Monday 28 February 2022

मेरे वश में कुछ भी नहीं है, जो करना है, वह आप स्वयं ही करो ---

मेरे वश में कुछ भी नहीं है, जो करना है, वह आप स्वयं ही करो। आपने बहुत सारे उपदेश दिये हैं जिनका पालन मेरी क्षमता से बाहर है --
त्रेगुण्य विषया वेदा निस्त्रैगुण्यो भवार्जुन।
निर्द्वन्द्वो नित्यसत्त्वस्थो निर्योगक्षेम आत्मवान्॥२:४५॥"
"योगस्थः कुरु कर्माणि सङ्गं त्यक्त्वा धनञ्जय।
सिद्ध्यसिद्ध्योः समो भूत्वा समत्वं योग उच्यते॥२:४८॥"
"दुःखेष्वनुद्विग्नमनाः सुखेषु विगतस्पृहः।
वीतरागभयक्रोधः स्थितधीर्मुनिरुच्यते॥२:५६॥"
"एषा ब्राह्मी स्थितिः पार्थ नैनां प्राप्य विमुह्यति।
स्थित्वाऽस्यामन्तकालेऽपि ब्रह्मनिर्वाणमृच्छति॥२:७२॥"
"अनन्यचेताः सततं यो मां स्मरति नित्यशः।
तस्याहं सुलभः पार्थ नित्ययुक्तस्य योगिनः॥८:१४॥"
"अनन्याश्चिन्तयन्तो मां ये जनाः पर्युपासते।
तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यहम्॥९:२२॥"
"येऽप्यन्यदेवता भक्ता यजन्ते श्रद्धयाऽन्विताः।
तेऽपि मामेव कौन्तेय यजन्त्यविधिपूर्वकम्॥९:२३॥"
"मयि चानन्ययोगेन भक्तिरव्यभिचारिणी।
विविक्तदेशसेवित्वमरतिर्जनसंसदि॥१३:११॥"
"ब्रह्मभूतः प्रसन्नात्मा न शोचति न काङ्क्षति।
समः सर्वेषु भूतेषु मद्भक्तिं लभते पराम्।।18.54।।
"भक्त्या मामभिजानाति यावान्यश्चास्मि तत्त्वतः।
ततो मां तत्त्वतो ज्ञात्वा विशते तदनन्तरम्॥१८:५५॥"
"मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु।
मामेवैष्यसि सत्यं ते प्रतिजाने प्रियोऽसि मे॥१८:६५॥"
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आप तो मेरे हृदय में हैं और हृदय में ही रहेंगे। मुझे मतलब सिर्फ आपसे है, आपके उपदेशों से नहीं। मुझे तो यही समझ में आ रहा है --
"सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज।
अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः॥१८:६६॥"
मैं आपकी शरणागत हूँ। त्राहिमाम् त्राहिमाम् !! मेरी रक्षा करो।
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भगवान के सारे रूप एक उन्हीं के हैं। भगवान स्वयं ही पद्मासन में बैठे हैं, और स्वयं ही स्वयं का ध्यान कर रहे हैं; उनके सिवाय कोई अन्य है ही नहीं। भगवती के विभिन्न रूपों में जिनकी आराधना हम करते हैं, वे सारे रूप भी उन्हीं के हैं। वे ही ज्योतिर्मय ब्रह्म हैं, वे ही परमशिव हैं, वे ही विष्णु और वे ही नारायण हैं।

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साधना करने, व साधक होने का भाव एक भ्रम मात्र ही है। भगवान स्वयं ही स्वयं की साधना करते हैं। हम तो उनके एक उपकरण, माध्यम और निमित्त मात्र हैं। कर्ता तो वे स्वयं हैं। उनकी यह चेतना सदा बनी रहे।
ॐ तत्सत् !! 🌹🕉🕉🕉🌹
कृपा शंकर
२१ फरवरी २०२२

हे प्रभु, मेरी भक्ति, अभीप्सा, और समर्पण में पूर्णता दो ---

 जब तक अत्यधिक आवश्यक न हो तब तक अब कहीं भी आना-जाना, और किसी से भी मिलना-जुलना लगभग बंद ही कर रहा हूँ। जीवन में अब परमात्मा के साथ ही निरंतर सत्संग चल रहा है जो मेरे लिए पर्याप्त है। अन्य किसी के संग की अब कोई आवश्यकता नहीं रही है। इस शरीर के जन्म से पूर्व सिर्फ परमात्मा ही मेरे साथ थे, और इस नश्वर देह की मृत्यु के बाद भी सिर्फ परमात्मा ही निरंतर मेरे साथ सदा रहेंगे। उनका साथ शाश्वत है। उनका सत्संग पर्याप्त है। वे ही माता-पिता, भाई-बहिन, सभी संबंधियों और शत्रु-मित्रों के रूप में आये। जीवन में माता-पिता, भाई-बहिनों, सभी संबंधियों, और मित्रों आदि से जो भी प्रेम मिला वह परमात्मा का ही प्रेम था जो उनके माध्यम से व्यक्त हुआ। जहाँ भक्ति और सत्यनिष्ठा होती है, वहाँ परमात्मा का प्रेम निश्चित रूप से मिलता है। जीवन में विवेक के बिना कष्ट ही कष्ट हैं। बिना सत्संग के विवेक नहीं हो सकता। सत्संग भी राम की कृपा से ही होता है। अब तो सिर्फ आप ही के सत्संग पर आश्रित हूँ। और कुछ नहीं चाहिये।

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हे प्रभु, मेरी भक्ति, अभीप्सा, और समर्पण में पूर्णता दो। मेरे चारों ओर छाये हुये असत्य के घने अंधकार और सभी दुर्बलताओं को दूर करो। अंधकार बहुत अधिक गहन है, और दुर्बलताएँ भी बहुत अधिक हैं, जिन्हें केवल आप ही दूर कर सकते हो। स्वयं को मुझमें और सर्वत्र व्यक्त करो। मेरे मन, बुद्धि, चित्त, और अहंकार में सिर्फ आप ही की अभिव्यक्ति हो। कहीं कोई पृथकता न रहे।

सभी को नमन !! इस समय अब और कुछ भी लिखना संभव नहीं है। ॐ तत्सत् !!
कृपा शंकर
२३ फरवरी २०२२

जिन को निर्विकल्प समाधि (कैवल्य) की उपलब्धि हो गई है, वे सशरीर ब्रह्मस्वरूप हैं ---

 जिन को निर्विकल्प समाधि (कैवल्य) की उपलब्धि हो गई है, वे सशरीर ब्रह्मस्वरूप हैं। निर्विकल्प समाधि में यदि इस शरीर की मृत्यु हो जाये तो उस दिव्यात्मा का जन्म हिरण्यलोकों में होता है, जहाँ किसी भी तरह के अज्ञान का अंधकार नहीं होता।

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गीता में भगवान श्रीकृष्ण द्वारा बताई हुई स्थितप्रज्ञता की स्थिति जिन्होंने प्राप्त कर ली है, वे जीवनमुक्त महात्मा हैं।
"दुःखेष्वनुद्विग्नमनाः सुखेषु विगतस्पृहः।
वीतरागभयक्रोधः स्थितधीर्मुनिरुच्यते॥२:५६॥"
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ध्यान साधना में जब विस्तार की अनुभूति होने लगे, और अनंताकाश से भी परे ज्योतिर्मय ब्रह्म के दर्शन होने लगे तब पीछे मुड़कर नहीं देखना चाहिए। भगवान स्वयं ही किसी न किसी माध्यम से मार्गदर्शन कर देंगे। वे ज्योतिर्मय ब्रह्म ही परमशिव हैं, ऐसी मेरी सोच है। हो सकता है वे ज्योतिर्मय ब्रह्म से भी परे हों। अभी तो वे ही मेरे उपास्य देव हैं।
ॐ तत्सत्
२३ फरवरी २०२२

मेरी बात अधिकांश लोगों को बुरी लगती होगी, लेकिन यह परम सत्य है कि भगवान ही हमारे प्रथम, अंतिम और एकमात्र सम्बन्धी हैं ---

 मेरी बात अधिकांश लोगों को बुरी लगती होगी, लेकिन यह परम सत्य है कि भगवान ही हमारे प्रथम, अंतिम और एकमात्र सम्बन्धी हैं ---

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इस जन्म से पूर्व वे ही हमारे साथ थे, और इस जीवन के पश्चात भी वे ही हमारे साथ रहेंगे। वे ही माता-पिता, भाई-बहिन, सगे-संबंधी, और शत्रु-मित्रों के रूप में आये; और हमें अपनों से जो भी प्रेम मिला है वह भगवान का ही प्रेम था जो हमारे प्रियजनों के माध्यम से व्यक्त हुआ। वे ही हमारे रूप में अपनी माया रच रहे हैं। वास्तव में हमारी कोई स्वतंत्र सत्ता नहीं है। हम भी परमात्मा के ही रूप हैं। उनकी अनुभूति में बने रहना ही हमारा परम कर्तव्य है।
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उनकी चेतना में बने रहना और पूर्ण रूपेण समर्पित होकर उनके साथ एकाकार होना ही जीवन का लक्ष्य है। यही साधना है और यही जीवन की सार्थकता है। हम जब अग्नि के समक्ष होते हैं तब तपन की अनुभूति अवश्य होती है। ऐसे ही जब भगवान के सम्मुख होते हैं, तब अनायास ही उनके अनुग्रह की अनुभूति होती है। इस लिए हमें निरंतर उनके स्मरण व उनकी चेतना के प्रकाश में रहना चाहिये।
कृपा शंकर
२४ फरवरी २०२२

अंतस्थ परमात्मा को विस्मृत कर देना - आत्महत्या और ब्रह्महत्या का पाप है ---

 अंतस्थ परमात्मा को विस्मृत कर देना - आत्महत्या और ब्रह्महत्या का पाप है ---

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भगवान को भूलना ब्रह्महत्या का पाप है जो सबसे बड़ा पाप होता है। यह किसी ब्रह्मनिष्ठ महात्मा की हत्या कर देने के बराबर है। मेरे कूटस्थ हृदय में सच्चिदानन्द ब्रह्म, स्वयं पुरुषोत्तम भगवान नारायण बिराजमान हैं। करुणा और प्रेमवश उन्होंने मुझे अपने स्वयं के हृदय में स्थान दे रखा है। उनको यदि मैं विस्मृत कर देता हूँ, तो क्या यह आत्महत्या और ब्रह्महत्या नहीं है? भगवान को भूलना उनकी हत्या करना है।
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मेरा इस संसार में जन्म ही ब्रह्मज्ञान प्राप्त करने के लिए हुआ था। लेकिन भटक कर मैं एक अनाड़ी और मूर्ख मात्र ही बन गया था। करुणा और प्रेमवश कृपा कर के स्वयं भगवान ने मेरे लिए मेरे स्थान पर स्वयं ही स्वयं की साधना की और अभी भी कर रहे हैं। प्रेमवश वे स्वयं ही मुझे सन्मार्ग पर ले आए हैं। उनके बिना मैं शून्य हूँ।
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पारिवारिक, सामाजिक व सामुदायिक सेवा कार्य हमें करने चाहियें क्योंकि इनसे पुण्य मिलता है, पर इनसे आत्म-साक्षात्कार नहीं होता। आजकल गुरु बनने और गुरु बनाने का भी खूब प्रचलन हो रहा है। गुरु पद पर हर कोई आसीन नहीं हो सकता। एक ब्रह्मनिष्ठ, श्रौत्रीय और परमात्मा को उपलब्ध हुआ महात्मा ही गुरु हो सकता है, जिसे अपने गुरु द्वारा अधिकार मिला हुआ हो।
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सभी को शुभ कामनाएँ और नमन! ॐ तत्सत्!
कृपा शंकर
२५ फरवरी २०२२

हे हरिः, तुम कितने सुंदर हो !! मैं तेरा निरंतर हूँ, और निरंतर तेरा ही रहूँगा ---

हे हरिः, तुम कितने सुंदर हो !! मैं तेरा निरंतर हूँ, और निरंतर तेरा ही रहूँगा।
किसी भी तरह की शब्द रचना से कोई लाभ नहीं है, क्योंकि तुम तो परम सत्य हो।
हे गुरु महाराज, आपने बहुत बड़ी कृपा कर दी है। सब कुछ मुझ अकिंचन के हाथ में थमा दिया। आपकी जय हो।
मैं आभारी हूँ उन सभी संत-महात्माओं और मित्रों का जिन्होंने मुझे कभी निराश नहीं होने दिया, और निराश होने पर उस अंधकार से बाहर निकाला। अप सब ने मुझमें एक लगन, उत्साह और अभीप्सा सदा जगाए रखी।
हे हरिः, तुम सचमुच बहुत सुंदर हो !! ॐ ॐ ॐ !!

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अपनी साधना/उपासना स्वयं करो, किसी से कोई अपेक्षा मत रखो। दूसरों के पीछे-पीछे भागने से कुछ नहीं मिलेगा। जो मिलेगा वह स्वयं में अंतस्थ परमात्मा से ही मिलेगा। किसी पर कटाक्ष, व्यंग्य या निंदा आदि करने से स्वयं की ही हानि होती है।

"तुलसी माया नाथ की, घट घट आन पड़ी। किस किस को समझाइये, कुएँ भांग पड़ी॥"
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मैं लिखता हूँ क्योंकि मुझमें हृदयस्थ भगवान मुझे प्रेरणा देते हैं और लिखवाते हैं। वे ही समस्त सृष्टि हैं (ॐ विश्वं विष्णु:-वषट्कारो भूत-भव्य-भवत- प्रभुः)। मुझे निमित्त बनाकर वे स्वयं ही स्वयं की साधना कर रहे हैं। मेरा कोई पृथक अस्तित्व नहीं है। सारी सृष्टि मेरे साथ, और मैं सारी सृष्टि के साथ एक हूँ। जब स्वयं भगवान हर समय मेरे साथ हैं, तो मुझे किसी से कुछ भी नहीं चाहिए। आप सब में मैं स्वयं को ही नमन करता हूँ। ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
२७ फरवरी २०२२

सारी सृष्टि ही ब्रह्ममय है, सदा शिवभाव में स्थित रहो ---

 सारी सृष्टि ही ब्रह्ममय है, सदा शिवभाव में स्थित रहो ---

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सारा सृष्टि ही ब्रह्ममय है। शिवभाव में स्थित होकर प्रयासपूर्वक सदा अपना दृष्टिपथ भ्रूमध्य में रखें, और वहाँ से अनुभूत होने वाले ज्योतिर्मय ब्रह्म का निरंतर ध्यान करते हुए उन के सूर्य-मण्डल में पुरुषोत्तम के दर्शन करें।
हमारा सुषुम्ना-पथ सदा ज्योतिर्मय रहे। मूलाधारचक्र से सहस्त्रारचक्र के मध्य प्राणायाम करते-करते देवभाव प्राप्त होता है, और सब प्रकार की सिद्धियाँ मिलती है। भगवान श्रीकृष्ण द्वारा गीता में बताई हुई ब्राह्मी स्थिति में निरंतर रहने की साधना करें, और क्रिया की परावस्था में रहें। भौतिक देह की चेतना शनैः शनैः कम होने लगेगी। सर्दी-गर्मी, सुख-दुःख और मान-अपमान को प्रतिक्रियारहित सहन करना एक महान तपस्या है।
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महात्माओं का कथन है कि करोड़ों तीर्थों में स्नान करने का जो फल है, कूटस्थ सूर्यमण्डल में पुरुषोत्तम के निरंतर दर्शन से वही फल प्राप्त होता है। कूटस्थ चक्र ही श्रीविद्या का पादपद्म, और सभी देवताओं का आश्रय है। उसमें स्थिति आनंद और मोक्ष है। भगवती साक्षात रूप से वहीं बिराजमान हैं।
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पहले मुझे बहुत अधिक शिकायत थी -- स्वयं से, भगवान से, और परिस्थितियों से। अब किससे किसकी शिकायत करूँ? कोई अन्य है ही नहीं।
परमात्मा से परमप्रेम, उन के प्रकाश का निरंतर विस्तार, और ब्रह्मभाव में स्थिति -- ये ही क्रमशः भक्ति, कर्म व ज्ञानयोग हैं।
मन को बलात् बार बार सच्चिदानंद ब्रह्म में लगाये रखना हमारा परम कर्तव्य है। मन और इन्द्रियों की एकाग्रता -- परम तप है, और समदृष्टि ही ब्रह्म्दृष्टि है।
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कूटस्थ गुरु-रूप-ब्रह्म को पूर्ण समर्पण व नमन! सम्पूर्ण अस्तित्व उन्हीं की अभिव्यक्ति है, कहीं भी "मैं" और "मेरा" नहीं।
भगवती से प्रार्थना है कि इस राष्ट्र भारत से असत्य का अंधकार पूरी तरह दूर हो, और यहाँ धर्म की पुनर्स्थापना हो।
ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२८ फरवरी २०२२

डॉलर की कमाई कौन छोड़ना चाहेगा? ---

 

डॉलर की कमाई कौन छोड़ना चाहेगा?
इस समय भारत की लगभग सारी समाचार टीवी चैनलों ने विश्व का सबसे बड़ा Fake news अभियान छेड़ रखा है। रूस-यूक्रेन युद्ध पर सारे समाचार अमेरिका-प्रायोजित एकतरफा हैं। सारी भारतीय मीडिया बिक गई है।
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यूक्रेन ने अपने रूसी मूल के नागरिकों पर कितने अमानवीय अत्याचार किए? क्यों रूस को यह युद्ध छेड़ने को बाध्य किया गया? यह कोई नहीं बता रहा है।
रूस को एक खलनायक के रूप में प्रस्तुत किया जा रहा है। यही बताया जा रहा है कि रूस कि इतनी हानि हो रही है, जैसे यूक्रेन की कोई हानि नहीं हो रही है।
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यूक्रेन का राष्ट्रपति ज़ेलेंस्की एक भारत विरोधी खलनायक है, जिसने हर कदम पर भारत का सदा विरोध किया है। बिकी हुई भारतीय मीडिया उसे एक नायक के रूप में प्रस्तुत कर रही है, जैसे वह बहुत महान है।
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देश के कई भागों में चुनाव चल रहे हैं। उनकी खबरों को गौण कर दिया गया है।
सूचना और प्रसार मंत्रालय एक मित्र देश के विरुद्ध चलाए जा रहे इन झूठे और प्रायोजित समाचारों को रोकने में विफल रहा है। मीडिया को भी पता है मंत्रालय उनका कुछ नहीं बिगाड़ सकता। अतः झूठी और प्रायोजित खबरें फैलाई जा रही हैं। काश ! भारत सरकार का समाचार मीडिया पर कोई नियंत्रण होता !!
२८ फरवरी २०२२
पुनश्च: 
बेशर्मी और झूठ की एक सीमा होती है। भारत की समाचार मीडिया ने वे सारी सीमाएं तोड़ दी हैं।
भारत की बिकी हुई बेशर्म समाचार मीडिया उत्तरप्रदेश के चुनावों से जनता का ध्यान हटाने के लिए विश्वयुद्ध का हौवा खड़ा कर रही है। यह उनका भारत विरोधी चरित्र है। उत्तर प्रदेश मे देश के प्रधानमंत्री मोदी जी, और उत्तरप्रदेश के मुख्यमंत्री योगी जी के भाषणों को गायब करते हुए, भारत के शत्रु देश यूक्रेन का महिमा मंडित करते हुये भारत के मित्र देश रूस को नीचा दिखा रही है। यह बिकी हुई मीडिया कितना भी षड़यंत्र कर ले, आना तो योगी जी को ही है।

🌹शिवरात्रि की अनंत शुभ कामनाएँ ---

 

🌹शिवरात्रि की अनंत शुभ कामनाएँ ---
"ॐ नमः शम्भवाय च मयोभवाय च नमः शंकराय च।
मयस्कराय च नमः शिवाय च शिवतराय च॥"
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जीवन का मूल उद्देश्य है -- शिवत्व की प्राप्ति। शिवत्व को कैसे प्राप्त करें? इस का उत्तर है -- कूटस्थ में ओंकार रूप में परमशिव का ध्यान। यह किसी कामना की पूर्ती के लिए नहीं, बल्कि कामनाओं के नाश के लिए है। आते जाते हर साँस के साथ उनका चिंतन-मनन और समर्पण -- उनकी परम कृपा की प्राप्ति करा कर आगे का मार्ग प्रशस्त कराता है। जब मनुष्य की ऊर्ध्व चेतना जागृत होती है, तब उसे स्पष्ट ज्ञान हो जाता है कि संसार की सबसे बड़ी उपलब्धि है -- कामना और इच्छा की समाप्ति।
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जीवन में अंधकारमय प्रतिकूल झंझावात आते ही रहते हैं, जिनसे हमें विचलित नहीं होना चाहिए। इनसे तो हमारी प्रखर चेतना ही जागृत होती है, व अंतर का सौंदर्य और भी अधिक निखर कर बाहर आता है। किसी भी परिस्थिति में अपनी नियमित आध्यात्मिक उपासना न छोड़ें। बड़ी कठिनाई से हमें भगवान की भक्ति का यह अवसर मिला है। कहीं ऐसा न हो कि हमारी ही उपेक्षा से भगवान को पाने की हमारी अभीप्सा ही समाप्त हो जाए। कभी भी विचलित न हों। हम सब सच्चिदानंद परमात्मा परमशिव की ही अभिव्यक्तियाँ हैं।
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श्रुति भगवती कहती है -- ‘शिवो भूत्वा शिवं यजेत्’ यानि शिव बनकर शिव की उपासना करो। जिन्होने वेदान्त को निज जीवन में अनुभूत किया है वे तो इस तथ्य को समझ सकते हैं, पर जिन्होने गीता का गहन स्वाध्याय किया है वे भी अंततः इसी निष्कर्ष पर पहुंचेंगे। तत्व रूप में शिव और विष्णु में कोई भेद नहीं है। गीता के भगवान वासुदेव ही वेदान्त के ब्रह्म हैं। वे ही परमशिव हैं।
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"शिव" का अर्थ शिवपुराण के अनुसार -- जिन से जगत की रचना, पालन और नाश होता है, जो इस सारे जगत के कण कण में संव्याप्त है, वे शिव हैं। जो समस्त प्राणधारियों की हृदय-गुहा में निवास करते हैं, जो सर्वव्यापी और सबके भीतर रम रहे हैं, वे ही शिव हैं।
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हारिये ना हिम्मत, बिसारिये न हरि नाम। सब को शुभ कामनाएँ और नमन।
ॐ नमः शिवाय॥ ॐ नमः शिवाय॥ ॐ नमः शिवाय॥ ॐ तत्सत्॥ ॐ ॐ ॐ॥
कृपा शंकर
झूञ्झुणु (राजस्थान)
१ मार्च २०२२

अनन्य द्वेषयोग ---

भगवान इतने दयालु हैं कि अपने से अनन्य-द्वेष करने वाले को भी वे वही गति प्रदान करते हैं जो अनन्य-प्रेम करने वाले को देते हैं| एक अनन्य-द्वेषयोग भी होता है, जहाँ द्वेष करने वाला दिन-रात केवल भगवान का ही चिंतन करता है, चाहे वह गाली देकर या दुर्भावना से ही करता हो| इसलिए भगवान को दिन-रात गाली देने और बुरा बोलने वाले भी अंततः भगवान को ही प्राप्त होते हैं| यही सनातन धर्म की महानता है| यहाँ किसी को नर्क की भयावह अग्नि में अनंत काल तक तड़पाया नहीं जाता|
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अतः हे लिबरल सेकुलर दुराचारी वामपंथियो, तुम लोग, शिशुपाल की तरह दिन-रात हमारे भगवान को गाली देते रहो, लेकिन तुम्हारा उद्धार हमारे भगवान ही करेंगे|
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भगवान श्रीराम ने जब ताड़का को देखा तो देखते ही अस्त्रप्रहार कर उसका वध कर दिया क्योंकि वह आततायी थी| उन्होंने तो उससे बात भी नहीं की, और यह भी नहीं सोचा कि वह महिला थी| उस जमाने में महिला-आयोग नहीं था| भगवान श्रीराम तो हमारे परमादर्श हैं| इस सन्दर्भ में रामचरितमानस की चौपाई बहुत गम्भीर है --
"चले जात मुनि दीन्हि देखाई। सुनि ताड़का क्रोध करि धाई॥
एकहिं बान प्रान हरि लीन्हा। दीन जानि तेहि निज पद दीन्हा॥"
भावार्थ -- मार्ग में चले जाते हुए मुनि ने ताड़का को दिखलाया। शब्द सुनते ही वह क्रोध करके दौड़ी। राम ने एक ही बाण से उसके प्राण हर लिए और दीन जानकर उसको निजपद (अपना दिव्य स्वरूप) दिया। भगवान् ने उसका वध तो किया है, पर साथ में उसको दीन जान कर उस पर कृपा भी की है, और उसको अपना परम पद भी दिया है| अन्दर से हृदय में गहन प्रेम, लेकिन बाहर से अपराधी को ज्ञान कराने के लिये दंड देना--- यही तो विशेषता है हमारे भगवान की|
जब तक ऐसा ही प्रेम हमारे हृदय में अपने शत्रु के प्रति न आये, तब तक हम भगवान् राम का अनुकरण करने का दम्भ नहीं भर सकते|
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भगवान श्रीकृष्ण ने अनेक असुरों का वध किया, लेकिन उनके मन में कभी किसी के प्रति क्रोध या घृणा जागृत नहीं हुई| पूतना को मारा तो पूतना का उद्धार हो गया, शिशुपाल को मारा तो शिशुपाल का उद्धार हो गया| महाभारत के युद्ध में अर्जुन के रथ पर सारथी के रूप में जब वे बैठते थे तो उनकी छवि बड़ी मनमोहक और मंत्रमुग्ध करने वाली होती थी| जो भी उनकी ओर देखता वह स्तब्ध हो जाता था| इतने में अर्जुन उनके प्राण ले लेता; और उन सब की सदगति ही होती| भगवान श्रीकृष्ण ने तो यहाँ तक कहा है कि --
"यस्य नाहंकृतो भावो बुद्धिर्यस्य न लिप्यते| हत्वापि स इमाँल्लोकान्न हन्ति न निबध्यते||१८:१७||"
अर्थात् जिस पुरुष में अहंकार का भाव नहीं है और बुद्धि किसी (गुण दोष) से लिप्त नहीं होती, वह पुरुष इन सब लोकों को मारकर भी वास्तव में न मरता है और न (पाप से) बँधता है||
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भगवान श्रीराम और भगवान श्रीकृष्ण ने जितने भी दुष्ट असुरों का बध किया, उन सब की सदगति हुई| वे सारे के सारे असुर, भगवान से द्वेष रखते थे| भगवान की दृष्टि में शबरी तथा ताड़का में कोई भेद नहीं, क्योंकि दोनों को उन्होंने वही परमपद दिया है| हां, देने के तरीके में भेद है, लेकिन वह भेद क्षणिक है, कुछ क्षणों बाद दोनों को वही एक पद मिल जाता है|
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किसी भी मज़हब या रिलीजन में शैतान या आसुरी वृत्ति वाले लोगों को भगवान की प्राप्ति नहीं होती, मिलता है तो उन्हें केवल जहन्नुम| लेकिन सनातन धर्म भगवान से द्वेष करने वालों को जहन्नुम नहीं, भगवान की प्राप्ति कराता है| इसी को कहते हैं द्वेषयोग, यानी परमात्मा से अनन्य द्वेष करके उनके साथ संयोग प्राप्त करना|
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शुकदेव जी ने भागवत में कहा है --
"उक्तं पुरस्तादेतत्ते चैद्यः सिद्धिं यथा गतः, द्विषन्नपि हृषीकेशं किमुताधोक्षजप्रियाः|"
अर्थात् हे परीक्षित, मैं आपको पहले ही बता चुका कि किस प्रकार शिशुपाल व कंस आदि भगवान् श्री कृष्ण से द्वेष करके भी सिद्धि को प्राप्त हो गये, फिर व्रज की गोपियों का तो कहना ही क्या!!
आप सब के हृदय में परमात्मा के प्रति प्रेम जागृत हो| सब का कल्याण हो|
ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१ मार्च २०२१
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भगवान इतने दयालु हैं कि अपने से अनन्य-द्वेष करने वाले को भी वे वही गति प्रदान करते हैं जो अनन्य-प्रेम करने वाले को देते हैं| एक अनन्य-द्वेषयोग भी होता है, जहाँ द्वेष करने वाला दिन-रात केवल भगवान का ही चिंतन करता है, चाहे वह गाली देकर या दुर्भावना से ही करता हो| इसलिए भगवान को दिन-रात गाली देने और बुरा बोलने वाले भी अंततः भगवान को ही प्राप्त होते हैं| यही सनातन धर्म की महानता है| यहाँ किसी को नर्क की भयावह अग्नि में अनंत काल तक तड़पाया नहीं जाता|
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अतः हे लिबरल सेकुलर दुराचारी वामपंथियो, तुम लोग, शिशुपाल की तरह दिन-रात हमारे भगवान को गाली देते रहो, लेकिन तुम्हारा उद्धार हमारे भगवान ही करेंगे|
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भगवान श्रीराम ने जब ताड़का को देखा तो देखते ही अस्त्रप्रहार कर उसका वध कर दिया क्योंकि वह आततायी थी| उन्होंने तो उससे बात भी नहीं की, और यह भी नहीं सोचा कि वह महिला थी| उस जमाने में महिला-आयोग नहीं था| भगवान श्रीराम तो हमारे परमादर्श हैं| इस सन्दर्भ में रामचरितमानस की चौपाई बहुत गम्भीर है --
"चले जात मुनि दीन्हि देखाई। सुनि ताड़का क्रोध करि धाई॥
एकहिं बान प्रान हरि लीन्हा। दीन जानि तेहि निज पद दीन्हा॥"
भावार्थ -- मार्ग में चले जाते हुए मुनि ने ताड़का को दिखलाया। शब्द सुनते ही वह क्रोध करके दौड़ी। राम ने एक ही बाण से उसके प्राण हर लिए और दीन जानकर उसको निजपद (अपना दिव्य स्वरूप) दिया। भगवान् ने उसका वध तो किया है, पर साथ में उसको दीन जान कर उस पर कृपा भी की है, और उसको अपना परम पद भी दिया है| अन्दर से हृदय में गहन प्रेम, लेकिन बाहर से अपराधी को ज्ञान कराने के लिये दंड देना--- यही तो विशेषता है हमारे भगवान की|
जब तक ऐसा ही प्रेम हमारे हृदय में अपने शत्रु के प्रति न आये, तब तक हम भगवान् राम का अनुकरण करने का दम्भ नहीं भर सकते|
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भगवान श्रीकृष्ण ने अनेक असुरों का वध किया, लेकिन उनके मन में कभी किसी के प्रति क्रोध या घृणा जागृत नहीं हुई| पूतना को मारा तो पूतना का उद्धार हो गया, शिशुपाल को मारा तो शिशुपाल का उद्धार हो गया| महाभारत के युद्ध में अर्जुन के रथ पर सारथी के रूप में जब वे बैठते थे तो उनकी छवि बड़ी मनमोहक और मंत्रमुग्ध करने वाली होती थी| जो भी उनकी ओर देखता वह स्तब्ध हो जाता था| इतने में अर्जुन उनके प्राण ले लेता; और उन सब की सदगति ही होती| भगवान श्रीकृष्ण ने तो यहाँ तक कहा है कि --
"यस्य नाहंकृतो भावो बुद्धिर्यस्य न लिप्यते| हत्वापि स इमाँल्लोकान्न हन्ति न निबध्यते||१८:१७||"
अर्थात् जिस पुरुष में अहंकार का भाव नहीं है और बुद्धि किसी (गुण दोष) से लिप्त नहीं होती, वह पुरुष इन सब लोकों को मारकर भी वास्तव में न मरता है और न (पाप से) बँधता है||
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भगवान श्रीराम और भगवान श्रीकृष्ण ने जितने भी दुष्ट असुरों का बध किया, उन सब की सदगति हुई| वे सारे के सारे असुर, भगवान से द्वेष रखते थे| भगवान की दृष्टि में शबरी तथा ताड़का में कोई भेद नहीं, क्योंकि दोनों को उन्होंने वही परमपद दिया है| हां, देने के तरीके में भेद है, लेकिन वह भेद क्षणिक है, कुछ क्षणों बाद दोनों को वही एक पद मिल जाता है|
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किसी भी मज़हब या रिलीजन में शैतान या आसुरी वृत्ति वाले लोगों को भगवान की प्राप्ति नहीं होती, मिलता है तो उन्हें केवल जहन्नुम| लेकिन सनातन धर्म भगवान से द्वेष करने वालों को जहन्नुम नहीं, भगवान की प्राप्ति कराता है| इसी को कहते हैं द्वेषयोग, यानी परमात्मा से अनन्य द्वेष करके उनके साथ संयोग प्राप्त करना|
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शुकदेव जी ने भागवत में कहा है --
"उक्तं पुरस्तादेतत्ते चैद्यः सिद्धिं यथा गतः, द्विषन्नपि हृषीकेशं किमुताधोक्षजप्रियाः|"
अर्थात् हे परीक्षित, मैं आपको पहले ही बता चुका कि किस प्रकार शिशुपाल व कंस आदि भगवान् श्री कृष्ण से द्वेष करके भी सिद्धि को प्राप्त हो गये, फिर व्रज की गोपियों का तो कहना ही क्या!!
आप सब के हृदय में परमात्मा के प्रति प्रेम जागृत हो| सब का कल्याण हो|
ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१ मार्च २०२१

जब भी समय मिले तब कूटस्थ सूर्यमण्डल में पुरुषोत्तम का ध्यान करें ---

 जब भी समय मिले तब कूटस्थ सूर्यमण्डल में पुरुषोत्तम का ध्यान करें| गीता में जिस ब्राह्मी स्थिति की बात कही गई है, निश्चय पूर्वक प्रयास करते हुए आध्यात्म की उस परावस्था में रहें| सारा जगत ही ब्रह्ममय है| हमारे हृदय में इतनी पवित्रता हो जिसे देखकर श्वेत कमल भी शरमा जाए| किसी भी परिस्थिति में परमात्मा के अपने इष्ट स्वरूप की उपासना न छोड़ें| पता नहीं कितने जन्मों में किए हुए पुण्य कर्मों के फलस्वरूप हमें भक्ति का यह अवसर मिला है| कहीं ऐसा न हो कि हमारी ही उपेक्षा से परमात्मा को पाने की हमारी अभीप्सा ही समाप्त हो जाए| जीवन में अंधकारमय प्रतिकूल झंझावात आते ही रहते हैं जिनसे हमें विचलित नहीं होना चाहिए| इनसे तो हमारी प्रखर चेतना ही जागृत होती है व अंतर का सौंदर्य और भी अधिक निखर कर बाहर आता है|

आप सब परमात्मा की सर्वश्रेष्ठ अभिव्यक्तियाँ हैं| आप सब को नमन !!
कृपा शंकर
१ मार्च २०२१

Sunday 27 February 2022

यस्य नाहंकृतो भावो बुद्धिर्यस्य न लिप्यते ---

आज प्रातः गीता के अठारहवें अध्याय के सत्रहवें श्लोक पर स्वाध्याय और चर्चा कर रहा था, पर उस से अभी तक मन नहीं भरा है, इसलिए दुबारा उस की चर्चा कर रहा हूँ| वासुदेव भगवान श्रीकृष्ण का यह एक बहुत बड़ा संदेश है ---

"यस्य नाहंकृतो भावो बुद्धिर्यस्य न लिप्यते| हत्वापि स इमाँल्लोकान्न हन्ति न निबध्यते||१८:१७||
अर्थात् जिस पुरुष में अहंकार का भाव नहीं है और बुद्धि किसी (गुण दोष) से लिप्त नहीं होती, वह पुरुष इन सब लोकों को मारकर भी वास्तव में न मरता है और न (पाप से) बँधता है||
इस विषय पर स्वनामधन्य अनेक महान आचार्यों ने बड़ी विद्वतापूर्ण टीकायें की हैं| इसका स्वाध्याय और मनन कर सभी को इसे अपने निज आचरण में लाना चाहिए| इस पर मैंने विचार किया तो पाया कि मुझ अकिंचन के वश की यह बात नहीं है| पर जब भगवान श्रीकृष्ण स्वयं कुछ कह रहे हैं तब इसे गंभीरता से लेना ही पड़ेगा|
मुझे कुछ भी आता-जाता नहीं है, इस लिए हे प्रभु, मैं स्वयं को ही पूर्ण रूपेण आपको समर्पित करता हूँ| सिर्फ आप ही मेरे हैं, और मैं आपका हूँ| बुद्धि तो मुझमें है ही नहीं| मेरी यह अति अल्प और सीमित बुद्धि आपको ही बापस करता हूँ| मुझे यह भी नहीं चाहिए| साथ-साथ यह मन, चित्त और अहंकार भी आपको ही बापस कर रहा हूँ| मुझे आपके अतिरिक्त अन्य कुछ भी नहीं चाहिए| ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२७ फरवरी २०२०

निरंतर अभ्यास, और वैराग्य, दोनों ही साधना-मार्ग पर आवश्यक हैं ---

 निरंतर अभ्यास, और वैराग्य, दोनों ही साधना-मार्ग पर आवश्यक हैं| इनके बिना मन पर नियंत्रण नहीं होता| मनुष्य की संकल्प-शक्ति से बहुत अधिक शक्तिशाली तो किसी भी मनुष्य के चारों ओर का वातावरण होता है| यदि वातावरण नकारात्मक हो तो सारे संकल्प धरे के धरे रह जाते हैं|

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जब भी जीवन में परमात्मा की एक थोड़ी सी भी झलक मिले, उसी समय विरक्त हो जाना चाहिए| हमारे चारों ओर का वातावरण यदि नकारात्मक है तो हम किसी भी तरह की आध्यात्मिक प्रगति नहीं कर पाते| समाज में घर-परिवार के सदस्यों का प्रभाव नकारात्मक ही होता है, वे नहीं चाहते कि हमारी आध्यात्मिक प्रगति हो| हम उन के मोहजाल में फँस कर वहीं के वहीं रह जाते हैं|
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अब रही कर्तव्य की बात| किसी बड़े कर्तव्य की पूर्ति के लिए यदि उस से छोटे कर्तव्य की उपेक्षा कर दी जाये तो कोई पाप नहीं होता| हमारा सब से बड़ा कर्तव्य है -- परमात्मा की प्राप्ति| परमात्मा की प्राप्ति के लिए यदि घर-परिवार को त्याग भी दिया जाये तो इसमें कोई पाप नहीं है|
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यदि इस जन्म में हम विरक्त नहीं हो पाते हैं, तो कोई ग्लानि मत करें| अगले जन्म में भगवान हमें वैराग्यवान होने के लिए अनुकूल परिस्थितियाँ प्रदान करेंगे| वृद्धावस्था में कोई भजन-बंदगी नहीं हो सकती| युवावस्था ही आध्यात्मिक साधना के अनुकूल होती है|
ॐ तत्सत् !!
२७ फरवरी २०२१

Saturday 26 February 2022

"रघुपति राघव राजाराम। पतित पावन सीताराम॥" ---

 पंडित लक्ष्मणाचार्य जी ने अपने ग्रंथ "श्री नमः रामनायनम" में एक भजन लिखा था जो इस प्रकार था ---

"रघुपति राघव राजाराम। पतित पावन सीताराम।।
सुंदर विग्रह मेघाश्याम। गंगा तुलसी शालीग्राम।।
भद्रगिरीश्वर सीताराम। भक्त-जनप्रिय सीताराम।।
जानकीरमणा सीताराम। जय जय राघव सीताराम।।"
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उपरोक्त भजन को पूर्व बेरिस्टर मोहनदास करमचंद गांधीजी ने बदल कर यह रूप दे दिया --
"रघुपति राघव राजाराम। पतित पावन सीताराम।।
ईश्वर अल्लाह तेरो नाम। सब को सन्मति दे भगवान।।"
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सन १९४८ में एक फिल्म आयी थी - "श्री राम भक्त हनुमान"| उस फिल्म में भी इस भजन का मूल स्वरुप उपलब्ध है| ये पंक्तियाँ सिर्फ सत्य का बोध कराने के लिए हैं| सत्य के पुजारी गांधीजी का मैं पूर्ण सम्मान करता हूँ| यहाँ वे चूक गए और एक असत्य को सत्य बना दिया|
२६ फरवरी २०२१

हरिः, मैं तेरा निरंतर हूँ, और निरंतर तेरा ही रहूँगा| ---

हरिः, मैं तेरा निरंतर हूँ, और निरंतर तेरा ही रहूँगा| तुम्हें पाने की क्षमता इस समय मुझ में नहीं है तो कोई बात नहीं; एक न एक दिन तुम्हारी कृपा से वह भी अवश्य ही होगी| तुम भी मुझ से दूर अब नहीं रह सकते| तुम्हें पाने की पात्रता मुझ में तुम्हें अविलंब विकसित करनी ही होगी|

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ब्रह्मतेज -- कोई अवधारणा मात्र नहीं, एक सत्य है जिसको मैं इस समय भी प्रत्यक्ष अनुभूत कर रहा हूँ| पर उसे धारण करने की क्षमता इस समय मुझ में नहीं है| हो सकता है उसके लिए मुझे और जन्म लेने पड़ें| यह वैसे ही है जैसे एक चौबीस वोल्ट के बल्ब में ग्यारह हज़ार वोल्ट की विद्युत जोड़ दी जाये| उस ब्रह्मतेज को इस देह में अवतरित करने का अभी प्रयास करूंगा तो यह देह उसी समय नष्ट हो जायेगी| इस देह में इतनी सामर्थ्य नहीं है कि उसके तेज को सहन कर सके|
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इसकी पात्रता के लिए मनसा-वाचा-कर्मणा अखंड ब्रह्मचर्य, सात्विक तपस्वी विरक्त जीवन, व गुरुओं और परमात्मा का आशीर्वाद चाहिए| मैं आध्यात्मिक मार्ग पर बहुत देरी से आया| उस से पूर्व, कुछ पूर्वजन्म के संस्कारों के कारण म्लेच्छ लोगों, म्लेच्छ वातावरण, व म्लेच्छ देशों में भी रहना और भ्रमण करना पड़ा| जीवन में जो शुचिता रहनी चाहिए थी, वह नहीं थी| लेकिन परमात्मा की कृपा मुझ अकिंचन पर है, और उनसे आश्वासन भी प्राप्त है कि आत्म-तत्व में मेरी प्रतिष्ठा निश्चित रूप से एक न एक दिन अवश्य होगी|
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सच्चिदानंद तो मिलेंगे ही, आज नहीं तो कल या उसके पश्चात ही सही| मैं आनंदित हूँ| और कुछ भी नहीं चाहिए| उनकी चेतना अन्तःकरण में बनी रहे|
ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२६ फरवरी २०२१

Thursday 24 February 2022

भगवान को भूलना ब्रह्महत्या का पाप है ---

 भगवान को भूलना ब्रह्महत्या का पाप है ---

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ब्रह्महत्या को सबसे बड़ा पाप माना गया है| ब्रह्महत्या के दो अर्थ हैं -- एक तो अपने अन्तस्थ परमात्मा को विस्मृत कर देना, और दूसरा है किसी ब्रह्मनिष्ठ महात्मा की ह्त्या कर देना| श्रुति भगवती कहती है कि अपने आत्मस्वरूप को विस्मृत कर देना, उसका हनन यानि ह्त्या है| हमारे कूटस्थ ह्रदय में सच्चिदानन्द ब्रह्म यानि स्वयं परमात्मा बैठे हुए हैं| उनको भूलना, उनकी हत्या करना है|
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हम संसार की हर वस्तु की ओर ध्यान देते हैं लेकिन परमात्मा की ओर नहीं| हम कहते हैं कि हमारा यह कर्तव्य बाकी है और वह कर्तव्य बाकी है पर सबसे बड़े कर्तव्य को भूल जाते हैं कि हमें ब्रह्मज्ञान प्राप्त करना है| जो लोग कहते हैं कि हमारा समय अभी तक नहीं आया है, उनका समय कभी आयेगा भी नहीं|
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सांसारिक उपलब्धियों को ही हम अपनी महत्वाकांक्षा, लक्ष्य और दायित्व बना लेते हैं| पारिवारिक, सामाजिक व सामुदायिक सेवा कार्य हमें करने चाहियें क्योंकि इनसे पुण्य मिलता है, पर इनसे आत्म-साक्षात्कार नहीं होता|
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आजकल गुरु बनने और गुरु बनाने का भी खूब प्रचलन हो रहा है| गुरु पद पर हर कोई आसीन नहीं हो सकता| एक ब्रह्मनिष्ठ, श्रौत्रीय और परमात्मा को उपलब्ध हुआ महात्मा ही गुरु हो सकता है, जिसे अपने गुरु द्वारा अधिकार मिला हुआ हो|
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हमारे माता पिता परमात्मा के अवतार हैं, उनका पूर्ण सम्मान होना चाहिए| प्रातः और सायं विधिवत साधना, और निरंतर प्रभु का स्मरण करें| गीता के कम से कम पाँच श्लोकों का नित्य पाठ करें| कुसंग का सर्वदा त्याग करें| सब प्रकार के नशे का त्याग, और सात्विक भोजन करें| जो इतना ही कर लेंगे, उन्हें भगवान की प्राप्ति हो जाएगी|
सभी को शुभ कामनाएँ और नमन! ॐ तत्सत्!
कृपा शंकर
२५ फरवरी २०२१

हम परमात्मा को अपने ऊर्ध्वस्थ मूल (कूटस्थ) में ढूंढें ---

 हम परमात्मा को अपने ऊर्ध्वस्थ मूल (कूटस्थ) में ढूंढें ---

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हम प्रत्यक्ष परमात्मा की उपासना करें, न कि उनकी अभिव्यक्तियों या प्रतीकों की| भगवान गीता में कहते हैं ---.
"ऊर्ध्वमूलमधःशाखमश्वत्थं प्राहुरव्ययम् | छन्दांसि यस्य पर्णानि यस्तं वेद स वेदवित् ||१५:१||"
श्री भगवान् ने कहा -- (ज्ञानी पुरुष इस संसार वृक्ष को) ऊर्ध्वमूल और अध:शाखा वाला अश्वत्थ और अव्यय कहते हैं; जिसके पर्ण छन्द अर्थात् वेद हैं, ऐसे (संसार वृक्ष) को जो जानता है, वह वेदवित् है||
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यह श्लोक हमें कठोपनिषद् में वर्णित अश्वत्थ वृक्ष का स्मरण कराता है| कठोपनिषद में यमराज ने ब्रह्म की उपमा पीपल के उस वृक्ष से की है, जो इस ब्रह्माण्ड के मध्य उलटा लटका हुआ है, जिसकी जड़ें ऊपर की ओर हैं, और शाखाएँ नीचे की ओर लटकी हुई हैं| यह सृष्टि का सनातन वृक्ष है जो विशुद्ध, अविनाशी और निर्विकल्प ब्रह्म का ही रूप है|
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कठोपनिषद् के द्वितीय अध्याय की तृतीय वल्ली का प्रथम मन्त्र कहता है ---
"ऊर्ध्वमूलोऽवाक्शाखः एषोऽश्वत्थः सनातनः | तदेव शुक्रं तद् ब्रह्म तदेवामृतमुच्यते |
तस्मिँल्लोकाः श्रिताः सर्वे तदु नात्येति कश्चन || एतद् वै तत् ||१||"
अर्थात् ऊपर की ओर मूलवाला और नीचे की ओर शाखावाला यह सनातन अश्वत्थ वृक्ष है| वह ही विशुद्ध तत्व है वह (ही) ब्रह्म है| समस्त लोक उसके आश्रित हैं, कोई भी उसका उल्लघंन नही कर सकता| यही तो वह है (जिसे तुम जानना चाहते हो)|
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अश्वत्थ शब्द में श्व का अर्थ आगामी कल है, त्थ का अर्थ है स्थित रहने वाला| अतः अश्वत्थ का अर्थ होगा --- वह जो कल अर्थात् अगले क्षण पूर्ववत् स्थित नहीं रहने वाला है| अश्वत्थ शब्द से इस सम्पूर्ण अनित्य और परिवर्तनशील दृश्यमान जगत् की ओर संकेत किया गया है| इस श्लोक में कहा गया है कि इस अश्वत्थ का मूल ऊर्ध्व में अर्थात् ऊपर है|
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इस संसार वृक्ष का मूल ऊर्ध्व कहा गया है जो सच्चिदानन्द ब्रह्म है| वृक्ष को आधार तथा पोषण अपने ही मूल से ही प्राप्त होता है| इसी प्रकार हमें भी हमारा भरण-पोषण सच्चिदानंद ब्रह्म से ही प्राप्त होता है| हमें हमारे ऊर्ध्वमूल को पाने का ही निरंतर प्रयास करना चाहिए, यही हमारा सर्वोपरी कर्तव्य है| यही सबसे बड़ी सेवा है जो हम दूसरों के लिए कर सकते हैं| जो इस जीवन वृक्ष के रहस्य को समझ लेता है वही वेदवित है|
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हमारा ऊर्ध्वमूल कूटस्थ है| ध्यान साधना द्वारा कूटस्थ में ही हमें परमात्मा का अनुसंधान करना होगा| इसकी विधि उपनिषदों में व गीता में दी हुई है,पर कोई समझाने वाला सिद्ध आचार्य चाहिए जो श्रौत्रीय और ब्रह्मनिष्ठ भी हो| जिस दिन हमारे में पात्रता होगी उस दिन भगवान स्वयं ही आचार्य गुरु के रूप में आ जायेंगे| अतः हर कार्य, हर सोच परमात्मा की कृपा हेतु ही करनी चाहिए|
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परमात्मा की सर्वश्रेष्ठ अभिव्यक्ति आप सब निजात्मगण को नमन !
ॐ तत्सत् ! ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ! श्रीगुरवे नमः ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२५ फरवरी २०२१
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पुनश्च: :--- शिवनेत्र होकर भ्रूमध्य में सर्वव्यापी पारब्रह्म परमात्मा का ध्यान करते-करते वहाँ एक ब्रह्मज्योति का प्राकट्य होता है| जब वह ज्योति प्रकट होती है तब उसके साथ-साथ अनाहत नाद का श्रवण भी होने लगता है| उस अनंत सर्वव्यापी विराट ज्योतिर्मय अक्षर ब्रह्म को ही योग साधना में कूटस्थ ब्रह्म कहते हैं| उस सर्वव्यापी कूटस्थ का ध्यान ही प्रत्यक्ष परमात्मा का ध्यान है|