"भूमा" का साक्षात्कार करने की जिज्ञासा है। भगवान सनतकुमार ने जिस भूमाविद्या का ज्ञान अपने प्रिय शिष्य देवर्षि नारद को दिया, वह भूमा ही ब्रह्मविद्या/ब्रह्मज्ञान है। छांदोज्ञोपनिषद व अन्य कुछ ग्रन्थों में सूत्र रूप में इसका वर्णन है। उन्हें मैं बुद्धि के द्वारा समझने में असमर्थ हूँ, क्योंकि वेदांगों के ज्ञान के बिना श्रुतियों (वेदों) को समझना असंभव है।
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मुझे जो कुछ भी समझ में आता है वह गुरुकृपा व हरिःकृपा से ध्यान साधना के द्वारा ही समझ में आता है। परमात्मा एक महासागर है, और जीवात्मा एक जल की बूँद। परमात्मा को जानने के लिए जीवात्मा को बहुत गहरी डुबकी लगानी पड़ती है, तभी बोध होता है। यदि कहीं कोई कमी है तो वह कमी हमारी डुबकी में है, महासागर में नहीं। महासागर ऊर्ध्व में है, जिसका बोध गुरु/हरिःकृपा से ही होता है।
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इस समय आज इस विषय पर मैं इसलिए लिख रहा हूँ क्योंकि विख्यात वैष्णवाचार्य आचार्य सियारामदास नैयायिक महाराज ने उपरोक्त विषय पर अपना एक प्रवचन विडियो के माध्यम से मुझे भेजा है, जिसका स्वाध्याय मैंने आज अभी कुछ समय पूर्व ही किया है। उनका इस विषय पर प्रवचन, उनके गहन ज्ञान और साधना को दर्शाता है। वह विडिओ उनका निजी/व्यक्तिगत है इसलिए साझा नहीं कर सकता।
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आज के समय में ज्ञान प्राप्ति के लिए ध्यान-साधना ही एकमात्र मार्ग है। अन्य कोई उपाय नहीं है। ध्यान साधना भी किन्हीं ब्रह्मनिष्ठ श्रौत्रीय आचार्य के मार्गदर्शन में ही की जा सकती है। मैं भाग्यशाली हूँ कि मुझे वह मार्गदर्शन प्राप्त है। कमियाँ बहुत अधिक हैं, लेकिन वे मुझमें ही हैं, कहीं अन्यत्र नहीं।
गुरु व परमात्मा की कृपा बनी रहे। ॐ तत्सत्॥
कृपा शंकर
२८ जनवरी २०२५
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पुनश्च: ---- आप के हृदय में परमात्मा को पाने की अभीप्सा गहनतम हो। आप वीतराग व स्थितप्रज्ञ होकर ब्राह्मी स्थिति यानि कैवल्य पद को प्राप्त हों। यही आत्म-साक्षात्कार है। परमात्मा स्वयं ही यह सम्पूर्ण सृष्टि बन गये हैं। कहीं कोई भेद नहीं है।
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