Monday 29 August 2016

श्रुति : ..........

श्रुति : (लेखक: सर्वज्ञ शङ्करेन्द्र)
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हर श्रुति के दो खण्ड होते हैं - मन्त्र भाग और ब्राह्मण भाग।
श्रुति को समझने के लिए जिनकी जरूरत पड़ती है उन्हें भी विद्या कह दिया जाता है।
श्रुतियों का अर्थ करने के लिये व्याकरण की बड़ी जरूरत होती है । शब्द का निर्माण कैसे हुआ ? इसका तात्पर्य क्या है ?
प्रत्येक मंत्र में कितने अक्षर , कितनी मात्रायें हैं ? यह जानने के लिये छन्दशास्त्र की जरूरत पड़ेगी , उसे भी जानना पड़ेगा|
इसी प्रकार किस - किस मन्त्र का किस प्रकार विनोयोग है , उसे जानने के लिये कल्पसूत्रों की जरूरत है|
वेद में कर्तव्य कर्मों को करने के लिये काल बताया है । काल का निर्णय करने के लिये ज्योतिषशास्त्र की जरूरत पड़ेगी|
यह भी पता लगाना पड़ता है कि सन्दर्भानुसार शब्द का अर्थ कैसे किया जाये । कई शब्दों के अर्थ संदर्भ के बिना केवल व्याकरण के बल से निर्णीत नहीँ होते ।
संदर्भों को जाने तब श्रुतियों का अर्थ ठीक लगेगा । ये सब मिलकर छ हो गये, इन्हें वेदाङ्ग कहते हैं ।
इतने ज्ञान से वेद के अक्षरार्थ का पता लग गया लेकिन वेदो का तात्पर्य समझने के लिये ये पर्याप्त नहीं हैं।
वेद का तात्पर्य समझने के लिये पुराण , न्याय , धर्मशास्त्र और मीमांसा की जरूरत पड़ती है ।
पुराण से यहाँ इतिहास - पुराण दोनों का संग्रह है । इतिहास अर्थात् " ईश्वरी प्रसाद का इतिहास नहीं समझेंगे । बाल्मिकि रामायण और व्यास जी का महाभारत , इन दो को ही हम इतिहास समझते हैं ।
यहाँ लिखा कि " विभेत्यल्पश्रुताद् वेदः मामयं प्रहरिष्यति " जिस व्यक्ति ने वेदाङ्ग , पुराण , न्याय , धर्म- शास्त्र और मीमांसा का अध्ययन गुरु मुख से नहीं किया वह केवल अक्षरार्थ के बल से जब श्रुतियों का अर्थ करता है तो जो वेद संसार के मूल कारण अज्ञान को भी नष्ट करने में समर्थ है , वह भी काँप जाता है । " अल्पश्रुतात् " अर्थात् इन ज्ञानों को प्राप्त किये बिना जो श्रुतियों का अर्थ लगाने जाता है उससे " वेद " अर्थात् श्रुति को डर लगता है कि अब यह मेरा वध करने आ गया ।

आजकल अधिकतर लोग कहते हैं कि " वेद ही पढ़ना है तो सीधे पढ़ लें। " ऐसे लोगों से वेद ही बेचारा काँपता रहता है कि न जाने कहाँ का कहाँ अथः कर जायेंगे । वे का तात्पर्य बताने में ये चारों शास्त्र भी जरूरी है । इतिहास , पुराण के द्वारा वेद का उपबृंहण करना पड़ता है । पुराण के अन्दर सर्ग , प्रतिसर्ग , मन्वन्तर आदि कथानकों के द्वारा पता लगता है कि वेद के अमुक मन्त्र का क्या तात्पर्य है जिसको उन ऋषियों ने बताया । मंगल हो आपका ।

साधना में नियमितता .....

साधना में नियमितता .....
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परमात्मा की नियमित उपासना से धर्म के गूढ़ से गूढ़ तत्व भी अपने आप ही समझ में आ जाते हैं| जिस तरह किसी शिला के ऊपर कंकर रखकर बड़े पत्थर से पीसते रहो तो वे कंकर धूल बनकर महीन से महीन होते जाते हैं, वैसे ही चाहे कितनी भी या कैसी भी जड़ता अपने चैतन्य में हो, नियमित साधना से निरंतर रूपांतरित होती रहती है|
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सैकड़ों हज़ारों बाधाओं के बावजूद भी अपने संकल्प से टस से मस नहीं होना चाहिए| कही जाने की आवश्यकता नहीं है| घर में एक एकांत कमरे की या एकांत स्थान की व्यवस्था कर लो और वहीँ नियमित रूप से अपने आसन पर बैठकर अपने ईष्ट देव का पूर्ण प्रेम से ध्यान करो| आगे का काम उसका है, हमारा नहीं|
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पहले हम लोग कुओं से पानी भरते थे, वहाँ रस्सी के आवागमन से शिला पर निशान पड़ जाते थे| प्राचीन मंदिरों में लोगों के आवागमन से मार्ग में पत्थर की घिसी हुई शिलाओं को मैनें देखा है| कैसी भी जड़ता हो प्रभु कृपा उसे दूर कर देती है|

आप सब परमात्मा की परम अभिव्यक्ति हो| अप सब को सादर सप्रेम नमन!
ॐ नमः शिवाय | ॐ ॐ ॐ ||

सारी साधनाएँ आध्यात्म की तैयारी मात्र हैं, अपने आप में आध्यात्म नहीं ........

सारी साधनाएँ आध्यात्म की तैयारी मात्र हैं, अपने आप में आध्यात्म नहीं ........
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आध्यात्म एक अनुभूति जन्य स्थिति है जिसे ईश्वर की कृपा से ही समझा जा सकता है| आत्‍म तत्व की निरंतर अनुभूति यानि परमात्मा के साथ एक होने की सतत् अनुभूति, दृष्टा दृष्टि और दृश्‍य --- इन सब का यानि ज्ञाता ज्ञान और ज्ञेय का एकाकार हो जाना, परम प्रेममय हो जाना, अकर्ता की स्थिति, साक्षी भाव का भी तिरोहित हो जाना, अनन्यता आदि ..... ये सब आध्यात्मिकता के लक्षण है| ईश्वर की कृपा से इस स्थिति को प्राप्त करना ही आध्यात्म है और जिस साधना से यह प्राप्त हो वह ही आध्यात्मिक साधना है|
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कोई मोक्ष प्राप्त करने के करने के लिए साधना करता है, वह किसी प्रयोजन के लिए, कुछ प्राप्त करने के लिए कर रहा है| यह आध्यात्म नहीं है| कोई स्त्री, पुत्र, धन-संपत्ति, मुकदमें में जीतने, सुख-शांति और व्यापार में सफलता के लिए साधना कर रहा है, वह किसी कामना पूर्ती के लिए कर रहा है| यह आध्यात्म नहीं है| जहाँ कोई माँग है वह आध्यात्म नहीं है|
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यह तो गूँगे का गुड़ है| मिश्री का स्वाद वही बता सकता है जिसने ग्रहण की हो, शेष तो अनुमान ही लगा सकते हैं अथवा उसके गुणों को नकार सकते हैं| कोई बताये भी तो क्या ? .....नेति-नेति | आत्मन्येवात्मने तुष्टः अर्थात आत्मा द्धारा ही आत्मा को संतुष्टि मिलती है|
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परमात्मा की अभिव्यक्ति आप सब दिव्य आत्माओं को नमन !
ॐ तत्सत् | ॐ नमः शिवाय | ॐ ॐ ॐ ||

शान्ति सीता समाहिता आत्मारामो विराजते .....

शान्ति सीता समाहिता आत्मारामो विराजते .....
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विश्व में अनेक अच्छी घटनाएँ भी घटित होती हैं, पर वे नहीं छपतीं| आध्यात्मिक क्षेत्र में भी अनेक अच्छे अच्छे कार्य हो रहे हैं, पर वे प्रकाश में नहीं आते|
आध्यात्म मार्ग पर अग्रसर पथिक को इन बातों की परवाह नहीं करनी चाहिए| उसे तो निरंतर चलायमान रहना है| इस मार्ग में कोई विश्राम नहीं है|
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आध्यात्म मार्ग के पथिक को निरन्तर चलते ही रहना है| उसके लिए कोई विश्राम हो ही नहीं सकता| वह अनुकूलता की प्रतीक्षा नहीं कर सकता| अनुकूलता कभी नहीं आएगी| न तो समुद्र की लहरें कभी शांत होंगी और न नदियों की चंचलता ही कभी कम होगी| यह संसार जैसे चल रहा है वैसे ही प्रकृति के नियमानुसार चलता रहेगा, न कि हमारी इच्छानुसार|
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कौन क्या कहता है और क्या करता है, इसका कोई महत्व नहीं है| महत्व सिर्फ इसी बात का है कि हमारे समर्पण में कितनी पूर्णता हुई है| अपनी चरम सीमा तक का प्रयास हमें करना होगा|
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"राम काज कीन्हे बिनु मोहि कहाँ बिश्राम" .....
हमारी साधना ही राम का काज है जिसके पूर्ण होने तक कोई विश्राम नहीं हो सकता| हमारा प्राकट्य ही रामकाज के लिए हुआ है| अब कोई बहाना नहीं चलेगा| काम को कल पर नहीं टाल सकते| हमें तो इसी समय से जुट जाना है|
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सृष्टि के कण कण में रमण करने वाले राम जी कार्य अभी पूरा नहीं हुआ है| हरि अनंत हैं और उनकी कथा भी अनंत है| सम्पूर्ण जगत सियाराममय है|
त्रेतायुग में सीता जी की खोज तो श्रीहनुमान जी ने कर ली थी पर यह जो ब्रह्म अंशी जीव "आत्माराम" है, इसकी सीता अर्थात शांति का हरण, विकार रुपी रावण नें कर लिया हैं, और निरंतर कर रहा है| उसी आत्माराम से उसकी शांति रूपी सीता का मिलन, विकार रुपी रावण का वध कर के करा देना ही हमारा रामकाज है|
आदिगुरू भगवान शंकराचार्य कहतें हैं ......
"शान्ति सीता समाहिता आत्मारामो विराजते" ......
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रावण को मारने से पहले सीता जी की खोज आवश्यक है| और यह दोनों काम बिना हनुमान जी के संभव नहीं हैं| "हनुमान" अर्थात जिसने अपने मान का हनन कर दिया हैं| अपने जीवन में अहंकार का नाश किये बिना हम अपने आत्मा रुपी "राम" से शांति रूपी "सीता" का मिलन नहीं करा सकते|
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मेरे कहने का भाव आप सब समझ गए होंगे| आध्यात्म की यात्रा में अपने अहंकार का समर्पण पहला पड़ाव है| सभी का कल्याण हो|

जय गुरु ! ॐ गुरु ! ॐ नमः शिवाय ! ॐ ॐ ॐ ||

गुरु रूप ब्रह्म उतारो पार भव सागर के .......

गुरु रूप ब्रह्म उतारो पार भव सागर के .......
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हम प्रायः नित्य निरंतर गुरु महाराज से करुण प्रार्थना करते हैं कि हे प्रभु, इस भवसागर के पार उतारो| प्रार्थना करते करते अकस्मात् हम पाते हैं कि भवसागर तो कभी का पार हो गया, सिर्फ उसकी कुछ महक यानि गंध बची है जो भी शीघ्र ही नष्ट हो जायेगी|
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भवसागर एक मानसिक सृष्टि है, मन से बाहर उसका कोई अस्तित्व नहीं है| जब मनुष्य का मन सभी बाह्य मायावी आकर्षणों और आकांक्षाओं से मुक्त होकर स्थायी रूप से परमात्मा में रम जाता है, उसी क्षण भवसागर भी पार हो जाता है| विक्षेप और आवरण (माया की दो शक्तियाँ) तो आते रहते हैं पर प्रभु प्रेम (भक्ति) की शक्ति के आगे वे विवश हैं|
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हमारी नौका (हमारी देह, मन, प्राण, बुद्धि आदि) जिस पर हम यह लोकयात्रा कर रहे हैं, का कर्णधार (Helmsman) जब हम अपने सद्गुरु रूपी ब्रह्म को बना देते हैं (यानि समर्पित कर देते हैं), तब वायु की अनुकूलता (परमात्मा की कृपा) तुरंत हो जाती है| जितना गहरा हमारा समर्पण होता है, उतनी ही गति नौका की बढ़ जाती है, और सारे छिद्र भी करूणावश परमात्मा द्वारा ही भर दिए जाते हैं|
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कभी कभी कुछ काल के लिए हम अटक जाते हैं, पर अति सूक्ष्म रूप से गुरु महाराज बलात् धक्का मार कर फिर आगे कर देते हैं| धन्य हैं ऐसे सद्गगुरु जो अपने शिष्यों को कभी भटकने या अटकने नहीं देते, और निरंतर चलायमान रखते हैं|
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अपेक्षित सारा ज्ञान और उपदेश भी वे किसी ना किसी माध्यम से दे ही देते हैं|
अतः भवसागर पार करने की चिंता छोड़ दो और .... ब्रह्मविद् ब्रह्मणि स्थितः यानि ब्रह्मज्ञ होकर केवल ब्रह्म में ही स्थित होने का निरंतर प्रयास करो| यही साधना है और यही उपासना है| अपनी नौका के कर्ण (Helm) के साथ साथ अपना हाथ भी उनके ही हाथों में सौंप दो और उन्हें ही संचालन (Steer) करने दो| वे इस नौका के स्वामी ही नहीं, बल्कि नौका भी वे स्वयं ही है| इस विमान के चालक ही नहीं, विमान भी वे स्वयं ही हैं|
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(क्षमा कीजिये, इनसे और अधिक सरल व स्पष्ट शब्दों में अपने भावों को व्यक्त करने में मैं असमर्थ हूँ)
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>>> जिन्हें मार्गदर्शन चाहिए, वे कुटिलता त्याग कर, सत्यनिष्ठ बन कर पात्रता अर्जित करें, और किसी श्रौत्रीय ब्रह्मनिष्ठ आचार्य गुरु की शरण लें| मैं किसी का गुरु नहीं हूँ और न ही गुरु पद के लिए अधिकृत हूँ| एक अच्छा शिष्य ही बनने का प्रयास कर रहा हूँ| <<<
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ॐ तत्सत् ! ॐ शिव ॐ शिव ॐ शिव ! भगवान परमशिव सबका कल्याण करें|
ॐ ॐ ॐ !!

हमारे शाश्वत और एकमात्र मित्र भगवान ही हैं .........

हमारे शाश्वत और एकमात्र मित्र भगवान ही हैं .........
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जीवन में अनेक व्यक्तियों से हमारा मिलना होता है| उनमें से अनेक हमारे मित्र बन जाते हैं| कुछ अच्छे मित्र बनते हैं और उनमें से कुछ शत्रु भी बन जाते हैं| बहुत अधिक घनिष्ठता भी घृणा में बदल जाती है| कई मित्रों से जीवन में दुबारा मिलना ही नहीं होता और कई काल कवलित हो जाते हैं| स्थायी और शाश्वत मित्रता की तो हम इस सृष्टि में कल्पना भी नहीं कर सकते| सारे सम्बन्ध निजी हितों और अपेक्षाओं पर आधारित हैं| जब हित आपस में टकराते हैं या अपेक्षाएँ पूरी नहीं होतीं तब मित्रता समाप्त हो जाती है|
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पर एक मित्र ऐसा भी है जो कभी साथ नहीं छोड़ता, जिसकी मित्रता अहैतुकी यानि बिना किसी शर्त के शाश्वत है| वह मित्र हर समय हमारे ऊपर दृष्टी रखता है, निरंतर हमारी रक्षा करता है और कभी साथ नहीं छोड़ता| जब हमने जन्म लिया उससे पूर्व भी वह हमारे साथ था और मृत्यु के पश्चात भी वह ही हमारे साथ रहेगा| वह इतना समीप है कि उसे हम देख नहीं पाते| दिखाई देने के लिए भी कुछ दूरी चाहिए पर उससे कोई दूरी नहीं है| उस मित्र ने ही माता-पिता के रूप में हमें प्यार किया| वह ही भाई-बहिन, सारे सम्बन्धियों और मित्रों के रूप में आया| हमारी इस देह के ह्रदय में भी वह ही धड़क रहा है, हमारी आँखों से वह ही देख रहा है, और हमारे पैरों से वह ही चल रहा है| वास्तव में यह देह भी उसी की है जो उसने हमें लोकयात्रा के लिए दी है|
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उसकी मित्रता तो हमारे से अहैतुकी यानि unconditional है, पर हम अपना हित या conditions थोप देते हैं तब ही वह हमारे सामने नहीं आता| हमारी सारी सांसारिक धन-संपत्ति, सारा सांसारिक ज्ञान, सारी सांसारिक उपलब्धियाँ, और सारी सांसारिक प्रतिबद्धताएँ और सारे सांसारिक सम्बन्ध तभी तक हैं जब तक वह इस देह के ह्रदय में धड़क रहा है| जब वह अचानक धड़कना बंद कर देगा तब सब कुछ छूट जाएगा, पता नहीं अज्ञात में हम कहाँ जायेंगे| यह पृथ्वी तक हमारे से छूट जाएगी|
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बुद्धिमानी का कार्य तो यही होगा कि हम उस शाश्वत मित्र से सचेतन मित्रता करें और जीवन का जो भी अति अल्प और सीमित समय मिला है उसे फालतू की गपशप और मनोरंजन के नाम पर समय नष्ट न कर के उस के ही चिंतन में ही लगायें| बाकी आप सब समझदार और विवेकशील हो|
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शुभ कामनाएँ | ॐ शिव ! ॐ ॐ ॐ ||