Tuesday 11 December 2018

भोजन एक यज्ञ है जिसे यज्ञकर्म की भाँति ही करें .....

भोजन एक यज्ञ है जिसे यज्ञकर्म की भाँति ही करें .....
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आज श्रीमाँ द्वारा भोजन से पूर्व की जाने वाली एक प्रार्थना पढ़ रहा था| बड़ी प्रभावशाली प्रार्थना है .....
"हे मधुर स्वामी, परम सत्य, मैं अभीप्सा करती हूँ कि मैं जो भोजन कर रही हूँ, वह सारे शरीर के कोषाणुओं में तुम्हारी सर्वज्ञता और तुम्हारी सर्वशक्तिमत्ता को भर दे|"
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भगवान सर्वज्ञ हैं इसलिए शरीर का हर कोषाणु सचेतन बन जाता है, उनकी सर्व-शक्तिमत्ता से हर कोषाणु सर्व-शक्तिमान बन जाता है| हमें अपनी भोजन सम्बन्धी आदतें भगवान को अर्पित कर देनी चाहिएँ, वे हमारी चेतना में से उन आदतों को दूर कर देंगे| हमें भोजन यथासंभव एकांत में बैठकर इस भाव से करना चाहिए कि स्वयं भगवान इसे ग्रहण कर रहे हैं और इससे सारी सृष्टि को पुष्टि और तृप्ति मिल रही है| गीता में भगवान कहते हैं ....
"अहं वैश्वानरो भूत्वा प्राणिनां देहमाश्रितः| प्राणापानसमायुक्तः पचाम्यन्नं चतुर्विधम्||१५:१४||"
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भगवान ही पेट में रहने वाले जठराग्नि वैश्वानर हैं जो भक्ष्य, भोज्य, लेह्य व चोष्य अन्न को प्राण और अपान वायु से संयुक्त कर पचाते हैं| जो खाया जा रहा है, वह अन्न भी सोम रूप में भगवान हैं| खाने वाले भी भगवान हैं और जिसे खाया जा रहा है वह भी भगवान हैं| यह प्रक्रिया भी भगवान् हैं| गीता में भगवान कहते हैं .....
ब्रह्मार्पणं ब्रह्महविर्ब्रह्माग्नौ ब्रह्मणा हुतम्| ब्रह्मैव तेन गन्तव्यं ब्रह्मकर्मसमाधिना||४:२४||"
भोजन से पूर्व उपरोक्त मन्त्र का पाठ और इसके साथ शान्तिमंत्र का पाठ अधिकांश साधक करते हैं| पंचप्राणों को भी प्रथम पाँच ग्रासों के साथ स्मरण करते हैं| कम से कम प्रथम ग्रास के साथ ... "ॐ प्राणाय स्वाहा" ... इस मन्त्र को तो मानसिक रूप से अवश्य बोलना चाहिए|
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ब्रह्मवेत्ता पुरुष जिस साधन द्वारा अग्निमें हवि अर्पण करता है उस साधन को ब्रह्मरूप ही देखा करता है| ब्रह्म ही अर्पण है, हवि भी ब्रह्म है, अग्नि भी ब्रह्म है, कर्ता भी ब्रह्म है, और क्रिया भी ब्रह्म है|
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ॐ तत्सत् ! ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
११ दिसंबर २०१८

उपासना में श्रवण परम्परा यानी सुनने का महत्व :---

उपासना में श्रवण परम्परा यानी सुनने का महत्व :---
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संत-महात्माओं के मुख से सुना है कि वेदांत में श्रवण करने यानि सुनने का बड़ा महत्व है| श्रवण परम्परा से ही वेदों का ज्ञान गुरु से शिष्यों में आया अतः वेदों के ज्ञान को श्रुति कहते हैं| ब्राह्मणों ने इन्हें बार बार सुन कर ही अभ्यास किया और उन्हें कंठस्थ कर के जीवित रखा| इसी के कारण वेदों का ज्ञान जीवित रहा अन्यथा ये कभी के भुला दिए गए होते| सिर्फ लिख कर ही किसी ज्ञान को सुरक्षित नहीं रखा जा सकता| विदेशी आक्रमणकारियों ने हमारे करोड़ों ग्रंथों की पांडुलिपियों को नष्ट किया| भट्टियों में लकड़ी की जगह हिन्दुओं के धर्मग्रंथों की पांडुलिपियाँ जलाई जाती रहीं, पुस्तकालयों में जलाई हुई अग्नि महीनों तक जलती रहतीं| पर महत्वपूर्ण ग्रंथों को रट रट कर स्मृति में रख कर ब्राह्मण वर्ग ने उनको जीवित रखा| बाद में अंग्रेजों ने गुरुकुल पद्धति को प्रतिबंधित कर के ब्राह्मणों को इतना दरिद्र बना दिया कि वे अपने बच्चों को पढ़ाने में भी असमर्थ हो गए और फिर अंग्रेजों ने उनसे सारी पांडुलिपियाँ रद्दी के भाव खरीद लीं| फिर भी भगवान की कृपा से कुछ समर्पित ब्राह्मणों ने रट रट कर वेदों के ज्ञान को जीवित रखा| आज उन्हीं के कारण वेद सुरक्षित हैं|
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अब मैं उपासना में श्रवण के महत्व की चर्चा करूँगा| महात्माओं के मुख से सुना है कि श्रवण करने से धर्म का ज्ञान होता है, कुबुद्धि का त्याग होता है, ज्ञान की प्राप्ति होती है और भवसागर से मुक्ति होती है| पर क्या सुनें ???
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इस विषय पर योगदर्शन में भी सूत्र हैं, और अनेक महात्माओं द्वारा लिखी हुई पुस्तकें भी हैं| इसके बारे में मैं यही सुझाव दूँगा कि किसी सिद्ध श्रौत्रीय ब्रह्मनिष्ठ आचार्य से इसकी विधि सीखें और उनसे दीक्षा लेकर ही उसका अभ्यास करें| गुरु-परम्परा से बाहर इस साधना की विधि की चर्चा करने का निषेध है| अतः निषेधात्मक कारणों से मैं इस विषय पर और चर्चा नहीं करूँगा| जितना बोलने का मुझे अधिकार है उतना ही बोलूँगा, उस से अधिक नहीं| मैं बात अनाहत नाद की कह रहा था| कुछ आचार्यों ने इसे जठराग्नि की ध्वनि बताया है, कुछ ने सुषुम्ना में जागृत हो रही कुण्डलिनी की आवाज़| यह बहुत ही शक्तिशाली साधना है जिसे किसी अधिकृत आचार्य से ही सीखें| बृहदारण्यक उपनिषद् में इस साधना की महिमा ऋषि याज्ञवल्क्य ने राजा जनक की सभा में सभी उपस्थित ऋषियों को बताई है|
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ॐ श्री गुरवे नमः ! ॐ तत्सत् ! ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ! ॐ ॐ ॐ !!

संत-महात्माओं के सत्संग से प्राप्त कुछ ज्ञान की बातें .....

संत-महात्माओं के सत्संग से प्राप्त कुछ ज्ञान की बातें .....
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(१) किसी भी शब्द को बोलने से पहले दस बार सोचें| अनमोल हैं हमारे वचन| हमारी वाणी मिथ्या न हो| लोभ-लालच में आकर झूठ न बोलें| सत्य ही नारायण है और सत्य ही परमशिव परमात्मा है| असत्य बोलने से हमारी वाणी दग्ध हो जाती है| उस दग्ध वाणी से की गयी कोई भी प्रार्थना, जप, स्तुति आदि कभी फलीभूत नहीं होती|
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(२) द्वैत-अद्वैत, साकार-निराकार सब परमात्मा ही है| इस विषय पर कोई विवाद न करें|
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(३) हम लोग अपनी कामनाओं की पूर्ति के लिए अनेक मजारों पर जाकर अपना सिर पटकते हैं, विभिन्न देवी-देवताओं की मनौतियाँ करते हैं, यह हमारा लोभ ही है| हमें पता ही नहीं चलता कि ऐसा करने से हमारी चेतना कितनी नीचे चली जाती है| हम मंगते भिखारी ही बने रहते हैं|
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(४) भगवान् तो हमारे साथ सदैव हैं, यहीं हैं, इसी समय हैं, निरंतर हैं और सदा रहेंगे| अब भय और चिंता किस बात की? जहाँ भगवान हैं वहाँ चिंता और भय हो ही नहीं सकते| भय की सीमा इतनी ही है कि वह कोई गलत कार्य करने से पूर्व हमें चेतावनी दे दे, बस, इससे अधिक और कुछ नहीं| जो लोग भगवान से डरना सिखाते हैं वे गलत शिक्षा दे रहे हैं| भगवान तो प्रेम हैं, प्रेम से भय कैसा? हम लोग अपने बच्चों को डरा डरा कर डरपोक बना देते हैं, जो गलत है| किसी को भी भयभीत करना सबसे बड़ा दंड है और पाप भी है|
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(५) भगवान को पाना हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है| उस जन्मसिद्ध अधिकार को प्राप्त करने के लिए कैसी प्रार्थना? क्या आप अपने माता-पिता का प्यार पाने के लिए प्रार्थना करते हैं? वह तो आपका अधिकार है| कोई प्रार्थना नहीं, कोई प्रार्थना नहीं, कोई प्रार्थना नहीं, कोई गिडगिडाना नहीं, सिर्फ प्यार करना, सिर्फ प्यार करना, सिर्फ प्यार करना, और वे भी आपको प्यार करने को बाध्य हो जायेंगे क्योंकि यह उनका स्वभाव है|
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ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
११ दिसंबर २०१८