Saturday 26 November 2016

रक्षा करो हे प्रभु मैं आपकी शरण में हूँ .....

"सकृदेव प्रपन्नाय तवास्मीति च याचते | अभयं सर्वभूतेभ्यो ददाम्येतद व्रतं ममः ||
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रक्षा करो हे प्रभु मैं आपकी शरण में हूँ | रक्षा करो, रक्षा करो |
अपनी माया से रक्षा करो जो निरंतर विक्षेप उत्पन्न कर रही है और अज्ञान के आवरण को और भी दृढ़ बना रही है |
आप मेरे से अच्छा जानते हैं कि मेरी समस्या और उसका निदान क्या है |
मेरा और कोई नहीं है | मैं सिर्फ आपका हूँ और आप मेरे हैं |
आप को छोड़कर मेरा कोई ठिकाना नहीं है |
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आप सदा मेरे समक्ष हैं और मेरी रक्षा कर रहे हैं | मेरे विचारों के केंद्र बिदु आप ही हैं | मेरे विचार अब इसी समय से इधर उधर न भटकें, सिर्फ आप पर ही केन्द्रित रहें |
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जीवन के अंधेरे मार्गों पर आप ही मेरे मार्गदर्शक हैं | इस अज्ञानांधकार की निशा में आप ही मेरे चन्द्रमा हैं | आप ही मेरे ज्ञानरूपी दिवस के सूर्य हैं | इस अंधकारमय भवसागर में भी आप ही मेरे ध्रुव तारे हैं | मेरे भटकते बिखरे हुए विचारों के ध्रुव आप ही रहें | इस घनीभूत पीड़ा और वेदना से मेरी रक्षा करो |
त्राहिमाम् त्राहिमाम् ||

ॐ तत्सत् | ॐ ॐ ॐ ||

दुनियाँ पर तीन बड़े असुर राज्य कर रहे हैं, उनके साथ अन्य भी अनेक असुर हैं ...........

दुनियाँ पर तीन बड़े असुर राज्य कर रहे हैं, उनके साथ अन्य भी अनेक असुर हैं ...........
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जी हाँ, यह बिलकुल सत्य है| इस समय पृथ्वी पर बहुत दीर्घ काल से तीन बड़े असुरों का राज्य है और ये तीनों असुर मानसिक धरातल पर से इस भौतिक धरा पर राज्य कर रहे हैं|
इन असुरों ने पूरी पृथ्वी पर असत्य और अन्धकार फैला रखा है| बहुत कम लोग हैं जो इनकी सत्ता से स्वयं को सुरक्षित रख पा रहे हैं|
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मैं जो लिख रहा हूँ यह कोई खाली बैठे की बेगार या कोई गपोड़ नहीं है, बल्कि वास्तविकता है जिसकी अनुभूति मैंने स्वयं अनेक बार की है, और अनेक बार करता हूँ| इस धरा पर सिर्फ हम लोग ही नहीं हैं, सूक्ष्म जगत की असंख्य अच्छी और बुरी आत्माएं भी हैं जो हमारे ऊपर निरंतर प्रभाव डालती हैं| हमें वे अपना उपकरण बनाकर अपनी वासनाओं की पूर्ति भी करती हैं| हमें बुरी आत्माओं का उपकरण बनने से बचना चाहिए और सिर्फ परमात्मा को ही निज जीवन में अवतरित कर परमात्मा का ही उपकरण बनना चाहिए| तभी हम अपनी रक्षा कर सकते हैं|
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(1) पहिला असुर है ..... जो मनुष्य को लोभी, लालची और स्वार्थी बनाता है|
(2) दूसरा असुर है ..... जो मनुष्य को काम वासना में धकेलता है|
(3) तीसरा असुर है ..... जो सारी स्वार्थ और अहंकार की राजनीति करता है|

ये मानसिक धरातल पर से ही अपने ऊपर आक्रमण करते हैं और हमें अपना गुलाम बना लेते हैं| कभी न कभी जब हम स्वयं को इनके प्रति खोलते हैं तभी ये हमारे ऊपर अधिकार कर पाते हैं|
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(4) पिछले बीस-तीस वर्षों से एक और बड़े असुर ने भारत में जन्म ले लिया है और वह है .....
राक्षसी पत्रकारिता का असुर जो आजकल झूठी और सनसनीखेज खबरों, दुराग्रहपूर्ण समाचारों, और अधर्म का प्रचार कर भ्रम फैला रहा है|
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ये सब असुर और राक्षस ही हैं जो वर्त्तमान में "असहिष्णुता" और "खून खराबे" की बातें कर रहे हैं| इनका एकमात्र उद्देश्य सत्ता प्राप्त करना ही है| ये देवत्व को नष्ट करना चाहते हैं| इनमें से कोई सा असुर जब मरता है तो तुरंत कोई दूसरा उसका स्थान ले लेता है|
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इनसे निपटने का एक ही मार्ग है और वह है ........ हम परमात्मा के प्रति खुलें और परमात्मा को भक्ति द्वारा अपने जीवन में प्रवाहित होने दें, और हर कदम पर इन आसुरी शक्तियों का विरोध करें|
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सबको शुभ कामनाएँ| ॐ तत्सत् | ॐ शिव ! ॐ ॐ ॐ ||
प्रत्येक व्यक्ति का स्वरूप साक्षात शिव है .....
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समस्त अस्तित्व शिवमय है| शिव से परे कुछ भी नहीं है| शिव आदि तत्त्व और अपरिभाष्य हैं| यह ब्रह्माण्ड शिव का ही साकार स्वरूप है| हम सब शिव में ही रमण करें, शिव का ही ध्यान करें और अंत में शिव में ही लय हो जाएँ|
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सिर्फ परमात्मा शिव ही हमारे हैं, वे ही हमारे शाश्वत साथी हैं, इस जन्म से पूर्व भी वे ही हमारे साथ थे और मृत्यु के उपरांत भी वे ही रहेंगे| उनका साथ शाश्वत है| हमारे अस्तित्व भी वे ही हैं| एक वे ही हैं, उनसे परे अन्य कोई नहीं है|
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आप सब के शिवत्व को प्रणाम करता हूँ| ॐ ॐ ॐ ||

जीवन में परमात्मा को समर्पित होना ही सार्थकता है .....

जीवन में परमात्मा को समर्पित होना ही सार्थकता है .....
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आध्यात्म में विभिन्न प्रकार की अनेक साधनाएँ हैं और उनके अनेक क्रम हैं| किसी जिज्ञासु का मार्गदर्शन तो कोई श्रोत्रीय ब्रह्मनिष्ठ आचार्य ही कर सकते हैं, मेरे जैसा अकिंचन व्यक्ति नहीं| यहाँ तो मैं अपने आप को और अपने विचारों को व्यक्त करने का एक प्रयास मात्र कर रहा हूँ| कोई आवश्यक नहीं है कि कोई मुझसे सहमत ही हो|
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भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं कि थोड़ी-बहुत अल्प मात्रा में भी धर्म का आचरण महा भय से हमारी रक्षा करता है| इसका अर्थ मेरी अल्प और सीमित बुद्धि से यही है कि हमारे सब कष्टों का कारण धर्म का आचरण नहीं करना ही है| हम धर्म का आचरण करेंगे तभी भगवान हमारी रक्षा करेंगे| धर्म के आचरण से ही धर्म की रक्षा होती है जो अंततः हमारी ही रक्षा करता है|
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अब प्रश्न यह उठता है कि धर्म क्या है| इसकी अनेक परिभाषाएँ हैं| पर मुझे जो समझ में आया है उसके अनुसार परमात्मा के प्रति परम प्रेम और सतत समर्पण की साधना द्वारा ही हम धर्म का मर्म समझ सकते हैं| धर्म एक अनुभव और प्रेरणा है जो हमें परमात्मा से प्राप्त होती है| परमात्मा को परम प्रेम और समर्पण ही धर्म को जानने की कुंजी है| हमारा आचरण धार्मिक तभी हो सकता है जब हमारे जीवन का केंद्रबिंदु और कर्ता एकमात्र परमात्मा ही हो| जो साधक परमेश्वर में अपनी सारी इच्छाओं को लीन कर देता है, ऐसे साधक के योगक्षेम का वहन भगवान करते हैं| ध्यान भाव को भी छोड़कर केवल ध्येय स्वरूप में सर्वथा स्थित रहने का प्रयास ही सही साधना है|
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मूर्ति पूजा, जप, स्तुति, मानस पूजा, ध्यान और ब्रह्मभाव आदि ये सब क्रम हैं, जैसे एक बालक प्रथम कक्षा में पढ़ता है, एक पांचवीं में, एक कॉलेज में, कोई डॉक्टरेट कर रहा है और कोई पोस्ट डॉक्टरेट कर रहा है वैसे ही साधनाओं के भी क्रम हैं| एक ही साधना सभी के लिए नहीं हो सकती|
चौथी कक्षा का बालक अभियांत्रिकी गणित को नहीं समझ सकता, वैसे ही श्रेणियाँ आध्यात्मिक साधनाओं में हैं और ईश्वर की परिकल्पना की समझ में भी है|
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जब हम कहते हैं कि मनुष्य जीवन का लक्ष्य केवल ईश्वर की प्राप्ति है तो ईश्वर की परिकल्पना भी प्रत्येक व्यक्ति की अलग अलग होती है| इसे समझाना अति कठिन है| अधिकाँश लोग तो यही समझते हैं कि भगवान हमारी प्रार्थनाओं व स्तुतियों से प्रसन्न होकर हमें सुख शांति और भोग्य पदार्थ देता है| उनके लिए परमात्मा एक माध्यम यानि साधन है और संसार की वासनाएँ साध्य है| ऐसे लोगों के लिए आध्यात्म को समझना असम्भव है|
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हमारी श्रुतियाँ कहती हैं कि हमारे सब दुःखों का कारण हमारी कामनाएँ हैं तो उनसे मुक्त कैसे हों?
इसका एकमात्र उत्तर है -- "उपासना"|
भगवान की ओर समस्त कामनाओं को मोड़ देंगे तो वे हमारी कामनाओं को निश्चित ही समाप्त कर देंगे। यही हमारी आस्था है, हमारी श्रद्धा और विश्वास है|
पूरा ह्रदय उनको दे देंगे तो एक ना एक दिन तो उन्हें आना ही पडेगा| यदि वे नहीं भी आते हैं तो कोई बात नहीं| इस नारकीय जीवन से तो अच्छा है कि उनका स्मरण चिंतन करते हुए ही हम उनकी इस मायावी दुनियाँ से विदा ले लें|
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हे प्रियतम परमात्मा, हमें आपसे प्यार हो गया है, आप सदा हमें प्यारे लगें, आप सदा हमें प्यारे लगें, और आप सदा हमें प्यारे लगें| इसके अतिरिक्त हमारी कोई कामना नहीं है|
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ॐ तत्सत् | ॐ नमः शिवाय| ॐ ॐ ॐ ||
26 नवम्बर 2014

आवश्यकता चेतना के स्तर को ऊंचा उठाने में है .....

उत्तमो ब्रह्मसद्भावो ध्यानभावस्तु मध्यमः |
स्तुतिर्जपाऽधमो भावो बहिः पूजाऽधमाधमा ||
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उपरोक्त श्लोक ज्ञान संकलिनी तंत्र से है| शिव संहिता में भी इससे मिलता एक मन्त्र है| जिस प्रकार शिक्षा में क्रम हैं वैसे ही साधना में भी क्रम हैं| एक बालक चौथी कक्षा में है, एक दसवीं में, एक कॉलेज में, एक डॉक्टरेट कर रहा है, सब की पढाई अलग अलग होती है| वैसे ही अपने अपने चैतन्य की स्थिति और विकास के क्रम के अनुसार ही हमारी साधना भी अलग अलग होती है| एक साधक के लिए जो साधना अनुकूल है, यह आवश्यक नहीं है कि दूसरे साधक के भी अनुकूल होगी| एक उत्तम उपासक सर्वथा परमेश्वर में अपनी सारी इच्छाओं को लीन कर देता है| उसकी कोई स्वतंत्र इच्छा नहीं होती|
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वेदान्त के दृष्टिकोण से जो ध्यान भाव को भी तज कर केवल ध्येय स्वरूप में सर्वथा स्थित रहते हैं वे सबसे उत्तम उपासक हैं| यह एक बहुत गहन रहस्य की बात है जिसे परमात्मा की कृपा से ही समझा जा सकता है|

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आवश्यकता चेतना के स्तर को ऊंचा उठाने में है| समस्त ज्ञान, समस्त उपलब्धियाँ, पूर्णता कहीं बाहर नहीं है, ये सब हमारी चेतना में ही हैं| चेतना के स्तर को ऊंचा उठाओ, सारी उपलब्धियाँ स्वयं को अनावृत कर हमारे साथ एकाकार हो जायेंगी|
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ॐ तत्सत् | 
ॐ शिव ! ॐ शिव ! ॐ शिव ! ॐ ॐ ॐ ||

सकल भूमि गोपाल की, तामें अटक कहाँ ? जाके मन में अटक है, सोई अटक रहा ....

सकल भूमि गोपाल की, तामें अटक कहाँ ?
जाके मन में अटक है, सोई अटक रहा ....
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महाराजा रणजीतसिंह जी ने जब अटक के किले पर आक्रमण किया था तब उस समय मार्ग की एक बरसाती नदी में बाढ़ आई हुई थी| किले का किलेदार और सभी पठान सिपाही निश्चिन्त होकर सो रहे थे कि रात के अँधेरे में रणजीतसिंह की फौज नदी को पार नहीं कर पायेगी| अगले दिन किले के पठानों को आसपास से और भी सहायता मिलने वाली थी|
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आधी रात का समय था और रणजीतसिंह जी के सामने नदी पार करने के अतिरिक्तं कोई अन्य विकल्प नहीं था| उन्हें पता था कि दिन उगते ही पठान सेना सजग हो जायेगी और आसपास से उन्हें और भी सहायता मिल जायेगी| तब अटक को जीतना असम्भव होगा| रणजीतसिंह जी एक वीर योद्धा ही नहीं अपितु एक भक्त और योगी भी थे|
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उन्होंने नदी का वह सबसे चौड़ा पाट ढूँढा जहाँ पानी सबसे कम गहरा था, और अपने सिपाहियों से यह कह कर कि .....
"सकल भूमि गोपाल की, तामें अटक कहाँ ?
जाके मन में अटक है, सोई अटक रहा "....
अपना घोड़ा नदी में उतार दिया और नदी के उस पार पहुँच गए| पीछे पीछे सारी सिख फौज ने भी नदी पार कर ली|
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भोर होने से पूर्व ही उनकी सिख सेना ने अटक के किले को घेर लिया| रणजीत सिंह जी को देखकर किले का किलेदार और उसकी सारी फौज भाग खड़ी हुई| अटक पर अधिकार कर के ही रणजीतसिंह जी नहीं रुके, उन्होंने पूरे अफगानिस्तान को जीत कर अपने राज्य में मिला लिया| उनके राज्य की सीमाओं में सिंध, अफगानिस्तान, पंजाब, कश्मीर और पूरा लद्दाख भी था| हिन्दू जाति के सबसे वीर योद्धाओं में उनका नाम भी सम्मिलित है| वे एक ऐसे महान योद्धा थे जिन्होनें कभी असफलता नहीं देखी| इसका कारण उनका दृढ़ मनोबल और दूरदर्शिता थी|
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जो भी व्यक्ति मन लगाकर किसी भी असंभव कार्य को संपन्न करने के लिए प्रयत्नशील होने लगता हे तो वह निश्चित रूप से उसे संभव कर ही लेता है|
रहीमदास जी ने कहा है ....
रहिमन मनहिं लगाइके, देखि लेहुँ किन कोय |
नर को बस कर वो कहाँ, नारायण वश होय ||
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सभी को सादर नमन ! ॐ तत्सत् | ॐ ॐ ॐ ||