Friday, 31 January 2025

भारत में "अल्पसंख्यक" कौन है?

 भारत में "अल्पसंख्यक" कौन है?

अल्पसंख्यक होने का मापदंड क्या है? यह "अल्पसंख्यक शब्द वैधानिक रूप से परिभाषित नहीं है| अल्पसंख्यकता का आधार क्या है? भारत में हिन्दू संगठित नहीं हैं, और विभिन्न जातियों में बँटे हुए हैं| भारत की हर जाति को, हर संप्रदाय व मत के अनुयायियों को चाहिए कि वे स्वयं को अल्पसंख्यक घोषित करवाने के लिए आंदोलन करें| भारत में जब धर्म के नाम पर अल्पसंख्यकों को विशेष सुविधा प्राप्त है तो यह सुविधा यहूदी और पारसी धर्म के अनुयायियों को क्यों नहीं है? यहूदी और पारसी वास्तव में अल्पसंख्यक हैं|अल्पसंख्यक आयोग में एक भी यहूदी और पारसी नहीं है| जब धर्म के नाम पर कुछ अल्पसंख्यकों को भारत में विशेष सुविधाएं प्राप्त हैं तो ये सुविधाएँ उन लोगों को क्यों नहीं है जो स्वतंत्र विचारक हैं या नास्तिक हैं? वे भी तो धार्मिक अल्पसंख्यक है| कई वर्ष पूर्व 'रामकृष्ण मिशन' और 'आर्य समाज' ने स्वयं को धार्मिक अल्पसंख्यक घोषित किये जाने का अनुरोध किया था जिसे ठुकरा दिया दिया गया था| जिस आधार पर वह ठुकराया गया था वह भी मेरी समझ से परे है| जब सभी अपने आप को अल्पसंख्यक घोषित करवाने की चेष्टा करेंगे तभी भारत को अल्पसंख्यकवाद से मुक्ति मिलेगी| अन्य कोई मार्ग नहीं है| भारत में सभी लोग धार्मिक अल्पसंख्यक हैं| इस विषय पर एक राष्ट्रीय बहस छेड़ी जाए क्योंकि यह एक राष्ट्रीय महत्त्व का मुद्दा है| धन्यवाद|
१ फरवरी २०२०

अल्पसंख्यकवाद से मुक्ति कैसे मिले ? ---

 अल्पसंख्यकवाद से मुक्ति कैसे मिले ? ---

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मैं कुछ बातें इस मंच के प्रबुद्ध पाठकों से जानना चाहता हूँ। यदि हो सके तो कृपया मुझे इसकी जानकारी दें। यह मैं मात्र अपनी जानकारी के लिए पूछ रहा हूँ, किसी के प्रति द्वेष की भावना मेरे में नहीं है। मैं यही जानना चाहता हूँ कि भारत में अल्पसंख्यकवाद का वैधानिक आधार और मापदंड क्या है? इसे मैं अपनी अल्प बुद्धि से समझ नहीं पाया हूँ।
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(१) विश्व के किस देश में हिन्दुओं को अल्पसंख्यक का अधिकारिक व संवेधानिक दर्जा प्राप्त है, और उन्हें अल्पसंख्यक के नाम पर क्या सुविधा मिलती है?
(२) भारत में जब धर्म के नाम पर तथाकथित अल्पसंख्यकों को विशेष सुविधा प्राप्त है, तो यह सुविधा यहूदी मत के अनुयायियों को क्यों नहीं है? अल्पसंख्यक आयोग में एक भी यहूदी नहीं है।
(३) जब धर्म के नाम पर कुछ तथाकथित अल्पसंख्यकों को भारत में विशेष सुविधाएँ प्राप्त हैं, तो ये सुविधाएँ उन लोगों को क्यों नहीं है जो स्वतंत्र विचारक हैं, और किसी भी मत में आस्था नहीं रखते? वे भी तो धार्मिक अल्पसंख्यक हैं।
(४) भारत सरकार ने जैन मतावलंबियों को अल्पसंख्यक घोषित किया है। यहाँ मैं एक प्रश्न पूछना चाहता हूँ। श्रमण परम्परा में भगवान महावीर स्वामी जन्मजात वर्ण व्यवस्था के घोर विरुद्ध थे। उनका कथन था कि बिना कैवल्य पद को प्राप्त किये कोई सत्य का बोध नहीं कर सकता। जैन मत का लक्ष्य ही 'वीतरागता' है, और जैन वह है जो जितेन्द्रिय है। अतः 'जैन' कोई जाति नहीं हो सकती, अपितु एक मत है। जैन मत का पालन करने के लिए जैन परिवार में जन्म लेना अनिवार्य नहीं है, कोई भी जैन मत का पालन कर सकता है। अतः जैन मतावलम्बी किस आधार से अल्पसंख्यक हुए? यह मेरी समझ से परे है। मेरा निवेदन है की कोई इस पर प्रकाश डाले।
(५) कई वर्षों पूर्व 'रामकृष्ण मिशन' और 'आर्य समाज' ने स्वयं को धार्मिक अल्पसंख्यक घोषित किये जाने का अनुरोध किया था जिसे ठुकरा दिया दिया गया था। जिस आधार पर वह ठुकराया गया था वह भी मेरी समझ से परे है। मेरा अनुरोध है कि कोई मुझे समझाये|।
(६) इस प्रकार से तो सनातन वैदिक धर्म को मानने वाले भी भारत में धार्मिक अल्पसंख्यक हैं। उन को भी अल्पसंख्यक की श्रेणी में सम्मिलित किये जाने के लिए आन्दोलन करना चाहिए। इतना ही नहीं जितने भी सम्प्रदाय और मत-मतान्तर भारत में हैं उन सब को अपने आप को धार्मिक अल्पसंख्यक घोषित करवाने के लिए आन्दोलन करना चाहिए।
(७) जब सभी अपने आप को अल्पसंख्यक घोषित करवाने की चेष्टा करेंगे, लगता है तभी भारत को अल्पसंख्यकवाद से मुक्ति मिलेगी। अन्य कोई मार्ग नहीं है। भारत में सभी लोग धार्मिक अल्पसंख्यक हैं।
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अल्पसंख्यक होने का मापदंड क्या है?
इस विषय पर एक राष्ट्रीय बहस छेड़ी जाए क्योंकि यह एक राष्ट्रीय महत्त्व का मुद्दा है।
धन्यवाद !! ॐ तत्सत् !! ॐ स्वस्ति !!
कृपा शंकर
१ फरवरी २०१४

सच्चिदानंद की भावातीत अनुभूति ---

 सच्चिदानंद की भावातीत अनुभूति ---

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सच्चिदानंद की भावातीत अनुभूति, और उसमें स्वयं के विसर्जित होने का बोध -- परमात्मा का आशीर्वाद है। यह मनुष्य जीवन की उच्चतम उपलब्धि और स्थिति है, जिसमें निरंतर बने रहना चाहिये। इसे "ब्राह्मी-स्थिति" भी कह सकते हैं, "कैवल्य" या "कूटस्थ-चैतन्य" भी कह सकते हैं। ये सब पर्यायवाची शब्द हैं। यहाँ किसी भी तरह का विकल्प यानि किसी भी तरह की "किन्तु-परंतु" नहीं होती। जहां तक मैं समझता हूँ, इसमें बने रहना ही -- "परमात्मा को समर्पण" है।
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"स्कन्द-पुराण" के उत्तर खंड में दी हुई "गुरुगीता" के निम्न श्लोक में इसकी कुछ कुछ अभिव्यक्ति है। अन्यत्र भी कहीं है तो उसका मुझे नहीं पता।
"ब्रह्मानंदं परमसुखदं केवलं ज्ञानमूर्तिं, द्वंद्वातीतं गगनसदृशं तत्वमस्यादिलक्ष्यम्।
एकं नित्यं विमलमचलं सर्वधीसाक्षिभूतम्, भावातीतं त्रिगुणरहितं सदगुरुं तं नमामि॥"
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यहाँ गुरु रूप में स्वयं परमशिव है, जिनके स्मरण मात्र से जन्म और संसार के सारे बंधन समाप्त हो जाते हैं। जो शिव हैं, वे ही विष्णु हैं। और जो विष्णु हैं, वे ही शिव हैं।
"ॐ नमः शिवाय विष्णु रूपाय शिव रूपाय विष्णवे।
शिवस्य हृदयं विष्णुं विष्णोश्च हृदयं शिवः॥"
“यस्य स्मरणमात्रेण जन्मसंसारबन्धनात्। विमुच्यते नमस्तस्मै विष्णवे प्रभविष्णवे॥”
"कायेन वाचा मनसेंद्रियैर्वा बुध्यात्मना वा प्रकृतेः स्वभावात्।
करोमि यद्यत् सकलं परस्मै नारायणायेति समर्पयामि॥"
"अच्युतम् केशवं राम नारायणं,
कृष्ण दामोदरम् वासुदेवं हरिं।
श्रीधरं माधवं गोपिका वल्लभं,
जानकी नायकं रामचंद्रम भजे॥"
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ॐ तत्सत् ॥ ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२४ जनवरी २०२५
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पुनश्च: -- यह जीवन परमशिव परमात्मा को पूर्णतः समर्पित है। इसमें परमशिव के अतिरिक्त अन्य कुछ भी नहीं है। ॐ ॐ ॐ !!

हमारे विचार सही होंगे तभी हमारा आचरण भी सही होगा ---

 हमारे विचार सही होंगे तभी हमारा आचरण भी सही होगा ---

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आज मैं चार अत्यंत महत्वपूर्ण विषयों पर चर्चा करना चाहता हूँ। यह मेरा स्वयं के साथ स्वयं का एक सत्संग है। अन्य कोई पढ़े या न पढ़े, लेकिन मुझे तो इससे बहुत अधिक लाभ हो रहा है। मैं न तो आत्म-मुग्ध हूँ, न अहंकारी और न ही फेंकू हूँ, जैसा की कुछ लोग मुझ पर आरोप लगाते हैं। कौन मेरे बारे में क्या सोचता है, यह उसकी समस्या है; मेरी नहीं। मुझे स्पष्टीकरण देने की कोई आवश्यकता नहीं है। मेरा ध्यान मेरे विचारों की पवित्रता, और परमात्मा को समर्पण पर है। जो चार विचार मेरे समक्ष हैं, उन पर चर्चा कर रहा हूँ।
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(१) विषयों का चिंतन महा पाप है --
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विषयों में लिप्त होने से अधिक पाप, विषयों के चिंतन से होता है। विषयों के भोग से इतना पाप नहीं लगता, जितना विषयों के चिंतन से लगता है। विषयों का चिंतन ही मुख्य पाप है, क्योंकि हम मन से जो कुछ ही सोचते हैं वह ही हमारा कर्म है, जिसका फल मिले बिना नहीं रहता।
गीता में भगवान कहते हैं --
"कर्मेन्द्रियाणि संयम्य य आस्ते मनसा स्मरन्।
इन्द्रियार्थान्विमूढात्मा मिथ्याचारः स उच्यते॥३:६॥"
अर्थात् -- जो मूढ बुद्धि पुरुष कर्मेन्द्रियों का निग्रह कर इन्द्रियों के भोगों का मन से स्मरण (चिन्तन) करता रहता है वह मिथ्याचारी कहा जाता है॥
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जो कर्मेन्द्रियों का निग्रह कर इन्द्रियों के भोगों का मन से स्मरण (चिन्तन) करता रहता है, वह मिथ्याचारी है। शरीर से अनैतिक और अपराध पूर्ण कर्म करने की अपेक्षा मन से उनका चिन्तन करते रहना अधिक हानिकारक है। मन का स्वभाव है एक विचार को बारंबार दोहराना। इस प्रकार एक ही विचार के निरन्तर चिन्तन से मन में उसका दृढ़ संस्कार (वासना) बन जाता है। निरन्तर विषयचिन्तन से, वैषयिक संस्कार मन में गहराई से उत्कीर्ण हो जाते हैं, और उनसे प्रेरित मनुष्य विवश होकर उसी प्रकार के कर्म करता है।
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जो व्यक्ति बाह्य रूप से नैतिक और आदर्शवादी होने का प्रदर्शन करते हुये मन में निम्न स्तर की वृत्तियों के चिंतन में रहता है, वह मिथ्याचारी और महापाप का भागी है। भगवान तो यहाँ तक कहते हैं कि मन को परमात्मा में लगाकर अन्य किसी भी विषय का चिंतन न करें --
"सङ्कल्पप्रभवान्कामांस्त्यक्त्वा सर्वानशेषतः।
मनसैवेन्द्रियग्रामं विनियम्य समन्ततः॥६:२४॥
शनैः शनैरुपरमेद् बुद्ध्या धृतिगृहीतया।
आत्मसंस्थं मनः कृत्वा न किञ्चिदपि चिन्तयेत्॥६:२५॥"
यतो यतो निश्चरति मनश्चञ्चलमस्थिरम्।
ततस्ततो नियम्यैतदात्मन्येव वशं नयेत्॥६:२६॥"
अर्थात् -- संकल्प से उत्पन्न समस्त कामनाओं को नि:शेष रूप से परित्याग कर मन के द्वारा इन्द्रिय समुदाय को सब ओर से सम्यक् प्रकार वश में करके।
शनै: शनै: धैर्ययुक्त बुद्धि के द्वारा (योगी) उपरामता (शांति) को प्राप्त होवे; मन को आत्मा में स्थित करके फिर अन्य कुछ भी चिन्तन न करे।
यह चंचल और अस्थिर मन जिन कारणों से (विषयों में) विचरण करता है, उनसे संयमित करके उसे आत्मा के ही वश में लावे अर्थात् आत्मा में स्थिर करे॥
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(२) समष्टि के कल्याण की भावना रखें --
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हम समष्टि के कल्याण की भावना रखेंगे तो समष्टि भी हमारा कल्याण करेगी। वे देवता जो हमारा कल्याण कर सकते हैं, उन्हें भी शक्ति हमारे कर्मों से ही मिलती है। हम देवताओं को जो अर्पित करते हैं, उसे ही देवता बापस हमें कई गुणा अधिक कर के लौटाते हैं।
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अपने कर्तव्य-कर्म में हम नित्य प्रतिष्ठित रहें। भगवान को अर्पित करना हमारा कर्तव्य-कर्म है जिसे किए बिना यदि हम कुछ भी ग्रहण करते हैं तो हम चोरी करते हैं। बिना भगवान को अर्पित किये कुछ भी पाना -- पाप का भक्षण है।
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(३) आत्माराम का कोई कर्तव्य नहीं है --
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आत्माराम शब्द का प्रयोग देवर्षि नारद ने "भक्ति-सूत्रों" में उस व्यक्ति के लिए किया है जो निरंतर आत्मा में रमण करता है। आत्माराम का कोई कर्तव्य नहीं है। वह कृतकृत्य और जीवन-मुक्त है। उस पुरुष का कृत और अकृत से कोई प्रयोजन नहीं है। वह परमात्मा का ही एक रूप है और इस धरा पर विचरण करता हुआ एक देवता है। यह धरा उसे पाकर धन्य और पवित्र हो जाती है। देवता भी उसे देखकर आनंदित होकर नृत्य करने लगते हैं। उसकी सात पीढ़ियाँ तुरंत मुक्त हो जाती हैं। उसे सामान्य नियमों में नहीं बांधा जा सकता। वह कुल धन्य हो जाता है जिसमें उसने जन्म लिया है।
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(४) कर्ताभाव से मुक्त होकर ही हम परमात्मा का अनुग्रह पा सकते हैं --
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अनासक्त कर्तव्य-कर्म हमें परमात्मा से जोड़ देते हैं। सम्पूर्ण कर्म प्रकृति के गुणों द्वारा किये जाते हैं, अहंकार से मोहित हुआ पुरुष, "मैं कर्ता हूँ" ऐसा मान लेता है। सम्पूर्ण कर्म और उनके फल भगवान को अर्पित कर दें। कर्मों और कर्मफलों से मुक्त होने की प्रक्रिया आध्यात्मिक उपासना है। हम निरंतर परमात्मा की चेतना में रहें, यही हमारा स्वधर्म है। हम अपने स्वधर्म का पालन करें।
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उपसंहार --- उपरोक्त चार विषयों पर सत्संग पाने की मेरी घनिष्ठ इच्छा थी। अब मैं स्वयं के साथ सत्संग कर के आने वाले लंबे समय तक के लिए तृप्त और संतुष्ट हूँ। सभी का कल्याण हो। हम वही हो जाते हैं, जैसा हम सदा सोचते हैं| निरंतर परमात्मा का चिंतन करने से परमात्मा के सारे गुण हमारे में आ जाते हैं| अतः ऐसे ही लोगों का संग करें जो सदा परमात्मा के बारे में सोचते हैं| उन लोगों का साथ विष की तरह छोड़ दें जो परमात्मा से विमुख हैं| उनसे मिलना तो क्या उनकी और आँख उठाकर देखना भी बड़ा दुःखदायी होता है|
ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२५ जनवरी २०२५

आजकल अधिकांश विवाह विफल क्यों हैं? ---

(प्रश्न) : आजकल अधिकांश विवाह विफल क्यों हैं?

(उत्तर) : जो भी वैवाहिक सम्बन्ध -- त्वचा के रंग, चेहरे के कोण, धन-लालसा या अन्य किसी स्वार्थ से किये जाते हैं, उनका नारकीय होना निश्चित है। विवाह वो ही सफल हो सकता है, जहाँ पति-पत्नी का स्वभाव एक-दूसरे के प्रति अनुकूल और सम्मानजनक हो। पत्नी के लिए जहां पति परमेश्वर हो, वहीं पति के लिए पत्नी अन्नपूर्णा हो। ऐसे ही परिवारों में अच्छी आत्माएं जन्म लेती हैं।
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जब पुरुष का शुक्राणु और स्त्री का अंडाणु मिलते हैं, तब सूक्ष्म जगत में एक विस्फोट होता है, और जैसी उनकी भावस्थिति और सोच होती है, सूक्ष्म-जगत से वैसी ही आत्मा आकृष्ट होकर गर्भस्थ हो जाती है। प्राचीन भारत में लोगों को इस तथ्य का ज्ञान था, तभी भारत ने इतने महापुरुषों को जन्म दिया। गर्भाधान भी एक संस्कार है, जिसका ज्ञान लुप्तप्राय ही हो गया है। आजकल की अधिकांश मनुष्यता कामज-संतानों के कारण ही इतनी घटिया है।
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परमात्मा में भी श्रद्धा, विश्वास, और निष्ठा होना आवश्यक है। कोई सूर्योदय में विश्वास करता है या नहीं, सूर्योदय तो होगा ही। वैसे ही परमात्मा का अस्तित्व किसी के विश्वास/अविश्वास पर निर्भर नहीं हैं। परमात्मा अपरिभाष्य, एकमात्र सत्य और हमारा अस्तित्व हैं, जिनका बोध हुए बिना जीवन में हम अतृप्त रह जाते हैं। उन्हें जानने का प्रयास स्वयं को जानने का प्रयास है। हमारे निज जीवन में परमात्मा में आस्था का न होना भी वैवाहिक असफलताओं का एक कारण है।
ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२८ जनवरी २०२५
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पुनश्च: --- अगर भूल से भी कोई वामपंथी या नारी-स्वतन्त्रतावादी लड़की घर में बहु बनकर आ गयी तो उस घर का विनाश निश्चित है।

"भूमा" का साक्षात्कार करने की जिज्ञासा है ---

"भूमा" का साक्षात्कार करने की जिज्ञासा है। भगवान सनतकुमार ने जिस भूमाविद्या का ज्ञान अपने प्रिय शिष्य देवर्षि नारद को दिया, वह भूमा ही ब्रह्मविद्या/ब्रह्मज्ञान है। छांदोज्ञोपनिषद व अन्य कुछ ग्रन्थों में सूत्र रूप में इसका वर्णन है। उन्हें मैं बुद्धि के द्वारा समझने में असमर्थ हूँ, क्योंकि वेदांगों के ज्ञान के बिना श्रुतियों (वेदों) को समझना असंभव है।

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मुझे जो कुछ भी समझ में आता है वह गुरुकृपा व हरिःकृपा से ध्यान साधना के द्वारा ही समझ में आता है। परमात्मा एक महासागर है, और जीवात्मा एक जल की बूँद। परमात्मा को जानने के लिए जीवात्मा को बहुत गहरी डुबकी लगानी पड़ती है, तभी बोध होता है। यदि कहीं कोई कमी है तो वह कमी हमारी डुबकी में है, महासागर में नहीं। महासागर ऊर्ध्व में है, जिसका बोध गुरु/हरिःकृपा से ही होता है।
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इस समय आज इस विषय पर मैं इसलिए लिख रहा हूँ क्योंकि विख्यात वैष्णवाचार्य आचार्य सियारामदास नैयायिक महाराज ने उपरोक्त विषय पर अपना एक प्रवचन विडियो के माध्यम से मुझे भेजा है, जिसका स्वाध्याय मैंने आज अभी कुछ समय पूर्व ही किया है। उनका इस विषय पर प्रवचन, उनके गहन ज्ञान और साधना को दर्शाता है। वह विडिओ उनका निजी/व्यक्तिगत है इसलिए साझा नहीं कर सकता।
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आज के समय में ज्ञान प्राप्ति के लिए ध्यान-साधना ही एकमात्र मार्ग है। अन्य कोई उपाय नहीं है। ध्यान साधना भी किन्हीं ब्रह्मनिष्ठ श्रौत्रीय आचार्य के मार्गदर्शन में ही की जा सकती है। मैं भाग्यशाली हूँ कि मुझे वह मार्गदर्शन प्राप्त है। कमियाँ बहुत अधिक हैं, लेकिन वे मुझमें ही हैं, कहीं अन्यत्र नहीं।
गुरु व परमात्मा की कृपा बनी रहे। ॐ तत्सत्॥
कृपा शंकर
२८ जनवरी २०२५ . पुनश्च: ---- आप के हृदय में परमात्मा को पाने की अभीप्सा गहनतम हो। आप वीतराग व स्थितप्रज्ञ होकर ब्राह्मी स्थिति यानि कैवल्य पद को प्राप्त हों। यही आत्म-साक्षात्कार है। परमात्मा स्वयं ही यह सम्पूर्ण सृष्टि बन गये हैं। कहीं कोई भेद नहीं है।

हम अपने बच्चों को जो प्यार करते हैं, वह वास्तव में परमात्मा को प्यार करते हैं। हमारे बच्चे भी परमात्मा के रूप में उस प्यार को स्वीकार करते हैं।

हम अपने बच्चों को जो प्यार करते हैं, वह वास्तव में परमात्मा को प्यार करते हैं। हमारे बच्चे भी परमात्मा के रूप में उस प्यार को स्वीकार करते हैं।

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सभी माता-पिताओं से मेरा हाथ जोड़ कर अनुरोध है कि वे अपने बच्चों को अच्छी शिक्षा दें, और घर में खूब प्यार दें, जिसके लिए वे घर से बाहर प्यार नहीं ढूंढें। मनोवैज्ञानिक रूप से --
* जिन बच्चों को (विशेष रूप से बालिकाओं को) घर में बाप का प्यार नहीं मिलता है, वे बड़े होकर जीवन में पर पुरुषों में प्यार ढूंढते हैं।
* जिन बच्चों को (विशेष रूप से बालकों को) माँ का प्यार नहीं मिलता है, वे बड़े होकर अपने जीवन में पर स्त्रियों में प्यार ढूंढते हैं।
अतः माँ और बाप दोनों का प्यार बच्चों के विकास के लिए अति आवश्यक है।
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मैंने जीवन में जो प्रत्यक्ष स्वयं देखा है वही कह रहा हूँ --
(१) मेरे साथ कुछ ऐसे सहकर्मी भी थे जो घर में सुन्दर पत्नी और समझदार वयस्क बच्चों के होते हुए भी बेशर्म होकर परस्त्रीगामी थे। गहराई से विचार करने पर मैनें पाया कि उनकी विकृति का कारण बचपन में उन को माँ से प्यार न मिलना था।
(२) ऐसे ही कुछ महिलाओं को भी मैंने देखा है जो घर में अच्छे पति और संतानों के होते हुए भी परपुरुषगामी थीं। वे भी अपने बाल्यकाल में पिता के प्रेम से वंचित थीं। कुसंगति दूसरा कारण था।
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बच्चों को अपने स्वयं के आचरण से, अपना स्वयं का उदाहरण देकर अच्छे से अच्छे संस्कार दें। अपने बच्चों को, विशेष रूप से अपनी लड़कियों को वामपंथी और सेकुलर प्रभाव से बचाएँ, अन्यथा परिणाम बड़े दुखद होंगे। ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
३१ जनवरी २०२५

अनात्म में बहुत अधिक भटक गया हूँ, परमात्म मूल में बापस लौट रहा हूँ ---


अनात्म में बहुत अधिक भटक गया हूँ। परमात्म मूल में बापस लौट रहा हूँ। स्थिर हो सदा वहीं रहूँगा। अब और भटकने का मन नहीं है। जीव भाव से मुक्त होकर हम ऊपर उठें, और शिव भाव में प्रतिष्ठित हों, तभी हम गूढ आध्यात्मिक रहस्यों को समझ पायेंगे। परमात्मा का स्मरण हर समय करना चाहिये। किसी परिस्थिति विशेष में हम यदि स्मरण न भी कर पायें तो परमात्मा स्वयं हमारा स्मरण कर हमें परम गति प्रदान करते हैं। मेरे लिये शब्द-रचना अब बड़ी कठिन और असंभव सी होती जा रही है, क्योंकि मेरी स्मृति लगातार क्षीण हो रही है। ईश्वर की चेतना सदा बनी रहे। सत्यं ज्ञानं अनंतं ब्रह्म॥ ॐ तत्सत्॥ ॐ ॐ ॐ॥
कृपा शंकर
३० जनवरी २०२५