श्रुति : (लेखक: सर्वज्ञ शङ्करेन्द्र)
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हर श्रुति के दो खण्ड होते हैं - मन्त्र भाग और ब्राह्मण भाग।
श्रुति को समझने के लिए जिनकी जरूरत पड़ती है उन्हें भी विद्या कह दिया जाता है।
श्रुतियों का अर्थ करने के लिये व्याकरण की बड़ी जरूरत होती है । शब्द का निर्माण कैसे हुआ ? इसका तात्पर्य क्या है ?
प्रत्येक मंत्र में कितने अक्षर , कितनी मात्रायें हैं ? यह जानने के लिये छन्दशास्त्र की जरूरत पड़ेगी , उसे भी जानना पड़ेगा|
इसी प्रकार किस - किस मन्त्र का किस प्रकार विनोयोग है , उसे जानने के लिये कल्पसूत्रों की जरूरत है|
वेद में कर्तव्य कर्मों को करने के लिये काल बताया है । काल का निर्णय करने के लिये ज्योतिषशास्त्र की जरूरत पड़ेगी|
यह भी पता लगाना पड़ता है कि सन्दर्भानुसार शब्द का अर्थ कैसे किया जाये । कई शब्दों के अर्थ संदर्भ के बिना केवल व्याकरण के बल से निर्णीत नहीँ होते ।
संदर्भों को जाने तब श्रुतियों का अर्थ ठीक लगेगा । ये सब मिलकर छ हो गये, इन्हें वेदाङ्ग कहते हैं ।
इतने ज्ञान से वेद के अक्षरार्थ का पता लग गया लेकिन वेदो का तात्पर्य समझने के लिये ये पर्याप्त नहीं हैं।
वेद का तात्पर्य समझने के लिये पुराण , न्याय , धर्मशास्त्र और मीमांसा की जरूरत पड़ती है ।
पुराण से यहाँ इतिहास - पुराण दोनों का संग्रह है । इतिहास अर्थात् " ईश्वरी प्रसाद का इतिहास नहीं समझेंगे । बाल्मिकि रामायण और व्यास जी का महाभारत , इन दो को ही हम इतिहास समझते हैं ।
यहाँ लिखा कि " विभेत्यल्पश्रुताद् वेदः मामयं प्रहरिष्यति " जिस व्यक्ति ने वेदाङ्ग , पुराण , न्याय , धर्म- शास्त्र और मीमांसा का अध्ययन गुरु मुख से नहीं किया वह केवल अक्षरार्थ के बल से जब श्रुतियों का अर्थ करता है तो जो वेद संसार के मूल कारण अज्ञान को भी नष्ट करने में समर्थ है , वह भी काँप जाता है । " अल्पश्रुतात् " अर्थात् इन ज्ञानों को प्राप्त किये बिना जो श्रुतियों का अर्थ लगाने जाता है उससे " वेद " अर्थात् श्रुति को डर लगता है कि अब यह मेरा वध करने आ गया ।
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हर श्रुति के दो खण्ड होते हैं - मन्त्र भाग और ब्राह्मण भाग।
श्रुति को समझने के लिए जिनकी जरूरत पड़ती है उन्हें भी विद्या कह दिया जाता है।
श्रुतियों का अर्थ करने के लिये व्याकरण की बड़ी जरूरत होती है । शब्द का निर्माण कैसे हुआ ? इसका तात्पर्य क्या है ?
प्रत्येक मंत्र में कितने अक्षर , कितनी मात्रायें हैं ? यह जानने के लिये छन्दशास्त्र की जरूरत पड़ेगी , उसे भी जानना पड़ेगा|
इसी प्रकार किस - किस मन्त्र का किस प्रकार विनोयोग है , उसे जानने के लिये कल्पसूत्रों की जरूरत है|
वेद में कर्तव्य कर्मों को करने के लिये काल बताया है । काल का निर्णय करने के लिये ज्योतिषशास्त्र की जरूरत पड़ेगी|
यह भी पता लगाना पड़ता है कि सन्दर्भानुसार शब्द का अर्थ कैसे किया जाये । कई शब्दों के अर्थ संदर्भ के बिना केवल व्याकरण के बल से निर्णीत नहीँ होते ।
संदर्भों को जाने तब श्रुतियों का अर्थ ठीक लगेगा । ये सब मिलकर छ हो गये, इन्हें वेदाङ्ग कहते हैं ।
इतने ज्ञान से वेद के अक्षरार्थ का पता लग गया लेकिन वेदो का तात्पर्य समझने के लिये ये पर्याप्त नहीं हैं।
वेद का तात्पर्य समझने के लिये पुराण , न्याय , धर्मशास्त्र और मीमांसा की जरूरत पड़ती है ।
पुराण से यहाँ इतिहास - पुराण दोनों का संग्रह है । इतिहास अर्थात् " ईश्वरी प्रसाद का इतिहास नहीं समझेंगे । बाल्मिकि रामायण और व्यास जी का महाभारत , इन दो को ही हम इतिहास समझते हैं ।
यहाँ लिखा कि " विभेत्यल्पश्रुताद् वेदः मामयं प्रहरिष्यति " जिस व्यक्ति ने वेदाङ्ग , पुराण , न्याय , धर्म- शास्त्र और मीमांसा का अध्ययन गुरु मुख से नहीं किया वह केवल अक्षरार्थ के बल से जब श्रुतियों का अर्थ करता है तो जो वेद संसार के मूल कारण अज्ञान को भी नष्ट करने में समर्थ है , वह भी काँप जाता है । " अल्पश्रुतात् " अर्थात् इन ज्ञानों को प्राप्त किये बिना जो श्रुतियों का अर्थ लगाने जाता है उससे " वेद " अर्थात् श्रुति को डर लगता है कि अब यह मेरा वध करने आ गया ।
आजकल
अधिकतर लोग कहते हैं कि " वेद ही पढ़ना है तो सीधे पढ़ लें। " ऐसे लोगों से
वेद ही बेचारा काँपता रहता है कि न जाने कहाँ का कहाँ अथः कर जायेंगे । वे
का तात्पर्य बताने में ये चारों शास्त्र भी जरूरी है । इतिहास , पुराण के
द्वारा वेद का उपबृंहण करना पड़ता है । पुराण के अन्दर सर्ग , प्रतिसर्ग ,
मन्वन्तर आदि कथानकों के द्वारा पता लगता है कि वेद के अमुक मन्त्र का क्या
तात्पर्य है जिसको उन ऋषियों ने बताया । मंगल हो आपका ।