरों से मेरी मित्रता भी थी, और उनसे खूब संवाद भी हुआ है।
पश्चिमी देशों की संस्कृति में महिलाओं का कभी भी सम्मान नहीं था, उन्हें सिर्फ उपभोग की वस्तु समझा जाता रहा है। अब भी महिलाओं का विशेष सम्मान नहीं है।
वहाँ की संस्कृति में महिलाओं को कम से कम और खूब उत्तेजक व आकर्षक कपड़े इसलिए पहिनाए जाते हैं ताकि पुरुषों को वे आकर्षक लगें, और पुरुषों की उत्तेजना बनी रहे।
कम से कम शब्दों में लिखे गई इतनी सी बात ही बहुत है। अधिक और लिखने की आवश्यकता नहीं है। १८ नवंबर २०२२

ठेके से सारे अंतिम संस्कार -- .

 ठेके से सारे अंतिम संस्कार --

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आजकल परिवार के सदस्यों में मनमुटाव, संबंधियों व मित्रों की कमी, बच्चों के विदेशों या दिसावरों में जाकर बसने, एकाँकी जीवन, आदि के समय में यदि कोई मर जाये तो अंतिम संस्कार करने के लिए आदमी नहीं मिलते। पहले पड़ोसी व गाँव के लोग आ जाते थे। आजकल कोई नहीं आना चाहता। ऐसे समय में अंतिम संस्कार ठेके पर करने के व्यवसाय आरंभ हो रहे हैं। कोई मर जाये तो उस ठेके वाली कंपनी की फीस जमा करा दो, कंपनी के आदमी आकर अंतिम संस्कार कर देंगे। पिंडदान और श्राद्ध भी On line आरंभ हो जाएँगे। मरने से पहले Advance booking भी कर सकेंगे अपने अंतिम संस्कार की ताकि स्वयं के मृत देह की दुर्गति न हो। अधिक समय नहीं लगेगा। अगले आठ-दस वर्षों में यह सामान्य बात हो जाएगी। आजकल लाश को कंधा देने वाले भी नहीं मिलते। उसके लिए तो शव वाहिनियों का प्रचलन लगभग सभी नगरों में हो चुका है।
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अपने जीवित रहते रहते ही अपना स्वयं का पिंडदान और श्राद्ध कर जाओ। आजकल की नई पीढ़ी से यह आशा मत रखो कि वे आपका पिंडदान या श्राद्ध करेंगे। १८ नवंबर २०२२

🌹🌹🌹🌹🌹 महादेव महादेव महादेव 🌹🌹🌹🌹🌹 ---

 

🌹🌹🌹🌹🌹 महादेव महादेव महादेव 🌹🌹🌹🌹🌹 ---
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🌹 हमारा ब्रह्मांड पाँच तत्वों से बना है -- जल, पृथ्वी, अग्नि, वायु और आकाश। सर्वव्यापी भगवान शिव को पंचानन अर्थात पाँच मुख वाले कहा जाता है। ये पांचों तत्व उनके मुख हैं। ऊर्ध्वमुख आकाश तत्व है। पूर्वमुख वायु तत्व है। दक्षिणी मुख अग्नितत्व है। उत्तरी मुख जल तत्व है। पश्चिमी मुख पृथ्वी तत्व है।
.🌹 शिव का अर्थ है -- कल्याणकारी। विराट अनंतता और विस्तार की अनुभूति - 'शिव' की अनुभूति है।
🌹 परमशिव का अर्थ है -- परम कल्याणकारी। अनंत विस्तार की विराटता से भी परे ध्यान में श्वेत ज्योति और नक्षत्र के दर्शन परमशिव की अनुभूति है।
🌹 शिव को शंकर भी कहते हैं जिसका अर्थ है -- शमनकारी और आनंददायक।
🌹 शंभु का अर्थ है -- मंगलदायक।
🌹 सदाशिव का अर्थ है -- जो सदा कल्याण करते हैं।
🌹 भूतनाथ का अर्थ है -- पंचभूतों (पंचतत्वों) के अधिपति।
🌹 महाकाल का अर्थ है -- काल (समय) के प्रवर्तक और नियंत्रक।
🌹 शिव-परिवार में पांच सदस्य है -- शिव, पार्वती, गणेश, कार्तिकेय और नंदीश्वर। नन्दीश्वर साक्षात धर्म हैं।
🌹 शिव जी का जप सामान्यतः पंचमुखी रुद्राक्ष की माला से ही करते हैं।
🌹 शिवजी की उपासना पंचाक्षरी मंत्र -- ॐ 'नम: शिवाय' द्वारा की जाती है।
🌹 ब्रहृमा-विष्णु-महेश तात्विक दृष्टि से एक ही हैं। इनमें कोई भेद नहीं है।
🌹 पंचमुखी महादेव -- योगियों को कूटस्थ में एक स्वर्णिम आभा के मध्य एक नीला प्रकाश दिखाई देता है जिसके मध्य में एक श्वेत ज्योति और श्वेत पंचकोणीय नक्षत्र दिखाई देता है। उसे योगी 'पंचमुखी महादेव' कहते हैं। उन्नत योगी उसी का ध्यान करते हैं।
🌹 शिव-तत्व को जीवन में उतार लेना ही शिवत्व को प्राप्त करना है और यही शिव होना है। यही हमारा लक्ष्य है।
🌹 जो लगातार तीन बार महादेव का नाम ले लेता है, उसका वहीं उसी समय कल्याण हो जाता है। महादेव महादेव महादेव !!
🌹 आत्मलिंग का अर्थ -- मेरे लिए परमशिव ही आत्मलिंग हैं, जिनकी उपासना मेरे माध्यम से होती है। वे ही मेरी आत्मा हैं। वे ही हैं जो यह मैं बन गये हैं।
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🌹 ॐ नमः शंभवाय च मयोभवाय च नमः शंकराय च मयस्कराय च नमः शिवाय च शिवतराय च॥ 🌹 ॐ तत्सत् !! ॐ नमःशिवाय !! महादेव महादेव महादेव !!
कृपा शंकर १८ नवंबर २०२२

मनुष्य जीवन की सबसे बड़ी उपलब्धि है -- "कर्ताभाव से मुक्त होकर परमात्मा को एकमात्र कर्ता बनाना" --

मनुष्य जीवन की सबसे बड़ी उपलब्धि है -- "कर्ताभाव से मुक्त होकर परमात्मा को एकमात्र कर्ता बनाना" ---

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हम भगवान के एक उपकरण मात्र हैं। निज जीवन में हम परमात्मा को पूर्ण रूप से व्यक्त करें, उन्हें ही एकमात्र कर्ता बनाएँ और स्वयं एक निमित्त मात्र बन जाएँ। वे ही रण भूमि में हमें निमित्त बनाकर शत्रुओं का संहार कर रहे हैं, वे ही धर्म की पुनःस्थापना कर रहे हैं, वे ही सारे सद्गुण हैं, और वे ही स्वयं को इस विश्वरूप में और हमें व्यक्त कर रहे हैं। वे ही हमारे पैरों से चल रहे हैं, वे ही इन हाथों से सारे कार्य कर रहे हैं, इन नेत्रों से वे ही देख रहे है, इन कानों से वे ही सुन रहे हैं, इन नासिकाओं से वे ही सांस ले रहे हैं, और इस हृदय में वे ही धडक रहे हैं।
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भगवान कहते हैं --
"तस्मात्त्वमुत्तिष्ठ यशो लभस्व जित्वा शत्रून् भुङ्क्ष्व राज्यं समृद्धम्।
मयैवैते निहताः पूर्वमेव निमित्तमात्रं भव सव्यसाचिन्॥११:३३॥" (श्रीमद्भगवद्गीता)
अर्थात् -- "इसलिए तुम उठ खड़े हो जाओ और यश को प्राप्त करो; शत्रुओं को जीतकर समृद्ध राज्य को भोगो। ये सब पहले से ही मेरे द्वारा मारे जा चुके हैं। हे सव्यसाचिन्! तुम केवल निमित्त ही बनो॥"
" Then gird up thy loins and conquer. Subdue thy foes and enjoy the kingdom in prosperity. I have already doomed them. Be thou my instrument, Arjuna!
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"योगसंन्यस्तकर्माणं ज्ञानसंछिन्नसंशयम्।
आत्मवन्तं न कर्माणि निबध्नन्ति धनञ्जय॥४:४१॥"
अर्थात् -- "जिसने योगद्वारा कर्मों का संन्यास किया है, ज्ञानद्वारा जिसके संशय नष्ट हो गये हैं, ऐसे आत्मवान् पुरुष को, हे धनंजय ! कर्म नहीं बांधते हैं॥
But the man who has renounced his action for meditation, who has cleft his doubt in twain by the sword of wisdom, who remains always enthroned in his Self, is not bound by his acts.
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"ज्ञेयः स नित्यसंन्यासी यो न द्वेष्टि न काङ्क्षति।
निर्द्वन्द्वो हि महाबाहो सुखं बन्धात्प्रमुच्यते॥५:३॥"
अर्थात् -- जो पुरुष न किसी से द्वेष करता है और न किसी की आकांक्षा, वह सदा संन्यासी ही समझने योग्य है; क्योंकि, हे महाबाहो ! द्वन्द्वों से रहित पुरुष सहज ही बन्धन मुक्त हो जाता है॥
He is a true ascetic who never desires or dislikes, who is uninfluenced by the opposites and is easily freed from bondage.
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"ब्रह्मण्याधाय कर्माणि सङ्गं त्यक्त्वा करोति यः।
लिप्यते न स पापेन पद्मपत्रमिवाम्भसा॥५:१०॥"
अर्थात् -- जो पुरुष सब कर्म ब्रह्म में अर्पण करके और आसक्ति को त्यागकर करता है, वह पुरुष कमल के पत्ते के सदृश पाप से लिप्त नहीं होता।।
He who dedicates his actions to the Spirit, without any personal attachment to them, he is no more tainted by sin than the water lily is wetted by water.
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"यस्य नाहंकृतो भावो बुद्धिर्यस्य न लिप्यते।
हत्वापि स इमाँल्लोकान्न हन्ति न निबध्यते​॥१८:१७॥"
अर्थात् -- जिस पुरुष में अहंकार का भाव नहीं है और बुद्धि किसी (गुण दोष) से लिप्त नहीं होती, वह पुरुष इन सब लोकों को मारकर भी वास्तव में न मरता है और न (पाप से) बँधता है॥
He who has no pride, and whose intellect is unalloyed by attachment, even though he kill these people, yet he does not kill them, and his act does not bind him.
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जो कर्म का कर्ता होता है वही फल का भोक्ता भी होता है। आत्मज्ञानी पुरुष का अहंकार अर्थात् जीवभाव ही समाप्त हो जाता है। तब उसकी बुद्धि किसी भी विषय में आसक्त नहीं हो सकती। वह पुरुष किसी को भी मार कर, न तो मारता है और न बँधता है। जब भगवान् श्रीकृष्ण यह कहते हैं कि ज्ञानी पुरुष हत्या करके भी वास्तव में हत्या नहीं करता है, तब इसका अर्थ यह नहीं समझना चाहिए कि सभी ज्ञानी पुरुष हत्या जैसे हीन कर्मों में प्रवृत्त होते हैं। इस वाक्य का अभिप्राय केवल इतना ही है कि कर्तृत्वाभिमान के अभाव में मनुष्य को किसी भी कर्म का बन्धन नहीं हो सकता।
ॐ तत्सत् ॥ ॐ ॐ ॐ ॥
१८ नवंबर २०२४

देवों और दानवों के मध्य देवासुर-संग्राम सृष्टि के अनादि काल से ही चल रहा है ----

 देवों और दानवों के मध्य देवासुर-संग्राम सृष्टि के अनादि काल से ही चल रहा है। जब तक यह सृष्टि है तब तक यह चलता रहेगा। अंततः विजय उसी पक्ष की होगी जिस पक्ष में स्वयं भगवान हैं।

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इस समय इस पृथ्वी पर लगभग ८५% लोग तमोगुणी हैं, लगभग १०% लोग रजोगुणी हैं, और बड़ी कठिनाई से ५% लोग सतोगुणी होंगे। जहां तक अनन्य अव्यभिचारिणी भक्ति की बात है -- इस पृथ्वी पर दो लाख में से बड़ी कठिनाई से एक व्यक्ति होगा जिसमें भगवान से परमप्रेम यानि भक्ति हो। बाकी लोग तो भक्ति के नाम पर भगवान से व्यापार ही करते हैं। भक्ति और समर्पण एक-दूसरे के पूरक हैं। इस पृथ्वी पर भक्ति और समर्पण के नाम पर इस समय तो भगवान के साथ व्यापार ही चल रहा है। आप भगवान के साथ व्यापार न कर के भक्ति और समर्पण करें।
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हमारी भक्ति अनन्य-अव्यभिचारिणी हो। प्रातः काल में सोकर हम नहीं उठते, भगवान स्वयं हमारे माध्यम से सोकर उठते हैं। सब शंकाओं से निवृत होकर ध्यान के आसन पर ध्यानमुद्रा में बैठ जाइए। सर्वप्रथम ओंकार रूप में भगवान श्रीगणेश का ध्यान उत्तरा-सुषुम्ना (आज्ञाचक्र और सहस्त्रारचक्र के मध्य) में कीजिये। भगवान श्रीगणेश बड़ी कृपा कर के मूलाधारचक्र से उठकर उत्तरा-सुषुम्ना में ओंकार रूप में बिराजमान हमारे लिये हो जाते हैं। पञ्चप्राण उनके गण है जिनके वे ओंकार रूप में ईश हैं, इसलिए वे गणेश हैं। पंचप्राणों के पाँच सौम्य और पाँच उग्र रूप -- दस-महाविद्याएँ हैं। ओंकार रूप में गणेश जी के ध्यान से सभी दसों महाविद्याओं का ध्यान हो जाता है।
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यदि आपका उपनयन-संस्कार (जनेऊ) हो चुका है तो आप गायत्री या सावित्री मंत्र के अधिकारी हैं, अन्यथा नहीं। गायत्री मंत्र में तीन व्याहृतियाँ और सावित्री मंत्र में सात होती हैं। यदि आप गुरु द्वारा अधिकृत हैं तो सावित्री मंत्र का मानसिक जप सुषुम्ना के चक्रों में भी कर सकते हैं।
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यदि आप ने श्रीविद्या (या किसी भी अन्य महाविद्या) में दीक्षा ले रखी है तो उसके मंत्रों का मानसिक जप यथासंभव अधिकाधिक शरणागत भाव से कीजिये।
अन्यथा भागवत मंत्र या राम नाम का मानसिक जप आज्ञाचक्र में शरणागत भाव से अधिकाधिक करें। ये निरापद हैं, इनका मानसिक जप सप्ताह में सातों दिन, और प्रत्येक दिन चौबीस घंटे भी आप कर सकते हैं। यदि आप गुरु द्वारा अधिकृत हैं तभी सुषुम्ना के षड़चक्रों में भागवत मंत्र का जप करें, अन्यथा नहीं।
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गुरुकृपा से अंततः धीरे धीरे आप अपनी अपनी चेतना को सहस्त्रार के मार्ग से इस शरीर से बाहर परमात्मा की अनंतता में भी ले जा सकेंगे, और उससे परे परमशिव में भी स्थित हो सकेंगे। यदि आप की चेतना इस भौतिक शरीर से बाहर है तो बीच बीच में यह भाव कीजिये कि "मैं यह शरीर-महाराज नहीं, परमात्मा की अनंतता से भी परे परमशिव हूँ।" जब तक आपके प्रारब्ध में जीवन है तब तक भौतिक मृत्यु नहीं हो सकती। आप अपने आप ही इस देह में लौट आयेंगे। यह भौतिक शरीर तो इस लोकयात्रा के लिये भगवान द्वारा दिया हुआ एक वाहन है। जब यह रुग्ण हो जाएगा तो दूसरा मिल जायेगा। हम यह शरीर नहीं, एक शाश्वत आत्मा हैं। आप हर समय भागवत चेतना में परमशिव भाव में रहिये।
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ऊपर जो कुछ भी मैंने लिखा है, उसको लिखने में यदि कोई दोष या पाप लगा है तो वह मुझे स्वीकार्य है। उसके लिये कोई भी दण्ड पाने, या नर्क-कुंड में जाने को भी मैं इसी समय तैयार हूँ। इस क्षण तो मैं पाप-पुण्य और धर्म-अधर्म की चेतना से परे शिवभाव यानि भागवत-चेतना में हूँ। कोई पाप या पुण्य मुझे छू भी नहीं सकता।
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इस शरीर में इस समय तो मैं किनारे पर बैठा हूँ, अतः किसी के लिये मुझे समय नहीं है। भगवती से उधार मांगे हुए समय में यह जीवन जी रहा हूँ। इसका मूल्य भी मुझे भगवती को चुकाना पड़ेगा। सारा अवशिष्ट जीवन भगवती को समर्पित है।
ॐ तत्सत्। ॐ तत्सत्। ॐ तत्सत्॥ ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१७ नवंबर २०२४

"सनातन धर्म" पर एक लघु चर्चा ---

 "सनातन धर्म" ---

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सनातन धर्म पर अपनी अति अल्प और सीमित बुद्धि से एक चर्चा करना चाहता हूँ। आशा है आप इसे अन्यथा नहीं लेंगे। जितना मुझे अल्प ज्ञान है उसे ही यहाँ व्यक्त कर रहा हूँ।
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सनातन धर्म को नष्ट करने का पूरा प्रयास अधर्मी असुरों ने किया है लेकिन सत्य-सनातन-धर्म की पुनःप्रतिष्ठा और वैश्वीकरण की प्रक्रिया आरंभ हो गयी है। यह कार्य भगवान ने स्वयं अपने हाथों में ले लिया है, और उनकी प्रकृति अब इसे सम्पन्न करेगी। जो धर्मद्रोही हैं वे अपने कर्मफलों से अपनी आप ही नष्ट हो जाएँगे। यह एक देवों और दानवों का देवासुर संग्राम है जो सृष्टि के आदिकाल से ही चलता आया है।
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सनातन धर्म के नियमों से ही यह सृष्टि संचालित है। धर्म और अधर्म को समझने के लिए सम्पूर्ण महाभारत से अधिक अच्छा कोई दूसरा ग्रंथ नहीं है। धर्म से विमुख करने के लिये हमें अधर्मी फिरंगी पादरियों ने यह सिखाया कि महाभारत को घर में रखने से घर में कलह होती है। यहाँ तक कि महाभारत के चित्रों को को भी घर पर रखने को बुरा बताया गया। जब कि हर घर में महाभारत अपने मूल रूप में होनी चाहिए। अंग्रेजों के वेतनभोगी पादरियों और मार्क्सवादी अधर्मियों द्वारा प्रक्षिप्त किए हुए अंशों को कैसे भी हटाना चाहिए, इस विषय पर कोई शोधकार्य हुआ भी है तो मुझे पता नहीं। महाभारत में धर्म और अधर्म को बहुत अच्छी तरह से समझाया गया है। रामायण और महाभारत जैसे ग्रन्थों के स्वाध्याय से धर्म और अधर्म की समझ बहुत गहरी और स्पष्ट हो जाती है।
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जिस दिन मनुष्य की बुद्धि यह समझ लेगी कि वह एक शाश्वत आत्मा है, यह नश्वर देह नहीं; उसी दिन से उसे सनातन धर्म (हिन्दू धर्म) क्या है, यह समझ में आने लगेगा। प्रत्यक्ष रूप से सनातन धर्म के चार मुख्य स्तम्भ हैं -- आत्मा की शाश्वतता, कर्मफलों का सिद्धान्त, पुनर्जन्म, और ईश्वर के अवतारों में आस्था।
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हमारे विचार, भाव और आचरण -- हमारे कर्म है, जिसका फल भुगतने के लिए बार बार हमारा जन्म होता है। कर्म करने की स्वतन्त्रता सबको है लेकिन फल भुगतने की नहीं। हम जो भी हैं, वह हमारे पूर्वजन्मों का फल है, और हम जो भी होंगे, वह इस जन्म के कर्मों का फल होगा। कर्मफलों से मुक्ति भी भक्ति और समर्पण द्वारा ही मिल सकती है, लेकिन उसके लिए तप करना पड़ता है।
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परमात्मा की प्राप्ति यानि आत्म-ज्ञान की प्राप्ति ही मनुष्य जीवन का उद्देश्य है। इसका मार्ग सनातन धर्म ही बताता है। हम एक शाश्वत आत्मा हैं। आत्मा का स्वधर्म क्या है? इसका पता लगाकर अपने स्वधर्म का पालन कीजिये, यही हमारा सब से बड़ा कर्तव्य और सनातन धर्म का पालन है।
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मनुस्मृति में धर्म के दस लक्षण दिये हैं। उनका धारण धर्म है, और उनका अभाव अधर्म है। वैशेषिक सूत्रों में दी हुई कणाद ऋषि की परिभाषा के अनुसार --- अभ्यूदय और निःश्रेयस की सिद्धि - धर्म है।
गीता के अनुसार समत्व में स्थिति ही वास्तविक ज्ञान है। समत्व में स्थित व्यक्ति ही ज्ञानी है।
प्रत्येक मनुष्य को कभी न कभी, किसी न किसी जन्म में परमात्मा के मार्ग पर आना ही पड़ेगा। परमात्मा से हमारा निकास हुआ है, और परमात्मा में ही हमको बापस जाना पड़ेगा। यह परमात्मा का मार्ग ही सत्य-सनातन-धर्म है।
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ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१५ नवंबर २०२४