देवों और दानवों के मध्य देवासुर-संग्राम सृष्टि के अनादि काल से ही चल रहा है। जब तक यह सृष्टि है तब तक यह चलता रहेगा। अंततः विजय उसी पक्ष की होगी जिस पक्ष में स्वयं भगवान हैं।
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इस समय इस पृथ्वी पर लगभग ८५% लोग तमोगुणी हैं, लगभग १०% लोग रजोगुणी हैं, और बड़ी कठिनाई से ५% लोग सतोगुणी होंगे। जहां तक अनन्य अव्यभिचारिणी भक्ति की बात है -- इस पृथ्वी पर दो लाख में से बड़ी कठिनाई से एक व्यक्ति होगा जिसमें भगवान से परमप्रेम यानि भक्ति हो। बाकी लोग तो भक्ति के नाम पर भगवान से व्यापार ही करते हैं। भक्ति और समर्पण एक-दूसरे के पूरक हैं। इस पृथ्वी पर भक्ति और समर्पण के नाम पर इस समय तो भगवान के साथ व्यापार ही चल रहा है। आप भगवान के साथ व्यापार न कर के भक्ति और समर्पण करें।
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हमारी भक्ति अनन्य-अव्यभिचारिणी हो। प्रातः काल में सोकर हम नहीं उठते, भगवान स्वयं हमारे माध्यम से सोकर उठते हैं। सब शंकाओं से निवृत होकर ध्यान के आसन पर ध्यानमुद्रा में बैठ जाइए। सर्वप्रथम ओंकार रूप में भगवान श्रीगणेश का ध्यान उत्तरा-सुषुम्ना (आज्ञाचक्र और सहस्त्रारचक्र के मध्य) में कीजिये। भगवान श्रीगणेश बड़ी कृपा कर के मूलाधारचक्र से उठकर उत्तरा-सुषुम्ना में ओंकार रूप में बिराजमान हमारे लिये हो जाते हैं। पञ्चप्राण उनके गण है जिनके वे ओंकार रूप में ईश हैं, इसलिए वे गणेश हैं। पंचप्राणों के पाँच सौम्य और पाँच उग्र रूप -- दस-महाविद्याएँ हैं। ओंकार रूप में गणेश जी के ध्यान से सभी दसों महाविद्याओं का ध्यान हो जाता है।
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यदि आपका उपनयन-संस्कार (जनेऊ) हो चुका है तो आप गायत्री या सावित्री मंत्र के अधिकारी हैं, अन्यथा नहीं। गायत्री मंत्र में तीन व्याहृतियाँ और सावित्री मंत्र में सात होती हैं। यदि आप गुरु द्वारा अधिकृत हैं तो सावित्री मंत्र का मानसिक जप सुषुम्ना के चक्रों में भी कर सकते हैं।
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यदि आप ने श्रीविद्या (या किसी भी अन्य महाविद्या) में दीक्षा ले रखी है तो उसके मंत्रों का मानसिक जप यथासंभव अधिकाधिक शरणागत भाव से कीजिये।
अन्यथा भागवत मंत्र या राम नाम का मानसिक जप आज्ञाचक्र में शरणागत भाव से अधिकाधिक करें। ये निरापद हैं, इनका मानसिक जप सप्ताह में सातों दिन, और प्रत्येक दिन चौबीस घंटे भी आप कर सकते हैं। यदि आप गुरु द्वारा अधिकृत हैं तभी सुषुम्ना के षड़चक्रों में भागवत मंत्र का जप करें, अन्यथा नहीं।
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गुरुकृपा से अंततः धीरे धीरे आप अपनी अपनी चेतना को सहस्त्रार के मार्ग से इस शरीर से बाहर परमात्मा की अनंतता में भी ले जा सकेंगे, और उससे परे परमशिव में भी स्थित हो सकेंगे। यदि आप की चेतना इस भौतिक शरीर से बाहर है तो बीच बीच में यह भाव कीजिये कि "मैं यह शरीर-महाराज नहीं, परमात्मा की अनंतता से भी परे परमशिव हूँ।" जब तक आपके प्रारब्ध में जीवन है तब तक भौतिक मृत्यु नहीं हो सकती। आप अपने आप ही इस देह में लौट आयेंगे। यह भौतिक शरीर तो इस लोकयात्रा के लिये भगवान द्वारा दिया हुआ एक वाहन है। जब यह रुग्ण हो जाएगा तो दूसरा मिल जायेगा। हम यह शरीर नहीं, एक शाश्वत आत्मा हैं। आप हर समय भागवत चेतना में परमशिव भाव में रहिये।
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ऊपर जो कुछ भी मैंने लिखा है, उसको लिखने में यदि कोई दोष या पाप लगा है तो वह मुझे स्वीकार्य है। उसके लिये कोई भी दण्ड पाने, या नर्क-कुंड में जाने को भी मैं इसी समय तैयार हूँ। इस क्षण तो मैं पाप-पुण्य और धर्म-अधर्म की चेतना से परे शिवभाव यानि भागवत-चेतना में हूँ। कोई पाप या पुण्य मुझे छू भी नहीं सकता।
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इस शरीर में इस समय तो मैं किनारे पर बैठा हूँ, अतः किसी के लिये मुझे समय नहीं है। भगवती से उधार मांगे हुए समय में यह जीवन जी रहा हूँ। इसका मूल्य भी मुझे भगवती को चुकाना पड़ेगा। सारा अवशिष्ट जीवन भगवती को समर्पित है।
ॐ तत्सत्। ॐ तत्सत्। ॐ तत्सत्॥ ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१७ नवंबर २०२४
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