Sunday, 2 June 2019

गुरु चरणों में आश्रय और गुरु दक्षिणा क्या है ?

गुरु चरणों में आश्रय और गुरु दक्षिणा क्या है ?
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(ये मेरे निजानुभूतिजन्य व्यक्तिगत विचार हैं). मेरे लिए मेरे गुरु मेरे साथ एक हैं| उन में और मुझ में कोई अंतर नहीं हैं| इस देह में ..... मैं नहीं, वे ही साधना कर रहे हैं| मेरे सारे पाप-पुण्य, अच्छे-बुरे कर्म, और मेरा संपूर्ण अस्तित्व उन्हीं को समर्पित है| वे एक तत्व हैं जो सब प्रकार के नाम और रूपों से परे हैं| अंततः वे एक दिव्य अनुभूति हैं| ध्यान में उन की अनुभूति कूटस्थ में नाद और ज्योतिर्मय ब्रह्म के रूप में होती है| इस देह में सांस भी वे ही ले रहे हैं और सारी चेतना उन्हीं की है| मैं और मेरा कुछ भी नहीं है|
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गुरु चरणों में आश्रय :--- सहस्त्रार में उनका गहनतम ध्यान, और चेतना में उन की निरंतर अनुभूति ही गुरु चरणों में आश्रय है| मेरे लिए सहस्त्रार ही श्रीगुरु महाराज के चरण कमल हैं|
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गुरु दक्षिणा :--- अपने अंतःकरण (मन, बुद्धि, चित्त व अहंकार) का परमप्रेम सहित उनमें यथासंभव निरंतर समर्पण ही मेरे लिए गुरु-दक्षिणा है|
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इस देह रूपी नौका के कर्णधार वे ही हैं| प्रारब्ध कर्मों के फल भुगतने के लिए मैनें यह जन्म लिया| जब यह देह छूट जायेगी तब मेरी कोई पृथकता नहीं है, सब कुछ उन्हीं का है| वे परमात्मा के साथ एक हैं व परमात्मा की सर्वश्रेष्ठ अभिव्यक्ति हैं| मेरा समर्पण उन्हीं के प्रति है|
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"ब्रह्मानन्दं परमसुखदं केवलं ज्ञानमूर्तिं, द्वन्द्वातीतं गगनसदृशं तत्वमस्यादिलक्ष्यम्|
एकं नित्यं विमलमचलं सर्वधीसाक्षिभूतम्, भावातीतं त्रिगुणरहितं सदगुरुं तं नमामि||"
जो ब्रह्मानंदस्वरूप हैं, परम सुख देनेवाले हैं जो केवल ज्ञानस्वरूप हैं, (सुख, दुःख, शीत-उष्ण आदि) द्वन्द्वों से रहित हैं, आकाश के समान सूक्ष्म और सर्वव्यापक हैं, तत्वमसि आदि महावाक्यों के लक्ष्यार्थ हैं, एक हैं, नित्य हैं, मलरहित हैं, अचल हैं, सर्व बुद्धियों के साक्षी हैं, भावना से परे हैं, सत्व, रज और तम तीनों गुणों से रहित हैं ऐसे श्री सदगुरुदेव को मैं नमस्कार करता हूँ|
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"वायुर्यमोऽग्निर्वरुणः शशाङ्कः प्रजापतिस्त्वं प्रपितामहश्च|
नमो नमस्तेऽस्तु सहस्रकृत्वः पुनश्च भूयोऽपि नमो नमस्ते||"
"नमः पुरस्तादथ पृष्ठतस्ते नमोऽस्तु ते सर्वत एव सर्व|
अनन्तवीर्यामितविक्रमस्त्वं सर्वं समाप्नोषि ततोऽसि सर्वः||"
आप वायु, यम, अग्नि, वरुण, चन्द्रमा, प्रजापति (ब्रह्मा) और प्रपितामह (ब्रह्मा के भी कारण) हैं| आपके लिए सहस्र बार नमस्कार, नमस्कार है, पुनः आपको बारम्बार नमस्कार, नमस्कार है||
हे अनन्तसार्मथ्य वाले भगवन्, आपके लिए अग्रत और पृष्ठत नमस्कार है, हे सर्वात्मन् आपको सब ओर से नमस्कार है| आप अमित विक्रमशाली हैं और आप सबको व्याप्त किये हुए हैं, इससे आप सर्वरूप हैं||
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ॐ तत्सत् ! गुरु ॐ ! गुरु ॐ ! गुरु ॐ ! गुरु ॐ ! गुरु ॐ ! गुरु ॐ !
कृपा शंकर
२ जून २०१९

भगवान शिव की मानसपुत्री महारानी अहिल्याबाई होलकर ....

भगवान शिव की मानसपुत्री महारानी अहिल्याबाई होलकर (३१ मई १७२५ - १३ अगस्त १७९५) की आज २९४ वीं जयंती है| इनके गौरव और महानता के बारे में जितना लिखा जाए उतना ही कम है| व्यक्तिगत और सार्वजनिक जीवन में विकटतम कष्ट और प्रतिकूलताओं के पश्चात् भी इन्होने महानतम कार्य किये, जिनकी तुलना नहीं की जा सकती| इनका विवाह मल्हार राव होलकर के बेटे खाण्डेराव के साथ हुआ था जिनकी शीघ्र ही मृत्यु हो गयी| इनके एकमात्र पुत्र मालेराव भी जीवित नहीं रहे| इनकी एकमात्र कन्या बालविधवा हो गयी और पति की चिता में कूद कर स्वयं के प्राण त्याग दिए| अपने श्वसुर मल्हारराव होलकर की मृत्यु के समय ये मात्र ३१ वर्ष की थी और राज्य संभाला| अपने दुर्जन सम्बन्धियों व कुछ सामंतों के षडयंत्रों और तमाम शोक व कष्टों का दृढ़तापूर्वक सामना करते हुए इन्होने अपने राज्य का कुशल संचालन किया| अपना राज्य इन्होने भगवान शिव को अर्पित कर दिया और उनकी सेविका और पुत्री के रूप में राज्य का कुशल प्रबंध किया| राजधानी इंदौर उन्हीं की बसाई हुई नगरी है| जीवन के सब शोक व दु:खों को शिव जी के चरणों में अर्पित कर दिया और उनके एक उपकरण के रूप में निमित्त मात्र बन कर जन कल्याण के व्रत का पालन करती रही| उनके सुशासन से इंदौर राज्य ऐश्वर्य और समृद्धि से भरपूर हो गया|
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सोमनाथ मंदिर के भग्नावशेषों के बिलकुल निकट एक और सोमनाथ मंदिर बनवाकर प्राण प्रतिष्ठा करा कर पूजा अर्चना और सुरक्षा आदि की व्यवस्था की| वाराणसी का वर्तमान विश्वनाथ मन्दिर, गयाधाम का विष्णुपाद मंदिर आदि जो विध्वंश हो चुके थे, इन्हीं के प्रयासों से बने| हज़ारों दीन दुखियारे बीमार और साधू लोग इन्हें करुणामयी माता कह कर पुकारते थे| सैंकड़ों असहाय लोगों और साधू संतों को अन्न वस्त्र का दान इनकी नित्य की दिनचर्या थी| पूरे भारतवर्ष में अनगिनत मंदिर, सडकें, धर्मशालाएँ, अन्नक्षेत्र, सदावर्त, तालाब और नदियों के किनारे पक्के घाट इन्होने बनवाए| नर्मदा तट पर पता नहीं कितने तीर्थों को वे जागृत कर गईं| महेश्वर तीर्थ इन्हीं के प्रयासों से धर्म और विद्द्या का केंद्र बना| अमरकंटक में यात्री निवास और जबलपुर में स्फटिक पहाड़ के ऊपर श्वेत शिवलिंग स्थापित कराया| परिक्रमाकारियों के लिए व्यवस्थाएँ कीं| ओम्कारेश्वर में ब्राह्मण पुजारियों की नियुक्ति की| वहाँ प्रतिदिन पंद्रह हज़ार आठ सौ मिटटी के शिवलिंग बना कर पूजे जाते थे, फिर उनका विसर्जन कर दिया जाता था|
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यहाँ दो शब्द उनके श्वसुर मल्हार राव के बारे में भी लिखना उचित रहेगा|
छत्रपति शिवाजी के पोते साहू जी ने एक चित्तपावन ब्राह्मण बालाजी बाजीराव (प्रथम) को पेशवा नियुक्त किया| बालाजी बाजीराव वेश बदल कर बिना सुरक्षा व्यवस्था के तीर्थयात्रा के लिए निकल पड़े| मार्ग के एक गाँव में उनको मुगलों के जासूसों ने पहचान लिया और उनकी हत्या के लिए बीस मुग़ल सैनिक पीछे लगा दिए| मल्हार राव ने कुछ भैंसे पाल रखीं थीं और उस गाँव में दूध बेच कर गुजारा करते थे| वे मुग़ल जासूस भी उन्हीं से दूध खरीदते थे| उनकी आपसी बातचीत से मल्हार राव को सब बातें स्पष्ट हो गईं| उनकी देशभक्ति जागृत हो गयी और चुपके से उनहोंने पेशवा को ढूंढकर सारी स्थिति स्पष्ट कर दी| यही नहीं पेशवा को एक संकरी घाटी में से सुरक्षित निकाल कर भेज दिया और उनकी तलवार खुद लेकर उन बीस मुगलों को रोकने खड़े हो गए| उस तंग घाटी से एक समय में सिर्फ एक ही व्यक्ति निकल सकता था| ज्यों ही कोई मुग़ल सैनिक बाहर निकलता, मल्हार राव की तलवार उसे यमलोक पहुंचा देती| उन्होंने पाँच मुग़ल सैनिकों को यमलोक पहुंचा दिया| इसे देख बाकी पंद्रह मुग़ल सैनिक गाली देते हुए बापस लौट गए| उन्होंने मल्हार राव के घर को आग लगा दी, उसके बच्चों और पत्नी की हत्या कर दी व भैंसों को हाँक कर ले गए|
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मल्हार राव, पेशवा बाजीराव के दाहिने हाथ बन कर उनके साथ हर युद्ध में रहे| समय के साथ बाजीराव विश्व के सफलतम व महानतम सेनानायक बने| बाजीराव ने लगातार ४२ युद्ध लड़े और कभी पराजय का मुंह नहीं देखा| उनकी लू लगने से असमय मृत्यु नहीं होती तो भारत का इतिहास ही अलग होता और वे पूरे भारत के शासक होते| पेशवाओं ने वर्तमान इंदौर क्षेत्र का राज्य मल्हार राव होलकर को दे दिया था जहाँ की महारानी परम शिवभक्त उनकी पुत्रवधू अहिल्याबाई बनी|
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हमें गर्व है ऐसी शासिका पर| दुर्भाग्य से भारत में धर्म-निरपेक्षता के नाम पर ऐसे महान व्यक्तियों के इतिहास को नहीं पढाया जाता| भारत के अच्छे दिन भी लौटेंगे| इस लेख को लिखने के पीछे यही स्पष्ट करना था की यदि ह्रदय में भक्ति और श्रद्धा हो तो व्यक्ति कैसी भी मुसीबतों का सामना कर जीवन में सफल हो सकता है| इति| 
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ॐ स्वस्ति ! ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर बावलिया
३१ मई २०१९

कश्मीर की समस्या पर एक सामान्य भारतीय की सोच ......

 कश्मीर की समस्या पर एक सामान्य भारतीय की सोच ......
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कुछ दिनों पहिले मैनें दो लेख लिखे थे कि 'कश्मीर की समस्या राजनीतिक नहीं बल्कि मज़हबी है'| इसका समाधान हो सकता है पर चीन, अमेरिका और पश्चिमी देश कभी भी नहीं चाहेंगे कि कश्मीर की समस्या का कोई समाधान हो, क्योंकि इसके पीछे उनके व्यवसायिक और राजनीतिक हित हैं| कश्मीर की समस्या भी वास्तव में नेहरू को मोहरा बनाकर ब्रिटेन व अमेरिका ने ही उत्पन्न की थी|
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कश्मीर की समस्या ब्रिटेन ने अपने ही ख़ास आदमी हमारे प्रथम प्रधान मंत्री श्री नेहरु जी के माध्यम से उत्पन्न की जिनको उन्होंने सत्ता स्थानांतरित की थी| नेहरु जी की कमजोरी एक सुन्दर ब्रिटिश महिला लेडी एडविना माउंटबेटन के प्रति थी, और अन्य सुन्दर महिलाओं के प्रति भी, जिसका अनुचित लाभ ब्रिटेन ने भरपूर उठाया और सता हस्तांतरण के पश्चात भी भारत में लेडी माउंट बेटन के माध्यम से वही हुआ जो ब्रिटेन चाहता था| आजादी के बाद भी भारत पर अप्रत्यक्ष रूप से राज्य लेडी माउंटबेटन का ही था जो वास्तव में ब्रिटेन की गुप्तचर संस्थाओं द्वारा भारत में स्थापित एक ब्रिटिश गुप्तचर थी| नेहरु ने अपनी पत्नी को तो स्विट्ज़रलैंड के एक सेनिटोरियम में भर्ती करा रखा था जिसे उसने कभी नहीं संभाला, और एडविना के साथ उसके प्रेमी गुलाम की तरह रहता था| कटु सत्य तो यह है कि नेहरु और गाँधी दोनों ही लार्ड माउंटबेटन की मुट्ठी में थे और वह चाहे जैसे उनका इस्तेमाल करता था| लार्ड माउंटबेटन ... नेहरू और गाँधी की कोई कद्र नहीं करता था और उन्हें अपना गुलाम ही मानता था|
भारत को लेडी एडविना माउंटबेटन (Countess of Burma, CI, GBE, DCVO, GCStJ) से छुटकारा २१ फरवरी १९६० को मिला जब उसने ब्रिटिश नार्थ बोर्निओ के 'जेस्सोल्टन' (अब मलयेशिया के कोटा किनाबालू) नामक स्थान पर आत्महत्या कर ली जब उसे पता चला कि उस को सिफलिस की लाइलाज बीमारी हो गयी है| हालांकि ब्रिटेन ने यह बात छिपाई और प्रचारित किया कि वह वहाँ सेंट जॉन एम्बुलेंस ब्रिगेड के निरीक्षण के के लिए गयी थी जहाँ नींद में स्वाभाविक मृत्यु को प्राप्त हुई| भारत ने उसके सम्मान में नौसेना का एक फ्रिगेट भी इंग्लैंड भेजा था| चार साल बाद भारत में नेहरु की मृत्यु भी सिफलिस से हो गयी|
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अमेरिका का स्वार्थ यह था की वह पाक अधिकृत कश्मीर के गिलगित में अपना सैनिक अड्डा स्थापित करना चाहता था जहाँ से वह चीन और मध्य एशिया पर दृष्टि रख सके| वह सैनिक अड्डा उसने स्थापित कभी का कर भी लिया था|
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चीन का स्वार्थ एक तो यह था कि कश्मीरी लद्दाख के अक्साई चिन क्षेत्र पर उसका पूर्ण अधिकार हो ताकि सिंकियांग और तिब्बत के मध्य दूरी न रहे| और दूसरा यह कि पाक अधिकृत कश्मीर के माध्यम से पकिस्तान होते हुए वह अरब सागर तक पहुँच सके|
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जब १९४८ में भारतीय सेना जीतने लगी तब ब्रिटेन ने नेहरू जी पर दबाव डाल कर युद्धविराम करा कर मामला संयुक्त राष्ट्र संघ में भिजवाया और जनमत संग्रह का फैसला करवा दिया| जनमत संग्रह का निर्णय सशर्त था कि पहले पकिस्तान पूरा कश्मीर खाली करेगा, फिर जनमत संग्रह संयुक्त राष्ट्र संघ की निगरानी में होगा| अगर पाकिस्तान पाक अधिकृत कश्मीर खाली करता तो अमेरिका को गिलगिट से अपना सैनिक अड्डा भी हटाना पड़ता जो अमेरिकी हितों के विरुद्ध था| अतः अमेरिका ने सदा पकिस्तान का साथ दिया और भारत को डराने धमकाने के लिए पाकिस्तान का प्रयोग किया| पाकिस्तान ने भारत से जो युद्ध किये हैं वे सब अमेरिका की सहमती और सहायता से ही किये हैं| नेहरू जी को भारतीय सेना से अधिक अंग्रेजों यानि ब्रिटेन पर भरोसा था, अतः सदा उन्होंने वही किया जो ब्रिटेन चाहता था| अनुच्छेद ३७० को संविधान में जोड़ना भी उनकी एक भयानक गलती थी|
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कश्मीर में अल्पसंख्यक सुविधाएँ सिर्फ मुसलमानों को प्राप्त हैं, हिदुओं को नहीं जो वास्तव में अल्प-संख्यक हैं| कश्मीर को अब छः टुकड़ों में बाँट देना चाहिए ..... (१) जम्मू, (२) लद्दाख, (३) कश्मीर घाटी, (४) कश्मीर घाटी से बाहर का क्षेत्र, (५) पाक अधिकृत कश्मीर और (६) चीन अधिकृत कश्मीर| हिन्दुओं और बौद्धों को अल्प-संख्यक की सुविधाएँ दी जाएँ|
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जब तक पकिस्तान और चीन, पाक-अधिकृत कश्मीर को खाली नहीं करते तब तक कश्मीर में जनमत संग्रह नहीं हो सकता| चीन और पाक कभी भी अधिकृत क्षेत्र को खाली नहीं करेंगे| वैसे जनमत संग्रह हो भी जाए तो वह भारत के ही पक्ष में ही होगा क्योंकि पूरे कश्मीर में बहुमत शिया मुसलमानों का है जो पाकिस्तान विरोधी हैं| सिर्फ कश्मीर घाटी में ही सुन्नी बहुमत है|
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कश्मीर में अब भारत सरकार कानूनी रूप से यह तय करे कि कौन अल्प-संख्यक है और कौन बहु-संख्यक| धारा ३७० समाप्त कर सेवानिवृत सैनिको और अन्य सभी समर्थवान भारतीयों को वहाँ बसाया जाए| कश्मीरी हिन्दुओं को एक सुरक्षित क्षेत्र दिया जाये| कश्मीर को विशेष आर्थिक पैकेज न दिए जाएँ| अपना कमाओ और खाओ| तुष्टिकरण की नीति समाप्त हो| अंततः पकिस्तान को तो तोड़ना ही पड़ेगा जो एक दुष्ट राष्ट्र है|
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मैं कोई विशेषज्ञ नहीं हूँ, एक सामान्य नागरिक हूँ| जैसी मेरी बुद्धि थी और जैसा मुझे समझ में आया वैसा लेख मैनें लिख दिया| बड़े बड़े राजनेता और विशेषज्ञ हैं जो इस मामले को सुलाझायेगे| बाकी जैसी प्रभु की इच्छा|
अब इस विषय पर और कुछ लिखने के लिए मेरे पास नहीं है| आगे और नहीं लिखूंगा| इति| ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
३० मई २०१७

भगवान सर्वत्र व्याप्त हैं .....

भगवान सर्वत्र व्याप्त हैं .....
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भगवान सर्वत्र व्याप्त हैं, न तो कोई उनका प्रिय है और न कोई अप्रिय| परन्तु जो उन को प्रेम से भजते हैं, भगवान उनमें हैं, और वे भी भगवान में हैं|
गीता में भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं .....
"समोऽहं सर्वभूतेषु न मे द्वेष्योऽस्ति न प्रियः| ये भजन्ति तु मां भक्त्या मयि ते तेषु चाप्यहम्||९:२९||
अर्थात् मैं समस्त भूतों में सम हूँ न कोई मुझे अप्रिय है और न प्रिय परन्तु जो मुझे भक्तिपूर्वक भजते हैं, वे मुझमें और मैं भी उनमें हूँ||
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भगवान सभी प्राणियों के प्रति समान हैं| उनका न तो कोई द्वेष्य है और न कोई प्रिय है| वे अग्नि के समान है .... जैसे अग्नि अपने से दूर रहने वाले प्राणियों के शीत का निवारण नहीं करता, पास आने वालों का ही करता है, वैसे ही वे भक्तों पर अनुग्रह करते हैं|
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भगवान ने कहा है .....
"यो मां पश्यति सर्वत्र सर्वं च मयि पश्यति| तस्याहं न प्रणश्यामि स च मे न प्रणश्यति||६:३०||
अर्थात् जो पुरुष मुझे सर्वत्र देखता है और सबको मुझमें देखता है उसके लिए मैं नष्ट नहीं होता (अर्थात् उसके लिए मैं दूर नहीं होता) और वह मुझसे वियुक्त नहीं होता||
जो सर्वात्मभाव में है वह भगवान के साथ एक है| ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२९ मई २०१९

'सिद्धि' शब्द का अर्थ .....

'सिद्धि' शब्द का अर्थ .....

मैंने एक स्थान पर 'सिद्धि' शब्द का प्रयोग जिस अर्थ में किया, अनेक लोगों ने उस का प्रतिवाद किया| उन सब को बताना चाहता हूँ कि ..... 'सिद्धि' का शाब्दिक अर्थ है - 'पूर्णता', 'प्राप्ति', 'सफलता' आदि। यह शब्द महाभारत में मिलता है। पंचतंत्र में कोई असामान्य कौशल या क्षमता अर्जित करने को 'सिद्धि' कहा गया है। मनुस्मृति में इसका प्रयोग 'ऋण चुकता करने' के अर्थ में हुआ है। योगदर्शन में महर्षि पातंजलि ने आठ सिद्धियाँ बताई हैं .... अणिमा. महिमा, गरिमा, लघिमा, प्राप्ति, प्राकाम्य, ईशित्व और वशित्व| भगवत पुराण में भगवान श्रीकृष्ण ने दस सिद्धियाँ बताई हैं..... अनूर्मिमत्वम्, दूरश्रवण, दूरदर्शनम्, मनोजवः, कामरूपम्, परकायाप्रवेशनम्, स्वछन्द मृत्युः, देवानां सह क्रीडा अनुदर्शनम्, यथासंकल्पसंसिद्धिः और आज्ञा अप्रतिहता गतिः| !! इति !!

२९ मई २०१९ 

ऋतं वदिष्यामि सत्यं वदिष्यामि .....

ऋतं वदिष्यामि सत्यं वदिष्यामि .....
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झूठ और कपट जहाँ हैं वहाँ परमात्मा का अनुग्रह नहीं हो सकता, और सत्य में प्रतिष्ठित हुए बिना परमात्मा का बोध नहीं होता| सत्य में प्रतिष्ठित हुए बिना कोई साधना सिद्ध भी नहीं हो सकती| वेदाध्ययन कराते हुए आचार्य अपने शिष्यों को को ऋत (उचित एवं निष्ठापरक कथन) और सत्य बोलने का उपदेश और आदेश देता है| तैत्तिरीय उपनिषद् के शान्ति मन्त्र (जो कौषितकीब्राह्मणोपनिषद् तथा मुद्गलोपनिषद् में भी है) में यह परिलक्षित होता है......
"ॐ शं नो मित्रः शं वरुणः । शं नो भवत्वर्यमा । शं नो इन्द्रो बृहस्पतिः । शं नो विष्णुरुरुक्रमः । नमो ब्रह्मणे । नमस्ते वायो । त्वमेव प्रत्यक्षं बह्मासि । त्वमेव प्रत्यक्षं ब्रह्म वदिष्यामि । ऋतं वदिष्यामि । सत्यं वदिष्यामि । तन्मामवतु । तद्वक्तारमवतु । अवतु माम् । अवतु वक्तारम् ।"
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इसी उपनिषद् में जो उपदेश दिए हैं, उनमें "सत्यं वद" यानी सत्य बोलो यह सबसे पहिला उपदेश है ....
"वेदमनूच्याचार्योऽन्तेवासिनमनुशास्ति । सत्यं वद । धर्मं चर । स्वाध्यायान्मा प्रमदः । आचार्याय प्रियं धनमाहृत्य प्रजानन्तुं मा व्यवच्छेसीः । सत्यान्न प्रमदितव्यम् । धर्मान्न प्रमदितव्यम् । कुशलान्न प्रमदितव्यम् । भूत्यै न प्रमदितव्यम् । स्वाध्यायप्रवचनाभ्यां न प्रमदितव्यम् ।।"
"देवपितृकार्याभ्यां न प्रमदितव्यम् । मातृदेवो भव । पितृदेवो भव । आचार्यदेवो भव । अतिथिदेवो भव । यान्यनवद्यानि कर्माणि । तानि सेवितव्यानि । नो इतराणि । यान्यस्माकं सुचरितानि । तानि त्वयोपास्यानि ।।
ॐ शान्तिः । शान्तिः । शान्तिः ।"
(तैत्तिरीय उपनिषद्, शिक्षावल्ली, अनुवाक ११, मंत्र १ व मन्त्र २).
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यह विषय "सत्य" इतना विस्तृत है कि 'जैन विश्व भारती' विश्वविद्यालय, में तो इस विषय पर M.A. भी होती है और इस विषय पर अनेक विद्वानों ने PhD भी कर रखी है| इस विषय पर कभी समाप्त न होने वाले लम्बे लम्बे लेख भी लिखे जा सकते हैं| यह समझने का विषय है, अतः इसका समापन यहीं कर रहा हूँ|
ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२९ मई २०१९

हमें सिद्धि क्यों नहीं मिलती ? .....

हमें सिद्धि क्यों नहीं मिलती ? ..... 
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हम साधना करते हैं, मंत्रजाप करते हैं, पर हमें सिद्धि नहीं मिलती, इसका मुख्य कारण है.... "असत्यवादन"| झूठ बोलने से वाणी दग्ध हो जाती है और किसी भी स्तर पर दग्धवाणी से किये गए मन्त्रजाप का फल नहीं मिलता| इस कारण कोई साधना सफल नहीं हो पाती| यदि वाणी दूषित, कलुषित, दग्ध स्थिति में हो तो उसके द्वारा उच्चारित मन्त्र भी जल जायेंगे| तब जप, स्तवन, पाठ आदि करते रहने पर भी अभीष्ट सत्परिणाम उपलब्ध न हो सकेगा| परिष्कृत जिह्वा में ही वह शक्ति है जो हमारे जप को सिद्ध कर सकती है|
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सत्य बोलो पर अप्रिय सत्य से मौन अच्छा है| प्राणरक्षा और धर्मरक्षा के लिए बोला गया असत्य भी सत्य है, और जिस से किसी की प्राणहानि और धर्म की ग्लानि हो वह सत्य भी असत्य है| जिस की हम निंदा करते हैं उसके भी अवगुण हमारे में आ जाते हैं|
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जो लोग झूठे होते हैं, चोरी करते हैं, और दुराचारी होते हैं, वे चाहे जितना मंत्रजाप करें, और चाहे जितनी साधना या पूजा-पाठ करें, उन्हें कभी कोई सिद्धि नहीं मिल सकती| सत्य ही परमात्मा है| सत्य से दूर जाकर परमात्मा का बोध नहीं हो सकता| ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२९ मई २०१९

सदा सफल हनुमान .....

सदा सफल हनुमान .....
आज मंगलवार है, हनुमान जी का दिन है| हनुमान जी ही एकमात्र ऐसे देवता हैं जिन्हें कभी भी असफलता नहीं मिली| असम्भव से असम्भव कार्य भी उन्होंने जो अपने हाथ में लिये वे सदा सफल ही हुए रामचरितमानस में उनकी वन्दना निम्न शब्दों में की गयी है....
"अतुलितबलधामं हेमशैलाभदेहं दनुजवनकृशानुं ज्ञानिनामग्रगण्यम्|
सकलगुणनिधानं वानराणामधीशं रघुपतिप्रियभक्तं वातजातं नमामि||"
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वाल्मीकि रामायण में एक प्रसंग आता है कि युद्ध में जब रावण को अपनी पराजय होती दिखाई दी तो उसने ऐसे राक्षसों को युद्ध करने भेजा जो अमर थे| उन्हें कोई नहीं मार सकता था| विभीषण से जब ऐसे राक्षसों के आगमन का पता चला तो सुग्रीव आदि सेनापति हताश हो गए कि इन अमर राक्षसों का वध कैसे करेंगे? हनुमान जी ने भगवान श्रीराम से आज्ञा ली और उन राक्षसों से युद्ध करने निकल पड़े| उन राक्षसों ने कहा कि हे हनुमान, हम अमर हैं, हमें कोई मार नहीं सकता| तुम्हारा कल्याण इसी में है कि तुम सब लोग अपने स्वामी के साथ बापस चले जाओ| हनुमान जी ने कहा कि मैं बापस तो जाऊँगा पर अपनी स्वयं की इच्छा से, तुम्हारी इच्छा से नहीं| अब तुम सब मिलकर मेरे पर आक्रमण करो| जब उन सब राक्षसों ने मिल कर हनुमान जी पर आक्रमण किया तो हनुमान जी ने अपनी पूंछ का विस्तार किया और सबको अपनी पूंछ में लपेट कर अन्तरिक्ष में ऐसे दैवीय बल से उछाला कि सब आकाश की अनंतता में पृथ्वी की गुरुत्वाकर्षण सीमा से बाहर चले गए| वे चले जा रहे थे, चले जा रहे थे, उनकी त्वचा सूख गयी, उनकी देह जल गयी पर वे मर नहीं सकते थे, और बापस पृथ्वी पर लौट भी नहीं सकते थे|
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"मनोजवं मारुततुल्यवेगम जितेन्द्रियं बुद्धिमतां वरिष्ठं|
वातात्मजं वानरयूथमुख्यं श्रीरामदूतं शरणम् प्रपद्ये||"
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चरण शरण में आय के, धरूं तिहारा ध्यान
संकट से रक्षा करो
संकट से रक्षा करो, पवनपुत्र हनुमान
दुर्गम काज बनाय के, कीन्हें भक्त निहाल
अब मोरी विनती सुनो
अब मोरी विनती सुनो, हे अंजनि के लाल
हाथ जोड़ विनती करूं, सुनो वीर हनुमान
कष्टों से रक्षा करो
कष्टों से रक्षा करो, राम भक्ति देहुँ दान

यक्ष प्रश्न :--

यक्ष प्रश्न :--

महाभारत में आता है कि सरोवर में जल लेने गये महाराज युधिष्ठिर को उस सरोवर में रहनेवाले यक्ष ने चार प्रश्न किये, और कहा कि उन चार प्रश्नों के उत्तर देने पर ही वह सरोवर का जल ले सकते हैं, अन्यथा नहीं| यक्ष के प्रश्नों के उत्तर न देने पर अन्य चारों पांडव मूर्छित हो चुके थे|
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यक्ष ने पूछा .... का वार्ता, किमाश्चर्यं, कः पन्था, कश्च मोदते ? इति मे चतुरः प्रश्नान् पूरयित्वा जलं पिब|
अर्थात् ...
(1) कौतुक करने जैसी क्या बात है ?
(2) आश्चर्य क्या है ?
(3) कौन सा मार्ग है ?
(4) कौन आनंदित रहता है ?
मेरे इन चार प्रश्नों के उत्तर देने के पश्चात् ही पानी पी सकते हो|
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महाराज युधिष्ठिर ने उत्तर दिया .....
(1) मासर्तुवर्षा परिवर्तनेन सूर्याग्निना रात्रि दिवेन्धनेन |
अस्मिन् महामोहमये कराले भूतानि कालः पचतीति वार्ता ||
अर्थात् ....
इस कराल मोह में, महिने, वर्ष इत्यादि के परिवर्तन से, सूर्यरुप अग्नि के इंधन से काल रात-दिन प्राणियों को पकाता है; यह कौतुक करने की बात है |
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(2) अहन्यहनि भूतानि गच्छन्ति यममन्दिरम् |
शेषा जीवितुमिच्छन्ति किमाश्चर्यमतः परम् ||
अर्थात् ....
प्रतिदिन कितने हि प्राणी यम मंदिर जाते हैं (मर जाते हैं), यह देखने के पश्चात भी शेष मनुष्य सदा जीवित रहना चाहते हैं| यह सबसे बड़ा आश्चर्य है|
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(3) "तर्को प्रतिष्ठः श्रुतया विभिन्ना नैको मुनिर्यस्य मतं प्रमाणम्
धर्मस्य तत्त्वं निहितं गुहायाम् महाजनो येन गतः स पन्थाः |"
अर्थात् ....
तर्कों से कुछ भी प्रतिष्ठित किया जा सकता है, श्रुति के अलग अलग अर्थ कहे जा सकते हैं, कोई एक ऐसा मुनि नहीं केवल जिनका वचन प्रमाण माना जा सके; धर्म का तत्त्व तो मानो निविड़ गुफाओं में छिपा है (गूढ है), इस लिए महापुरुष जिस मार्ग से गये हों, वही मार्ग जाने योग्य है |
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(4) दिवसस्याष्टमे भागे शाकं पचति गेहिनी |
अनृणी चाप्रवासी च स वारिचर मोदते ||
अर्थात् .......
हे जलचर ! दिन के आठवें भाग में (सुबह-शाम रसोई के वक्त) जिसकी गृहिणी खाना पकाती हो, जिसके सर पे कोई ऋण न हो, जिसे (अति) प्रवास न करना पड़ता हो, वह मनुष्य (घर) सदा आनंदित होता है ।
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ॐ नमः शिवाय | ॐ नमः शिवाय | ॐ नमः शिवाय | ॐ ॐ ॐ ||
कृपा शंकर
२८ मई २०१६

वीर सावरकर को नमन ....

अति महान युग पुरुष, परम देश भक्त, वीर सावरकर (जन्म: २८ मई १८८३ - मृत्यु: २६ फ़रवरी १९६६) को उन की १३६वीं जयंती पर कोटिशः नमन! भारत की स्वतंत्रता में उनका योगदान सर्वोच्च था| भारत माँ को स्वतंत्र कराने व धर्म और संस्कृति की रक्षा के लिए --- जीवनमुक्त अनेक प्राचीन महात्माओं ने भारत भूमि पर करुणावश स्वेच्छा से जन्म लिया| ऐसी ही एक महान आत्मा थीं --- श्री विनायक दामोदर सावरकर | भारत माँ के अधिकाँश कष्ट उन्होंने अपनी स्वयं की देह पर लिए| वे कोई सामान्य मनुष्य नहीं थे जो अपने प्रारब्ध के कारण जन्म लेते| वे तो एक जीवनमुक्त स्वतंत्र महान आत्मा थे जिन्होंने भारत माँ को पराधीनता की बेड़ियों से मुक्त कराने के लिए अपने ही स्तर की कुछ महान आत्माओं के साथ भारत भूमि पर स्वेच्छा से जन्म लिया| इतने अमानवीय कष्ट व यंत्रणाएं सहन कर, और अनेक महान कार्य करके वे स्वेच्छा से इस संसार से चले भी गए|
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"१८५७ का स्वतंत्रता संग्राम" नामक ग्रन्थ उनका महानतम ऐतिहासिक साहित्य था जिससे सभी क्रांतिकारियों और देशभक्त सैनिकों ने प्रेरणा ली| यह ग्रन्थ भारत की स्वतंत्रता का हेतु बना|
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अंडमान के बंदी जीवन से मुक्त होकर उन्होंने पूरे भारत में घूम कर हज़ारों हिंदु युवकों को सेना में भर्ती कराया| उनके इस प्रयास से भारत की ब्रिटिश सेना में हिन्दू सैनिकों की संख्या अधिक हुई| उनका कहना था की हमारे पास न तो अस्त्र-शस्त्र है, न उनको चलाना जानने वाले युवा हैं| वे चाहते थे कि हिन्दू युवा सेना में भर्ती हों, अस्त्र-शस्त्र प्राप्त करें, उन्हें चलाना सीखें और उनका मुँह अंग्रेजों की ओर मोड़ दें| नेताजी सुभाष बोस ने वीर सावरकर की प्रेरणा से ही आज़ाद हिन्द फौज की स्थापना की थी|
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द्वितीय विश्व युद्ध के पश्चात् भारतीय सिपाहियों ने अँगरेज़ अधिकारियों का आदेश मानने से मना कर दिया| नौ सेना का विद्रोह हुआ और अन्ग्रेज़ इतने डर गए कि भारत छोड़कर जाने को विवश हो गए| यह सब वीर सावरकर जैसी महान आत्माओं के संकल्प से हुआ| भारत माँ सदा ऐसे वीर पुत्र उत्पन्न करती रहेगी|
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वीर सावरकर को श्रद्धांजलि और भारत माता की जय ! वन्दे मातरम् !!
कृपा शंकर
२८ मई २०१९

भगवान में ही स्थित हो जाएँ .....

भगवान में ही स्थित हो जायें .....
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मुमुक्षुत्व और फलार्थित्व .... दोनों साथ साथ नहीं हो सकते| गीता में भगवान कहते हैं ....
"ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम्| मम वर्त्मानुवर्तन्ते मनुष्याः पार्थ सर्वशः||४:११||"
अर्थात् जो मुझे जैसे भजते हैं मैं उन पर वैसे ही अनुग्रह करता हूँ| हे पार्थ सभी मनुष्य सब प्रकार से मेरे ही मार्ग का अनुवर्तन करते हैं||
जब मुमुक्षुत्व जागृत होता है तब शनैः शनैः अन्य सब कामनाएँ नष्ट होने लगती हैं, किसी भी तरह के कर्मफल की कामना नहीं रहती क्योंकि कर्ताभाव समाप्त हो जाता है| जहाँ राग-द्वेष और अहंकार है वहाँ आत्मभाव नहीं हो सकता| भगवान कहते हैं कि जो भक्त जिस प्रयोजन से यानी जिस भी कर्मफल की प्राप्ति के लिए मुझे भजते हैं, मैं भी उन्हें उसी प्रकार भजता हूँ, यानी उनकी कामनानुसार उन्हें फल देकर उन पर अनुग्रह करता हूँ| जो भगवान के लिए व्याकुल हैं, भगवान भी उन के लिए व्याकुल हैं|
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भगवान कहते हैं .....
"शनैः शनैरुपरमेद् बुद्ध्या धृतिगृहीतया| आत्मसंस्थं मनः कृत्वा न किञ्चिदपि चिन्तयेत्||६:२५||"
अर्थात् शनै शनै धैर्ययुक्त बुद्धि के द्वारा उपरामता (शांति) को प्राप्त होवे| मन को आत्मा में स्थित करके फिर अन्य कुछ भी चिन्तन न करे||
शनैः शनैः धैर्ययुक्त बुद्धि द्वारा मन को आत्मा में स्थित करके अर्थात् यह सब कुछ आत्मा ही है उससे अतिरिक्त अन्य कुछ भी नहीं है, इस प्रकार मन को आत्मामें अचल करके अन्य किसी भी वस्तु का चिन्तन न करे| यह एक बहुत बड़ी साधना है जो भगवान के अनुग्रह से ही संभव है|
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भगवान् ने कहा है ....
"सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज| अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः||१८:६६||"
अर्थात् सब धर्मों का परित्याग करके तुम एक मेरी ही शरण में आओ| मैं तुम्हें समस्त पापों से मुक्त कर दूँगा, तुम शोक मत करो||
भगवद्गीता के इस श्लोक की व्याख्या में सभी अनुवादकों, भाष्यकारों, समीक्षकों और टीकाकारों ने अपनी सम्पूर्ण क्षमता लगा दी है| इस महान् श्लोक के माध्यम से प्रत्येक दार्शनिक ने अपने दृष्टिकोण को स्पष्ट करने का प्रयत्न किया है| सार की बात यही है कि .... मुझ परमेश्वर से अन्य कुछ है ही नहीं ऐसा निश्चय कर| तुझ इस प्रकार निश्चय वाले को मैं अपना स्वरूप प्रत्यक्ष कराके, समस्त धर्माधर्मबन्धनरूप पापोंसे मुक्त कर दूँगा| इसलिये तू शोक न कर अर्थात् चिन्ता मत कर|
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हम सब तरह की चिंताओं को त्याग कर भगवान में ही स्थित हो जाएँ| यही गुरु महाराज की शिक्षाओं का सार है| हे गुरु महाराज, आप ही इस नौका के कर्णधार हैं, सब कुछ आप को समर्पित है|
ॐ तत्सत् ! ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२७ मई २०१९

मेरे में इतनी क्षमता कहाँ कि मैं कोई साधना कर सकूँ? .....

मेरे में इतनी क्षमता कहाँ कि मैं कोई साधना कर सकूँ? .....
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इस अनंतता में जहाँ तक मेरी कल्पना जाती है, वह सब मैं ही हूँ| सामवेद का महावाक्य "तत्वमसि" यहीं पर सार्थक होता है| गुरु महाराज के आशीर्वाद और उनकी परम कृपा से ही यह सत्य जानने को मिला है| साथ साथ अपने वर्तमान चैतन्य की अल्पज्ञता और सीमितता का भी बोध हुआ है| मेरे में इतनी क्षमता कहाँ कि मैं कोई साधना कर सकूँ? पर गुरु महाराज ने करूणावश कृपा कर के यह दायित्व भी स्वयं अपने ऊपर ले लिया है| गुरु महाराज कहते हैं कि तुम तो निमित्त मात्र हो, कर्ता नहीं| कर्ता तो स्वयं परमात्मा है| उन्होंने यह कार्य मुझे दिया है, मैं तुम्हारे माध्यम से साधना करूँगा, तुम मुझे अवसर दो| फिर स्वयं परमात्मा ही तुम्हारे माध्यम से जो कुछ भी करना है वह करेंगे|
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माया का एक आवरण अभी भी शेष है, पर जैसे जैसे समर्पण में पूर्णता आयेगी वह आवरण भी दूर हो जाएगा| श्रुति भगवती द्वारा छान्दोग्य उपनिषद् में यह बहुत अच्छी तरह समझाया गया है|
गीता में निमित्तमात्र बनने के लिए अर्जुन को भगवान श्रीकृष्ण कहते है ....
"तस्मात्त्वमुत्तिष्ठ यशो लभस्व जित्वा शत्रून् भुङ्क्ष्व राज्यं समृद्धम्|
मयैवैते निहताः पूर्वमेव निमित्तमात्रं भव सव्यसाचिन्||११:३३||"
इसका सार यही है कि हे सव्यसाचिन् तू केवल निमित्तमात्र बन जा| (दोनों हाथों से एक समान बाण चलाने का अभ्यास होने के कारण अर्जुन सव्यसाची कहलाता है).
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परमात्मा एक प्रवाह है| हम उन्हें अपने माध्यम से प्रवाहित होने दें| इस से अधिक कुछ भी करना हमारे लिए असंभव है| हम इस संसार में जिस खजाने को ढूँढ रहे हैं, वह खज़ाना तो हम स्वयं ही हैं| हम जिस आनंद को खोज रहे हैं, वह आनंद भी हम स्वयं ही हैं| स्वयं से अन्य कुछ है भी नहीं| इसी अनन्य भक्ति को भगवान श्रीकृष्ण ने अनन्य अव्यभिचारिणी भक्ति कहा है| अनंतता की गहनतम स्थायी अनुभूति हमें समत्व प्रदान कर सकती है जहाँ हम परमात्मा का बोध करने में समर्थ हो सकते हैं|
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ॐ तत्सत् ! ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२६ मई २०१९

भगवान भी हमारे बिना नहीं रह सकते .....

भगवान भी हमारे बिना नहीं रह सकते .....
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यदि भगवान के बिना हम नहीं रह सकते तो भगवान भी हमारे बिना नहीं रह सकते| वे सदा हमारे सन्मुख हैं ...... "सन्मुख मरुत अनुग्रह मेरो"| हमारे ह्रदय में कौन धड़क रहे हैं? इन नासिकाओं से कौन सांस ले रहे हैं? इन आँखों से कौन देख रहे हैं? वे ही तो हैं| रामचरितमानस में भगवान श्रीराम कहते हैं .....
"नर तनु भव बारिधि कहुँ बेरो| सन्मुख मरुत अनुग्रह मेरो||
करनधार सदगुर दृढ़ नावा| दुर्लभ साज सुलभ करि पावा||"
"जो न तरै भव सागर नर समाज अस पाइ| सो कृत निंदक मंदमति आत्माहन गति जाइ||"
अर्थात् यह मनुष्य का शरीर भवसागर से तारने के लिए बेड़ा (जहाज) है| मेरी कृपा ही अनुकूल वायु है| सद्गुरु इस मजबूत जहाज के कर्णधार (खेने वाले) हैं| इस प्रकार दुर्लभ (कठिनता से मिलने वाले) साधन सुलभ होकर (भगवत्कृपा से सहज ही) उसे प्राप्त हो गए हैं|| जो मनुष्य ऐसे साधन पाकर भी भवसागर से न तरे, वह कृतघ्न और मंद बुद्धि है और आत्महत्या करने वाले की गति को प्राप्त होता है||
गीता में भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं ....
"सर्वस्य चाहं हृदि सन्निविष्टो मत्तः स्मृतिर्ज्ञानमपोहनं च| वेदैश्च सर्वैरहमेव वेद्यो
वेदान्तकृद्वेदविदेव चाहम्||१५:१५||"
अर्थात् मैं ही समस्त प्राणियों के हृदय में स्थित हूँ| मुझसे ही स्मृति, ज्ञान और अपोहन (उनका अभाव) होता है| समस्त वेदों के द्वारा मैं ही वेद्य (जानने योग्य) वस्तु हूँ तथा वेदान्त का और वेदों का ज्ञाता भी मैं ही हूँ||"
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एक गहन अभीप्सा हो, प्रचंड इच्छा शक्ति हो, और ह्रदय में परम प्रेम हो, तो भगवान को पाने से कोई भी विक्षेप या आवरण की मायावी शक्ति नहीं रोक सकती| जो सबके हृदय में हैं, उनकी प्राप्ति दुर्लभ नहीं हो सकती पर अन्य कोई इच्छा नहीं रहनी चाहिए|
ॐ तत्सत् ! ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२६ मई २०१९

मेरा 'स्वधर्म' क्या है ?

मेरा 'स्वधर्म' क्या है ?
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गीता में भगवान कहते हैं .... 
"श्रेयान्स्वधर्मो विगुणः परधर्मात्स्वनुष्ठितात्| स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मो भयावहः||३:३५||
"नेहाभिक्रमनाशोऽस्ति प्रत्यवायो न विद्यते| स्वल्पमप्यस्य धर्मस्य त्रायते महतो भयात्||२:४०||
"यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत| अभ्युत्थानमधर्मस्य तदाऽऽत्मानं सृजाम्यहम्||४:७||"
"परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम्| धर्मसंस्थापनार्थाय संभवामि युगे युगे||४:८||"
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सर्वप्रथम तो धर्म की अवधारणा को स्पष्ट करते हैं| धर्म को अनेक मनीषियों ने परिभाषित किया है, पर वैशेषिक सूत्रों में दी हुई महर्षि कणाद की परिभाषा ही मुझे प्रभावित करती है .... "यतो अभ्युदय नि:श्रेयस सिद्धि:स धर्म:|" जिस माध्यम से हमारा सर्वांगीण विकास हो और सब प्रकार के दुःखों कष्टों से मुक्ति मिले वह धर्म है|
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अब प्रश्न यह उठता है कि हमारा स्वधर्म और परधर्म क्या है? जिसके कारण किसी भी विषय का अस्तित्व सिद्ध होता है वह उसका धर्म है| एक व्यक्ति से दूसरे व्यक्ति की भिन्नता उनके विचारों, गुणों, वासनाओं और स्वभाव पर निर्भर है| इन गुणों, वासनाओं और स्वभाव को ही हम स्वधर्म कह सकते हैं| हमें स्वयं की वासनाओं, गुणों और स्वभाव के अनुसार कार्य करने से संतुष्टि मिलती है, और दूसरों के स्वभाव, गुणों और वासनाओं की नक़ल करने से असंतोष और पीड़ा की अनुभूति होती है| अतः स्वयं के स्वभाव और वासनाओं के अनुसार कार्य करना हमारा स्वधर्म है, अन्यथा जो है वह परधर्म है| इसका किसी बाहरी मत-मतान्तर, पंथ या मज़हब से कोई सम्बन्ध नहीं है| 
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गीता में अर्जुन के स्वभाव के अनुसार भगवान ने उसे युद्ध करने का उपदेश दिया था| अर्जुन चूँकि ब्राह्मण वेश में भी रहा था अतः उसे ब्राह्मणों का धर्म याद आ गया होगा, तभी उसने एकांत में बैठकर ध्यानाभ्यास करने की इच्छा व्यक्त की थी जो ब्राह्मणों का धर्म है, क्षत्रियों का नहीं| भगवान ने उसे उपदेश दिया कि स्वधर्म में कुछ कमी रहने पर भी स्वधर्म का पालन ही उसके लिए श्रेयष्कर है| देह का धर्म और आत्मा का धर्म अलग अलग होता है| यह देह जिससे मेरी चेतना जुड़ी हुई है, उसका धर्म अलग है| उसे भूख प्यास, सर्दी गर्मी आदि भी लगती है, यह और ज़रा, मृत्यु आदि उसका धर्म है| पर जब हमने यह देह धारण की है और समाज व राष्ट्र में रह रहे हैं, तो हमारा समाज और राष्ट्र के प्रति भी कुछ दायित्व बन जाता है जिसको निभाना हमारा राष्ट्र धर्म है| आत्मा का धर्म परमात्मा के प्रति आकर्षण और परमात्मा के प्रति परम प्रेम की अभिव्यक्ति है, अन्य कुछ भी नहीं| परमात्मा के प्रति आकर्षण और प्रेम, आत्मा का धर्म है| हम शाश्वत आत्मा हैं, यह देह नहीं, अतः आत्मा का धर्म ही हमारा स्वधर्म है| 
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मनुष्य के लिए परमात्मा की खोज एक स्वाभाविक खोज है| लहर को शान्ति ही तब मिलेगी जब वह एक बार पुनः सागर में विलीन हो जाएगी| हर लहर उठती है केवल सागर में विलीन होने के लिए, यही उसका लक्ष्य है, यही उसका स्वभाव है और यही उसका धर्म भी है| सारी छटपटाहट अपने पूर्णत्व को पहचान लेने के निमित्त है| अंश वास्तव में अंश नहीं है, खण्ड वास्तव में खण्ड नहीं है, क्योंकि पूर्णता को खण्डित किया ही नहीं जा सकता| जहाँ तक मेरी अल्प व सीमित समझ है पूर्णता ही परमब्रह्म परमात्मा है| पूर्णता को हम स्वयं पूर्ण होकर ही जान सकते हैं| चेतना के इस रूप को जानने का मार्ग ही हमारा "स्वधर्म" है|
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जहाँ तक मेरी अल्प व सीमित समझ है, मेरी जाति, सम्प्रदाय व धर्म वही है जो परमात्मा का है| मेरा एकमात्र सम्बन्ध भी सिर्फ परमात्मा से ही है, जो सब प्रकार के बंधनों से परे हैं| सब चिंताओं को त्याग कर निरंतर परमात्मा का ही चिंतन ही मेरा स्वधर्म है, अन्य सब परधर्म| परमात्मा में स्थिर वृत्ति से ही मेरा जीवन कृतार्थ होगा, अतः परमात्मा को पूर्ण अहैतुकी परमप्रेम और समर्पण द्वारा स्वयं में व्यक्त करना ही मेरा स्वधर्म है|
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ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !! 
कृपा शंकर 
२५ मई २०१९

हिन्द महासागर में चागोस द्वीपसमूह व डिएगो गार्सिया द्वीप :---

हिन्द महासागर में चागोस द्वीपसमूह व डिएगो गार्सिया द्वीप :---
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भारत ने संयुक्त राष्ट्र महासंघ में ११६ अन्य देशों के साथ हिन्द महासागर में "चागोस द्वीपसमूह" से ब्रिटिश अधिकार हटाने और चागोस द्वीपसमूह मॉरिशस को सौंपने के प्रस्ताव का समर्थन किया है| अब ब्रिटेन को उपरोक्त द्वीप समूह छः महीनों के अन्दर अन्दर मॉरिशस को सौंपना ही चाहिये| इस विषय पर अंतर्राष्ट्रीय न्यायालय पहले ही निर्णय दे चुका है| पर अपनी पुरानी दादागिरी की आदत के कारण ब्रिटेन शायद ही इन्हें खाली करे|
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अमेरिका ने भी दादागिरी से हिन्द महासागर में भूमध्य रेखा से नीचे डिएगो गार्सिया द्वीपों पर अधिकार कर के वहाँ अपना एक बहुत बड़ा सैनिक अड्डा बना रखा है| यह द्वीप भारत से सीधे नीचे है और अधिक दूर भी नहीं है, जहाँ से अमेरिकी बमवर्षक कभी भी भारत पर आक्रमण कर सकते हैं| यह द्वीप भी मॉरिशस का ही भाग है जिस पर पहिले पुर्तगालियों का अधिकार था, फिर फ़्रांस का, फिर ब्रिटेन का, अब अमेरिका का अधिकार है| सन १९६८ और १९७३ के मध्य में यहाँ के निवासियों को बलात् मॉरिशस और सेशल्स में भेज दिया गया था, उन्हें अब बापस आने की अनुमति नहीं है| अब तो वहाँ सिर्फ अमेरिकी सैनिक और कामकाज के सिलसिले में रह रहे अमेरिकी नागरिक ही रहते हैं| अंतर्राष्ट्रीय न्यायालय ने और संयुक्त राष्ट्र संघ ने इन्हें भी बापस मॉरिशस को लौटाने को कह रखा है पर अमेरिका अपने इस विशाल सैनिक अड्डे को अपनी दादागिरी से कभी खाली नहीं करेगा|
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फ़्रांस ने भी मेडागास्कर के पूर्व में मॉरिशस के दक्षिण-पूर्व में १०९ नॉटिकल मील दूर रीयूनियन द्वीप पर अधिकार कर रखा है| वहां की जनसंख्या इस समय ८,६६,५०६ है| वहाँ की जनसंख्या में अनेक भारत से बहुत पहले मजदूरी के लिए बलात् ले जाए गए लोग भी हैं| यह भी मॉरिशस का ही भाग होना चाहिए|
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भारत के कभी अमेरिका से सम्बन्ध खराब हो जाएँ तो डिएगो गार्सिया का अमेरिकी सैनिक अड्डा ही भारत के लिए ख़तरा बन सकता है|
कृपा शंकर
२३ मई २०१९