भोजन एक यज्ञ है जिसे यज्ञकर्म की भाँति ही करें .....
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आज श्रीमाँ द्वारा भोजन से पूर्व की जाने वाली एक प्रार्थना पढ़ रहा था| बड़ी प्रभावशाली प्रार्थना है .....
"हे मधुर स्वामी, परम सत्य, मैं अभीप्सा करती हूँ कि मैं जो भोजन कर रही हूँ, वह सारे शरीर के कोषाणुओं में तुम्हारी सर्वज्ञता और तुम्हारी सर्वशक्तिमत्ता को भर दे|"
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भगवान सर्वज्ञ हैं इसलिए शरीर का हर कोषाणु सचेतन बन जाता है, उनकी सर्व-शक्तिमत्ता से हर कोषाणु सर्व-शक्तिमान बन जाता है| हमें अपनी भोजन सम्बन्धी आदतें भगवान को अर्पित कर देनी चाहिएँ, वे हमारी चेतना में से उन आदतों को दूर कर देंगे| हमें भोजन यथासंभव एकांत में बैठकर इस भाव से करना चाहिए कि स्वयं भगवान इसे ग्रहण कर रहे हैं और इससे सारी सृष्टि को पुष्टि और तृप्ति मिल रही है| गीता में भगवान कहते हैं ....
"अहं वैश्वानरो भूत्वा प्राणिनां देहमाश्रितः| प्राणापानसमायुक्तः पचाम्यन्नं चतुर्विधम्||१५:१४||"
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भगवान ही पेट में रहने वाले जठराग्नि वैश्वानर हैं जो भक्ष्य, भोज्य, लेह्य व चोष्य अन्न को प्राण और अपान वायु से संयुक्त कर पचाते हैं| जो खाया जा रहा है, वह अन्न भी सोम रूप में भगवान हैं| खाने वाले भी भगवान हैं और जिसे खाया जा रहा है वह भी भगवान हैं| यह प्रक्रिया भी भगवान् हैं| गीता में भगवान कहते हैं .....
ब्रह्मार्पणं ब्रह्महविर्ब्रह्माग्नौ ब्रह्मणा हुतम्| ब्रह्मैव तेन गन्तव्यं ब्रह्मकर्मसमाधिना||४:२४||"
भोजन से पूर्व उपरोक्त मन्त्र का पाठ और इसके साथ शान्तिमंत्र का पाठ अधिकांश साधक करते हैं| पंचप्राणों को भी प्रथम पाँच ग्रासों के साथ स्मरण करते हैं| कम से कम प्रथम ग्रास के साथ ... "ॐ प्राणाय स्वाहा" ... इस मन्त्र को तो मानसिक रूप से अवश्य बोलना चाहिए|
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ब्रह्मवेत्ता पुरुष जिस साधन द्वारा अग्निमें हवि अर्पण करता है उस साधन को ब्रह्मरूप ही देखा करता है| ब्रह्म ही अर्पण है, हवि भी ब्रह्म है, अग्नि भी ब्रह्म है, कर्ता भी ब्रह्म है, और क्रिया भी ब्रह्म है|
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ॐ तत्सत् ! ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
११ दिसंबर २०१८
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आज श्रीमाँ द्वारा भोजन से पूर्व की जाने वाली एक प्रार्थना पढ़ रहा था| बड़ी प्रभावशाली प्रार्थना है .....
"हे मधुर स्वामी, परम सत्य, मैं अभीप्सा करती हूँ कि मैं जो भोजन कर रही हूँ, वह सारे शरीर के कोषाणुओं में तुम्हारी सर्वज्ञता और तुम्हारी सर्वशक्तिमत्ता को भर दे|"
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भगवान सर्वज्ञ हैं इसलिए शरीर का हर कोषाणु सचेतन बन जाता है, उनकी सर्व-शक्तिमत्ता से हर कोषाणु सर्व-शक्तिमान बन जाता है| हमें अपनी भोजन सम्बन्धी आदतें भगवान को अर्पित कर देनी चाहिएँ, वे हमारी चेतना में से उन आदतों को दूर कर देंगे| हमें भोजन यथासंभव एकांत में बैठकर इस भाव से करना चाहिए कि स्वयं भगवान इसे ग्रहण कर रहे हैं और इससे सारी सृष्टि को पुष्टि और तृप्ति मिल रही है| गीता में भगवान कहते हैं ....
"अहं वैश्वानरो भूत्वा प्राणिनां देहमाश्रितः| प्राणापानसमायुक्तः पचाम्यन्नं चतुर्विधम्||१५:१४||"
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भगवान ही पेट में रहने वाले जठराग्नि वैश्वानर हैं जो भक्ष्य, भोज्य, लेह्य व चोष्य अन्न को प्राण और अपान वायु से संयुक्त कर पचाते हैं| जो खाया जा रहा है, वह अन्न भी सोम रूप में भगवान हैं| खाने वाले भी भगवान हैं और जिसे खाया जा रहा है वह भी भगवान हैं| यह प्रक्रिया भी भगवान् हैं| गीता में भगवान कहते हैं .....
ब्रह्मार्पणं ब्रह्महविर्ब्रह्माग्नौ ब्रह्मणा हुतम्| ब्रह्मैव तेन गन्तव्यं ब्रह्मकर्मसमाधिना||४:२४||"
भोजन से पूर्व उपरोक्त मन्त्र का पाठ और इसके साथ शान्तिमंत्र का पाठ अधिकांश साधक करते हैं| पंचप्राणों को भी प्रथम पाँच ग्रासों के साथ स्मरण करते हैं| कम से कम प्रथम ग्रास के साथ ... "ॐ प्राणाय स्वाहा" ... इस मन्त्र को तो मानसिक रूप से अवश्य बोलना चाहिए|
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ब्रह्मवेत्ता पुरुष जिस साधन द्वारा अग्निमें हवि अर्पण करता है उस साधन को ब्रह्मरूप ही देखा करता है| ब्रह्म ही अर्पण है, हवि भी ब्रह्म है, अग्नि भी ब्रह्म है, कर्ता भी ब्रह्म है, और क्रिया भी ब्रह्म है|
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ॐ तत्सत् ! ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
११ दिसंबर २०१८