Thursday 17 October 2019

हे मृत्यु, तेरा दंश कहाँ है ? हे मृत्यु, तेरी विजय कहाँ है ?......

हे मृत्यु, तेरा दंश कहाँ है ? हे मृत्यु, तेरी विजय कहाँ है ?......
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अपने किसी पूर्व जन्म में मैं वाराणसी के योगिराज श्री श्री श्याचरण लाहिड़ी महाशय (३० सितम्बर १८२८ -- २६ सितंबर १८९५) से जुड़ा हुआ था, जिनकी आज १२४ वीं पुण्यतिथि है| मुझे लगता है कि उस के उपरांत यह मेरा तीसरा जन्म है| इस जन्म में भी मुझे उनका आशीर्वाद प्राप्त है| यह लेख मैंने दो वर्ष पूर्व लिखा था जिसे संशोधित कर के उन की पुण्य-स्मृति में पुनर्प्रेषित कर रहा हूँ| उनकी सत्ता किसी सूक्ष्म जगत में है, जहाँ से आध्यात्मिक मार्गदर्शन और रक्षा आज भी उनके आशीर्वाद से हो रही है|
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हे मृत्यु, तेरी विजय कहाँ है ? हे मृत्यु, तेरा दंश कहाँ है ? जीवन और मृत्यु दोनों ही प्रकाश और अन्धकार के खेल हैं| कभी प्रकाश हावी हो जाता है और कभी अन्धकार, पर विजय सदा प्रकाश की ही होती है यद्यपि अन्धकार के बिना प्रकाश का कोई महत्त्व नहीं है| सृष्टि द्वंद्वात्मक यानि दो विपरीत गुणों से बनी है| जीवन और मृत्यु भी दो विपरीत गुण हैं, पर मृत्यु एक मिथ्या भ्रम मात्र है, और जीवन है वास्तविकता| जीवात्मा कभी मरती नहीं है, सिर्फ अपना चोला बदलती है, अतः विजय सदा जीवन की ही है, मृत्यु की नहीं|
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भगवान श्रीकृष्ण का वचन है ....
"वासांसि जीर्णानि यथा विहाय नवानि गृह्णाति नरोऽपराणि |
तथा शरीराणि विहाय जीर्णान्यन्यानि संयाति नवानि देही ||०२:२२||"
अर्थात् जैसे मनुष्य जीर्ण वस्त्रों को त्यागकर दूसरे नये वस्त्रों को धारण करता है? वैसे ही देही जीवात्मा पुराने शरीरों को त्याग कर दूसरे नए शरीरों को प्राप्त होता है ||
(गीता में आस्था रखने वालों को समाधियों, मक़बरों और कब्रों की पूजा नहीं करनी चाहिए क्योंकि दिवंगत आत्मा तो तुरंत दूसरा शरीर धारण कर लेती है| महापुरुष तो परमात्मा के साथ सर्वव्यापी हैं)
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जीवात्मा सदा शाश्वत है| भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं ...
"नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावकः| न चैनं क्लेदयन्त्यापो न शोषयति मारूतः"||०२:२३||
अर्थात इस आत्मा को शस्त्र काट नहीं सकते, आग जला नहीं सकती, पानी गीला नहीं कर सकता और वायु सुखा नहीं सकती||
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भगवान श्रीकृष्ण ने ही कहा है ....
"न जायते म्रियते वा कदाचिन् नायं भूत्वा भविता वा न भूयः |
अजो नित्यः शाश्वतोऽयं पुराणो न हन्यते हन्यमाने शरीरे||०२:२०||"
अर्थात यह आत्मा किसी काल में भी न जन्मता है और न मरता है और न यह एक बार होकर फिर अभावरूप होने वाला है| यह आत्मा अजन्मा, नित्य, शाश्वत और पुरातन है| शरीर के नाश होने पर भी इसका नाश नहीं होता||
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शरीर के मरने या मारे जाने पर जीवात्मा मरती नहीं है| बाइबिल के अनुसार ...
{1 Corinthians 15:54-55 (N.I.V.)}
54 "When the perishable has been clothed with the imperishable, and the mortal with immortality, then the saying that is written will come true: “Death has been swallowed up in victory.”[a]
55 “Where, O death, is your victory? Where, O death, is your sting?”
1 Corinthians 15:54 Isaiah 25:8
1 Corinthians 15:55 Hosea 13:14
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श्री श्री लाहिड़ी महाशय अपनी देहत्याग के दूसरे दिन प्रातः दस बजे दूरस्थ अपने तीन शिष्यों के समक्ष एक साथ एक ही समय में अपनी रूपांतरित देह में यह बताने को साकार प्रकट हुए कि उन्होंने अपनी उस भौतिक देह को त्याग दिया है, और उन्हें उनके दर्शनार्थ काशी आने की आवश्यकता नहीं है| उनके साथ उन्होंने और भी बातें की| समय समय पर उन्होंने अपने अनेक शिष्यों के समक्ष प्रकट होकर उन्हें साकार दर्शन दिए हैं| विस्तृत वर्णन उनकी जीवनियों में उपलब्ध है|
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सचेतन देहत्याग के पूर्व उन्होंने कई घंटों तक गीता के श्लोकों की व्याख्या की और अचानक कहा कि "मैं अब घर जा रहा हूँ"| यह कह कर वे अपने आसन से उठ खड़े हुए, तीन बार परिक्रमा की और उत्तराभिमुख हो कर पद्मासन में बैठ गए और ध्यानस्थ होकर अपनी नश्वर देह को सचेतन रूप से त्याग दिया| पावन गंगा के तट पर मणिकर्णिका घाट पर गृहस्थोचित विधि से उनका दाह संस्कार किया गया| वे मनुष्य देह में साक्षात शिव थे|
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ऐसे महान गृहस्थ योगी को नमन करते हुए मैं इस लेख का समापन करता हूँ|
ॐ नमः शिवाय ! ॐ शिव ! ॐ ॐ ॐ ||
कृपा शंकर
२६ सितम्बर २०१९

गीता भारत का प्राण है ....

गीता भारत का प्राण है| गीता ने भारत को जीवित रखा है| गीता का एक एक शब्द जीवंत है| नीचे के तीन श्लोक गीता के कर्मयोग का सार हैं| यह संसार भी ऐक युद्धभूमि यानि कर्मभूमि है| यहाँ युद्ध करने का भावार्थ अपने कर्म निष्ठापूर्वक करने से है|
भगवान कहते हैं .....
"मयि सर्वाणि कर्माणि सन्नयस्याध्यात्मचेतसा| निराशीर्निर्ममो भूत्वा युध्यस्व विगतज्वरः||३:३०||"
ये मे मतमिदं नित्यमनुतिष्ठन्ति मानवाः| श्रद्धावन्तोऽनसूयन्तो मुच्यन्ते तेऽति कर्मभिः||३ ३१||"
"ये त्वेतदभ्यसूयन्तो नानुतिष्ठन्ति मे मतम्‌ | सर्वज्ञानविमूढांस्तान्विद्धि नष्टानचेतसः ||३:३२||"

भावार्थ : अत: हे अर्जुन! अपने सभी प्रकार के कर्तव्य-कर्मों को मुझमें समर्पित करके पूर्ण आत्म-ज्ञान से युक्त होकर, आशा, ममता, और सन्ताप का पूर्ण रूप से त्याग करके युद्ध कर ||
जो मनुष्य मेरे इन आदेशों का ईर्ष्या-रहित होकर, श्रद्धा-पूर्वक अपना कर्तव्य समझ कर नियमित रूप से पालन करते हैं, वे सभी कर्मफ़लों के बन्धन से मुक्त हो जाते हैं ||
परन्तु जो मनुष्य ईर्ष्यावश इन आदेशों का नियमित रूप से पालन नही करते हैं, उन्हे सभी प्रकार के ज्ञान में पूर्ण रूप से भ्रमित और सब ओर से नष्ट-भ्रष्ट हुआ ही समझना चाहिये||
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ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!

आत्म-तत्व में स्थित रहना ही मेरी दृष्टि में वास्तविक साधना है .....

आत्म-तत्व में स्थित रहना ही मेरी दृष्टि में वास्तविक साधना है .....
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ध्यान में चेतना के विस्तार की अनुभूतियाँ वास्तव में आत्म-तत्व की ही आरंभिक अनुभूतियाँ हैं| आत्मतत्व ही ब्रह्म-तत्व है| तब यह लगने लगता है कि हम यह देह नहीं, बल्कि परमात्मा की अनंतता हैं| उस अनंतता में स्थित रहना ही मेरी सीमित व अल्प समझ से वास्तविक साधना है| आत्म-तत्व को सदा अनुभूत करते रहें| इस से आगे की अनुभूतियाँ गुरुकृपा से सहस्त्रार में ब्रह्मरंध्र से भी परे यानि देह की चेतना से भी परे जाकर होती हैं| वे अनुभूतियाँ पारब्रह्म परमशिव परमात्मा की होती हैं| वे परमशिव ही भगवान वासुदेव हैं, जिनके बारे में गीता में कहा है....
"बहूनां जन्मनामन्ते ज्ञानवान्मां प्रपद्यते| वासुदेवः सर्वमिति स महात्मा सुदुर्लभः||०७:१९||"
अर्थात बहुत जन्मों के अन्त में (किसी एक जन्म विशेष में) ज्ञान को प्राप्त होकर कि यह सब वासुदेव है ज्ञानी भक्त मुझे प्राप्त होता है ऐसा महात्मा अति दुर्लभ है||
आचार्य शंकर ने इस श्लोक की व्याख्या यों की है ....
"बहूनां जन्मनां ज्ञानार्थसंस्काराश्रयाणाम् अन्ते समाप्तौ ज्ञानवान् प्राप्तपरिपाकज्ञानः मां वासुदेवं प्रत्यगात्मानं प्रत्यक्षतः प्रपद्यते| कथम् वासुदेवः सर्वम् इति। यः एवं सर्वात्मानं मां नारायणं प्रतिपद्यते सः महात्मा न तत्समः अन्यः अस्ति अधिको वा| अतः सुदुर्लभः मनुष्याणां सहस्रेषु इति हि उक्तम् आत्मैव सर्वो वासुदेव इत्येवमप्रतिपत्तौ कारणमुच्यते||
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परमात्मा से एक क्षण के लिए भी पृथक होना महाकष्टमय मृत्यु है| वास्तविक महत्व इस बात का है कि हम क्या हैं| सच्चिदान्द परमात्मा सदैव हैं, परन्तु जीवभाव रूपी मायावी आवरण भी उसके साथ-साथ लिपटा है| उस मायावी आवरण के हटते ही सच्चिदानन्द परमात्मा भगवान परमशिव व्यक्त हो जाते हैं| सच्चिदानन्द से भिन्न जो कुछ भी है उसे दूर करना ही सच्चिदानंद की अभिव्यक्ति और वास्तविक उपासना है जिसमें सब साधनायें आ जाती हैं| अपने वास्तविक स्वरुप में स्थित होना ही साक्षात्कार है| उपासना और भक्ति (परम प्रेम) ही मार्ग हैं| जब परमात्मा के प्रति प्रेम हमारा स्वभाव हो जाए तब पता चलता है कि हम सही मार्ग पर हैं| परमात्मा के प्रति प्रेम यानि भक्ति ही हमारा वास्तविक स्वभाव है|
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कर्ता भाव को सदा के लिए समाप्त करना है| वास्तविक कर्ता तो परमात्मा ही हैं| कर्ताभाव सबसे बड़ी बाधा है| अतः सब कुछ यहाँ तक कि निज अस्तित्व भी परमात्मा को समर्पित हो| यह समर्पण ही साध्य है, यही साधना है और यही आत्म-तत्व में स्थिति है| इसके लिए वैराग्य और अभ्यास आवश्यक है| जो भी बाधा आती है उसे दूर करना है| अमानित्व, अदम्भित्व और परम प्रेम ये एक साधक के लक्षण हैं| हम जो कुछ भी है, जो भी अच्छाई हमारे में है, वह हमारी नहीं अपितु परमात्मा की ही महिमा है| आप सब महान आत्माओं को मेरा दंडवत प्रणाम !
ॐ तत्सत् ! ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२४ सितंबर २०१९

अब और क्या बचा है? मौज-मस्ती ही करनी है .....

अब और क्या बचा है? मौज-मस्ती ही करनी है .....
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पिछले सात-आठ वर्षों से जैसी भी मुझे भगवान से प्रेरणा मिलती रहती, वैसा ही नित्य कुछ न कुछ लिखता ही रहता था| खुद का दिमाग तो कभी लगाया ही नहीं, सिर्फ हृदय की ही बात सुनता रहा| जो बात हृदय कह देता, उसे वैसी की वैसी ही लिख देता| अधिकांशतः तो प्रेरणा मुझे हृदय में बिराजमान भगवान वासुदेव से ही मिलती| दिमाग तो अब खालीस्थान है, जहाँ कुछ भी नहीं बचा है, पूरा बंजर हो गया है| हृदय भी एक बार भगवान को दिया था जो उन्होनें कभी बापस लौटाया ही नहीं, अपने पास ही रख लिया, अतः वह भी नहीं है| अपना कहने को कुछ भी नहीं है, सब कुछ श्रीहरिः ने छीन लिया है| सब कुछ था भी तो उन्हीं का, मैं तो उधार में मिली हुई चीज का जबर्दस्ती मालिक बना बैठा हुआ था| बहुत पहिले एक बार उनके समक्ष सिर झुकाया था जो फिर बापस कभी उठा ही नहीं, अभी तक झुका हुआ है|
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पता नहीं क्यों, दुनियाँ की मौज-मस्ती करना ही भूल गए| अब हृदय कहता कि खूब मौज-मस्ती की जाए| लिखने की प्रेरणा मिली तो लिखेंगे, बाकी समय अपनी मौज-मस्ती करेंगे| और कुछ नहीं करना है|
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इस संसार में मैं सबके साथ एक हूँ क्योंकि जो परमात्मा सब के हृदय में हैं, वे ही मेरे हृदय में हैं| अतः कहीं भी कोई फर्क नहीं है| अब हृदय की ही बात सुनेंगे, मन की नहीं| जो हृदय कहेगा वही करेंगे| किसी से कुछ लेना-देना नहीं है| एकमात्र संबंध ही अब सिर्फ भगवान से है| आप सब में व्यक्त उन भगवान वासुदेव को नमन ! वे ही मेरे परमशिव हैं| ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२३ सितंबर २०१९

अद्भुत, अभूतपूर्व, अकल्पनीय और ऐतिहासिक घटना:----

अद्भुत, अभूतपूर्व, अकल्पनीय और ऐतिहासिक घटना:----
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कल संयुक्त राज्य अमेरिका के टेक्सास प्रांत के ह्यूस्टन नगर में एक नया स्वर्णिम इतिहास रचा गया| पचास हजार से अधिक प्रवासी भारतीय मूल के अमेरिकी नागरिकों की उपस्थिती में सं.रा.अमेरिका के राष्ट्रपति श्री डोनाल्ड ट्रम्प द्वारा भारत के प्रधानमंत्री माननीय श्री नरेंद्र मोदी का जो स्वागत और सम्मान किया गया वह अमेरिका के इतिहास में एक अभूतपूर्व घटना थी| ऐसा सम्मान आज तक अमेरिका के इतिहास में किसी भी राजनेता का नहीं किया गया| मंच पर वहाँ के प्रशासन का सारा नेतृत्व था|
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>>> यह सम्मान पूरे भारत का सम्मान था| <<<
घटनास्थल अपनी क्षमता से अधिक पूरा खचाखच भरा हुआ था| लाखों प्रवासी अमेरिकी भारतीय व अन्य अमेरिकी नागरिक और करोड़ों लोग पूरे विश्व में यह कार्यक्रम टीवी पर प्रत्यक्ष देख रहे थे|
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भारत को अपनी ऊर्जा आवश्यकताओं की पूर्ति और गरीबी दूर करने के लिए नवीनतम टेक्नोलोजी की आवश्यकता है, जिसे देने की क्षमता सिर्फ अमेरिका के पास है| साथ साथ भारत में जिहादी आतंकवाद को निपटाने के लिए भी अमेरिका का सक्रिय सहयोग आवश्यक है| अतः यह कार्यक्रम महान ऐतिहासिक था| दोनों देशों के राजनीतिक नेतृत्व को मेरी ओर से अभिनंदन और नमन!
कृपा शंकर
२३ सितंबर २०१९

भगवान कहाँ हैं और कहाँ नहीं हैं ? ......

भगवान कहाँ हैं और कहाँ नहीं हैं ? ......
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यह एक प्रश्न है जो मैं आप सब से पूछ रहा हूँ कि भगवान कहाँ हैं, और कहाँ नहीं हैं?
लोग अपनी सीमित चेतना व सीमित अल्प ज्ञान से पूछते हैं कि भगवान कहाँ है? इसका कोई उत्तर है तो वह स्वयं के लिए ही हो सकता है| दूसरों को कोई संतुष्ट नहीं कर सकता| परमात्मा की स्पष्ट प्रत्यक्ष उपस्थिती कहाँ कितनी है यह हम अनुभूत ही कर सकते हैं|
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वर्षा ऋतु चल रही है| वर्षा के पश्चात पृथ्वी से एक बड़ी मोहक गंध निकलती है| वह गंध जहाँ जितनी अधिक मात्रा में है, वहाँ परमात्मा की उपस्थिति उतनी ही अधिक है| यह हम अनुभूत कर सकते हैं| किसी व्यक्ति को देखते ही मन श्रद्धा से भर उठता है, और हम स्वतः ही उसे नमन करते हैं| यह उस व्यक्ति का तप है जिसे हम नमन करते हैं| परमात्मा ही उसके तप में व्यक्त होते हैं| हम किसी भी प्राणी को देखते हैं तो उस व्यक्ति की जो प्राण चेतना है वह परमात्मा ही है| परमात्मा सभी प्राणियों के प्राणों में व्यक्त होते हैं| अग्नि का तेज और बर्फ की शीतलता भी परमात्मा ही है| हर पदार्थ के अणु जिस ऊर्जा से निर्मित हैं, वह ऊर्जा भी परमात्मा है| उस ऊर्जा के पीेछे का विचार भी परमात्मा है| सारा जीवन और उस से परे भी जो कुछ है वह परमात्मा ही है| और भी अधिक स्पष्ट अनुभूति ध्यान साधना में सर्वव्यापी ब्रह्म तत्व की आनंददायक अनुभूति से होती है, जिसके पश्चात कोई संदेह नहीं रहता| जो विकार हैं वे सांसारिक पुरुषों के अज्ञान और अधर्म आदि के कारण ही हैं|
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गीता में भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं ......
"पुण्यो गन्धः पृथिव्यां च तेजश्चास्मि विभावसौ| जीवनं सर्वभूतेषु तपश्चास्मि तपस्विषु||७:९||"
अर्थात् पृथ्वी में पवित्र गन्ध हूँ और अग्नि में तेज हूँ सम्पूर्ण भूतों में जीवन हूँ और तपस्वियों में मैं तप हूँ||
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रामचरितमानस के आयोध्याकाण्ड में ऋषि वाल्मीकि भगवान श्रीराम से यही प्रश्न पूछते है कि जहाँ आप न हों वह स्थान तो बता दीजिये ताकि मैं चलकर वही स्थान आपको दिखा दूं? वे स्वयं सारे स्थान भी बता देते हैं जहाँ भगवान श्रीराम को रहना चाहिए| बड़ा ही सुंदर प्रसंग है जो सभी को एक बार तो पढ़ना और समझना ही चाहिए .....

"काम क्रोध मद मान न मोहा, लोभ न क्षोभ न राग न द्रोहा |
जिनके कपट दंभ नहीं माया, तिन्ह के ह्रदय बसहु रघुराया ||
जे हरषहिं पर सम्पति देखी, दुखित होहिं पर बिपति विशेषी |
जिनहिं राम तुम प्राण पियारे, तिनके मन शुभ सदन तुम्हारे ||
जाति पांति धनु धरम बड़ाई, प्रिय परिवार सदन सुखदाई |
सब तजि रहहुँ तुम्हहि उर लाई, तेहिं के ह्रदय रहहु रघुराई ||"
यहाँ इस बात का स्पष्ट उत्तर मिल जाता है कि भगवान कहाँ हैं और कहाँ नहीं हैं| आप सब में व्यक्त परमात्मा को नमन!
ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२१ सितंबर २०१९

चित्त की विभिन्न अवस्थाएँ और योगसाधना का निषेध ....

चित्त की विभिन्न अवस्थाएँ और योगसाधना का निषेध ....
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सनातन धर्म के अतिधन्य आचार्यों ने चित्त के स्वरूप को समझते हुए चित्त की पाँच अवस्थाएँ बताई हैं..... (१) क्षिप्त, (२) मूढ़, (३) विक्षिप्त, (४) एकाग्र और (५) निरुद्ध|
प्रथम तीन अवस्थाओं में योगसाधना का निषेध है| योगसाधना सिर्फ अंतिम दो अवस्था वालों के लिए ही है| कुछ सूक्ष्म प्राणायाम, धारणायें और ध्यान सिर्फ उन्हीं को बताए जाते हैं, और सिद्ध भी उन्हीं को होते हैं जिनका आचार-विचार शुद्ध हो व जो यम-नियमों का पालन करने में समर्थ हों| देवत्व उन्हीं में व्यक्त हो सकता है|
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जो क्षिप्त, मूढ़ और विक्षिप्त चित्त वाले हैं, उनके लिए योग मार्ग का निषेध है| ऐसे चित्त वालों को साधना के रहस्य नहीं बताए जाते| वे दुराचारी यदि साधना करेंगे भी तो उन पर आसुरी जगत अपना अधिकार कर लेगा और वे घोर असुर बन जाएँगे| यह बात स्वामी विवेकानंद ने अपने प्रवचनों में बड़े स्पष्ट रूप से कही है| मैं इस विषय की गहराई में नहीं जा रहा हूँ क्योकि यह बड़ा स्पष्ट है| क्षिप्त अवस्था में मनुष्य सदा तनावग्रस्त रहता है| मूढ़ावस्था में वह विवेकहीन हो जाता है| उसे अच्छे-बुरे का ज्ञान नहीं रहता| विक्षिप्त अवस्था में उसका चित्त स्थिर नहीं हो सकता, वह डांवाडोल रहता है| ऐसे लोग कभी एकाग्र नहीं हो सकते अतः उन के लिए योगसाधना का निषेध है| वे प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान आदि का अभ्यास करेंगे भी तो उनमें आसुरी भाव ही प्रकट होगा और वे आसुरी शक्तियों के शिकार हो जाएँगे| ऐसे व्यक्ति मनुष्यता की सिर्फ हानि ही कर सकते हैं, कोई लाभ नहीं|
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गीता में भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं .....
"यस्मान्नोद्विजते लोको लोकान्नोद्विजते च यः| हर्षामर्षभयोद्वेगैर्मुक्तो यः स च मे प्रियः||१२:१५||"
अर्थात जिससे कोई लोक (अर्थात् जीव, व्यक्ति) उद्वेग को प्राप्त नहीं होता और जो स्वयं भी किसी व्यक्ति से उद्वेग अनुभव नहीं करता तथा जो हर्ष, अमर्ष (असहिष्णुता), भय और उद्वेगों से मुक्त है, वह भक्त मुझे प्रिय है||

जिस से संसार उद्वेग को प्राप्त नहीं होता अर्थात् संतप्त -- क्षुब्ध नहीं होता और जो स्वयं भी संसार से उद्वेगयुक्त नहीं होता; जो हर्ष, अमर्ष, भय और उद्वेग से रहित है (प्रिय वस्तु के लाभ से अन्तःकरण में जो उत्साह होता है, रोमाञ्च और अश्रुपात आदि जिसके चिह्न हैं उसका नाम हर्ष है| असहिष्णुता को अमर्ष कहते हैं| त्रास का नाम भय है, और उद्विग्नता ही उद्वेग है|) वह मुझे प्रिय है|
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भगवान वासुदेव सब का कल्याण करें| ॐ नमो भगवते वासुदेवाय |
ॐ तत्सत ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२१ सितंबर २०१९

हमारा सब से बड़ा धन "श्रद्धा" और "विश्वास" का धन है ....

हमारा सब से बड़ा धन "श्रद्धा" और "विश्वास" का धन है ....
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जीत हमारी निश्चित है| हमारे साथ परमात्मा हैं| उन्होने हमें स्वयं को दिया है| हम विफल हो ही नहीं सकते| असत्य और अंधकार की शक्तियों ने हमारे भीतर हीनभाव उत्पन्न किया है जो मिथ्या है| ये असत्य और अंधकार शाश्वत नहीं हैं| शाश्वत तो हमारे परमप्रिय परमात्मा हैं जो हमारे साथ एक हैं, अतः स्वयं में हमारी श्रद्धा और विश्वास भी शाश्वत है|
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जिन लोगों ने या जिन परिस्थितियों ने मेरे भीतर हीनता का बोध उत्पन्न किया है उन्हें मैं विष की तरह त्याग रहा हूँ| अपनी श्रद्धा और विश्वास से मैं अश्रद्धा और अविश्वास पर विजय प्राप्त कर रहा हूँ| परमात्मा से जुड़कर मैं स्वयं ज्योतिषांज्योति हूँ| स्वयं से अतिरिक्त किसी की भी या किसी से भी अब मुझे कोई अपेक्षा नहीं है| ब्रह्म-तत्व सचेतन रूप से मेरे चारों ओर व्याप्त है| उसके साथ मैं एक हूँ, वही मेरा साधन और साध्य है, साधक भी वही है| उससे मैं कभी विमुख न होऊं| वही मेरा धन और संपत्ति है| मेरे पास और कुछ भी नहीं है|
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गुरुकृपा से ब्रह्म-तत्व के रूप में परमात्मा मेरे समक्ष हैं| अभी और इसी समय हैं| वे ही मेरा जीवन हैं, वे ही मेरे प्राण हैं| अपने स्वयं के हृदय-कमल में विराजमान माँ भगवती को मैं प्रणाम करता हूँ| उन की प्रेमदृष्टि निरंतर मुझ अकिंचन पर बनी रहे| ॐ तत्सत् | ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२१ सितंबर २०१९

भोजन एक उपासना और यज्ञ है .....

भोजन एक उपासना और यज्ञ है जिसमें हर ग्रास परमात्मा को दी हुई आहुति है .....
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भगवान श्रीकृष्ण गीता में कहते हैं .....
"अहं वैश्वानरो भूत्वा प्राणिनां देहमाश्रितः| प्राणापानसमायुक्तः पचाम्यन्नं चतुर्विधम्||१५:१४||"
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हम जो कुछ भी खाते हैं वह भगवान को अर्पित कर के ही खाना चाहिए| हमारे द्वारा खाए हुए भोजन के हर ग्रास को भगवान स्वयं वैश्वानर के रूप में ग्रहण करते हैं, जिस से समस्त सृष्टि का भरण-पोषण होता है| भगवान को अर्पित नहीं कर के खाने वाला पापों का भक्षण करता है| भोजन में पूरी पवित्रता होनी चाहिए| शुद्ध आसन पर बैठकर भोजन करें| तुलसीदल उपलब्ध हो तो उसे भोजन पर अवश्य रखें|
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रसोई घर में भोजन बनाकर गृहिणी द्वारा तीन बार नमक रहित तीन छोटे छोटे ग्रासों से अग्नि को जिमाना चाहिए| यदि संभव हो तो मानसिक रूप से अग्नि को जिमाते समय ये मंत्र भी बोले ... (१) ॐ भूपतये स्वाहा, (२) ॐ भुवनपतये स्वाहा, (३) ॐ भूतानां पतये स्वाहा|
पहली तीन रोटियाँ गाय, कुत्ते और कौवे हेतु निकाल कर अलग से रख लें| आजकल कौवे तो दुर्लभ या लुप्त हो गए हैं|
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हम भोजन को एक यज्ञ समझें| यज्ञ में जैसे आहुतियाँ दी जाती हैं, वैसे ही मुख में डाले एक-एक अन्न के ग्रास को आहुति समझकर डालें| आहुति यज्ञ-कुण्ड में नहीं पड़ी रहतीं, बल्कि सूक्ष्म होकर सारी सृष्टि में फैल जाती हैं| भोजन से पूर्व गीता में दिए निम्न मंत्र का मानसिक पाठ करें ...
"ब्रह्मार्पणं ब्रह्महविर्ब्रह्माग्नौ ब्रह्मणा हुतम्| ब्रह्मैव तेन गन्तव्यं ब्रह्मकर्मसमाधिना||४:२४||
अर्थात अर्पण करने का साधन श्रुवा ब्रह्म है और हवि शाकल्य अथवा हवन करने योग्य द्रव्य भी ब्रह्म है ब्रह्मरूप अग्नि में ब्रह्मरूप कर्ता के द्वारा जो हवन किया गया है वह भी ब्रह्म ही है| इस प्रकार ब्रह्मरूप कर्म में समाधिस्थ पुरुष का गन्तव्य भी ब्रह्म ही है||
यदि हो सके तो मानसिक रूप से शांति पाठ भी करें .....
"ॐ सहनाववतु | सह नौ भुनक्तु | सह वीर्यं करवावहै | तेजस्वि नावधीतमस्तु | मा विद्विषावहै || ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ||"
फिर भोजन-यज्ञ आरंभ करें| यदि संभव हो तो भोजन के प्रथम ग्रास के साथ ... "ॐ प्राणाय स्वाहा" मंत्र का मानसिक पाठ अवश्य करें| श्रद्धालु जन तो प्रथम पाँच ग्रासों के साथ क्रमशः निम्न मंत्रों का मानसिक पाठ करते हैं... ॐ प्राणाय स्वाहा, ॐ व्यानाय स्वाहा, ॐ अपानाय स्वाहा, ॐ समानाय स्वाहा, ॐ उदानाय स्वाहा ||
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जो अन्नपूर्णा के साधक हैं वे तो भोजन से पूर्व भगवती अन्नपूर्णा से मानसिक रूप से इस अन्नपूर्णा मंत्र के साथ भिक्षा मांग कर खाते हैं ...
"ॐ अन्नपूर्णे सदापूर्णे शंकर प्राण वल्लभे| ज्ञान वैराग्य सिध्यर्थं भिक्षां देहि च पार्वति||"
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भोजन से पूर्व इस मन्त्र से आचमन करें :-- "ॐ अमृतोपस्तरणमसि स्वाहा" | भोजन के पश्चात् इस मन्त्र से आचमन करें :--
"ॐ अमृतापिधानमसि स्वाहा" |
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और भी थोड़ा बहुत परिवर्तन स्थान स्थान पर है, पर मूलभूत बात यही है कि जो भी हम खाते हैं वह हम नहीं खाते हैं, बल्कि साक्षात् परमात्मा को ही अर्पित करते हैं| उपरोक्त विधि एक यज्ञ है जिसके लिए परिश्रम तो करना ही पड़ता है|
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भगवान को जो प्रिय है वही खाना चाहिए| भगवान को क्या प्रिय हो सकता है? इसका निर्णय अपने विवेक से करें| भगवान तो पत्र, पुष्प और फल भी खा लेते हैं .....
"पत्रं पुष्पं फलं तोयं यो मे भक्त्या प्रयच्छति| तदहं भक्त्युपहृतमश्नामि प्रयतात्मनः||९:२६||
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आप सब महान आत्माओं को मेरा प्रणाम ! आप सब परमात्मा की सर्वश्रेष्ठ अभिव्यक्तियाँ हैं| आप सब में मुझे परमात्मा के दर्शन होते हैं|
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ! ॐ तत्सत ! ॐ ॐ ॐ !!
१९ सितंबर २०१९

शिखा की आवश्यकता .....

शिखा की आवश्यकता .....
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आज से साठ वर्षों पूर्व तक भारत के सब हिन्दू और चीन के प्रायः सभी लोग चोटी रखते थे| भारत के प्राचीन काल में तो सभी पुरुष चोटी रखते थे| चीन के कई प्राचीन चित्र मैनें देखे हैं, एक भी आदमी बिना चोटी के नहीं दिखाई दिया| कोई गंजा हो तो बात दूसरी है|
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खोपड़ी के पीछे के अंदरूनी भाग को संस्कृत में मेरुशीर्ष और अंग्रेजी में Medulla Oblongata कहते हैं| यह देह का सबसे अधिक संवेदनशील भाग है| मेरुदंड की सब शिराएँ यहाँ मस्तिष्क से जुडती हैं| इस भाग की कोई शल्य क्रिया नहीं हो सकती| जीवात्मा का निवास भी यहीं होता है| देह में ब्रह्मांडीय ऊर्जा का प्रवेश यहीं से होता है| यहीं पर आज्ञा चक्र है जहाँ पर प्रकट हुई कूटस्थ-ज्योति का प्रतिविम्ब भ्रू-मध्य में होता है| योगियों को नाद की ध्वनि भी यहीं सुनती है|
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देह का यह भाग ग्राहक यंत्र (Receiver) का काम करता है| शिखा सचमुच में ही Receiving Antenna का कार्य करती है| गहरे ध्यान के पश्चात् आरम्भ में योनीमुद्रा में कूटस्थ-ज्योति के दर्शन यहाँ पर होते हैं| वह ज्योति कुछ काल के उपरांत आज्ञा-चक्र और सहस्त्रार के मध्य में या सहस्त्रार के ऊपर नीले और स्वर्णिम आवरण के मध्य श्वेत पंचकोणीय नक्षत्र के रूप में दिखाई देती है| योगी इसी ज्योति व पञ्चकोणीय नक्षत्र का ध्यान कराते हैं| यह नक्षत्र पंचमुखी महादेव है|
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मेरुदंड व मस्तिष्क के अन्य चक्रों (मेरुदंड में मूलाधार, स्वाधिष्ठान, मणिपुर, अनाहत और विशुद्धि, व मस्तिष्क में आज्ञा और सहस्त्रार, व सहस्त्रार के भीतर --- ज्येष्ठा, वामा और रौद्री ग्रंथियों व श्री बिंदु को ऊर्जा यहीं से वितरित होती है| शिखा धारण करने से यह भाग अधिक संवेदनशील हो जाता है| भारत में जो लोग शिखा रखते थे वे मेधावी होते थे| अतः शिखा धारण की परम्परा भारत के हिन्दुओं में है|
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संध्या विधि में संध्या से पूर्व गायत्री मन्त्र या शिखाबंधन के मन्त्र के साथ शिखा बंधन का विधान है| यह एक संकल्प और प्रार्थना है| किसी भी साधना से पूर्व, शिखाबंधन, मन्त्र के साथ होता है| यह एक हिन्दू परम्परा है| इसके पीछे यदि और भी कोई वैज्ञानिकता है तो उसका बोध गहन ध्यान में माँ भगवती की कृपा से ही हो सकता है| इससे अधिक का मुझे कोई ज्ञान नहीं है| आप सब को नमन !
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ॐ तत्सत् | ॐ ॐ ॐ ||
कृपा शंकर
१९ सितंबर २०१५

"अंत मति सो गति" यानि "अंत भला तो सब भला" :--

"अंत मति सो गति" यानि "अंत भला तो सब भला" :--
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यह एक बहुत गंभीर लेख है जिसका सभी के जीवन से संबंध है, इसे हंसी-मज़ाक में न उड़ायें| भगवद्गीता के अध्याय ८ अक्षरब्रह्मयोग में भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं .....
"प्रयाणकाले मनसाऽचलेन भक्त्या युक्तो योगबलेन चैव |
भ्रुवोर्मध्ये प्राणमावेश्य सम्यक् स तं परं पुरुषमुपैति दिव्यम् ||८:१०||"
अर्थात मृत्युकाल में भक्ति और योगबल से युक्त होकर अचल मन से भ्रुकुटि के मध्य में प्राणों को स्थापित कर के अपने परमात्मस्वरूप का चिन्तन करता हुआ जो व्यक्ति अपनी देह का त्याग करता है वह उस चेतनात्मक परम पुरुषको प्राप्त होता है|
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इससे पूर्व वे कहते हैं .....
"अन्तकाले च मामेव स्मरन्मुक्त्वा कलेवरम् |
यः प्रयाति स मद्भावं याति नास्त्यत्र संशयः ||८:५||"
अर्थात जो पुरुष अंतकाल में भी मुझको ही स्मरण करता हुआ शरीर को त्याग कर जाता है, वह मेरे साक्षात स्वरूप को प्राप्त होता है- इसमें कुछ भी संशय नहीं है||
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भगवान फिर कहते हैं .....
"सर्वद्वाराणि संयम्य मनो हृदि निरुध्य च |
मूर्ध्न्याधायात्मनः प्राणमास्थितो योगधारणाम् ||८:१२||"
"ओमित्येकाक्षरं ब्रह्म व्याहरन्मामनुस्मरन् |
यः प्रयाति त्यजन्देहं स याति परमां गतिम् ||८:१३||"
अर्थात सब इंद्रियों के द्वारों को रोककर तथा मन को हृद्देश में स्थिर करके, फिर उस जीते हुए मन द्वारा प्राण को मस्तक में स्थापित करके, परमात्म संबंधी योगधारणा में स्थित होकर जो पुरुष 'ॐ' इस एक अक्षर रूप ब्रह्म को उच्चारण करता हुआ और उसके अर्थस्वरूप मुझ निर्गुण ब्रह्म का चिंतन करता हुआ शरीर को त्यागकर जाता है, वह पुरुष परम गति को प्राप्त होता है||
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भगवान आगे कहते हैं .....
"आब्रह्मभुवनाल्लोकाः पुनरावर्तिनोऽर्जुन |
मामुपेत्य तु कौन्तेय पुनर्जन्म न विद्यते ||८:१६||"
अर्थात .... हे अर्जुन! ब्रह्मलोकपर्यंत सब लोक पुनरावर्ती हैं, परन्तु हे कुन्तीपुत्र! मुझको प्राप्त होकर पुनर्जन्म नहीं होता, क्योंकि मैं कालातीत हूँ और ये सब ब्रह्मादि के लोक काल द्वारा सीमित होने से अनित्य हैं||
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इतना बड़ा ज्ञान भगवान ने स्वयं अपने श्रीमुख से दिया है, जो इतना अधिक सुलभ और सहज है, फिर भी यदि हम उस पर ध्यान न दें तो हम से बड़ा अभागा और कौन है?
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इसके लिए जब भी पता चले और प्रेरणा मिले उसी समय से अभ्यास में जुट जाना चाहिए| यदि कोई यह सोचता है कि जीवन भर तो मौज-मस्ती करेंगे और अंत समय में भगवान का ध्यान कर लेंगे तो वे ऐसा कभी नहीं कर पायेंगे|
भगवान ने "भक्त्या युक्तः" शब्द का प्रयोग किया है, अर्थात भक्ति से युक्त होकर| भक्तिसूत्रों के अनुसार भक्ति का अर्थ होता है "परमप्रेम"| परमप्रेम सिर्फ परमात्मा से ही हो सकता है|
भगवान ने फिर "योगबल" शब्द का भी प्रयोग किया है| योगबल भी नियमित अभ्यास से ही सिद्ध होता है|
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इस से आगे का और यहाँ तक का ज्ञान भी भगवान की परमकृपा से ही हो सकता है|
"यो मां पश्यति सर्वत्र सर्वं च मयि पश्यति| तस्याहं न प्रणश्यामि स च मे न प्रणश्यति||६:३०||
अर्थात जो सबमें मुझको देखता है और सबको मुझमें देखता है उसके लिये मैं अदृश्य नहीं होता और वह मेरे लिये अदृश्य नहीं होता|
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आप सब में तो मुझे सर्वव्यापी भगवान वासुदेव के ही दर्शन होते हैं| आप सब में भगवान वासुदेव को नमन!
ॐ तत्सत ! ॐ नमो भगवाते वासुदेवाय ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१८ सितंबर २०१९

कुछ छोटी-मोटी घटनाएँ विश्व की चिंतन धारा को बदल देती हैं ....

कुछ छोटी-मोटी घटनाएँ विश्व की चिंतन धारा को बदल देती हैं|
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(१) क्या सन १९०५ ई.में किसी ने कल्पना भी की थी कि जापान जैसा एक छोटा सा देश रूस जैसे विशाल देश की सेना को युद्ध में हराकर उससे पोर्ट आर्थर (वर्तमान दायरन, चीन में) व मंचूरिया (वर्त्तमान में चीन का भाग) छीन लेगा और रूस की शक्तिशाली नौसेना को त्शुसीमा जलडमरूमध्य (जापान व कोरिया के मध्य) में डूबा देगा? उस झटके से रूस अभी तक उभर नहीं पाया है|
बोल्शेविक क्रांति जो वोल्गा नदी में खड़े रूसी युद्धपोत औरोरा के नौसैनिकों के विद्रोह से आरम्भ हुई और लेनिन के नेतृत्व में पूरे रूस में फ़ैल गयी के पीछे भी मुख्यतः इसी निराशा का भाव था|
उपरोक्त घटना से प्रेरणा लेकर भारत में क्रांतिकारियों ने अंग्रेजों के विरुद्ध संघर्ष आरम्भ किया| भारत में अंग्रेजों ने इतने अधिक नर-संहार किये (पाँच-छः करोड़ से अधिक भारर्तीयों की ह्त्या अंग्रेजों ने की) और भारतीयों को आतंकित कर के यह धारणा जमा दी थी कि गोरी चमड़ी वाले फिरंगी अपराजेय हैं| उपरोक्त युद्ध से यह अवधारणा समाप्त हो गयी|

(2) किस तरह बाध्य होकर रूस को अलास्का बेचना पडा था अमेरिका को, यह भी एक ऐसी ही घटना थी|
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(3) क्या प्रथम विश्व युद्ध के समय तक किसी ने कल्पना भी की थी कि सल्तनत-ए-उस्मानिया (Ottoman Empire) बिखर जाएगी और खिलाफत का अंत हो जाएगा? वे लोग जो स्वयं को अपराजेय मानते थे, पराजित हो गए|
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(4) जर्मनी जैसा एक पराजित राष्ट्र विश्व का सबसे अधिक शक्तिशाली देश बनकर उबरेगा और पराजित होकर खंडित होगा और फिर एक हो जाएगा, यह क्या किसी चमत्कार से कम था ?
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(5) ब्रिटिश साम्राज्य का विखंडन, जापान की हार, भारत की स्वतंत्रता, चीन में साम्यवादी शासन की स्थापना, सोवियत संघ का विघटन, साम्यवादी विचारधारा का पराभव आदि क्या किसी अप्रत्याशित चमत्कार से कम थे?
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ऐसे ही भारत में आध्यात्मिक राष्ट्रवाद भी एक चमत्कार से कम नहीं होगा| भारत के आध्यात्मिक राष्ट्रवाद से समस्त सृष्टि का कल्याण होगा| आध्यात्मिक राष्ट्रवाद ही भारत का भविष्य है|
कृपा शंकर
१७ सितंबर २०१३

सभी को पीड़ा होती है और भावनायें भी सभी की आहत होती हैं ...

सभी को पीड़ा होती है और भावनायें भी सभी की आहत होती हैं ...
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जीवन में मुझे भी पीड़ा होती है, मेरी भी भावनाएँ आहत होती हैं| पर यह मेरे और परमात्मा के मध्य का मामला है, अतः किसी को नहीं कहता| कहने से कोई लाभ नहीं, हानि ही हानि है| चारों ओर हिंसा ही हिंसा देखता हूँ| हिंसा का कारण राग-द्वेष और अहंकार है| अहिंसा की सिद्धि वीतरागता व आत्मज्ञान से ही होती है| जिन भी परिस्थितियों में हम हैं उन परिस्थतियों में जो भी सर्वश्रेष्ठ कार्य हो सकता है वह करें| व्यर्थ की निंदा व आलोचना से कोई लाभ नहीं है| देश में अनेक सकारात्मक बहुत अच्छे अच्छे कार्य भी हो रहे हैं| अनेक व्यक्ति और अनेक संस्थाएँ दिन रात अच्छा कार्य भी कर रही हैं| उनके कार्य प्रकाश में नहीं आते क्योंकि जो ठोस धरातल पर काम करने वाले लोग हैं वे अपना प्रचार नहीं करते| यदि किसी को लगता है कि आसपास गलत काम हो रहा है तो अपनी क्षमतानुसार अच्छा काम भी करें| सिर्फ आलोचना और आत्मनिंदा से किसी समस्या का समाधान नहीं होता|
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मैं नित्य नियमित रूप से मंदिरों में जाने का पूर्ण समर्थक हूँ| नित्य कुछ समय के लिए मंदिर में अवश्य जाना चाहिए, इस से भक्तिभाव तो बना ही रहता है, भक्तों के दर्शन भी हो जाते हैं| आरती के समय मंदिर में जाना बहुत शुभ होता है| साधकों/भक्तों का एक आवासीय बस्ती बनाकर पास पास रहने का भी समर्थक हूँ| मेरा ऐसा सौभाग्य नहीं है, पर सत्य को तो सत्य ही कहूँगा| अकेले ध्यान साधना करने की अपेक्षा समूह में ध्यान करना अधिक फलदायी व अधिक सरल होता है| इस से एक-दूसरे के स्पंदन एक-दूसरे की सहायता करते हैं| एक ही साधना पद्धति के अनुयायियों द्वारा कम से कम सप्ताह में एक दिन तो एक निश्चित समय और निश्चित स्थान पर सत्संग और सामूहिक ध्यान साधना करनी ही चाहिए| अपनी आध्यात्मिक विचारधारा और साधना पद्धति के लोगों का हर नगर में एक समूह बनायें और हर सप्ताह नियमित सत्संग करे| हमारी रक्षा होगी|
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भगवान की कृपा के बिना कोई उनका नाम तक नहीं ले सकता| देखते देखते ही मेरे अनेक मित्र साधू-संत-भक्त बन गए, पर कई वहीं किनारे पर बैठे हैं| जीवन एक अनंत सतत प्रक्रिया है| हर संकल्प और हर अभीप्सा अवश्य पूर्ण होती है| आत्मा की अभीप्सा सिर्फ परमात्मा के लिए ही होती है, वह निश्चित ही कभी न कभी तो पूर्ण होगी ही| अभी तो किसी भी तरह की कोई अपेक्षा व कोई कामना नहीं है, न ही भगवान से कोई प्रार्थना है| जैसी हरिः इच्छा, वही मेरी इच्छा| पूर्वजन्मों की कुछ वासनाएँ अवशिष्ट थीं इसलिए यह जन्म लेना पड़ा| अब और कोई वासना न रहे| जन्म-मरण में कोई रुचि नहीं रही है| आत्मा की शाश्वतता में आस्था है|
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परमात्मा के साकार रूप आप सभी निजात्माओं को नमन ! आप सब के ह्रदय में परमात्मा का अहैतुकी परम प्रेम जागृत हो| सभी का कल्याण हो|.
ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !
कृपा शंकर
१७ सितम्बर २०१९

जगन्माता की उपासना .....

जगन्माता की उपासना .....

परमात्मा की मातृरूप में भी उपासना भारतवर्ष की ही देन है| जगन्माता की आराधना भारतवर्ष में अनेक उग्र व अनेक सौम्य रूपों में की जाती है| जिस व्यक्ति का जैसा स्वभाव है, उसी के अनुकूल वह जगन्माता की आराधना कर सकता है|

एक बार मुझे गहन प्रेरणा मिली परमात्मा के सौम्य मातृरूप की उपासना करने की| संत तुलसीदास ने रामचरितमानस के आरंभ में भगवती सीता की वंदना जिन शब्दों में की है, उन्होनें मुझे सर्वाधिक प्रभावित किया ...
"उद्भव स्थिति संहार कारिणीं क्लेश हारिणीम्| सर्वश्रेयस्करीं सीतां नतोऽहं राम वल्लभाम्||"
उपरोक्त मंत्र बहुत अधिक प्रभावशाली मंत्र है, जो वास्तव में सब तरह के क्लेशों को दूर करता है| युवावस्था में भगवती सीता जी का ध्यान मुझे बहुत प्रिय था|


भारत में श्रीराधा जी की आराधना अनेक संप्रदायों में बहुत अधिक लोकप्रिय है, विशेषकर वृंदावन क्षेत्र में|
शक्ति साधनाओं में श्री ललिता सहस्त्रनाम स्तोत्र, आध्यात्मिक और काव्यात्मक दृष्टि से मुझे सर्वश्रेष्ठ लगा| कई वर्षों तक मैं नित्य प्रातः श्री ललिता सहस्त्रनाम का पाठ सुनता था और ध्यान करता था| पारिवारिक संस्कारों के कारण संस्कृत भाषा के स्तोत्रों को समझने में कभी कोई कठिनाई नहीं हुई|


बाद में जब गुरुकृपा से चैतन्य के विस्तार की और सर्वव्यापी अनंत आकाश तत्व व घनीभूत प्राण शक्ति की अनुभूतियाँ होने लगीं तब से सम्पूर्ण अस्तित्व ही मातृमय व परमशिवमय हो गया|


भगवान हमारे पिता भी हैं, माता भी हैं और सर्वस्व हैं| उनका जो भी रूप हमें प्रिय लगता है, उसी रूप में उपासक के समक्ष वे स्वयं की अनुभूति करा देते हैं| पर सबसे अधिक महत्वपूर्ण उनके प्रति "परमप्रेम" है जिसे भक्ति सूत्रों में "भक्ति" कहा गया है| भक्ति के बिना एक कदम भी आगे नहीं बढ़ सकते| अतः ऐसे वातावरण और संगति में ही रहें जिसमें भक्ति का निरंतर विकास हो|

रामचरितमानस और भगवद्गीता दोनों ही ज्ञान व भक्ति के ग्रंथ हैं| भगवद्गीता में तो मुझे भक्ति और ज्ञान के सिवाय अन्य कुछ भी दिखाई नहीं देता| सर्वव्यापी भगवान वासुदेव की अनत कृपा हम सब पर निरंतर है|
"त्वमेव माता च पिता त्वमेव, त्वमेव बन्धुश्च सखा त्वमेव|
त्वमेव विद्या द्रविणं त्वमेव, त्वमेव सर्वं मम देव देव||"
आप ही माता हैं , आप ही पिता हैं , आप ही बंधु हैं और आप ही सखा हैं| आप ही विद्या है और आप ही धन हैं , हे देव आप मेरे सर्वस्व हैं|
ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१७ सितंबर २०१९

अब शब्दों का कोई महत्व नहीं रहा है, मंजिल सामने ही है .....

अब शब्दों का कोई महत्व नहीं रहा है, मंजिल सामने ही है .....
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एक अवस्था ऐसी भी आती है जहाँ शब्दों का कोई महत्व नहीं रह जाता और वाणी मौन हो जाती है| जब हम किसी अनजान गंतव्य की ओर जाते हैं तो साथ में एक मार्गदर्शिका और मानचित्र भी साथ ले जाते हैं, मार्ग में मिलने वाले पथिकों से पूछते भी रहते हैं, और मील के पत्थरों व निर्देशक संकेतों को भी देखते रहते हैं| पर एक बार जब गंतव्य सामने आ जाता है तब किसी भी उपकरण की आवश्यकता नहीं पड़ती, न किसी को पूछना पड़ता है, गंतव्य सामने ही तो है| तब सारे संदेहों व जिज्ञासाओं का समापन भी हो जाता है|
वैसे ही जैसे .....
यज्ज्ञात्वा मत्तो भवति स्तब्धो भवत्यात्मारामो भवति (नारद भक्तिसूत्र)||६||
परमात्मा से परम प्रेम होने पर मनुष्य .... उन्मत्त हो जाता है, फिर परमात्मा की उपस्थिति के आभास से स्तब्ध हो जाता है, और फिर अपनी आत्मा में रमण करते करते आत्माराम हो जाता है|
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अब परमात्मा को व्यक्त करने वाले शब्दों का कोई महत्व नहीं है| किसी से मैं पूछूँ कि चंद्रमा कहाँ है, तो वह अपनी अंगुली से दिखायेगा| एक बार चंद्रमा को देखने के पश्चात उस अंगुली का कोई महत्व नहीं रह जाता| अपनी मंजिल को देखने के पश्चात किसी मार्गदर्शिका या मानचित्र की भी आवश्यकता नहीं रहती| जब परमात्मा स्वयं हाथ थाम लेते हैं तब किन्हीं मार्गदर्शक की भी आवश्यकता नहीं रहती| मार्गदर्शज स्वयं परमात्मा हो जाते हैं| हम वह स्वयं बनें जो हमारे महान गुरु थे| अब हमें उनकी अंगुलियाँ पकड़ने की कोई आवश्यकता नहीं है|
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आप सब परमात्मा की सर्वश्रेष्ठ अभिव्यक्तियाँ हैं| आप सब में मुझे परमात्मा के ही दर्शन होते हैं| आप सब को सादर दंडवत् प्रणाम!
ॐ तत्सत ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१६ सितंबर २०१९

भगवान को सिर्फ हमारा प्रेम चाहिए .....

भगवान को सिर्फ हमारा प्रेम चाहिए .....
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कोई भी माता-पिता अपने पुत्र के बिना सुखी नहीं रह सकते| भगवान हमारे माता-पिता और सर्वस्व हैं| यदि हम उनके बिना सुखी नहीं है तो वे भी हमारे बिना सुखी नहीं रह सकते| जितनी पीड़ा हमें उनसे वियोग की है, उससे अधिक पीड़ा उनको भी है| वे भी हमारे बिना नहीं रह सकते| एक न एक दिन तो वे स्वयं को व्यक्त करेंगे ही|
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वास्तव में यह संसार एक विचित्र लीला है जिसे समझना हमारी बुद्धि से परे है| सब प्राणी परमात्मा के ही अंश हैं, और परमात्मा ही कर्ता हैं| हमारा भी एकमात्र सम्बन्ध परमात्मा से है| स्वयं परमात्मा ही विभिन्न रूपों में एक-दूसरे से मिलते रहते हैं| उनके सिवाय अन्य कोई नहीं है| वे सब कर्मफलों से परे हैं, अपनी संतानों के माध्यम से वे ही कर्मफलों को भी भुगत रहे हैं| हम अपने अहंकार और ममत्व के कारण ही कष्ट पाते हैं| माया के बंधन शाश्वत नहीं हैं, उनकी कृपा से एक न एक दिन वे भी टूट जायेंगे| वे आशुतोष हैं, प्रेम और कृपा करना उनका स्वभाव है| वे अपने स्वभाव के विरुद्ध नहीं जा सकते|
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परमात्मा के पास सब कुछ है पर एक ही चीज की कमी है, जिसके लिए वे भी तरसते हैं, और वह है ..... हमारा प्रेम| कभी न कभी तो हमारे प्रेम में भी पूर्णता आएगी, और कृपा कर के हमसे वे हमारा समर्पण भी करवा लेंगे| क्या अपने माँ-बाप से मिलने के लिए कोई प्रार्थना करनी पडती है? अब तो प्रार्थना करना फालतू सी बात लगती है| माता-पिता से मिलना तो हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है| फिर भी हम इतना तो कह ही सकते हैं कि हे परम प्रिय, हमारे प्रेम में पूर्णता दो, हमारी कमियों को दूर करो| अज्ञानता में किये गए कर्मफलों से मुक्त करो|
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वेदांत की दृष्टी से तो हम यह देह नहीं बल्कि परमात्मा की पूर्णता हैं| उस चेतना में हम यह कह सकते हैं कि एकमात्र "मैं" ही हूँ, मेरे अतिरिक्त दूसरा कोई अन्य नहीं है, सब प्राणी मेरे ही प्रतिविम्ब हैं, मैं विभिन्न रूपों में स्वयं से ही मिलता रहता हूँ, मैं द्वैत भी हूँ और अद्वैत भी, मैं साकार भी हूँ और निराकार भी, एकमात्र अस्तित्व मेरा ही है| मैं ही परमशिव हूँ और मैं ही परमब्रह्म हूँ, यह देह नहीं|
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ईश्वर प्रदत्त विवेक हम सब को प्राप्त है| उस विवेक के प्रकाश में ही उचित निर्णय लेकर सारे कार्य करने चाहिएँ| वह विवेक ही हमें एक-दुसरे की पहिचान कराएगा और यह विवेक ही बताएगा कि हमें क्या करना चाहिए और क्या नहीं| आप सब को नमन! आप मेरी ही निजात्मा हैं|
तत्वमसि | सोहं | अयमात्मा ब्रह्म | ॐ ॐ ॐ ||
कृपा शंकर
१५ सितम्बर २०१९

यह एक चेतावनी है, आगे खतरा ही खतरा है| साधू , सावधान !

यह एक चेतावनी है, आगे खतरा ही खतरा है| साधू , सावधान !
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"ध्यायतो विषयान्पुंसः संगस्तेषूपजायते|
संगात्संजायते कामः कामात्क्रोधोऽभिजायते||गीता २:६२||"
"क्रोधाद्भवति सम्मोहः सम्मोहात्स्मृतिविभ्रमः|
स्मृतिभ्रंशाद् बुद्धिनाशो बुद्धिनाशात्प्रणश्यति||गीता २:६३||"
"उत्तिष्ठत जाग्रत प्राप्य वरान्निबोधत|
क्षुरस्य धारा निशिता दुरत्यया दुर्गं पथस्तत्कवयो वदन्ति||" (कठोपनिषद् १:३:१४)
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भय की बात नहीं है| भगवान आश्वासन भी. दे रहे हैं .....
"मच्चित्तः सर्वदुर्गाणि मत्प्रसादात्तरिष्यसि|
अथ चेत्त्वमहङ्कारान्न श्रोष्यसि विनङ्क्ष्यसि||गीता १८:५८||
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तुरंत उठ ! वैराग्यवान होकर सिर्फ परमात्मा का अपने प्रियतम रूप में स्मरण कर ! दोष विषयों में नहीं बल्कि उनके चिंतन में है |
ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
१३ सितंबर २०१९

हृदय की एक अभीप्सा जो अवश्य ही पूर्ण होगी ---

हृदय की एक अभीप्सा जो अवश्य ही पूर्ण होगी :-----
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कोई भी कैसी भी कामना या कल्पना हो, वह कभी पूर्ण नहीं हो सकती| कभी न कभी तो हमें संतोष करना ही पड़ता है| अतः संतोष अभी से कर लें तो अच्छा रहेगा| हमारा वास्तविक अद्वय और अलेपक रूप परमशिव है, जिसे हम कभी नहीं भूलें| हम अबद्ध, नित्यमुक्त और परमात्मा के दिव्य अमृतपुत्र हैं| हमारे सारे बंधन, हमारी स्वयं की भूलवश की गयी रचनायें हैं, परमात्मा की नहीं| मन को बहलाने के लिए झूठे स्वप्न न देखें| हम नित्यमुक्त हैं|
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गीता का सर्वप्रथम उपदेश इस जीवन में जिन विद्वान आचार्य से मैंने सुना, उन्होने सब से पहिले क्षर-अक्षर योग का ही उपदेश दिया था .....
"द्वाविमौ पुरुषौ लोके क्षरश्चाक्षर एव च| क्षरः सर्वाणि भूतानि कूटस्थोऽक्षर उच्यते||१५:१६||"
अर्थात् इस लोक में क्षर (नश्वर) और अक्षर (अनश्वर) ये दो पुरुष हैं| समस्त भूत क्षर हैं और कूटस्थ अक्षर कहलाता है||
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यह "कूटस्थ" शब्द मुझे बहुत प्यारा लगता है| मेरे लिए गीता का उद्देश्य उन कुटस्थ अक्षर पुरुष को समझना और समर्पित होकर उनको उपलब्ध होना ही समझ में आया है| वे कुटस्थ अक्षर पुरुष स्वयं भगवान वासुदेव हैं| मेरे लिये यही ज्ञान है और यही भक्ति है| बाकी मुझे कुछ नहीं पता|
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क्षरण का अर्थ है झरना| उदाहरण के लिये किसी घड़े में पानी भरो तो धीरे धीरे झरता रहता है| घड़े को भरकर रख दें, तीन दिन बाद देखने पर घड़ा आधा खाली मिलेगा| उसमें से पानी झरता रहता है, इसलिए तत्काल पता नहीं चलता| ऐसे ही हमारा यह शरीर, और संसार के हर पदार्थ धीरे धीरे क्षर रहे हैं| सिर्फ कुटस्थ परमात्मा ही अक्षर हैं| वे कुटस्थ अक्षर ब्रह्म हैं| हम उनके साथ जुड़ें, उनके साथ एक हों| जहाँ तक मुझे समझ में आया है यही गीता का सही उपदेश है| हमारी शत्रु यह मायावी आशा/तृष्णा नाम की पिशाचिनी है, जो सदा भ्रमित करती रहती है| इब्राहिमी मज़हबों में इसे ही शैतान का नाम दिया है| इस पिशाचिनी से बचें|
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अभी मेरी आयु बहत्तर वर्ष की हो गई है| अभी भी यदि आशा-तृष्णा नहीं मिटी तो फिर कभी भी नहीं मिटेगी| अभी भी मन तृप्त नहीं हुआ तो दस-बीस साल जी कर भी तृप्त नहीं होगा| इस शरीर का क्षरण हो रहा है, साथ साथ बुद्धि और स्मृति का भी| कोई कार्य-कुशलता नहीं रही है| कुछ भी काम ठीक से नहीं होता| अतः अब सब तरह की आशा/तृष्णा और वासनाओं से मुक्त होकर परमात्मा को ही इस देह और अन्तःकरण में प्रवाहित होने दूँ, यही सर्वोचित होगा|
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परमात्मा जब इस हृदय में धड़कना बंद कर दें, और चेतना जब ब्रह्मरंध्र से निकल कर परमशिव से संयुक्त हो जाये, उस से पूर्व ही सचेतन रूप से यह जीवात्मा सदाशिवमय हो जाये, इतनी तो गुरुकृपा और हरिःकृपा अवश्य ही होगी| मैं अपने उस वास्तविक अमूर्त स्वरूप को प्राप्त करूँ जो क्षर और अक्षर से भी परे है|
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ॐ तत्सत् ! ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१३ सितंबर २०१९

क्या उपासना करें और क्या नहीं करें? ...

क्या उपासना करें और क्या नहीं करें? ...
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ज्ञान अनंत है| विद्यायें और अविद्यायें भी अनंत हैं| अनंत साधनायें हैं| पर यह मनुष्य जीवन अति अल्प और नश्वर है| इस सीमित और अत्यल्प मनुष्य जीवन में अपने उद्देश्य परमात्मा की प्राप्ति के लिए क्या किया जाए और क्या नहीं?
महाभारत के यक्ष प्रश्नों के उत्तर में धर्मराज कहते हैं ...
"तर्कोऽप्रतिष्ठः श्रुतयो विभिन्नाः नैको मुनिर्यस्य वचः प्रमाणम् |
धर्मस्य तत्त्वं निहितं गुहायाम् महाजनो येन गतः स पन्थाः||"

श्रीरामचरितमानस में भी कहा गया है ...
"सोइ जानइ जेहि देहु जनाई|"
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इनका उत्तर भी रामचरितमानस और महाभारत में मिल जाता है| गीता भी महाभारत का ही भाग है|
गीता में भगवान कहते हैं ...
"मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु| मामेवैष्यसि युक्त्वैवमात्मानं मत्परायणः||९:३४||"
"मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु| मामेवैष्यसि सत्यं ते प्रतिजाने प्रियोऽसि मे||१८:६५||"
"सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज| अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः||१८:६६||"
रामचरितमानस में भगवान कहते हैं ....
"नर तनु भव बारिधि कहुँ बेरो| सन्मुख मरुत अनुग्रह मेरो||
करनधार सदगुर दृढ़ नावा| दुर्लभ साज सुलभ करि पावा||"
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सारे उत्तर तो भगवान ने स्वयं दे दिये हैं, हमें तो इन का अर्थ समझ कर उनका अनुशरण ही करना है| पर एक बात है कि बिना परमात्मा की कृपा के एक कदम भी आगे नहीं बढ़ सकते| उनकी कृपा भी तभी होगी जब हम उन्हें अपने हृदय का पूर्ण प्रेम दें और उन्हें समर्पित हों|
ॐ तत्सत् ! ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१२ सितंबर २०१९

अनन्य भाव से भगवान का चिंतन करें .....

गीत में भगवान कहते हैं .....
अनन्याश्चिन्तयन्तो मां ये जनाः पर्युपासते| तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यहम्||९:२२||"
"अनन्य भाव से मेरा चिन्तन करते हुए जो भक्तजन मेरी ही उपासना करते हैं, उन नित्ययुक्त पुरुषों का योगक्षेम मैं वहन करता हूँ||"

अप्राप्त वस्तु की प्राप्ति का नाम योग है, और प्राप्त वस्तु की रक्षा का नाम क्षेम है| अनन्यदर्शी भक्त अपने लिये योग-क्षेम सम्बन्धी चिंता नहीं करते, क्योंकि उन के अवलंबन केवल भगवान ही हैं| जीवन और मृत्यु में भी उनकी वासना नहीं रहती| ऐसे भक्तों के योग-क्षेम का वहन स्वयं भगवान् ही करते हैं| अनन्यभाव से युक्त होकर भगवान वासुदेव की हम आत्मरूप से निरन्तर निष्काम उपासना करें| जब उनको सब भार दे दिया है तब चिंता काहे की?

"दीनदयाल सुनी जबतें, तब तें हिय में कुछ ऐसी बसी है|
तेरो कहाय के जाऊँ कहाँ मैं, तेरे हित की पट खैंचि कसी है||
तेरोइ एक भरोसो मलूक को, तेरे समान न दूजो जसी है|
ए हो मुरारि पुकारि कहौं अब, मेरी हँसी नहीं तेरी हँसी है||"

ॐ तत्सत् ! ॐ नमो भगवाते वासुदेवाय ! ॐ ॐ ॐ !!
१० सितंबर २०१९