हमारा वास्तविक "स्व" तो परमात्मा है जिसकी चेतना में जीना हमारा स्वभाव है .....
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निरंतर ब्रह्म-चिंतन और भक्ति ही हमारा स्वभाव है, अन्यथा हम अभाव ग्रस्त हैं| अभाव में जीने से हमारा पतन सुनिश्चित है| माया के विक्षेप और आवरण बहुत अधिक शक्तिशाली हैं जो हमें निरंतर अधोगामी बनाते है| सिर्फ भगवान की भक्ति और उनका ध्यान ही हमारी रक्षा कर सकते हैं| जब हम स्वभाव में जीते हैं तब पूर्णतः सकारात्मक होते हैं, अन्यथा बहुत अधिक नकारात्मक| हमारा वास्तविक "स्व" तो परमात्मा है, जिनकी चेतना में जीना हमारा वास्तविक और सही स्वभाव है| हम अपने स्वभाव में जीएँ और स्वभाव के विरुद्ध जो कुछ भी है उसका परित्याग करें|
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निरंतर अभ्यास करते करते परमात्मा व गुरु की असीम कृपा से निरंतर ब्रह्म-चिंतन और भक्ति ही हमारा स्वभाव बन जाता है| जब भगवान ह्रदय में आकर बैठ जाते हैं तब वे फिर बापस नहीं जाते| यह स्वाभाविक अवस्था कभी न कभी तो सभी को प्राप्त होती है| सरिता प्रवाहित होती है, पर किसी के लिए नहीं| प्रवाहित होना उसका स्वभाव है| व्यक्ति .. स्वयं में जब परमात्मा को व्यक्त करना चाहता है, यह उसका स्वभाव है|
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जो लोग सर्वस्व यानि समष्टि की उपेक्षा करते हुए इस मनुष्य देह के हित की ही सोचते हैं, प्रकृति उन्हें कभी क्षमा नहीं करती| वे सब दंड के भागी होते हैं| समस्त सृष्टि ही अपना परिवार है और समस्त ब्रह्माण्ड ही अपना घर| यह देह रूपी वाहन और यह पृथ्वी भी बहुत छोटी है अपने निवास के लिए| अपना प्रेम सर्वस्व में पूर्णता से व्यक्त हो|
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परमात्मा की सर्वश्रेष्ठ साकार अभिव्यक्ति आप सब को सादर नमन ! ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
८ अप्रेल २०१८
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निरंतर ब्रह्म-चिंतन और भक्ति ही हमारा स्वभाव है, अन्यथा हम अभाव ग्रस्त हैं| अभाव में जीने से हमारा पतन सुनिश्चित है| माया के विक्षेप और आवरण बहुत अधिक शक्तिशाली हैं जो हमें निरंतर अधोगामी बनाते है| सिर्फ भगवान की भक्ति और उनका ध्यान ही हमारी रक्षा कर सकते हैं| जब हम स्वभाव में जीते हैं तब पूर्णतः सकारात्मक होते हैं, अन्यथा बहुत अधिक नकारात्मक| हमारा वास्तविक "स्व" तो परमात्मा है, जिनकी चेतना में जीना हमारा वास्तविक और सही स्वभाव है| हम अपने स्वभाव में जीएँ और स्वभाव के विरुद्ध जो कुछ भी है उसका परित्याग करें|
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निरंतर अभ्यास करते करते परमात्मा व गुरु की असीम कृपा से निरंतर ब्रह्म-चिंतन और भक्ति ही हमारा स्वभाव बन जाता है| जब भगवान ह्रदय में आकर बैठ जाते हैं तब वे फिर बापस नहीं जाते| यह स्वाभाविक अवस्था कभी न कभी तो सभी को प्राप्त होती है| सरिता प्रवाहित होती है, पर किसी के लिए नहीं| प्रवाहित होना उसका स्वभाव है| व्यक्ति .. स्वयं में जब परमात्मा को व्यक्त करना चाहता है, यह उसका स्वभाव है|
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जो लोग सर्वस्व यानि समष्टि की उपेक्षा करते हुए इस मनुष्य देह के हित की ही सोचते हैं, प्रकृति उन्हें कभी क्षमा नहीं करती| वे सब दंड के भागी होते हैं| समस्त सृष्टि ही अपना परिवार है और समस्त ब्रह्माण्ड ही अपना घर| यह देह रूपी वाहन और यह पृथ्वी भी बहुत छोटी है अपने निवास के लिए| अपना प्रेम सर्वस्व में पूर्णता से व्यक्त हो|
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परमात्मा की सर्वश्रेष्ठ साकार अभिव्यक्ति आप सब को सादर नमन ! ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
८ अप्रेल २०१८