मनुष्य जीवन की सबसे बड़ी उपलब्धि है -- "कर्ताभाव से मुक्त होकर परमात्मा को एकमात्र कर्ता बनाना" ---
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हम भगवान के एक उपकरण मात्र हैं। निज जीवन में हम परमात्मा को पूर्ण रूप से व्यक्त करें, उन्हें ही एकमात्र कर्ता बनाएँ और स्वयं एक निमित्त मात्र बन जाएँ। वे ही रण भूमि में हमें निमित्त बनाकर शत्रुओं का संहार कर रहे हैं, वे ही धर्म की पुनःस्थापना कर रहे हैं, वे ही सारे सद्गुण हैं, और वे ही स्वयं को इस विश्वरूप में और हमें व्यक्त कर रहे हैं। वे ही हमारे पैरों से चल रहे हैं, वे ही इन हाथों से सारे कार्य कर रहे हैं, इन नेत्रों से वे ही देख रहे है, इन कानों से वे ही सुन रहे हैं, इन नासिकाओं से वे ही सांस ले रहे हैं, और इस हृदय में वे ही धडक रहे हैं।
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भगवान कहते हैं --
"तस्मात्त्वमुत्तिष्ठ यशो लभस्व जित्वा शत्रून् भुङ्क्ष्व राज्यं समृद्धम्।
मयैवैते निहताः पूर्वमेव निमित्तमात्रं भव सव्यसाचिन्॥११:३३॥" (श्रीमद्भगवद्गीता)
अर्थात् -- "इसलिए तुम उठ खड़े हो जाओ और यश को प्राप्त करो; शत्रुओं को जीतकर समृद्ध राज्य को भोगो। ये सब पहले से ही मेरे द्वारा मारे जा चुके हैं। हे सव्यसाचिन्! तुम केवल निमित्त ही बनो॥"
" Then gird up thy loins and conquer. Subdue thy foes and enjoy the kingdom in prosperity. I have already doomed them. Be thou my instrument, Arjuna!
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"योगसंन्यस्तकर्माणं ज्ञानसंछिन्नसंशयम्।
आत्मवन्तं न कर्माणि निबध्नन्ति धनञ्जय॥४:४१॥"
अर्थात् -- "जिसने योगद्वारा कर्मों का संन्यास किया है, ज्ञानद्वारा जिसके संशय नष्ट हो गये हैं, ऐसे आत्मवान् पुरुष को, हे धनंजय ! कर्म नहीं बांधते हैं॥
But the man who has renounced his action for meditation, who has cleft his doubt in twain by the sword of wisdom, who remains always enthroned in his Self, is not bound by his acts.
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"ज्ञेयः स नित्यसंन्यासी यो न द्वेष्टि न काङ्क्षति।
निर्द्वन्द्वो हि महाबाहो सुखं बन्धात्प्रमुच्यते॥५:३॥"
अर्थात् -- जो पुरुष न किसी से द्वेष करता है और न किसी की आकांक्षा, वह सदा संन्यासी ही समझने योग्य है; क्योंकि, हे महाबाहो ! द्वन्द्वों से रहित पुरुष सहज ही बन्धन मुक्त हो जाता है॥
He is a true ascetic who never desires or dislikes, who is uninfluenced by the opposites and is easily freed from bondage.
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"ब्रह्मण्याधाय कर्माणि सङ्गं त्यक्त्वा करोति यः।
लिप्यते न स पापेन पद्मपत्रमिवाम्भसा॥५:१०॥"
अर्थात् -- जो पुरुष सब कर्म ब्रह्म में अर्पण करके और आसक्ति को त्यागकर करता है, वह पुरुष कमल के पत्ते के सदृश पाप से लिप्त नहीं होता।।
He who dedicates his actions to the Spirit, without any personal attachment to them, he is no more tainted by sin than the water lily is wetted by water.
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"यस्य नाहंकृतो भावो बुद्धिर्यस्य न लिप्यते।
हत्वापि स इमाँल्लोकान्न हन्ति न निबध्यते॥१८:१७॥"
अर्थात् -- जिस पुरुष में अहंकार का भाव नहीं है और बुद्धि किसी (गुण दोष) से लिप्त नहीं होती, वह पुरुष इन सब लोकों को मारकर भी वास्तव में न मरता है और न (पाप से) बँधता है॥
He who has no pride, and whose intellect is unalloyed by attachment, even though he kill these people, yet he does not kill them, and his act does not bind him.
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जो कर्म का कर्ता होता है वही फल का भोक्ता भी होता है। आत्मज्ञानी पुरुष का अहंकार अर्थात् जीवभाव ही समाप्त हो जाता है। तब उसकी बुद्धि किसी भी विषय में आसक्त नहीं हो सकती। वह पुरुष किसी को भी मार कर, न तो मारता है और न बँधता है। जब भगवान् श्रीकृष्ण यह कहते हैं कि ज्ञानी पुरुष हत्या करके भी वास्तव में हत्या नहीं करता है, तब इसका अर्थ यह नहीं समझना चाहिए कि सभी ज्ञानी पुरुष हत्या जैसे हीन कर्मों में प्रवृत्त होते हैं। इस वाक्य का अभिप्राय केवल इतना ही है कि कर्तृत्वाभिमान के अभाव में मनुष्य को किसी भी कर्म का बन्धन नहीं हो सकता।
ॐ तत्सत् ॥ ॐ ॐ ॐ ॥
१८ नवंबर २०२४
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