Friday 22 February 2019

भारत विजयी होगा और विश्व का नेतृत्व करेगा ......

भारत विजयी होगा और विश्व का नेतृत्व करेगा ......
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विश्व का नेतृत्व अब धीरे धीरे यूरोप व अमेरिका के हाथों से निकलकर एशिया की ओर आ रहा है, इसमें भारत की एक बहुत बड़ी भूमिका होगी| यदि नरेन्द्र मोदी पूर्ण बहुमत से एक बार और भारत के प्रधानमंत्री बन जाएँ तब भारत विश्व की एक बहुत बड़ी शक्ति बनने और विश्व के नेतृत्व में बहुत अधिक सफल हो सकता है| विश्व का भावी नेतृत्व भारत और चीन ही करेंगे| इसमें भारत की भूमिका अधिक होगी| 
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भारत सरकार की सऊदी अरब के साथ वर्तमान विदेश-नीति लगभग पूरी तरह सफल रही है| ये पंक्तियाँ मैं इसलिए लिख रहा हूँ क्योंकि मुझे वस्तुस्थिति का बहुत कुछ पता है| सऊदी अरब की वहाबी विचारधारा भारत के लिए बहुत अधिक धातक रही है| सऊदी अरब के शासकों को इस बात का अहसास कराना और भारत के प्रति उनकी सोच और अवधारणा को बदलवाना बहुत आवश्यक था, जिसमें भारत काफी सफल रहा है| 
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ईरान, सऊदी अरब और इजराइल के साथ संतुलन बनाये रखना एक चुनौतीपूर्ण कार्य है जिसमें भारत सफल रहा है| ये तीनों देश एक दूसरे के परम शत्रु हैं, पर भारत के सम्बन्ध तीनों के साथ अच्छे हैं|
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भारत में सऊदी अरब से राष्ट्रविरोधी गतिविधियों के लिये बहुत अधिक धन आता था जिसे बंद कराने में भारत को बहुत अधिक सफलता मिली है| वहाँ की जेलों में ८५० से अधिक भारतीय सड़ रहे थे जिनकी कोई सुनवाई नहीं हो रही थी| उन सब को मुक्त कराने में भारत सफल रहा है| पहले पाकिस्तान को सऊदी अरब आँख मींच कर धन देता था, पर अब पाकिस्तान को वहाँ से सिर्फ भिखारी का हिस्सा ही मिलता है| पकिस्तान का प्रधानमंत्री वहाँ भीख मांगने नंगे पैर बिना जूते पहिने गया था, उस के कारण ही वहाँ से पाकिस्तान को धन मिला है| पर भारत के प्रधानमंत्री को उन्होंने अपना उच्चतम नागरिक सम्मान दिया है| अब आतंकवाद के विरुद्ध भी सऊदी अरब, भारत के साथ सहयोग करने के लिए सहमत हो गया है| यह एक बहुत बड़ी सफलता है| यमन और सऊदी अरब के मध्य एक युद्ध चल रहा था जिस से यमन में काम कर रहे हज़ारों भारतीयों की जान को खतरा था| सऊदी अरब, यमन पर लगातार हवाई हमले कर रहा था जिसके कारण भारतीयों को वहाँ से सुरक्षित निकालना असम्भव था| भारत के अनुरोध पर सऊदी अरब ने तब तक के लिए युद्ध स्थगित कर दिया था जब तक कि अंतिम भारतीय को वहाँ से सुरक्षित नहीं निकाल लिया गया| यह भारत की एक बहुत बड़ी सफलता थी| 
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ऐसे ही पकिस्तान के विरुद्ध ईरान और अफगानिस्तान को खड़ा करना भारत की एक कूटनीतिक सफलता है| भारत के पकिस्तान के साथ हुए युद्धों में ईरान ने सदा पाकिस्तान का साथ दिया था पर अब ईरान और पकिस्तान में शत्रुता उत्पन्न हो गयी है| अफगानिस्तान भी अब पाकिस्तान के विरुद्ध खुल कर भारत के साथ है|
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दक्षिण-पूर्वी एशिया के देश चीन से स्वयं को असुरक्षित अनुभूत करते हैं| वहाँ अमेरिका और चीन के मध्य एक वर्चस्व का संघर्ष चल रहा है| भारत ने अमेरिका और चीन के मध्य भी एक संतुलन बनाए रखने में सफलता प्राप्त की है जो एक बहुत ही कठिन कार्य है| दक्षिण-पूर्व एशिया के देश भी भारत से अब मित्रता बनाए रखना चाहते हैं| 
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भारत का शक्तिशाली होना बहुत आवश्यक है जिसके लिए भारत में एक राष्ट्रवादी सरकार और कुशल नेतृत्व का होना अपरिहार्य है| आशा करता हूँ कि भारत के लोग अब जातिवादी सोच और कुछ अनैतिक लाभों की कामना से ऊपर उठ कर एक विराट दृष्टिकोण से सोचना आरम्भ करेंगे| 
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विजय तो भारत की ही होगी क्योंकि भगवान की अब पूरी कृपा भारत पर है| भारत विजयी होगा और विश्व का नेतृत्व करेगा| 
ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर 
२१ फरवरी २०१९

सौ बात की एक निर्विवाद बात :---

सौ बात की एक निर्विवाद बात :---
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भगवान "है", यहाँ यह "है" शब्द ही निर्विवाद शाश्वत सत्य है, अन्य सब मिथ्या है| भारत के सभी हिन्दू सम्प्रदायों में इस पर कोई मतभेद नहीं है|
सिर्फ "कौम-नष्ट" लोग ही भगवान को नहीं मानते| जिन जिन देशों में मार्क्सवादी यानी साम्यवादी कौम-नष्टों का शासन था वहाँ "भगवान है" यह बोलने मात्र पर ही व्यक्ति को बंदी बनाकर कारागृह में डाल दिया जाता था| उसकी कहीं पर भी कोई सुनवाई नहीं होती थी| बेचारा या तो पूरी उम्र जेल में ही सड़ता या उसे पागलखाने में भेज कर सचमुच ही पागल बना दिया जाता| रूस में जब जोसफ स्टालिन का शासन था तब उसने पूरे पूर्व सोवियत संघ से ढूंढ ढूंढ कर ऐसे हज़ारों लोगों की ह्त्या करवा दी थी जो भगवान में आस्था रखते थे| रूस में जब ब्रेझनेव का शासन था उस समय तक वहाँ के सभी नागरिकों को यह वाक्य रटा दिया गया था कि हमारे अंतरिक्ष यात्री चन्द्रमा तक घूम कर आ गए हैं, कहीं पर भी कोई भगवान नहीं मिला, अतः भगवान नहीं है| इसके अलावा अन्य कुछ बोलने पर उन्हें पता था कि गिरफ्तार हो जायेंगे अतः कुछ भी नहीं बोलते थे| रूस में ऐसा जब घोर नास्तिक काल था ऐसे समय में मैं वहाँ रहा हूँ| ईश्वर-विहीन होने की उनकी पीड़ा को प्रत्यक्ष देखा है| कई बार कुछ मध्य एशिया के मुसलमान मिलते जो मेरे को भी मुसलमान समझते और एकांत में डरते डरते मुझ से धीरे से अभिवादन कर के कहते ... "सलाम-अलैकुम"| मैं भी उनको धीरे से बोल देता ... "मालेकुम-सलाम", तो वे बेचारे ऐसे खुश होते कि कुछ भी कह नहीं सकते थे| 
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एक बहुत लम्बे अंतराल के पश्चात मुझे फिर कुछ "कौम-नष्ट" देशों में जाने का अवसर मिला| युक्रेन में एक बार एक बड़ी विदुषी वृद्धा तातार मुस्लिम महिला ने मुझे अपने घर पर भोजन के लिए निमंत्रित किया| उस दिन उसने बाजार से नए बर्तन खरीद कर मेरे लिए शाकाहारी खाना बनाया| पता नहीं कहाँ से और कैसे उस तातार मुस्लिम महिला को हिन्दू धर्म का जबरदस्त अध्ययन और ज्ञान था| उसने मुझे एकांत में ले जाकर स्पष्ट चेतावनी दे दी कि उस की बेटी के समक्ष मैं कोई धर्म की बात नहीं करूँ| उसने कहा कि उसकी बेटी "कौम-नष्ट" विचारधारा की हैं| धर्म की बात करने पर पता नहीं कहाँ व कब मुसीबत में डाल दे| उस तातार मुस्लिम महिला ने बताया कि वह चीन की जेलों में दस वर्ष तक राजनीतिक बंदी रही थी| वहाँ कई चीनी विद्वान् भी राजनीतिक बंदी थे| चीन की जेल में ही एक हिन्दू धर्म का चीनी विद्वान् भी था जिससे उसने हिन्दू धर्म के बारे में बहुत कुछ सीखा|
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युक्रेन में ही एक बार ऐसे ही एक तातार मुस्लिम इंजिनियर ने मुझ से मित्रता की और अपने घर खाने पर निमंत्रित किया| उस को और उसकी पत्नी को शाकाहारी खाना बनाना नहीं आता था अतः उन्होंने मेरे लिए खीर बनाई और ब्रेड सेंकी| वही शाकाहारी खाना वे मुझे खिला सके| उस व्यक्ति का भारत के इतिहास पर बहुत अच्छा अध्ययन था| अचानक वहाँ उसकी माँ आ गयी जो एक कट्टर मुसलमान थी| उसने हिन्दू और बौद्ध धर्म के प्रति बड़े अशोभनीय शब्दों का प्रयोग शुरू कर दिया| उस व्यक्ति ने अपनी माँ को यह कह कर चुप कर दिया कि घर में एक हिन्दू अतिथि है अतः वह अपनी मर्यादा में रहे, और उसे दूसरे कमरे में छोड़ कर आ गया| उसने मुझसे अपनी माँ के गलत व्यवहार के कारण क्षमा भी माँगी| 
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"कौम-नष्ट" उत्तरी कोरिया में एक बार एक अधिकारी मुझ से बहस करने लगा| उसका कहना था कि हम "कौम-नष्ट" लोग भगवान को नहीं मानते, भारत के लोग मुर्ख है जो भगवान को मानते हैं| मैंने उस से पूछा कि मरने के बाद तुम्हारी क्या गति होती है? उसने कहा कि जैसे एक कुत्ता मरता है वैसे ही हम भी मर जायेंगे| आगे मैनें कोई बात नहीं की क्योंकि "कौम-नष्टों" से बात करने का कोई लाभ नहीं है|
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चीन में जब "कौम-नष्ट" शासन था तब भी, और उसके बाद भी जाने का अवसर मिला है| चीन की दीवार भी देखी है, चीन की दीवार पर घूमा भी हूँ और किसी की साइकिल माँग कर चीन की दीवार के साथ साथ साइकिल पर भी खूब घूमा हूँ| "कौम-नष्ट" चीन में तो किसी का साहस ही नहीं होता था भगवान के बारे में कुछ बात करने का|
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"कौम-नष्ट" लाटविया के लोगों में भी मैनें ईश्वर-विहीन जीवन की पीड़ा देखी है| अब तो पता नहीं वहाँ कैसी स्थिति है| "कौम-नष्ट" रोमानिया का ईश्वर-विहीन नारकीय जीवन भी देखा है| उसकी तो मैं बात ही नहीं करना चाहता|
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भारत में भी मेरे अनेक "कौम-नष्ट" मित्र रहे हैं पर वे अब सब सुधर कर घोर आस्तिक हो चुके हैं| मुझे स्वयं को भी जीवन में एक अति अल्प समय तक एक कट्टर "कौम-नष्ट" रहने का अनुभव है| वह जीवन का एक भटकाव था| हम भारत के लोग बड़े भाग्यशाली हैं जो ईश्वर की आराधना करने को स्वतंत्र हैं|
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सौ बात की एक ही बात है कि भगवान "है", और वह "है" ही सब कुछ है| यह "है" ही परम सत्य है| ॐ तत्सत् ! ॐ नमो भगवते वासुदेवाय !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर 
२० फरवरी २०१९

ॐ तत् सत् ....

ॐ तत् सत् .... 
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भगवान से प्रार्थना करते हुए मैं आशा करता हूँ कि जिस विषय पर लिखने की मुझे अन्तःप्रेरणा मिली है, उसे व्यक्त कर पाऊँगा| यह मेरी एक अनुभूति है कि आत्म-तत्व, परमात्म-तत्व और गुरु-तत्व ... सब एक ही हैं, एक विशिष्ट स्तर पर इनमें कोई भेद नहीं है| आरम्भ में ये सब पृथक पृथक लगते हैं, पर जैसे जैसे ध्यान साधना की गहराई बढ़ती जाती है, इनमें कोई भेद नहीं रहता| सामान्य चेतना में मेरे गुरु मुझसे पृथक हैं. पर ध्यान की गहराई में वे मेरे साथ एक हैं| ऐसे ही सामान्य चेतना में भगवान मुझसे अलग हैं, पर ध्यान की गहराई में वे मेरे साथ एक हैं| कहीं पर भी कोई भेद नहीं रहता|
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अपनी बात को आधार देने के लिए मैं गीता का सहारा लेना चाहता हूँ| गीता में परमात्मा को "ॐ तत् सत्" इन तीन नामों से निर्देशित किया गया है|
"तत्सदिति निर्देशो ब्रह्मणस्त्रिविधः स्मृतः| ब्राह्मणास्तेन वेदाश्च यज्ञाश्च विहिताः पुरा||१७:२३||
"ओमित्येकाक्षरं ब्रह्म व्याहरन्मामनुस्मरन्| यः प्रयाति त्यजन्देहं स याति परमां गतिम्||८:१३||"
"तस्मादोमित्युदाहृत्य यज्ञदानतपः क्रियाः| प्रवर्तन्ते विधानोक्तः सततं ब्रह्मवादिनाम्‌||१७:२४||"
तदित्यनभिसन्दाय फलं यज्ञतपःक्रियाः| दानक्रियाश्चविविधाः क्रियन्ते मोक्षकाङ्क्षिभिः||१७:२५||
सद्भावे साधुभावे च सदित्यतत्प्रयुज्यते| प्रशस्ते कर्मणि तथा सच्छब्दः पार्थ युज्यते||१७:२६||
यज्ञे तपसि दाने च स्थितिः सदिति चोच्यते| कर्म चैव तदर्थीयं सदित्यवाभिधीयते||१७:२७||
अश्रद्धया हुतं दत्तं तपस्तप्तं कृतं च यत्‌| असदित्युच्यते पार्थ न च तत्प्रेत्य नो इह||१७:२८||
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"ॐ" "तत्" और "सत्" एक ही हैं पर इनकी अभिव्यक्ति पृथक पृथक है| हिन्दुओं के "ॐ तत् सत्" की नकल कर के ही ईसाईयत में "Father" "Son" and the "Holy Ghost" शब्दों का प्रयोग किया गया है| ये तीनों एक हैं पर इनकी भी अभिव्यक्ति अलग अलग हैं|
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संभवतः मैं अपने भावों को व्यक्त करने में कुछ कुछ अल्प मात्रा में सफल रहा हूँ| परमात्मा स्वयं ही विभिन्न आत्माओं के रूप में लीला करते हैं| स्वयं ही अपनी लीला में अज्ञान में गिरते हैं, और स्वयं ही गुरु रूप में स्वयं को ही मुक्त करने आते है, और स्वयं ही मुक्त होते हैं| गुरु भी वे ही हैं और शिष्य भी वे ही हैं| उनके अतिरिक्त अन्य किसी का कोई अस्तित्व नहीं है|
और भी स्पष्ट शब्दों में "आत्मा नित्यमुक्त है, सारे बंधन एक भ्रम हैं|"
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ॐ तत्सत् ! ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१९ फरवरी २०१९

परमात्मा के मार्ग में सहायक और बाधक तत्व :----

परमात्मा के मार्ग में सहायक और बाधक तत्व :----
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प्रायः सभी मनीषियों ने इस विषय पर अपने विचार व्यक्त किये हैं| हिंदी में तो अब तक सबसे अधिक लोकप्रिय यदि कोई ग्रन्थ हुआ है तो वह है संत तुलसीदास कृत "रामचरितमानस"| पिछलें छः सौ वर्षों में इस से अधिक लोकप्रियता किसी भी अन्य ग्रन्थ ने नहीं पायी है| इस में अनेक बार भगवान के प्रति प्रेम को ही सर्वोत्कृष्ट बताया गया है| मैं तो एक ही उद्धरण ले रहा हूँ.....
"कामिहि नारि पिआरि जिमि लोभहि प्रिय जिमि दाम |
तिमि रघुनाथ निरंतर प्रिय लागहु मोहि राम ||"
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ऐसे ही सबसे बड़ा बाधक जिसे इस ग्रन्थ में बताया गया है, वह है.....
"सुख सम्पति परिवार बड़ाई | सब परिहरि करिहऊँ सेवकाई ||
ये सब रामभक्ति के बाधक | कहहिं संत तव पद अवराधक ||"
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रामचरितमानस की खूबी यह है कि एक सामान्य से सामान्य मनुष्य जो सिर्फ लिखना-पढ़ना ही जानता हो, वह भी इस ग्रन्थ को समझ सकता है| गहन से गहन आध्यात्मिक तत्वों को सरलतम भाषा में समझाया गया है| मैंने कई अनपढ़ लोगों को भी देखा है जो दूसरों के मुख से सुनकर भी इसके भावों को बहुत ही अच्छी तरह से समझ जाते हैं| यह ग्रन्थ पिछले छःसौ वर्षों के घोरतम विकट काल में हिन्दू धर्म का प्राण रहा है|
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परमात्मा के मार्ग में इन्द्रीय सुखों के प्रति आकर्षण ही सबसे अधिक बाधक है| भगवान ने हमें विवेक दिया है जिसका उपयोग हम इस बाधा को दूर करने में लगाएँ| हर व्यक्ति की समस्या अलग अलग होती है, समाधान भी अलग अलग है| एक ही समाधान सबके लिए नहीं हो सकता| अपनी समस्या का समाधान स्वयं करें| यदि समस्या हल नहीं होती है तो भगवान से प्रार्थना करें| सच्चे हृदय से की गयी प्रार्थना निश्चित रूप से सफल होती है|
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वेदांती साधुओं के मुख से मैनें "वेदान्त वासना" शब्द सुना जो मुझे बहुत प्रिय लगा है| वासना हो तो भगवान के प्रति ही हो| जो आत्म-तत्व के साधक हैं उन की वासना वेदान्त यानि आत्म-तत्व के प्रति ही हो| मेरे में जन्मजात संस्कार भक्ति और वेदान्त के प्रति है| मेरी सारी जिज्ञासाओं का समाधान गीता में हो जाता है| भगवान के प्रति प्रेम तो मेरा स्वभाव है| मेरा आनंद मेरे अपने इस स्वभाव में ही है, इस से बाहर नहीं|
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ॐ तत्सत् ! ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१९ फरवरी २०१९

श्री आद्यशंकराचार्य जी की वाणी (विवेक चूड़ामणि से संकलित ) ....

श्री आद्यशंकराचार्य जी की वाणी (विवेक चूड़ामणि से संकलित )
वदन्तुशास्त्राणि यजन्तु देवान् कुर्वन्तु कर्माणि भजन्तुदेवता:।
आत्मैक्यबोधेनविना विमुक्तिर्न सिध्यतिब्रम्हशतान्तरेsपि।।
(विवेक चूड़ामणि--६)
‘भले ही कोई शास्त्रों की व्याख्या करे, देवताओं का भजन करे, नाना शुभ कर्म करे अथवा देवताओं को भजे, तथापि जब तक आत्मा और परमात्मा की एकता का बोध नहीं होगा, तब तक सौ ब्रम्हा के बीत जाने पर भी (अर्थात् सौ कल्प में भी) मुक्ति नहीं हो सकती।‘
दुर्लभं त्रयमेवैतद्देवानुग्रहहेतुकम्।
मनुष्यत्वं मुमुक्षत्वं महापुरुषसंश्रय:।।
(विवेक चूड़ामणि---३)
‘भगवत्कृपा ही जिनकी प्राप्ति का कारण है, वे मनुष्यत्व, मुमुक्षुत्व (मुक्त होने की इच्छा) और महान् पुरुषों का संग---ये तीनों ही दुर्लभ हैं।‘
लब्ध्वा कथञ्चित्ररजन्म दुलभं तत्रापि पुंस्त्वं श्रुतिपारर्शनम्।
यः स्वात्ममुक्तौ न यतेत मूढ़धी: सह्यात्महास्वं विनिहंत्यसद्ग्रहात्।।
(विवेक चूड़ामणि—४)
‘किसी प्रक्रार इस दुर्लभ मनुष्य जन्म को पाकर और उसमें भी, श्रुति के सिद्धांत का यथार्थ ज्ञान होता है, ऐसा पुरुषत्व पाकर जो मूढ़बुद्धि अपनी आत्मा की मुक्ति के लिए प्रयत्न नहीं करता, वह निश्चित ही आत्मघाती है। वह असत्य में आस्था रखने के कारण अपने को नष्ट करता है।,
इतः कोन्वस्तिमुढ़ात्मा यस्तुस्वार्थे प्रमाद्यति।
दुर्लभ मानुषं देहं प्राप्य तत्रापि पारुषम्।।
(विवेक चुड़ामणि---५)
दुर्लभ मनुष्य देह और उसमें पुरुषत्व को पाकर जो (मोक्ष रूप) स्वार्थ-साधन में प्रमाद करता है इससे अधिक मूढ़ और कौन होगा?
वाग्वैखरी शब्दझरीशास्त्रव्याख्यान कौशलम्।
वैदुष्यं विदुषां तद्वद्द्भुक्तये न तु मुक्तये।।
(विवेक चूड़ामणि—६०)
विद्वानों की वाणी की कुशलता, शब्दों की धारावाहिकता, शास्त्र व्याख्या की कुशलता और विद्वत्ता, भोग ही का कारण हो सकती है, मोक्ष का नहीं।‘
अविज्ञाते परेतत्त्वे शास्त्राधीतिस्तुनिष्फला।
विज्ञातेsपिपरेतत्त्वे शास्त्राधीतिस्तुनिष्फला।।
(विवेक चूड़ामणि---६१)
‘परमतत्त्वम् को यदि न जाना तो शास्त्रायध्ययन निष्फल (व्यर्थ) ही है और यदि परमतत्त्वम् को जान लिया तो भी शास्त्र अध्यन निष्फल (अनावश्यक) ही है।
शब्दजालं महारण्यं चित्तभ्रमणकारणम्।
अतः प्रयत्नाज्ज्ञातव्यं तत्त्वज्ञात्तत्त्वमात्मनः।।
(विवेक चूड़ामणि—६२)
शब्द जाल (वेद-शास्त्रादि) तो चित्त को भटकाने वाला एक महान् बन है, इस लिए किन्हीं तत्त्व ज्ञानी महापुरुष से यत्न पूर्वक ‘आत्मतत्त्वम्’ को जानना चाहिए।
अज्ञानसर्पदष्टस्य ब्रम्हज्ञानौषधम् बिना।
किमु वेदैश्च शास्त्रैश्च किमु मंत्रै: किमौषधै।।
(विवेक चूड़ामणि---६३)
अज्ञान रूपी सर्प से डँसे हुए को ब्रम्ह ज्ञान रूपी औषधि के बिना वेद से, शास्त्र से, मंत्र से क्य लाभ?
न गच्छति बिना पानं व्याधिरौषधशब्दतः।
बिना परोक्षानुभवं ब्रम्हशब्दैर्न मुच्यते।।
(विवेक चूड़ामणि----६४)
औषध को बिना पीये केवल औषधि शब्द के उच्चारण से रोग नहीं जाता। उसी प्रकार अपरोक्षानुभव के बिना केवल ‘मैं’ ब्रम्ह हूँ ऐसा कहने से कोई मुक्त नहीं हो सकता।
अकृत्वा दृश्यविलमज्ञात्वा तत्त्वमात्मनः।
बाह्य शब्दै: कुतो मुक्तिरुक्तिमात्रफलैर्नृणाम्।।
(विवेक चूड़ामणि—६५)
विना दृश्य प्रपंच का विलय किये और बिना ‘आत्मतत्त्वम्’ को जाने, केवल बाह्य शब्दों से जिनका फल केवल उच्चारण मात्र ही है, मनुष्यों की मुक्ति कैसे हो सकती है?
न योगेन न सांख्येन कर्मणा नो न विद्या।
ब्रम्हात्मैकत्वबोधे न मोक्ष: सिध्यति नान्यथा।।
(विवेक चूड़ामणि----५८)
मोक्ष न योग से प्राप्त (सिद्ध) होता है और न सांख्य से; न कर्म से और न विद्या से। केवल बह्यत्मैक्य बोध (ब्रम्ह और आत्मा की एकता के बोध) से ही होता है और किसी प्रकार नहीं।
शरीरपोषणार्थी सन् य आत्मानं दिदृक्षति।
ग्राहं दारूधिया धृत्वा नदी तर्तुं स इच्छति।।
(विवेक चूड़ामणि---८६)
जो शरीर पोषण में लगा रहकर ‘आत्मतत्त्वम्’ को देखना चाहता है, वह मानो काष्ठ-बुद्धि से ग्राह को पकड़कर नदी पार करना चाहता है।
मोह एव महामृत्युर्मुमुक्षोर्वपुरादिषु।
मोहो विनिर्जितो येन स मुक्तिपदमर्हति।।
(विवेक चूड़ामणि—८७)
शरीरादि में मोह रखना ही मुमुक्ष की बड़ी भारी मौत है; जिसने मोह को जीता है वही मुक्तिपद का अधिकारी है।
मोहं जहि महामृत्यु देहदारसुतादिषु।
यं जित्वा मुनयो यान्ति तद्विष्णो: परमं पदम्।।
(विवेक चूड़ामणि—८८)
देह, स्त्री और पुत्रादि में मोहरूप महामृत्यु को छोड़; जिसको जीतकर मुनिजन भगवान् के उस परमपद को प्राप्त होते हैं।
अन्तः करणमेतेषु चक्षुरादिषु वर्ष्मणि
अहमित्यभिमानेन तिष्ठत्याभासतेजसा।।
(विवेक चूड़ामणि—१०५)
शरीर के अन्दर इन चक्षु आदि इन्द्रियों में चिदाभास के तेज से व्याप्त हुआ अन्तःकरण ‘मैंपन’ (अहं) का अभिमान करता हुआ स्थिर रहता है।
अहंकार: स विज्ञेय कर्त्ता भोक्ताभिमान्ययम्।
सत्त्वादि गुणयोगेन चापस्थात्रयमश्नुते।।
(विवेक चूड़ामणि१०६)
इसी को अहंकार जानना चाहिए। यही कर्ता, भोक्ता तथा ‘मैंपन’ का अभिमान करने वाला है और यही सत्त्व आदि गुणों के योग से तीनों अवस्थाओं को प्राप्त होता है।
विषयाणामानुकूल्ये सुखी दु:खी विपर्यये।
सुखं दु:खं च तद्धर्म: सदानन्दस्य नात्मनः।।
(विवेक चूड़ामणि—१०७)
विषयों की अनुकूलता से यह सुखी और प्रतिकूलता से दु:खी होता है। सुख और दु:ख इस अहंकार के ही धर्म हैं, सबके आत्मस्वरूप ‘सदानन्द’ के नहीं।
विशोकआन्दघनो विपश्चित्स्वयं कुतश्चिन्नविभेति कश्चित्।
नान्योsस्ति पंथाभवबन्धमुक्तेर्विना स्वतत्त्वावगमं मुमुक्षो:।।
(विवेक चूड़ामणि—२२४)
वह अति बुद्धिमान पुरुष शोक रहित और आनन्दघन रूप हो जाने से कभी किसी से भयभीत नहीं होता। मुमुक्ष पुरुष के लिए ‘आत्मतत्त्वम्’ के ज्ञान को छोड़कर संसार-बंधन से छूटने का और कोई मार्ग नहीं है।
ब्रम्हाभिन्नत्वविज्ञानं भवमोक्षस्य कारणम्।
येनाद्वितीयमानन्दं ब्रम्ह सम्पद्यते बुधै:।।
(विवेक चूड़ामणि—२२५)
ब्रम्ह और आत्मा के अभेद का ज्ञान ही भवबन्धन से मुक्त होने का कारण है, जिसके द्वारा बुद्धिमान पुरुष अद्वितीय आनन्दरूप ब्रम्हपद को प्राप्त कर लेता है।
मातापित्रोर्मलोद्भूतं मलमांसमयं वपु:।
त्यक्त्वा चाण्डालवद्दूरं ब्रह्मीभूय कृतीभव ॥
(विवेक चूडामणि--२८८)
माता-पिता के मल से उत्पन्न तथा मल-मांस से भरे हुए इस शरीर को चाण्डाल के समान दूर से ही त्याग कर ब्रम्ह भाव में स्थिर होकर कृतकृत्य हो जाओ।
चिदात्मनि सदानंदे देहारूढामहंधियम्।
निवेश्य लिंगमुत्सृज्य केवलो भव सर्वदा।।
(विवेक चूड़ामणि—२९१)
देह में व्याप्त हुई अहंबुद्धि को सच्चिदानन्द रूप ‘सदानन्द’ में स्थित करके लिंग शरीर के अभिमान को छोड़ कर सदा अद्वितीय रूप से स्थित रहो।
अतो: विचार: कर्त्तव्यो जिज्ञासोरात्मवस्तुनः।
समासाद्य दयासिंधु गुरुं ब्रम्हविदुत्त्मम्।।
(विवेक चूड़ामणि---१५)
अतः ब्रम्हवेत्ताओं में श्रेष्ठ दयासागर गुरुदेव की शरण में जाकर जिज्ञासु को ‘आत्मतत्त्वम्’ की जानकारी करनी चाहिए।

वर्तमान में कश्मीर की समस्या का एकमात्र मूल कारण है धारा ३७० और धारा ३५-A .....

वर्तमान में कश्मीर की समस्या का एकमात्र मूल कारण है धारा ३७० और धारा ३५-A .....
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राष्ट्रपति के अध्यादेश द्वारा इन दोनों धाराओं को निरस्त किये बिना कश्मीर की समस्या का कोई समाधान नहीं हो सकता| भारत में सभी नागरिकों को समान अधिकार होने चाहियें| एक देश में एक ही क़ानून सभी के लिए समान रूप से होना चाहिए| कश्मीरी लोग तो भारत में कहीं भी जाकर संपत्ति खरीद सकते हैं, पर भारत के अन्य भागों के लोग कश्मीर में नहीं| यह बहुत बड़ा अन्याय है| कश्मीर में कश्मीरी हिन्दुओं को बापस बसाया जाना चाहिए, साथ साथ जो भी भारतीय वहाँ जाकर बसना चाहे हे उसे वहाँ बसने की पूरी छूट होनी चाहिए| एक बार तो पूर्व सैनिकों को बहुत बड़ी संख्या में वहाँ बसाने की योजना बनानी चाहिए|
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अब तक किये जाने वाले सारे प्रयास स्वयं को ही धोखा देने वाले थे| हमें स्वयं को ही धोखा देने और आत्म-मुग्ध होने में बड़ा आनंद आता है| हम स्वयं पहल कर के आततायी का सामना नहीं करना चाहते, बल्कि उसके द्वारा आक्रमण किये जाने की प्रतीक्षा करते रहते हैं| हमारी इस नीति में बदलाव आना चाहिए| शत्रु भाव रखने वाले की तैयारी पूर्ण हो, इस से पहले ही हमें उसे पहल कर के नष्ट कर देना चाहिए|
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अपनी कायरता को हम बड़े बड़े शब्दों जैसे सद्भाव, अहिंसा, धर्म-निरपेक्षता, आदि आदि से ढँक कर स्वयं को गौरवान्वित अनुभूत करते हैं, पर वास्तव में यह हमारा दब्बूपन और भयभीत होना ही है| होना तो यह चाहिए कि हम अपने बालकों को गीता की यह शिक्षा बचपन से ही दें .....
"क्लैब्यं मा स्म गमः पार्थ नैतत्त्वय्युपपद्यते| क्षुद्रं हृदयदौर्बल्यं त्यक्त्वोत्तिष्ठ परन्तप||२:३||
ॐ तत्सत !
१७ फरवरी २०१९
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पुनश्चः :--- उपरोक्त विचार का कुछ बुद्धि-पिशाच विरोध करेंगे| उन बुद्धि पिशाचों की उपेक्षा कर दी जानी चाहिए| हमें वही सोचना चाहिए जो राष्ट्रहित में हो| जिस भी राक्षस के दिमाग में धारा ३७० और ३५-A का प्रारूप आया होगा वह निश्चित रूप से कोई बहुत बड़ा नर-पिशाच था|

मेरे हृदय की घनीभूत पीड़ा और आनंद .....

मेरे हृदय की घनीभूत पीड़ा और आनंद .....
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मेरे हृदय की घनीभूत पीड़ा, और हृदय का घनीभूत आनंद दोनों का स्त्रोत एक ही है| दोनों में कोई अंतर नहीं है| परमात्मा से दूरी पीड़ा को जन्म देती है, और समीपता आनंद को| दोनों का स्त्रोत एक परमात्मा ही है| ऐसे ही दुःख-सुख, और शांति-अशांति है| इन सब का जन्म हमारे मन में ही होता है| पीड़ा आनंद को जन्म देती है, दुःख सुख को जन्म देता है और अशांति शांति को जन्म देती है| इन सब का एकमात्र स्त्रोत भी परमात्मा ही है| मैं अपने दुःख-सुख, अशांति-शांति और पीड़ा-आनंद आदि आदि सब कुछ बापस परमात्मा को ही समर्पित करता हूँ, क्योंकि ये सब एक आवरण हैं जो मुझे स्वयं से ही दूर करते हैं| मुझे ये सब नहीं चाहियें| मेरे लिए "मैं" स्वयं ही स्वयं हूँ, यह देह, मन और बुद्धि नहीं|
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हम कुछ भी लिखते हैं, उसके पीछे एक पीड़ा है जो व्यक्त हो रही है| यदि पीड़ा नहीं होगी तो कुछ भी नहीं लिखा जाएगा| आनंद की स्थिति में तो कोई शब्द-रचना ही नहीं होती| अपनी घनीभूत पीड़ा की सर्वश्रेष्ठ अभिव्यक्ति भारत के रामभक्त और कृष्णभक्त कवियों ने की है| हिंदी भाषा के प्रसिद्ध कवि जयशंकर प्रसाद ने भी अपनी कविता "आंसू" में अपने हृदय की पीड़ा की बहुत ही श्रेष्ठ साहित्यिक अभिव्यक्ति की है|
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क्या मैं स्वयं से दूर हूँ ? इसका एक निश्चित उत्तर है "हाँ"| फिर मैं कौन हूँ?
इस पर विचार करता हूँ तो मुझे एक विराट अनंत श्वेत ज्योतिर्पुंज का आभास होता है जो इस भौतिक देह से बहुत ऊपर है| वे ही मेरे इष्ट देव "परमशिव" हैं| उन्हीं के साथ मैं एक हूँ| उन्हीं के ध्यान में हृदय को तृप्ति और संतुष्टि मिलती है| कई बार चेतना ब्रह्मरंध्र से बाहर निकल कर बापस इस देह में लौट आती है क्योंकि इस देह के साथ अभी और भी कई संस्कार जुड़े हुए हैं| जिस दिन वे संस्कार पूर्ण हो जायेंगे उस दिन यह देह शांत हो जायेगी, और चेतना परमशिव के साथ एक हो जायेगी|
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मेरा आनंद क्या है? मेरा आनंद परमशिव के ध्यान से उत्पन्न अनुभूतियाँ ही हैं| अन्यत्र कहीं भी कोई आनंद नहीं है, सिर्फ पीड़ा ही पीड़ाएँ हैं| मेरे पास स्वयं के शब्द नहीं हैं अपनी पीड़ा के ज्वालामयी शब्दों को व्यक्त करने के लिए| दूसरों के शब्द मैं उधार नहीं लेना चाहता|
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आप सब परमात्मा की सर्वश्रेष्ठ अभिव्यक्तियाँ और मेरी ही निजात्मा हैं| आप सब को नमन! ॐ तत्सत् ! ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१७ फरवरी २०१९

जहाँ विजय सुनिश्चित है वहाँ कायरता क्यों ? .....

जहाँ विजय सुनिश्चित है वहाँ कायरता क्यों ? .....
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भगवान श्रीकृष्ण सब गुरुओं के गुरु हैं| उनसे बड़ा गुरु न तो कोई हुआ है और न कोई होगा| वेदव्यास जी ने उनकी वन्दना "कृष्णं वन्दे जगतगुरुम्" कह कर की है| भगवान श्रीकृष्ण ने अपने प्रिय शिष्य अर्जुन को सबसे पहिला उपदेश तो कायरता छोड़ने के लिए दिया है| जब तक मनुष्य के मन में कायरता है तब तक कोई भी दूसरा उपदेश काम नहीं करेगा| भगवान ने कहा .....
"क्लैब्यं मा स्म गमः पार्थ नैतत्त्वय्युपपद्यते| क्षुद्रं हृदयदौर्बल्यं त्यक्त्वोत्तिष्ठ परन्तप||२:३||
यह सबसे पहिला उपदेश ही नहीं, भगवान की प्रथम आज्ञा है| इस उपदेश को समझे बिना गीता को समझने का प्रयास ही व्यर्थ है|
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गीता के अंत में भी वे संजय के मुख से स्पष्ट कहलवा देते हैं .....
"यत्र योगेश्वरः कृष्णो यत्र पार्थो धनुर्धरः| तत्र श्रीर्विजयो भूतिर्ध्रुवा नीतिर्मतिर्मम||१८:७८||
इस से बड़ी बात दूसरी कोई हो ही नहीं सकती| यहाँ भगवान ने बड़ी से बड़ी बात कहलवा दी है|
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साथ साथ बड़े से बड़ा ज्ञान दे दिया है ....
"योगस्थः कुरु कर्माणि सङ्गं त्यक्त्वा धनञ्जय| सिद्ध्यसिद्ध्योः समो भूत्वा समत्वं योग उच्यते||२:४८||
भगवान यहाँ कहते हैं कि हे धनंजय, ईश्वर मुझपर प्रसन्न हों इस आशारूप आसक्ति को भी छोड़कर कर, योगमें स्थित होकर केवल ईश्वरके लिय कर्म कर| फलतृष्णारहित पुरुष द्वारा कर्म किये जाने पर अन्तःकरणकी शुद्धिसे उत्पन्न होनेवाली ज्ञानप्राप्ति तो सिद्धि है, और उससे विपरीत ज्ञानप्राप्तिका न होना असिद्धि है ऐसी सिद्धि और असिद्धिमें भी सम होकर अर्थात् दोनोंको तुल्य समझकर कर्म कर| यही जो सिद्धि और असिद्धिमें समत्व है इसीको योग कहते हैं| यह बड़े से बड़ा ज्ञान है| इस से बड़ा कोई ज्ञान नहीं है|
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मुक्ति का उपाय भी बता दिया है| अन्य भी सारे ज्ञान दे दिए हैं जो मनुष्य जीवन में आवश्यक हैं| भगवान के अधिकाँश उपदेशों का सार यही है कि साधक को परमात्मतत्त्व की प्राप्ति के लिये अपने में कायरता नहीं लानी चाहिये| कभी हताश न हों, मन में नित्य नया उत्साह रखो| सर्वत्र हमारे इष्ट ही हैं .....
यो मां पश्यति सर्वत्र सर्वं च मयि पश्यति| तस्याहं न प्रणश्यामि स च मे न प्रणश्यति||६:३०||
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अब और कुछ भी लिखना संभव नहीं है| मन तृप्त है, पूरी संतुष्टि है|
हे सच्चिदानंद, तुम्हारी जय हो| हर हर महादेव् !
ॐ तत्सत् ! ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
.१६ फरवरी २०१९

अतृप्त और अशांत मन ही सब बुराइयों की जड़ है .....

अतृप्त और अशांत मन ही सब बुराइयों की जड़ है .....
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इस सृष्टि में दैवीय और आसुरी दोनों तरह की शक्तियाँ हैं, हमारा जैसा चिंतन होता है वैसी ही शक्ति हमारे ऊपर हावी हो जाती है| यह मेरा प्रत्यक्ष अनुभव है| जब हमारा मन अतृप्त और अशांत रहता है तब आसुरी शक्तियाँ हावी हो जाती हैं, और हमें अपना शिकार बना लेती हैं| जब हम परमात्मा का चिंतन करते हैं तब दैवीय शक्तियाँ हर संभव सहायता करती हैं| सार की बात यह है कि हमारा अतृप्त अशांत मन ही हमारी सब बुराइयों और सब पापों का कारण है| मन पर विजय कैसे पायें इसके लिए साधना करनी पड़ती है, गीता में और उपनिषदों में इसका स्पष्ट मार्गदर्शन है, जिनका हमें स्वाध्याय करना चाहिए| हमें संत-महात्माओं और विद्यावान मनीषियों का सत्संग भी करना चाहिए, और एकांत में भगवान का ध्यान भी करना चाहिए|
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गीता में भगवान श्रीकृष्ण हमें निःस्पृह, वीतराग और स्थितप्रज्ञ होने का उपदेश देते हैं.....
"दुःखेष्वनुद्विग्नमनाः सुखेषु विगतस्पृहः| वीतरागभयक्रोधः स्थितधीर्मुनिरुच्यते||२:५६||
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दुःखों के प्राप्त होने से जिस का मन उद्विग्न अर्थात क्षुभित नहीं होता उसे अनुद्विग्नमना कहते हैं| सुखोंकी प्राप्ति हेतु जिस की स्पृहा/तृष्णा नष्ट हो गयी है, वह विगतस्पृह कहलाता है| आसक्ति भय और क्रोध जिसके नष्ट हो गये हैं वह वीतराग कहलाता है| ऐसे गुणोंसे युक्त जब कोई हो जाता है तब वह स्थितप्रज्ञ और मुनि कहलाता है|
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एक बार तो हमें भगवान से प्रार्थना कर किन्हीं अच्छे सिद्ध संत-महात्मा को खोजकर उनसे मार्गदर्शन लेना ही होगा| यदि हम निष्ठावान होंगे तो वैसे ही मार्गदर्शक मिल जायेंगे, अन्यथा यदि हमारे मन में छल-कपट होगा तो फिर ठग-गुरु ही मिलेंगे जो हमारा सब कुछ हर लेंगे| सद्गुरु या ठगगुरु का मिलना हमारे मन की सोच पर ही निर्भर है|
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हमारे मन की जो बुरी वासनाएँ हैं उन्हें ही इब्राहिमी मतों (यहूदी, इस्लाम व ईसाईयत) में शैतान का नाम दिया है| हिन्दू परम्परा में शैतान नाम की किसी शक्ति का कोई अस्तित्व नहीं है, क्योंकि हिन्दू मान्यता कहती है कि मनुष्य अज्ञान वश पाप करता है जो दुःखों की सृष्टि करते हैं| सार की बात यह है कि अपना भटका हुआ, अतृप्त अशांत मन ही शैतान है|
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वर्तमान में अधिकांश उच्च कोटि के साधक इसआसुरी तत्व से देश को बचाने में लगे है ! वर्तमान में सम्पूर्ण विश्व में असुरत्व प्रबल हो चूका है जिसके दुष्परिणाम धीरे धीरे विश्व जगत भुगत रहा है| अपना मन भगवान को दें, बस अपनी रक्षा का यही एकमात्र उपाय है|
ॐ तत्सत् ! ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१६ फरवरी २०१९

ज्ञान का अधिकारी कौन है ? ....

सारे हिन्दू धर्मग्रंथों के आदेशों का भाव सार रूप में यदि एक पंक्ति में व्यक्त किया जाए तो वह यह होगा ..... "जीवन में सर्वप्रथम भगवान को प्राप्त करो फिर उनकी चेतना में अन्य सारे कर्म करो|" गीता में भगवान श्रीकृष्ण संक्षेप में स्पष्ट बताते हैं कि भगवान की प्राप्ति का अधिकारी कौन है.....
"इति क्षेत्रं तथा ज्ञानं ज्ञेयं चोक्तं समासतः| मद्भक्त एतद्विज्ञाय मद्भावायोपपद्यते||१३:१९||
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यहाँ सब वेदोंका और गीता का अर्थ एकत्र कर के कहा गया है कि इस ज्ञान का अधिकारी कौन है| भगवान के ज्ञान का अधिकारी सिर्फ भगवान का भक्त है जिसने भगवान में अपने सारे भावों का अर्पण कर दिया है| वह जिस किसी भी वस्तु को देखता, सुनता और स्पर्श करता है, उन सब में उसे भगवान वासुदेव ही अनुभूत होते हैं| उसी ने भगवान को प्राप्त कर लिया है| वह व्यक्ति ही इस पृथ्वी पर चलता-फिरता देवता है| यह पृथ्वी भी ऐसे व्यक्ति को पाकर धन्य हो जाती है| जहाँ भी उसके चरण पड़ते हैं वह स्थान पवित्र हो जाता है| वह स्थान धन्य है जहाँ ऐसी पवित्र आत्मा रहती हैं|
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ॐ तत्सत् ! ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१५ फरवरी २०१९

हमारे सारे बहाने झूठे, और स्वयं को धोखा देने के साधन हैं.....

हमारे सारे बहाने झूठे, और स्वयं को धोखा देने के साधन हैं.....
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गुरु महाराज को कोई भी बहाना स्वीकार्य नहीं था| वे स्पष्ट कहते थे कि तुम्हारी प्रथम, अंतिम और एकमात्र समस्या परमात्मा को प्राप्त करना है, दूसरी कोई समस्या तुम्हारी नहीं है| अन्य सारी समस्याएँ सृष्टिकर्ता परमात्मा की हैं| अपनी चेतना को सदा भ्रूमध्य में रखो और निरंतर परमात्मा का स्मरण करो| अपने हृदय का पूर्ण प्रेम परमात्मा को दो| यदि सफलता नहीं मिलती है तो दोष तुम्हारी निष्ठा के अभाव का है, अन्य कोई कारण नहीं है| तुन्हारी निष्ठा के अभाव के कारण ही समर्पण में पूर्णता नहीं आ रही है| स्वयं को पूर्ण रूप से पूरी निष्ठा से परमात्मा को समर्पित कर दो, कुछ भी अपने लिए बचाकर मत रखो| लक्ष्य सदा समक्ष रहे, इधर, उधर कहीं भी मत देखो, दृष्टी सिर्फ लक्ष्य परमात्मा पर ही रहे|
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भगवान श्रीकृष्ण भी यही कहते हैं ....
"तस्मात्सर्वेषु कालेषु मामनुस्मर युध्य च| मय्यर्पितमनोबुद्धिर्मामेवैष्यस्यसंशयम्||८:७||"
लगभग यही बात जीसस क्राइस्ट ने कही है .... "Jesus said unto him, Thou shalt love the Lord thy God with all thy heart, and with all thy soul, and with all thy mind. This is the first and great commandment. And the second is like unto it, Thou shalt love thy neighbour as thyself. On these two commandments hang all the law and the prophets."
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भगवान भी "अनन्य भक्ति" और "अव्यभिचारिणी भक्ति" की बात कहते हैं जो बिना पूर्ण निष्ठा के फलीभूत नहीं होती ....
"मयि चानन्ययोगेन भक्तिरव्यभिचारिणी| विवक्तदेशसेवित्वरतिर्जनसंसदि||१३:१०||
लगभग यही बात जीसस क्राइस्ट कहते हैं .... "But seek ye first the kingdom of God, and his righteousness; and all these things shall be added unto you." (Matthew 6:33 KJV)
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सारे वैदिक ऋषि सर्वप्रथम परमात्मा को प्राप्त करने का उपदेश देते हैं| हमने जन्म ही परमात्मा को प्राप्त करने के लिए लिया है, अन्य कोई उद्देश्य नहीं है|
यदि हम परमात्मा को प्रात नहीं कर पाते हैं तो ....."एकमात्र दोष हमारी निष्ठा के अभाव का है|" हमारे सारे बहाने झूठे हैं|
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चिंता की कोई बात नहीं है | भगवान का स्पष्ट आश्वासन है ....
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"अनन्याश्चिन्तयन्तो मां ये जनाः पर्युपासते| तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यहम्||९:२२||"
"मच्चित्तः सर्वदुर्गाणि मत्प्रसादात्तरिष्यसि| अथ चेत्त्वमहङ्कारान्न श्रोष्यसि विनङ्क्ष्यसि||१८:५८||"
"नेहाभिक्रम-नाशोऽस्ति प्रत्यवायो न विद्यते| स्वल्पम् अप्यस्य धर्मस्य त्रायते महतो भयात्||२:४०||"
"योगस्थः कुरु कर्माणि सङ्गं त्यक्त्वा धनञ्जय| सिद्धय्-असिद्ध्योः समो भूत्वा समत्वं योग उच्यते||२:४८||"
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गुरु महाराज तो यहाँ तक कह गए हैं कि ....."परमात्मा को प्राप्त करने की साधना का तुम्हें सिर्फ २५% ही करना है, तुम्हारे लिए २५% मैं स्वयं करूँगा, और बाकी का ५०% करुणा और प्रेमवश जगन्माता करेगी|
गुरु महाराज के इतने बड़े आश्वासन और आदेश के पश्चात भी यदि हम भगवान को प्राप्त नहीं कर पाये तो धिक्कार है हमारे पर| फिर तो हमारा जन्म लेना ही व्यर्थ है|
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हे गुरु महाराज, हे परमशिव, मेरा पूर्ण समर्पण स्वीकार करो| मैं जैसा भी हूँ, आपका ही हूँ, मेरे सारे गुण व दोष आपके ही हैं| मैं सदा आपका ही रहूँगा|
ॐ तत्सत् ! ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१४ फरवरी २०१९

हे प्रभु, मेरा कल्याण करो .....

(प्रार्थना) हे प्रभु, मेरा कल्याण करो .....
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अब जायें तो जायें कहाँ ? कोई और ठिकाना नहीं है | जहाज के पक्षी की सी हालत है| घूम-फिर कर बापस वहीं आ जाते हैं| आप ही सत्य हो, आप ही ज्ञान हो और आप ही अनंत ब्रह्म हो| सत्यं ज्ञानं अनन्तं ब्रह्म (तैत्तिरीय उप०, २.१)|| मुझे अपने ध्यान से विमुख मत करो| मेरा ध्यान एक माइक्रोसेकंड के लिए भी आपसे परे न जाए, निरंतर आपमें ही लगा रहे| 
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"सत्यं ज्ञानं अनन्तं ब्रह्म" ..... तैत्तिरीयोपनिषद का यह मन्त्र ध्यान साधना के सर्वश्रेष्ठ मन्त्रों में से एक है| परमात्मा ही एकमात्र सत्य हैं, अतः वे सत्यनारायण हैं| उनकी अनंतता का प्रकाश ही सत्य और ज्ञान है| वे भगवान सत्यनारायण निरंतर मेरे चैतन्य में रहें| आपकी जय हो|
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ॐ तत्सत् ! ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१२ फरवरी २०१९

१४ फरवरी को आने वाले "वेलेंटाइन डे" की अभी से शुभ कामनाएँ :----

१४ फरवरी को आने वाले "वेलेंटाइन डे" की अभी से शुभ कामनाएँ :----
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ईसा की तीसरी शताब्दी के बाद की बात है यूरोप के लोग कुत्तों आदि जानवरों की तरह यौन सम्बन्ध रखते थे, कहीं कोई नैतिकता नहीं थी| ऐसे समय में रोम में वेलेंटाइन नाम के एक पादरी ने कहना आरम्भ किया कि यह अच्छी बात नहीं है| पादरी वेलेंटाइन ने लोगों को सिखाना शुरू किया कि एक प्रेमी या प्रेमिका चुन कर सिर्फ उसी से प्यार करो और उसी से शारीरिक संबंध बनाओ, विवाह करो आदि आदि| वे रोम में घूम घूम कर लोगों को प्रेमी/प्रेमिका चुनने और विवाह करने का उपदेश देते थे| उन्होंने प्रेमी प्रेमिकाओं का विवाह कराना शुरू कर दिया जिससे वहाँ के लोग नाराज़ हो गए, क्योंकि वहाँ के समाज में बिना विवाह के रखैलें रखना शान समझी जाती थीं और स्त्री का स्थान मात्र एक भोग की वस्तु था|
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रोम के राजा क्लोडियस ने उन सब जोड़ों को एकत्र किया जिनका विवाह वेलेंटाइन ने कराया था और १४ फरवरी ४९८ ई. को उसे सबके सामने खुले मैदान में फाँसी दे दी| उसका अपराध था कि वे स्त्री-पुरुषों का विवाह करवाते थे| उस वैलेंटाइन की दुखद याद में 14 फ़रवरी को वहाँ के प्रेमी प्रेमिकाओं ने वैलेंटाइन डे मनाना शुरू किया जो उस दिन से यूरोप में मनाया जाता है|
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भारत में लड़के-लड़िकयाँ बिना सोचे-समझे एक दुसरे को वैलेंटाइन डे का कार्ड दे रहे हैं| कार्ड में लिखा होता है " Would You Be My Valentine" जिसका मतलब होता है "क्या आप मुझसे शादी करेंगे"|
मतलब तो किसी को मालूम होता नहीं है, वे समझते हैं कि जिससे हम प्यार करते हैं उन्हें ये कार्ड दे देना चाहिए| इसी कार्ड को वे अपने माँ-बाप और दादा-दादी को भी दे देते हैं| एक दो नहीं दस-बीस लोगों को भी यह कार्ड वे दे देते हैं|
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इस धंधे में बड़ी-बड़ी कंपनियाँ लग गयी हैं जिनको कार्ड बेचना है, जिनको गिफ्ट बेचना है, जिनको चाकलेट बेचनी हैं और टेलीविजन चैनल वालों ने इसका धुआधार प्रचार कर दिया है| अरे प्यारे बच्चो कुछ नकल में भी अकल रखो| इससे अच्छा तो है कि इस दिन को मातृ-पितृ पूजा दिवस के रूप में ही मनाओ| प्रेम ही करना ही तो भगवान से करो| भारत में बड़े बड़े प्रभुप्रेमी हुए हैं, उन्हें याद करो|
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वेलेंटाइन सप्ताह ७ फरवरी से शुरू होता है| प्रेम-विवाह करने वाले आरम्भ के चार दिन दोस्ती करते हैं| पाँचवे दिन यानी ११ फरवरी को "प्रोमिज़ डे" मनाया जाता है| इस दिन जीवन भर साथ निभाने का वादा करते हैं| १२ फरवरी को "हग डे" यानि आलिंगन दिवस, और १३ फरवरी को "किस डे" यानि चुम्बन दिवस मनाते हैं| १४ फरवरी को वेलेंटाइन डे यानि वेलेंटाइन दिवस कहलाता है जिस दिन प्रेम विवाह करते हैं|
पुनश्चः: भगवान सभी वेलेंटाइनों सद्बुद्धि दे| शुभ वेलेंटाइन दिवस !!!!!
कृपा शंकर
१२ फरवरी २०१९

अपानवायु में प्राणवायु का, और प्राणवायु में अपानवायु का हवन क्या होता है?

अपानवायु में प्राणवायु का, और प्राणवायु में अपानवायु का हवन क्या होता है? .
गीता में भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं ....
"अपाने जुह्वति प्राणं प्राणेऽपानं तथापरे |
प्राणापानगती रुद्ध्वा प्राणायामपरायणाः ||४:२९||
भावार्थ : बहुत से मनुष्य अपान-वायु में प्राण-वायु का, उसी प्रकार प्राण-वायु में अपान-वायु का हवन करते हैं तथा अन्य मनुष्य प्राण-वायु और अपान-वायु की गति को रोक कर समाधि मे प्रवृत होते है|
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यह प्राण तत्व से सम्बंधित एक गोपनीय विषय है जिसकी विधि का गुरुपरम्परा से बाहर चर्चा करने का निषेध है| निषेधात्मक कारणों से मैं इस पर कोई सार्वजनिक चर्चा नहीं कर सकता| इसका मुझे अधिकार नहीं है, पर जिज्ञासुओं से अनुरोध है कि इसे किसी अधिकृत ब्रह्मनिष्ठ आचार्य से अवसर मिलने पर अवश्य सीखें| मैं अधिकृत नहीं हूँ|
ॐ तत्सत् ! ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ! ॐ ॐ ॐ !!
११ फरवरी २०१९
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पुनश्चः :---
रेचक क्रिया के माध्यम से, साधक सुषुम्ना में ऊपर रहने वाले प्राणवायु को लेकर इसे मेरुदण्ड के नीचे रहने वाले अपानवायु में अर्पित करते हैं, और पुन: पूरक करके वे अपानवायु को नीचे से ऊपर उठाते हैं और इसे ऊपर प्राणवायु में विलय कर देते हैं । इसका उल्लेख योगशास्त्रों में "केवली प्राणायाम" के रूप में किया गया है। इसके द्वारा, प्राण और अपान की गति स्वाभाविक रूप से और अपने आप रुक जाती है, इस से मन और सभी प्राण स्थिर होते हैं, फल स्वरूप अनंत सुख को प्रकट करते हुए ज्ञान के दीपक को प्रकाशित करते हैं। जब मन और प्राण इस तरह से स्थिर होते हैं, स्थुल वायु का प्रश्वास और निःश्वास , वाणी, शरीर, दृष्टि - यह सब भी स्थिर हो जाते हैं ।
~ स्वामी श्रीयुक्तेश्वर गिरि जी महाराज द्वारा श्रीमद्भगवत गीता के भाष्य के अंश से, अध्याय ४ श्लोक २९
*By rechak Kriya, sadhakas take the pranavayu residing above in the sushumna and offer it as oblation into the apanavayu residing at the bottom of the spine, and again by purak Kriya they lift the apanavayu from below and merge it into the pranavayu above.* This has been mentioned in the yogashastras as "kevali pranayam." By this, the movement of prana and apana stops naturally and on its own, stilling the mind and all prana, manifesting eternal happiness and illuminating the lamp of Knowledge. When the mind and prana are still in this way, the inhalation and exhalation of the physical airs, speech, body, sight - all of these things - also become still.
~Excerpts from Commentary of Shrimadbhagavat Gita by Swami SriYukteshvar Giri ji Maharaj , Ch. 4 Verse 29

भारत का अभ्युत्थान सुनिश्चित है .....

भारत का अभ्युत्थान सुनिश्चित है .....
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भारत में एक गुप्त अति प्रबल आध्यात्मिक चेतना के जागरण का कार्य आरम्भ हो चुका है जो भारत के पुनर्जागरण का कार्य करेगी| इसका केंद्र भारत के उत्तर-पश्चिमी भाग में ही कहीं से होगा| भारत का पुनर्जागरण सुनिश्चित है|
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इसमें हमारा भी सहयोग होना चाहिए| हम नित्य व्यायाम, प्राणायाम, उचित आहार, विचार आदि द्वारा स्वयं शक्तिशाली बनें, समाज व राष्ट्र को भी शक्तिशाली बनाएँ| गीता का नित्य नियमित पाठ और उसका अनुशरण करें| क्रमशः गीता के दो से पाँच श्लोकों का नित्य नियमित स्वाध्याय करें| अपने बालकों में भी भगवान की और राष्ट्रभक्ति के संस्कार दें| उन्हें भी शक्तिशाली बनाएँ|
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हमारे परम आदर्श भगवान श्रीराम और भगवान श्रीकृष्ण हैं| भक्ति में हमारे आदर्श श्रीहनुमान जी व श्रीराधा जी हैं| हमारे पास ज्ञान का अपार भण्डार है, भगवान की शक्ति और सहारा है| फिर और क्या चाहिए? जब लहरें निमंत्रण दे रही हैं तो अब और तटस्थ नहीं रह सकते|
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आप सब महान आत्माओं को नमन ! ॐ तत्सत् ! ॐ नमो भगवते वासुदेवाय !
कृपा शंकर
११ फरवरी २०१९