जीवन में परमात्मा को समर्पित होना ही सार्थकता है .....
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आध्यात्म में विभिन्न प्रकार की अनेक साधनाएँ हैं और उनके अनेक क्रम हैं| किसी जिज्ञासु का मार्गदर्शन तो कोई श्रोत्रीय ब्रह्मनिष्ठ आचार्य ही कर सकते हैं, मेरे जैसा अकिंचन व्यक्ति नहीं| यहाँ तो मैं अपने आप को और अपने विचारों को व्यक्त करने का एक प्रयास मात्र कर रहा हूँ| कोई आवश्यक नहीं है कि कोई मुझसे सहमत ही हो|
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भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं कि थोड़ी-बहुत अल्प मात्रा में भी धर्म का आचरण महा भय से हमारी रक्षा करता है| इसका अर्थ मेरी अल्प और सीमित बुद्धि से यही है कि हमारे सब कष्टों का कारण धर्म का आचरण नहीं करना ही है| हम धर्म का आचरण करेंगे तभी भगवान हमारी रक्षा करेंगे| धर्म के आचरण से ही धर्म की रक्षा होती है जो अंततः हमारी ही रक्षा करता है|
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अब प्रश्न यह उठता है कि धर्म क्या है| इसकी अनेक परिभाषाएँ हैं| पर मुझे जो समझ में आया है उसके अनुसार परमात्मा के प्रति परम प्रेम और सतत समर्पण की साधना द्वारा ही हम धर्म का मर्म समझ सकते हैं| धर्म एक अनुभव और प्रेरणा है जो हमें परमात्मा से प्राप्त होती है| परमात्मा को परम प्रेम और समर्पण ही धर्म को जानने की कुंजी है| हमारा आचरण धार्मिक तभी हो सकता है जब हमारे जीवन का केंद्रबिंदु और कर्ता एकमात्र परमात्मा ही हो| जो साधक परमेश्वर में अपनी सारी इच्छाओं को लीन कर देता है, ऐसे साधक के योगक्षेम का वहन भगवान करते हैं| ध्यान भाव को भी छोड़कर केवल ध्येय स्वरूप में सर्वथा स्थित रहने का प्रयास ही सही साधना है|
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मूर्ति पूजा, जप, स्तुति, मानस पूजा, ध्यान और ब्रह्मभाव आदि ये सब क्रम हैं, जैसे एक बालक प्रथम कक्षा में पढ़ता है, एक पांचवीं में, एक कॉलेज में, कोई डॉक्टरेट कर रहा है और कोई पोस्ट डॉक्टरेट कर रहा है वैसे ही साधनाओं के भी क्रम हैं| एक ही साधना सभी के लिए नहीं हो सकती|
चौथी कक्षा का बालक अभियांत्रिकी गणित को नहीं समझ सकता, वैसे ही श्रेणियाँ आध्यात्मिक साधनाओं में हैं और ईश्वर की परिकल्पना की समझ में भी है|
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जब हम कहते हैं कि मनुष्य जीवन का लक्ष्य केवल ईश्वर की प्राप्ति है तो ईश्वर की परिकल्पना भी प्रत्येक व्यक्ति की अलग अलग होती है| इसे समझाना अति कठिन है| अधिकाँश लोग तो यही समझते हैं कि भगवान हमारी प्रार्थनाओं व स्तुतियों से प्रसन्न होकर हमें सुख शांति और भोग्य पदार्थ देता है| उनके लिए परमात्मा एक माध्यम यानि साधन है और संसार की वासनाएँ साध्य है| ऐसे लोगों के लिए आध्यात्म को समझना असम्भव है|
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हमारी श्रुतियाँ कहती हैं कि हमारे सब दुःखों का कारण हमारी कामनाएँ हैं तो उनसे मुक्त कैसे हों?
इसका एकमात्र उत्तर है -- "उपासना"|
भगवान की ओर समस्त कामनाओं को मोड़ देंगे तो वे हमारी कामनाओं को निश्चित ही समाप्त कर देंगे। यही हमारी आस्था है, हमारी श्रद्धा और विश्वास है|
पूरा ह्रदय उनको दे देंगे तो एक ना एक दिन तो उन्हें आना ही पडेगा| यदि वे नहीं भी आते हैं तो कोई बात नहीं| इस नारकीय जीवन से तो अच्छा है कि उनका स्मरण चिंतन करते हुए ही हम उनकी इस मायावी दुनियाँ से विदा ले लें|
.हे प्रियतम परमात्मा, हमें आपसे प्यार हो गया है, आप सदा हमें प्यारे लगें, आप सदा हमें प्यारे लगें, और आप सदा हमें प्यारे लगें| इसके अतिरिक्त हमारी कोई कामना नहीं है|
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ॐ तत्सत् | ॐ नमः शिवाय| ॐ ॐ ॐ ||
26 नवम्बर 2014
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आध्यात्म में विभिन्न प्रकार की अनेक साधनाएँ हैं और उनके अनेक क्रम हैं| किसी जिज्ञासु का मार्गदर्शन तो कोई श्रोत्रीय ब्रह्मनिष्ठ आचार्य ही कर सकते हैं, मेरे जैसा अकिंचन व्यक्ति नहीं| यहाँ तो मैं अपने आप को और अपने विचारों को व्यक्त करने का एक प्रयास मात्र कर रहा हूँ| कोई आवश्यक नहीं है कि कोई मुझसे सहमत ही हो|
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भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं कि थोड़ी-बहुत अल्प मात्रा में भी धर्म का आचरण महा भय से हमारी रक्षा करता है| इसका अर्थ मेरी अल्प और सीमित बुद्धि से यही है कि हमारे सब कष्टों का कारण धर्म का आचरण नहीं करना ही है| हम धर्म का आचरण करेंगे तभी भगवान हमारी रक्षा करेंगे| धर्म के आचरण से ही धर्म की रक्षा होती है जो अंततः हमारी ही रक्षा करता है|
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अब प्रश्न यह उठता है कि धर्म क्या है| इसकी अनेक परिभाषाएँ हैं| पर मुझे जो समझ में आया है उसके अनुसार परमात्मा के प्रति परम प्रेम और सतत समर्पण की साधना द्वारा ही हम धर्म का मर्म समझ सकते हैं| धर्म एक अनुभव और प्रेरणा है जो हमें परमात्मा से प्राप्त होती है| परमात्मा को परम प्रेम और समर्पण ही धर्म को जानने की कुंजी है| हमारा आचरण धार्मिक तभी हो सकता है जब हमारे जीवन का केंद्रबिंदु और कर्ता एकमात्र परमात्मा ही हो| जो साधक परमेश्वर में अपनी सारी इच्छाओं को लीन कर देता है, ऐसे साधक के योगक्षेम का वहन भगवान करते हैं| ध्यान भाव को भी छोड़कर केवल ध्येय स्वरूप में सर्वथा स्थित रहने का प्रयास ही सही साधना है|
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मूर्ति पूजा, जप, स्तुति, मानस पूजा, ध्यान और ब्रह्मभाव आदि ये सब क्रम हैं, जैसे एक बालक प्रथम कक्षा में पढ़ता है, एक पांचवीं में, एक कॉलेज में, कोई डॉक्टरेट कर रहा है और कोई पोस्ट डॉक्टरेट कर रहा है वैसे ही साधनाओं के भी क्रम हैं| एक ही साधना सभी के लिए नहीं हो सकती|
चौथी कक्षा का बालक अभियांत्रिकी गणित को नहीं समझ सकता, वैसे ही श्रेणियाँ आध्यात्मिक साधनाओं में हैं और ईश्वर की परिकल्पना की समझ में भी है|
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जब हम कहते हैं कि मनुष्य जीवन का लक्ष्य केवल ईश्वर की प्राप्ति है तो ईश्वर की परिकल्पना भी प्रत्येक व्यक्ति की अलग अलग होती है| इसे समझाना अति कठिन है| अधिकाँश लोग तो यही समझते हैं कि भगवान हमारी प्रार्थनाओं व स्तुतियों से प्रसन्न होकर हमें सुख शांति और भोग्य पदार्थ देता है| उनके लिए परमात्मा एक माध्यम यानि साधन है और संसार की वासनाएँ साध्य है| ऐसे लोगों के लिए आध्यात्म को समझना असम्भव है|
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हमारी श्रुतियाँ कहती हैं कि हमारे सब दुःखों का कारण हमारी कामनाएँ हैं तो उनसे मुक्त कैसे हों?
इसका एकमात्र उत्तर है -- "उपासना"|
भगवान की ओर समस्त कामनाओं को मोड़ देंगे तो वे हमारी कामनाओं को निश्चित ही समाप्त कर देंगे। यही हमारी आस्था है, हमारी श्रद्धा और विश्वास है|
पूरा ह्रदय उनको दे देंगे तो एक ना एक दिन तो उन्हें आना ही पडेगा| यदि वे नहीं भी आते हैं तो कोई बात नहीं| इस नारकीय जीवन से तो अच्छा है कि उनका स्मरण चिंतन करते हुए ही हम उनकी इस मायावी दुनियाँ से विदा ले लें|
.हे प्रियतम परमात्मा, हमें आपसे प्यार हो गया है, आप सदा हमें प्यारे लगें, आप सदा हमें प्यारे लगें, और आप सदा हमें प्यारे लगें| इसके अतिरिक्त हमारी कोई कामना नहीं है|
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ॐ तत्सत् | ॐ नमः शिवाय| ॐ ॐ ॐ ||
26 नवम्बर 2014
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