Wednesday, 9 June 2021

जो कुछ भी हमें प्राप्त होता है, यहाँ तक कि परमात्मा की प्राप्ति भी "श्रद्धा और विश्वास" से ही होती है| रामचरितमानस के आरंभ में मंगलाचरण में ही बताया गया है .....

"भवानीशङ्करौ वन्दे श्रद्धाविश्वासरूपिणौ| याभ्यां विना न पश्यन्ति सिद्धाःस्वान्तःस्थमीश्वरम्||"
"वन्दे बोधमयं नित्यं गुरुं शङ्कररूपिणम्| यमाश्रितो हि वक्रोऽपि चन्द्रः सर्वत्र वन्द्यते||"
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हमारी श्रद्धा और विश्वास ही भवानी शंकर हैं| कोई भी साधना श्रद्धा और विश्वास के कारण ही फलवती होती है| बिना श्रद्धा और विश्वास के किसी भी मंत्र के जप का, यहाँ तक कि गायत्री मंत्र के जप का भी फल नहीं मिलता है| भगवान कभी किसी की कामनाओं की पूर्ति नहीं करते| कामनाओं की पूर्ती स्वयं की श्रद्धा और विश्वास से ही होती हैं, किसी देवी-देवता, पीर-फ़कीर, या किसी मज़ार पर जाने से नहीं|
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सारा ब्रह्मांड भगवान की विभूति है| हमें ध्यान भी भगवान के विराट रूप का ही करना चाहिए| यह भाव रहना चाहिए कि यह समस्त ब्रह्मांड "मैं" हूँ, यह भौतिक देह नहीं| रामचरितमानस में बताए हुए सारे प्राणी .... "तन खीन कोउ अति पीन पावन कोउ अपावन गति धरें" कैसे भी हों, हमारी चेतना के ही भाग हैं, हमसे पृथक नहीं|
भगवान की श्रद्धा और विश्वास फलवती होंगे तभी सारे आध्यात्मिक रहस्य भी अनावृत हो जाएँगे जो मनुष्य की बुद्धि से नहीं हो सकते|
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परमात्मा की सर्वश्रेष्ठ अभिव्यक्ति आप सब को नमन| ॐ तत्सत् ||
कृपा शंकर
१० जून २०२०
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पुनश्च :---
जो कुछ भी जीवन में हमें मिलता है, वह अपनी श्रद्धा और विश्वास से ही मिलता है। बिना श्रद्धा-विश्वास के कुछ भी नहीं मिलता।
"श्रद्धावाँल्लभते ज्ञानं तत्परः संयतेन्द्रियः।
ज्ञानं लब्ध्वा परां शान्तिमचिरेणाधिगच्छति।।४:३९॥" (गीता)
"भवानी-शंकरौ वन्दे श्रद्धा-विश्वास रूपिणौ ।
याभ्यां विना न पश्यन्ति सिद्धा: स्वान्त:​स्थमीश्वरम् ॥" (रामचरितमानस)

मनोकामनाओं की पूर्ति स्वयं के श्रद्धा-विश्वास से ही होती हैं, किसी देवी-देवता, संत, पीर-फ़कीर द्वारा, या किसी मज़ार पर जाने से नहीं.
भगवान कभी किसी की इच्छा यानि मनोकामनाओं की पूर्ति नहीं करते। हमारी श्रद्धा और विश्वास ही हमारी मनोकामना पूर्ण करते हैं।

भगवान वासुदेव श्रीकृष्ण हमारे सब दुःख दूर करें ---

 भगवान वासुदेव श्रीकृष्ण हमारे सब दुःख दूर करें .....

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जो भगवान वासुदेव श्रीकृष्ण की उपासना करते हैं और उनके अनुग्रह को प्राप्त करना चाहते हैं, वे बिना किसी संकोच के उनके बीज मंत्र 🌹"ॐ क्लीं"🌹 का खूब मानसिक जप कर सकते हैं| मंत्र जप के समय कमर सीधी हो, मुख पूर्व या उत्तर दिशा में हो, दृष्टि भ्रूमध्य पर हो, और पूरा ध्यान आज्ञाचक्र में भगवान श्रीकृष्ण पर हो| प्रयास करते रहें कि उन के सिवाय और कोई छवि अपने समक्ष न आवे| मन में यही भाव रहे कि भगवान श्रीकृष्ण की पूर्ण कृपा मुझ पर हो रही है, उनका पूर्ण प्रेम मुझे प्राप्त हो रहा है और मेरे सब दुःख दूर हो रहे हैं| अर्धरात्रि में इस मंत्र के जप का बहुत अधिक महत्व है| दिन में भी जब भी समय मिले इस मंत्र का यथासंभव अधिकाधिक जप करते रहें| यह मंत्र "गोपाल सहस्त्रनाम" में भी है| इस मंत्र को काम बीज कहते हैं| यह माँ महाकाली का, माँ कात्यायिनी का, और कामदेव का बीज मंत्र भी है| देवी अथर्वशीर्ष में और नवार्ण मंत्र में यह बीज मंत्र माँ महाकाली के लिए है|
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इस मंत्र में अनेक सिद्धियाँ हैं, लेकिन मैं यहाँ जो बता रहा हूँ वह सिर्फ भगवान श्रीकृष्ण के अनुग्रह के लिए है, अन्य किसी उद्देश्य के लिए नहीं|
ॐ तत्सत् || 🌹🌹ॐ क्लीम् 🌹🌹||🌹
१० जून २०२०

साधु, सावधान !! सामने नर्क-कुंड की अग्नि है ---

 साधु, सावधान !! सामने नर्क-कुंड की अग्नि है ---

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हमारी वासनाएँ, लोभ, अहंकार, व राग-द्वेष हमें निश्चित रूप से इस नर्क-कुंड में बलात् डाल देंगे। भूल से भी उधर मत देखो। अभी भी समय है, ऊपर परमात्मा का हाथ थाम लो, और कभी मत छोड़ो। परमात्मा में ही स्वतन्त्रता है। परमात्मा से हमारा वही संबंध है जो जल की एक बूँद का महासागर से है। सारे संबंध परमात्मा से ही हैं, अन्य कोई है ही नहीं। जीवन का असत्य, अंधकार और अज्ञान उस प्रकाश से दूर होगा जो भक्ति द्वारा हमारे हृदय में जागृत हो सकता है। अन्य कोई उपाय नहीं है। परमात्मा से पृथकता ही हमारी एकमात्र समस्या और हमारे सभी दुःखों का कारण है। सुख सिर्फ परमात्मा में है, अन्यत्र कहीं भी नहीं।
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राग-द्वेष और अहंकार से मुक्ति -- वीतरागता है, जो देवताओं को भी दुर्लभ, बहुत बड़ा तप है। जो वीतराग है वही स्थितप्रज्ञ है। परमात्मा के ध्यान में जो आनंद मिलता है वही वास्तविक सुख है, अन्य सब भटकाव है। धर्म की रक्षा हम धर्म का पालन कर के ही कर सकते हैं, अन्य कोई उपाय नहीं है। धर्म की रक्षा करेंगे तभी धर्म हमारी रक्षा करेगा।
ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
९ जून २०२१

बिना भक्ति के भगवान नहीं मिल सकते ---

बिना भक्ति के भगवान नहीं मिल सकते। अन्य साधन भी तभी सफल होते हैं, जब ह्रदय में भक्ति होती है। "मिलहिं न रघुपति बिनु अनुरागा, किएँ जोग तप ग्यान बिरागा।" जीवन का हर अभाव एक रिक्त स्थान है, जिसकी पूर्ति भगवान की भक्ति से ही हो सकती है। भक्ति-सूत्रों में भक्ति को परमप्रेम कहा गया है। प्रेम हमारा स्वभाव है। अतः भक्ति हमारा स्वभाव है।

निरंतर समष्टि के कल्याण की कामना, ऊर्ध्वगामी चेतना, और हृदय में परमात्मा के प्रति कूट कूट कर भरा हुआ प्रेम -- ये ही भक्त होने के लक्षण हैं।

जैसे सारी नदियाँ महासागर में गिरती हैं, वैसे ही हमारे सारे विचार भगवान तक पहुँचते हैं। हमारा हर विचार हमारा कर्म है, जिसका फल मिले बिना नहीं रहता।
भगवान् से प्रेम करेंगे तो उनकी सृष्टि भी हमसे प्रेम करेगी। जैसा हम सोचेंगे, वैसा ही वही कई गुणा बढ़कर हमें मिलेगा।
सब में सब के प्रति प्रेमभाव हो, यही मेरी प्रार्थना भगवान से है।
ॐ तत्सत् !! ॐ नमो भगवते वासुदेवाय !!
कृपा शंकर
८ जून २०२१

एक अनुभवजन्य पुरानी स्मृति --- (हनुमान का अर्थ)

हनुमान का अर्थ -- अपने मान को नष्ट करना है। जिस ने अपने अहं यानि अभिमान को नष्ट कर दिया है, वही हनुमान है। भक्ति और सेवा के क्षेत्र में हनुमान जी हम सब के आदर्श हैं। भक्ति और सेवाभाव हो तो हनुमान जी जैसा हो। एक बार ध्यान करते-करते बड़ा आनंददायक अनुभव हुआ जिसमें लगा कि मेरा सारा शरीर जल कर भस्म हो गया है, सिर्फ मेरुदंड ही बचा है, और कुछ भी नहीं है। मेरुदंड में भी सिर्फ सुषुम्ना नाड़ी ही बची थी। अचानक हनुमान जी का स्मरण हुआ और वे मूलाधार चक्र में प्रकट हुये और बड़ी शान से सभी चक्रों को पार करते-करते सहस्त्रार तक पहुँच गए। वहाँ कुछ देर रुक कर भगवान को प्रणाम कर के सुषुम्ना मार्ग से बापस नीचे आये और बिना रुके फिर बापस ऊपर चले गए। पाँच-छः बार उन्होने इस तरह की परिक्रमा की और अचानक ही बचा-खुचा सब कुछ जलाकर भस्म कर दिया, और चले गए। अब न तो मेरा शरीर था, न मेरुदंड, सहस्त्रार भी नहीं। कुछ भी नहीं बचा था। सब कुछ जलकर भस्म हो गया था।

सिर्फ एक परम ज्योतिर्मय अनंत आलोक बचा था और कुछ भी नहीं। यह अनुभव दुबारा तो कभी नहीं हुआ, और होगा भी नहीं। लेकिन इसने एक बहुत बड़ा पाठ पढ़ा दिया, जिसे मैं कभी भूल नहीं सकता। ॐ ॐ ॐ !!
७ जून २०२१

सीतां नतोहं रामवल्लभाम् ---

 सीतां नतोहं रामवल्लभाम् ---

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जगन्माता एक ही हैं, सभी रूप उन्हीं के हैं। अपने-अपने स्वभाव के अनुसार उनकी विभिन्न अभिव्यक्तियों में से कोई सी एक हमें प्रिय लगती हैं। महात्माओं के मुख से सुना है कि जब परमशिव परमात्मा ने संकल्प किया कि -- "एकोsहं बहुस्याम्", तब ऊर्जा और प्राण की उत्पत्ति हुई। ऊर्जा से जड़ पदार्थों का निर्माण हुआ, और प्राण से उनमें चैतन्यता आई। दोनों के ही पीछे परमशिव का संकल्प है। वे इन दोनों से ही परे हैं।
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प्राण-तत्व ही जगन्माता है। प्राण-तत्व ही माँ का रूप है, और प्राण-तत्व ही शक्ति है। प्राण के बिना सब निर्जीव हैं। तंत्र-मार्ग के बहुत बड़े एक ज्ञानी सिद्ध महात्मा के साथ मैं दो बार कुछ सीखने के उद्देश्य से कई दिनों तक रहा था। उनसे बहुत कुछ सीखा। उन्होने ही मुझे समझाया था कि पंचप्राणों के पाँच सौम्य, और पाँच उग्र रूप ही दस महाविद्यायें हैं; गणेश जी का विग्रह -- ओंकार का प्रतीक है; और गणेश जी स्वयं ओंकार हैं, जिनके गण -- ये पंचप्राण हैं।
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विद्वान लोग "योग" के बारे में कुछ भी कहें, लेकिन योगियों के अनुसार -- महाशक्ति कुंडलिनी का परमशिव के साथ मिलन ही योग है। महाशक्ति कुंडलिनी -- प्राण-तत्व का ही घनीभूत रूप है।
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लौकिक जगत में आराधना के लिए हमें जगन्माता के किसी न किसी विग्रह की आवश्यकता पड़ती ही है। इसकी आवश्यकता मैं स्वयं अनुभूत करता था। एक बार यही गहन चिंतन कर रहा था कि माता का कौन सा स्वरूप मेरे लिए सबसे अधिक उपयुक्त है। कुछ समझ में नहीं आया तो भगवान से प्रार्थना की। अचानक ही भगवती सीता जी का विग्रह मेरे समक्ष मानस में आया, और रामचरितमानस के आरंभ में गोस्वामी तुलसीदास जी द्वारा लिखी उनकी यह वंदना भी याद आई --
"उद्भव स्थिति संहार कारिणीं क्लेश हारिणीम्।
सर्वश्रेयस्करीं सीतां नतोऽहं राम वल्लभाम्॥"
यह एक अति गोपनीय रहस्य की बात है जिसे मैंने आज तक किसी को नहीं बताया है कि भगवती सीता जी का विग्रह ही मेरे मानस में आता है जब भी जगन्माता की याद आती है।
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मैं योगमार्ग का एक निमित्तमात्र साधक हूँ। ध्यान में वेदान्त-वासना रहती है, अतः ध्यान तो कूटस्थ सूर्य-मण्डल में सर्वव्यापी पुरुषोत्तम परम-पुरुष का ही होता है। वे ही ज्योतिर्मय ब्रह्म है, वे ही विष्णु है, वे ही महेश्वर हैं, और वे ही परमशिव हैं। कर्ता तो साकार रूप में स्वयं भगवान श्रीकृष्ण हैं। मेरे लिए इस में कोई जटिलता नहीं है। किसी भी तरह का कोई संशय या भ्रम मुझे नहीं है।
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जनकसुता जग जननि जानकी। अतिसय प्रिय करुणा निधान की॥
ताके जुग पद कमल मनावउँ। जासु कृपा निर्मल मति पावउँ॥
पुनि मन वचन कर्म रघुनायक। चरण कमल बंदऊ सब लायक॥
राजिव नयन धरे धनु सायक। भगत बिपति भंजन सुखदायक॥
सीताराम चरित अति पावन। मधुर सरिस अरू अति मन भावन॥
मंगल भुवन अमंगल हारि। द्रवऊँ सो दशरथ-अजिर बिहारी॥
दीन दयाल बिरिदु संभारी। हरहु नाथ मम संकट भारी॥
जय सियाराम जय जय सियाराम !!
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परमात्मा की सर्वश्रेष्ठ अभिव्यक्ति आप सब निजात्मगण को सविनय सादर सप्रेम नमन !! आप सब की कीर्ति और यश अमर रहे। जय जय श्री सीताराम !!
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय !! हरिः ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
६ जून २०२१

हमारा एकमात्र शाश्वत सम्बन्ध भगवान से है, अन्य किसी से भी नहीं ---

 हमारा एकमात्र शाश्वत सम्बन्ध भगवान से है, अन्य किसी से भी नहीं ---

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जब हमारा जन्म इस मनुष्य शरीर में हुआ था, तब जन्म से पूर्व, भगवान ही हमारे साथ थे। इस शरीर की मृत्यु के पश्चात भी भगवान ही हमारे साथ रहेंगे। जन्म लेने पर भगवान का ही प्रेम हमें माता-पिता के माध्यम से मिला। भाई-बहिन, सभी संबंधियों, और सभी मित्रों के माध्यम से जो भी प्रेम हमें मिला वह भगवान का ही प्रेम था; अन्य सब एक माध्यम थे। हमारा अस्तित्व भगवान का ही एक संकल्प या उन के मन की एक कल्पना मात्र है। कोई अपना पराया नहीं है। गुरु-शिष्य का सम्बन्ध भी भगवान से ही सम्बन्ध है। गुरू भी एक निश्चित भावभूमि तक ले जा कर छोड़ देता है, आगे की यात्रा तो स्वयं को ही करनी पड़ती है। फिर न कोई गुरु है और न कोई शिष्य, एकमात्र भगवान ही सब कुछ हैं। सारे सम्बन्ध एक भ्रम मात्र हैं।
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हमारा अस्तित्व भगवान की ही एक अभिव्यक्ति है। वे ही इस देह को जीवंत रखे हुए हैं, वे ही इस हृदय में धड़क रहे हैं, वे ही इन आंखों से देख रहे हैं, इन हाथ-पैरों से वे ही सारा कार्य कर रहे हैं। हमारा पृथक अस्तित्व एक माया और भ्रम है। हमारा एकमात्र लक्ष्य सिर्फ उन के परमप्रेम की अभिव्यक्ति और उन में समर्पण है।
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जो भी हमें उन की चेतना से दूर ले जाए वह कुसंग है जो सर्वदा त्याज्य है। जो उन का प्रेम हमारे में जागृत करे वह सत्संग है। जब हमें भूख लगती है, तब भोजन तो स्वयं को ही करना पड़ता है। दूसरे का किया भोजन हमारा पेट नहीं भर सकता। वैसे ही स्वाध्याय, सत्संग और साधना तो स्वयं को ही करनी होगी। प्रभु के प्रेम में निरंतर डूबे रहना ही सत्संग है, और प्रभु को विस्मृत करना कुसंग है।
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श्रीमद्भगवद्गीता में भगवान का निर्देश है कि निरंतर हर समय, अंत समय तक उनका ही स्मरण रहे --
"अधिभूतं क्षरो भावः पुरुषश्चाधिदैवतम्‌।
अधियज्ञोऽहमेवात्र देहे देहभृतां वर॥८:४॥"
"अंतकाले च मामेव स्मरन्मुक्त्वा कलेवरम्‌ ।
यः प्रयाति स मद्भावं याति नास्त्यत्र संशयः॥८:५॥"
"यं यं वापि स्मरन्भावं त्यजत्यन्ते कलेवरम्‌ ।
तं तमेवैति कौन्तेय सदा तद्भावभावितः॥८:६॥"
"तस्मात्सर्वेषु कालेषु मामनुस्मर युद्ध च।
मय्यर्पितमनोबुद्धिर्मामेवैष्यस्यसंशयम्‌॥८:७॥"
"अभ्यासयोगयुक्तेन चेतसा नान्यगामिना।
परमं पुरुषं दिव्यं याति पार्थानुचिन्तयन्‌॥८:८॥"
"कविं पुराणमनुशासितार-मणोरणीयांसमनुस्मरेद्यः।
सर्वस्य धातारमचिन्त्यरूप-मादित्यवर्णं तमसः परस्तात्‌॥८:९॥"
"प्रयाणकाले मनसाऽचलेन भक्त्या युक्तो योगबलेन चैव।
भ्रुवोर्मध्ये प्राणमावेश्य सम्यक् स तं परं पुरुषमुपैति दिव्यम्॥८:१०॥"
सर्वद्वाराणि संयम्य मनो हृदि निरुध्य च।
मूर्ध्न्याधायात्मनः प्राणमास्थितो योगधारणाम्॥८:१२॥"
ओमित्येकाक्षरं ब्रह्म व्याहरन्मामनुस्मरन्।
यः प्रयाति त्यजन्देहं स याति परमां गतिम्॥८:१३॥"
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मुझे तो पूरी श्रद्धा और विश्वास है कि भगवान ही हर समय मुझे याद करेंगे, इस देह के अंतकाल में भी। यह जीवन उन्हीं का है, यह देह भी उन्हीं की है, जो जला कर भस्म कर दी जाएगी, लेकिन मैं तो उनके हृदय में ही निरंतर सदा रहूँगा।
"वायुरनिलममृतमथेदं भस्मांतं शरीरम्‌।
ॐ क्रतो स्मर कृतं स्मर क्रतो स्मर कृतं स्मर॥" (ईशावास्योपनिषद मंत्र १७)
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भगवान हैं, इसी समय हैं, हर समय हैं, यहीं पर हैं, सर्वत्र हैं, मेरे समक्ष हैं, हर समय मेरे साथ हैं। उन की असीम कृपा सब पर निरंतर बनी रहे।
ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
५ जून २०२१

साधना स्वयं को ही करनी होगी. दूसरा अन्य कोई भी नहीं है ---

आध्यात्मिक साधना के क्षेत्र में जो अपेक्षा हम दूसरों से करते हैं, वह सर्वप्रथम स्वयं के जीवन में चरितार्थ करें। दूसरा अन्य कोई भी नहीं है।
मनुष्य देह, बुद्धि, भक्ति व सत्संग लाभ पा कर भी परमात्मा का चिंतन-मनन और ध्यान न करना -- प्रमाद यानि मृत्यु है। भगवान ने २४ घंटे हमें दिये हैं, उसका दसवाँ भाग यानि कम से कम ढाई से तीन घंटे हमें भगवान की साधना करनी चाहिये।

किसी भी आचार्य, साधू, संत, महात्मा का स्वयं का आचरण कैसा है, और उन के अनुयायी आध्यात्मिक रूप से कितने उन्नत हैं? -- यही मापदंड है उनकी महत्ता का। किसी के पास जाते ही स्वतः ही भक्ति जागृत हो जाये, शांति मिले, व सुषुम्ना नाड़ी चैतन्य हो जाये, तो वह व्यक्ति निश्चित रूप से एक महात्मा है। जिसमें लोभ और अहंकार भरा हुआ है, वह साधु नहीं हो सकता।

साधू-संत -- पवित्रात्मा, परोपकारी, सदाचारी, त्यागी, बुद्धिमान, समभावी, भयमुक्त, विद्वान और ईश्वरभक्त होते हैं। साधू-संतों की तपस्या से ही समाज में कुछ भलाई है। साधु-संत जहाँ भी रहते हैं, वह भूमि पवित्र हो जाती है। उनका सम्मान और सेवा करना हमारा धर्म है।

यह न्यू वर्ल्ड ऑर्डर क्या है? ---

यह "New World Order" क्या है? ये बड़े ही भ्रामक शब्द हैं। हो सकता है यह भविष्य की किसी संभावित नई राजनीतिक व्यवस्था का सूचक हो, लेकिन अब तक तो अमेरिका व यूरोप के दानव सेठों, सरकारों और अन्य साम्राज्यवादियों ने अपने छल-कपट व षड़यंत्रों से इन शब्दों का प्रयोग दुनियाँ को ठगने के लिए ही किया है। भारत इसका बहुत अधिक व बुरी तरह शिकार रहा है।

.दवा पहले बन जाती है, बीमारी बाद में फैलाई जाती है। दुनिया को कूटनीति, भय व प्रलोभन से मजबूर किया जाता है कि उसी दवा को लें। जब पूंजीपति दानव सेठों की तिजोरियाँ भर जाती हैं, तब उस दवा को बेकार बता कर कुछ और नई चीज ले आई जाती हैं। दुनियाँ मरे तो मरे।

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दुनिया के देशों को पिछड़ा व गुलाम बनाए रखने के लिए दानवी समाजों द्वारा उन्हें ऐसी नीतियों का पालन करने को मजबूर कर दिया जाता है कि वे सदा पिछड़े ही रहें। वहाँ के कुछ राजनेताओं, न्यायाधीशों व अधिकारियों को खरीद लिया जाता है। तरह तरह के भाड़े के आंदोलन वहाँ खड़े कर दिये जाते हैं। और ऐसी परिस्थितियाँ उत्पन्न कर दी जाती हैं कि वे देश व समाज पिछड़े ही रहें। तरह तरह के भ्रामक नारों, मज़हबी पंथों व समाजों का निर्माण दूसरों को पराधीन बनाने के लिए किया जाता है।
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अब तक तो ये ही world order रहे हैं। अब देखो क्या नई व्यवस्था (New World Order) आती है? सिर्फ सनातन धर्म ने ही परोपकार और वसुधैव कुटुम्बकम् की परिकल्पना की है, अन्य किसी ने भी नहीं। विषय बहुत गहरा और लंबा है। अतः आपके विवेक पर छोड़ रहा हूँ। आप स्वयं इस विषय पर विचार करें। ॐ तत्सत् !!
२ जून २०२१
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पुनश्च :---
देवों और दानवों में सृष्टि के आदिकाल से ही सदा संघर्ष रहा है। कभी देव जीते हैं, तो कभी दानव। सनातन धर्म ही एकमात्र दैवीय संस्कृति है, अन्य सब दानवी हैं। वर्तमान भारत, दानव समाजों से पददलित है, जिसका त्राण सत्यनिष्ठा से श्रीमद्भगवद्गीता के उपदेशों के आचरण से ही हो सकता है। गीता के उपदेश ही सनातन धर्म की पुनर्प्रतिष्ठा व वैश्वीकरण करेंगे। जब तक गीता का ज्ञान हमारे आचरण में है, तब तक भारत व सनातन-धर्म को कोई नष्ट नहीं कर सकता। ॐ तत्सत् !! ॐ स्वस्ति !!

मेरी उपासना, और मेरा स्वधर्म ---

 मेरी उपासना, और मेरा स्वधर्म ---

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जब भी परमात्मा के प्रति हृदय में प्रेम उमड़ता है, आँखें स्वतः ही बंद हो जाती हैं, और दृष्टि कूटस्थ में चली जाती है। कूटस्थ -- एक अनंत विस्तारमय चेतना है, जिसमें सारी सृष्टि समाहित है -- सारी आकाश गंगाएँ, सारे चाँद, तारे, नक्षत्र और जो भी कुछ भी सृष्ट व असृष्ट है, वह सब उस के भीतर है, बाहर कुछ भी नहीं। उसका केंद्र सर्वत्र है, परिधि कहीं भी नहीं, सर्वत्र प्रकाश ही प्रकाश है, कहीं कोई अंधकार नहीं। सिर्फ प्रेम ही प्रेम, और आनंद ही आनंद है। वह अनंत विस्तार और उस से परे जो कुछ भी है, वे ही मेरे परमप्रिय परमात्मा हैं, वे ही मेरे परमेष्ठि गुरु हैं, और वह ही मैं हूँ, यह नश्वर देह नहीं, जो उनका एक उपकरण मात्र है। यह सृष्टि चलायमान है जिसमें से एक अद्भुत मधुर ध्वनि निःसृत हो रही है। वह ध्वनि, प्रकाश, प्रेम और आनंद -- मैं ही हूँ। यही मेरी उपासना, यही मेरा स्वधर्म और यही मेरा अस्तित्व है| ॐ तत्सत् !! ॐ नमो भगवते वासुदेवाय !!
कृपा शंकर
२ जून २०२०

श्रीमद्भगवद्गीता मेरा ही नहीं, सारे भारत का और हम सबका प्राण है ---

 श्रीमद्भगवद्गीता मेरा ही नहीं, सारे भारत का और हम सबका प्राण है ---

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श्रीमद्भगवद्गीता -- हमारा प्राण है, कोई धार्मिक ग्रंथ मात्र नहीं। जब तक गीता का ज्ञान हमारे हृदय में, और आचरण में है, तब तक भारत को और सनातन धर्म को कोई नष्ट नहीं कर सकता। गीता का ज्ञान ही सनातन धर्म की पुनर्प्रतिष्ठा और वैश्वीकरण करेगा।
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गीता में साधकों के लिए भगवान ने स्वयं को ही हमारी आत्मा, उत्पत्ति, जीवन, और मृत्यु का कारण बताया हैं। उन्होनें स्वयं को सभी इंद्रियों में मन बताया है, जिसे हम यदि भगवान को ही बापस निरंतर समर्पित करते रहें, तो हमारा कल्याण होगा। उन्होने स्वयं को सभी प्राणियों में चेतना स्वरूप जीवन-शक्ति, यज्ञों में जपयज्ञ, सभी अक्षरों में ओंकार, और सभी को धारण करने वाला विराट स्वरूप बताया है।
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गीता में वे कहते हैं कि जो पुरुष अन्तकाल में (शरीर की मृत्यु के समय) मेरा ही स्मरण करता हुआ शारीरिक बन्धन से मुक्त होता है, वह मेरे ही भाव को, यानि मुझे (विष्णु के परम तत्त्व को) ही प्राप्त होता है। अंत समय में मनुष्य जिस भाव का स्मरण करता हुआ शरीर का त्याग करता है, वह उसी भाव को प्राप्त होता है, जिस भाव का जीवन में निरन्तर स्मरण किया है। इसलिए, तुम सब काल में मेरा निरन्तर स्मरण करो; और युद्ध (अपने कर्म) करो। मुझमें अर्पण किये मन, बुद्धि से युक्त हुए निःसन्देह तुम मुझे ही प्राप्त होओगे। ॐकार रूपी एकाक्षर ब्रह्म का उच्चारण कर, मेरा स्मरण करता हुआ मनुष्य जब शरीर को त्याग कर जाता है, वह मेरे परम-धाम को प्राप्त करता है। मुझे प्राप्त करके उस मनुष्य का इस दुख-रूपी, अस्तित्व-रहित, क्षणभंगुर संसार में, पुनर्जन्म कभी नही होता है।
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मुझे भगवान के इन वचनों के स्वाध्याय का अवसर मिला, मेरा यह जीवन और मैं स्वयं धन्य हुआ। जय हो !! सच्चिदानंद परमात्मा की जय हो !! सभी का कल्याण हो, सभी सन्मार्ग के पथिक हों !! हरिः ॐ तत्सत् !! 🌹🙏🌹
कृपा शंकर
२ जून २०२१

यज्ञानां जपयज्ञोsस्मि ---

भगवान श्रीकृष्ण ने स्वयं को "यज्ञानां जपयज्ञोsस्मि" अर्थात् यज्ञों में जप-यज्ञ बताया है। अग्नि पुराण के अनुसार "जप" का अर्थ है --
"जकारो जन्म विच्छेदः पकारः पाप नाशकः।
तस्याज्जप इति प्रोक्तो जन्म पाप विनाशकः॥"
‘ज’ अर्थात् जन्म मरण से छुटकारा, ‘प’ अर्थात् पापों का नाश। इन दोनों प्रयोजनों को पूरा कराने वाली साधना को ‘जप’ कहते हैं।
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कोई भी साधना जितने सूक्ष्म स्तर पर होती है वह उतनी ही फलदायी होती है। वाणी के चार क्रम हैं -- परा, पश्यन्ति, मध्यमा और बैखरी। जिह्वा से होने वाले शब्दोच्चारण को बैखरी वाणी कहते हैं। उससे पूर्व मन में जो भाव आते हैं वह मध्यमा वाणी है। मन में भाव उत्पन्न हों, उससे पूर्व वे मानस पटल पर दिखाई भी दें वह पश्यन्ति वाणी है। और उससे भी परे जहाँ से विचार जन्म लेते हैं वह परा वाणी है। परा में प्रवेश कर के ही हम समष्टि का वास्तविक कल्याण कर सकते हैं। कूटस्थ में परमात्मा का निरंतर ध्यान करें, वे सब समझा देंगे.
ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
१ जून २०२१

भक्ति का स्थान सर्वोपरि है, अन्य सब गौण हैं ---

 भक्ति का स्थान सर्वोपरि है, अन्य सब गौण हैं ---

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अपनी अति-अल्प और अति-सीमित बुद्धि द्वारा मैं जो कुछ भी लिखता हूँ उसका एकमात्र उद्देश्य स्वयं के हृदय में छिपी भक्ति को जागृत करना है, और कुछ भी नहीं। यह मेरा स्वयं के साथ एक सत्संग है, जिस में मुझे खूब आनंद मिलता है। योग आदि अन्य सारी साधनायें बाद में आती हैं, सर्वोपरि स्थान भक्ति का है।
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जब भी भक्तिभाव प्रबल होता है तब एकमात्र छवि भगवान श्रीकृष्ण की ही आती है, चाहे वह उनकी त्रिभंग मुद्रा में हो, या पद्मासनस्थ ध्यान मुद्रा में। उनका ध्यान करते करते मैं स्वयं को भूल जाता हूँ और सिर्फ उनकी छवि ही मेरे समक्ष रहती है। बस यही मेरी साधना है, बाकी सब बाद की बातें हैं। शेष जीवन उनके ध्यान में व्यतीत हो जाए, इस के अतिरिक्त अन्य कोई अभिलाषा नहीं है। उनसे पृथकता का बोध, और सम्पूर्ण अस्तित्व उनको समर्पित है। यही मेरी साधना और यज्ञ है।
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(आज के लिए ही गीता के कुछ संकलित श्लोक) भगवान कहते हैं ---
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"अनन्याश्चिन्तयन्तो मां ये जनाः पर्युपासते।
तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यहम्॥९:२२॥"
अर्थात् -- अनन्य भाव से मेरा चिन्तन करते हुए जो भक्तजन मेरी ही उपासना करते हैं, उन नित्ययुक्त पुरुषों का योगक्षेम मैं वहन करता हूँ॥
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"यत्करोषि यदश्नासि यज्जुहोषि ददासि यत्।
यत्तपस्यसि कौन्तेय तत्कुरुष्व मदर्पणम्॥९::२७॥"
अर्थात् -- हे कौन्तेय ! तुम जो कुछ कर्म करते हो, जो कुछ खाते हो, जो कुछ हवन करते हो, जो कुछ दान देते हो और जो कुछ तप करते हो, वह सब तुम मुझे अर्पण करो॥
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"शुभाशुभफलैरेवं मोक्ष्यसे कर्मबन्धनैः।
संन्यासयोगयुक्तात्मा विमुक्तो मामुपैष्यसि॥९:२८॥"
अर्थात् -- इस प्रकार तुम शुभाशुभ फलस्वरूप कर्मबन्धनों से मुक्त हो जाओगे; और संन्यासयोग से युक्तचित्त हुए तुम विमुक्त होकर मुझे ही प्राप्त हो जाओगे॥
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"समोऽहं सर्वभूतेषु न मे द्वेष्योऽस्ति न प्रियः।
ये भजन्ति तु मां भक्त्या मयि ते तेषु चाप्यहम्॥९:२९॥"
अर्थात् -- मैं समस्त भूतों में सम हूँ; न कोई मुझे अप्रिय है और न प्रिय; परन्तु जो मुझे भक्तिपूर्वक भजते हैं, वे मुझमें और मैं भी उनमें हूँ॥
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"क्षिप्रं भवति धर्मात्मा शश्वच्छान्तिं निगच्छति।
कौन्तेय प्रतिजानीहि न मे भक्तः प्रणश्यति॥९:३१॥"
हे कौन्तेय, वह शीघ्र ही धर्मात्मा बन जाता है और शाश्वत शान्ति को प्राप्त होता है। तुम निश्चयपूर्वक सत्य जानो कि मेरा भक्त कभी नष्ट नहीं होता॥
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"मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु।
मामेवैष्यसि युक्त्वैवमात्मानं मत्परायणः॥९:३४॥"
अर्थात् -- (तुम) मुझमें स्थिर मन वाले बनो; मेरे भक्त और मेरे पूजन करने वाले बनो; मुझे नमस्कार करो; इस प्रकार मत्परायण (अर्थात् मैं ही जिसका परम लक्ष्य हूँ ऐसे) होकर आत्मा को मुझसे युक्त करके तुम मुझे ही प्राप्त होओगे॥
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"यो मामजमनादिं च वेत्ति लोकमहेश्वरम्।
असम्मूढः स मर्त्येषु सर्वपापैः प्रमुच्यते॥१०:३॥"
अर्थात् -- जो मुझे अजन्मा, अनादि और लोकों के महान् ईश्वर के रूप में जानता है, मर्त्य मनुष्यों में ऐसा संमोहरहित (ज्ञानी) पुरुष सब पापों से मुक्त हो जाता है॥
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"तेषामेवानुकम्पार्थमहमज्ञानजं तमः।
नाशयाम्यात्मभावस्थो ज्ञानदीपेन भास्वता॥१०:११॥"
अर्थात् उनके ऊपर अनुग्रह करने के लिए मैं उनके अन्त:करण में स्थित होकर, अज्ञानजनित अन्धकार को प्रकाशमय ज्ञान के दीपक द्वारा नष्ट करता हूँ॥
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ॐ तत्सत् !! ॐ नमो भगवते वासुदेवाया॥" आप सब महान निजातमगण को नमन !!
कृपा शंकर
१ मई २०२१
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पुनश्च: --- "ब्रह्मस्वरूप प्रणव" का नाद -- अनंत ज्योतिर्मय होता है। उस के श्रवण से अनंताकाश का बोध होता हैं। वह अनंताकाश -- भगवान श्रीकृष्ण का परम पद है। वे उस अनंताकाश से भी परे हैं। उन्हीं में स्वयं का समर्पण निरंतर होता रहे।

कर्मफलों से कोई बच नहीं सकता ---

११ अगस्त १९७९ को मोछू बांध के अचानक टूटने से गुजरात के मोरवी नगर में भयानक बाढ़ आई थी। हजारों लोग मरे। लाशों की सड़न इतनी भयंकर थी कि प्रशासन ने हाथ खड़े कर दिये| पूरे देश से राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के सैंकड़ों स्वयंसेवक वहाँ पहुंचे और लाशों के अंतिक संस्कार किए।

वहीं एक २९ साल का स्थानीय लड़का था जिसके मन में लालच आ गया। उसने मरी हुई सैंकड़ों महिलाओं के मृत शरीर से सोने के गहने लूटे और पोटली भर कर ले आया। दूसरे गाँव जाकर उसने उन गहनों को बेच कर एक घर बनाया, खेती की जमीन और एक दुकान भी खरीदी, और बड़ा सेठ हो गया। दो लड़के बड़े हुए तो उनके विवाह किये , और पोते हो गए।
समय का पहिया घूमा। २६ जनवरी २००१ को प्रातः ९ बजे सेठ जी अपने दो पोतों को लेकर भुज के पास उनके स्कूल गए हुए थे। स्कुल में बच्चों के कार्यक्रम थे। सेठ जी बाहर बैठ कर धूप का आनंद ले रहे थे। उनके प्रिय पोते आने ही वाले थे। अचानक भूमि में कम्पन हुआ, और स्कूल की इमारत जमीन पर आ गिरी जिससे उनके दोनों पोते दब कर मर गये। वे भाग कर घर गये तो देखा कि उनका दो मंज़िला मकान भी गिर गया था, जिसके नीचे आकर उनका पूरा परिवार मारा गया। दूसरे दिन संघ के स्वयं सेवक और अन्य सहायता कर्मी आए और मलवे में से उनकी दोनों पुत्र वधुओं और पत्नी की लाशें निकाली। सहायता कर्मियों ने कहा कि आप मृत लाशों के गहिने निकाल लें, आपके काम आएंगे।
सेठ जी रोने लगे, कहा कि जिस को चाहिए वह गहनों को निकाल ले, वे खुद तो उनके हाथ भी नहीं लगाएंगे। पूरी बात उन्होने रो-रोकर सब को बताई।
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आज जब मानवता पर महामारी ने प्रकोप किया है, और पीड़ित लोग दवा और ऑक्सीज़न के लिए दर दर भटक रहे हैं, तब कुछ मनुष्य रूपी राक्षस ब्लेक में ऊंचे दाम लेकर उन्हें लूट रहे है, तो इसके बहुत बुरे परिणाम उन्हें भुगतने होंगे।
१ मई २०२१

किसी भी परिस्थिति में "सत्य" और "धर्म" पर सदा अडिग रहें ---

किसी भी परिस्थिति में "सत्य" और "धर्म" पर सदा अडिग रहें। जीवन में कैसी भी दुःख और कष्टों से भरी परिस्थिति हो, उसमें सत्य का त्याग न करें, और धर्म पर अडिग रहें। रामायण में भगवान श्रीराम और भगवती सीताजी; महाभारत ग्रंथ में वर्णित -- पांडवों-द्रोपदी, नल-दमयंती, व सावित्री-सत्यवान को प्राप्त हुए कष्ट यही सत्य सिखाते हैं कि जीवन के उद्देश्य "पूर्णता" को प्राप्त करने के लिए कष्ट उठाने ही पड़ते हैं।

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सोने को शुद्ध करने के लिए उसे तपाना पड़ता है, वैसे ही कष्ट, दुःख और पीड़ायें हमें अधिक समझदार बनाती हैं। व्यावहारिक जीवन में मैंने देखा है कि जिन लोगों ने अपने बचपन में अभाव और दुःख देखे, उन्होने जीवन में अधिक संघर्ष किया और प्रगति की। जिन को बचपन से ही सारे विलासिता के साधन मिले, वे जीवन में कुछ भी सार्थक नहीं कर पाये।
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"जिसे तुम समझे हो अभिशाप, जगत की ज्वालाओं का मूल।
ईश का वह रहस्य वरदान, कभी मत इसको जाओ भूल।
विषमता की पीडा से व्यक्त, हो रहा स्पंदित विश्व महान।
यही दुख-सुख विकास का सत्य, यही भूमा का मधुमय दान।" (जयशंकर प्रसाद)
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कष्ट और पीड़ाओं में ही व्यक्ति परमात्मा को याद करता है। ईश्वर-लाभ ऐसे ही सुख से बैठे-बैठाये नहीं मिलता। उसके लिए कठोर साधना करनी पड़ती है और कष्ट भी उठाने पड़ते हैं। हम सत्य और धर्म के मार्ग पर चलते रहें, चाहे कितने भी कष्ट उठाने पड़ें। अंत में ईश्वर की प्राप्ति तो निश्चित है ही। ॐ तत्सत् !!
१ मई २०२१

ज्ञान की प्राप्ति स्वयं की श्रद्धा, तत्परता और इंद्रिय-संयम से होती है, अन्य किसी उपाय से नहीं ....

ज्ञान की प्राप्ति स्वयं की श्रद्धा, तत्परता और इंद्रिय-संयम से होती है, अन्य किसी उपाय से नहीं ....
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आचार्य शंकर के अनुसार श्रद्धा वह है जिसके द्वारा मनुष्य शास्त्र एवं आचार्य द्वारा दिये गये उपदेश से तत्त्व का यथावत् ज्ञान प्राप्त कर सकता है|
गीता में भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं .....
"श्रद्धावाँल्लभते ज्ञानं तत्परः संयतेन्द्रियः| ज्ञानं लब्ध्वा परां शान्तिमचिरेणाधिगच्छति||४:३९||"
अर्थात् श्रद्धावान्, तत्पर और जितेन्द्रिय पुरुष ज्ञान प्राप्त करता है| ज्ञान को प्राप्त करके शीघ्र ही वह परम शान्ति को प्राप्त होता है||
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गीता के अनुसार समत्व ही ज्ञान है| समत्व में स्थित व्यक्ति ही ज्ञानी है, और समत्व में स्थित व्यक्ति ही समाधिस्थ है|
भगवान कहते हैं .....
"योगस्थः कुरु कर्माणि सङ्गं त्यक्त्वा धनञ्जय| सिद्धयसिद्धयोः समो भूत्वा समत्वं योग उच्यते||२:४८||"
अर्थात हे धनञ्जय ! तू आसक्तिका त्याग करके सिद्धि-असिद्धिमें सम होकर योगमें स्थित हुआ कर्मोंको कर; क्योंकि समत्व ही योग कहा जाता है|
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भगवान फिर आगे कहते हैं ...
"बुद्धियुक्तो जहातीह उभे सुकृतदुष्कृते| तस्माद्योगाय युज्यस्व योगः कर्मसु कौशलम्||२:५०||"
अर्थात समत्वबुद्धि युक्त पुरुष यहां (इस जीवन में) पुण्य और पाप इन दोनों कर्मों को त्याग देता है? इसलिये तुम योग से युक्त हो जाओ| कर्मों में कुशलता योग है||
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योगसुत्रों में भगवान पातञ्जलि द्वारा बताए "योगः चित्तवृत्तिनिरोधः" और गीता में भगवान श्रीकृष्ण द्वारा बताए गए "समत्वं योग उच्यते" में कोई अंतर नहीं है, क्योंकि चित्तवृत्तिनिरोध से समाधि की प्राप्ति होती है जो समत्व ही है|
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"योगस्थ" होना क्या है ? .....
सारा कर्ताभाव जहाँ तिरोहित हो जाए, भगवान स्वयं ही एकमात्र कर्ता जहाँ हो जाएँ, जहाँ कोई कामना व आसक्ति नहीं हो, भगवान स्वयं ही जहाँ हमारे माध्यम से प्रवाहित हो रहे हों, मेरी समझ से वही योगस्थ होना है, और वही समत्व यानि समाधि में स्थिति है, और वही ज्ञान है|
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जो कुछ भी मुझे समझ में आया वही मैंने यहाँ लिख दिया| इस से आगे जो कुछ भी है उसे समझना मेरी अति-अति अल्प व सीमित बुद्धि द्वारा संभव नहीं है|
ॐ तत्सत् !! ॐ नमो भगवते वासुदेवाय !!
कृपा शंकर
०९ जून २०२०