Thursday 9 August 2018

अभ्यास और वैराग्य की परिणिति है .... "समभाव" ......

अभ्यास और वैराग्य की परिणिति है .... "समभाव" ......
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भगवान कहते हैं .....
असंशयं महाबाहो मनो दुर्निग्रहं चलं| अभ्यासेन तु कौन्तेय वैराग्येण च गृह्यते||६:३५||
अर्थात् हे महबाहो निसन्देह मन चंचल और कठिनता से वश में होने वाला है परन्तु हे कुन्तीपुत्र उसे अभ्यास और वैराग्य के द्वारा वश में किया जा सकता है|
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"अभ्यास- वैराग्याभ्यां तन्निरोधः" (योगसूत्र १:१२). महर्षि पातंजलि ने भी अपने लक्ष्य को प्राप्त करने के ये दो साधन वैराग्य और अभ्यास ही बताए हैं|
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मन को समझा बुझा कर युक्ति से नियंत्रित किया जा सकता है बलपूर्वक नहीं | यह युक्ति .... वैराग्य और अभ्यास ही हैं| अभ्यास और वैराग्य से ही मन वश में होता है| समभाव ही स्थितप्रज्ञता है, यही ज्ञानी होने का लक्षण है और यही ज्ञान है| भक्ति की परिणिति भी समभाव ही है| अतः भक्ति और ज्ञान दोनों एक ही हैं, इनमें कोई अंतर नहीं है|
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भगवान कहते हैं .....
योगस्थः कुरु कर्माणि सङ्गं त्यक्त्वा धनञ्जय| सिद्ध्यसिद्ध्योः समो भूत्वा समत्वं योग उच्यते||२:४८||
अर्थात् हे धनंजय, योगमें स्थित होकर केवल ईश्वरके लिय कर्म कर| इस आशारूप आसक्ति को भी छोड़ दे कि ईश्वर मुझ पर प्रसन्न हों| फलतृष्णारहित पुरुष द्वारा कर्म किये जानेपर अन्तःकरण की शुद्धिसे उत्पन्न होने वाली ज्ञान प्राप्ति तो सिद्धि है और उससे विपरीत (ज्ञानप्राप्तिका न होना) असिद्धि है ऐसी सिद्धि और असिद्धि में भी सम होकर अर्थात् दोनोंको तुल्य समझकर कर्म कर| यही जो सिद्धि और असिद्धिमें समत्व है इसीको योग कहते हैं|
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हम वैराग्यवान निःस्पृह तपस्वी संत महात्माओं का खूब सत्संग करें|
सभी को सप्रेम सादर नमन|
ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
९ अगस्त २०१८