Saturday, 21 January 2023

हमारा 'लोभ' और 'अहंकार' -- हमारे सबसे बड़े शत्रु हैं ---

 हमारा 'लोभ' और 'अहंकार' -- हमारे सबसे बड़े शत्रु हैं; हमारी 'भक्ति' और 'सत्यनिष्ठा' -- हमारे सबसे बड़े मित्र हैं --- (यह बहुत अधिक महत्वपूर्ण और गंभीर लेख है)

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जीवन में जरा सी भी आध्यात्मिक प्रगति के लिए शत-प्रतिशत अनिवार्य आवश्यकता 'भक्ति' यानि परमात्मा के प्रति परमप्रेम है --
"मिलहिं न रघुपति बिनु अनुरागा, किए जोग, तप, ज्ञान विरागा।"
दूसरी आवश्यकता -- सत्यनिष्ठा (Sincerity) है।
यदि भक्ति और सत्यनिष्ठा हमारे में है, तो बाकी सारे सद्गुण हमारे में स्वतः ही आ जायेंगे।
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हम क्या सोचते हैं, और कैसे लोगों के साथ रहते हैं, इसका सबसे अधिक प्रभाव हमारे ऊपर पड़ता है। जैसे लोगों के साथ रहेंगे, बिल्कुल वैसा ही हमारा चिंतन हो जाएगा, और हम वैसे ही हो जायेंगे। यही सत्संग की महिमा है।
"महत्सङ्गस्तु दुर्लभोऽगम्योऽमोघश्च" -- यानि महापुरुषों का संग दुर्लभ, अगम्य तथा अमोध है। इसलिए हमें सर्वदा सत्संग करना चाहिये।
संगति का असर पड़े बिना रहता नहीं है। जैसा हमारा चिंतन होता है, यानि जैसा भी हम सोचते हैं, वैसे ही बन जाते हैं।
योगसूत्रों में एक सूत्र आता है -- "वीतराग विषयं वा चित्तः"।
अर्थात् - किसी वीतराग व्यक्ति का निरंतर चिंतन हमारे चित्त को भी वीतराग (राग-द्वेष-अहंकार से परे) बना देता है।
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किसी भी परिस्थिति में कुसंग का त्याग करना चाहिए। "दुस्सङ्गः सर्वथैव त्याज्यः" -- क्योंकि कुसंग से ही काम, क्रोध, मोह, स्मृतिभ्रंश, बुद्धिनाश और अंततः सर्वनाश हो जाता है। "कामक्रोधमोहस्मृतिभ्रंशबुद्धिनाशकारणत्वात्"।
जो पतनोन्मुख है, और जो गलत लोगों का संग करता है, उसका साथ छोड़ देना चाहिए, चाहे वह स्वयं का गुरु ही क्यों ना हो।
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परमात्मा हमारे पिता हैं, तो माता भी हैं। रात्रि में परमात्मा का चिंतन करते करते उसी तरह सोयें जैसे एक छोटा बालक निश्चिंत होकर अपनी माँ की गोद में सोता है। सिर के नीचे तकिया नहीं, माँ का वरद-हस्त होना चाहिए।
दिन का आरंभ भगवान के ध्यान से करें, और पूरे दिन उन्हें अपनी स्मृति में रखें। हमारे बारे में कौन क्या कहता है, और क्या सोचता है, यह उसकी समस्या है, हमारी नहीं। इस पर थोड़ा गंभीरता से विचार करें।
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सभी को अनंत मंगलमय शुभ कामनाएँ। आप सबकी जय हो।
ॐ तत्सत्॥ 🌹🙏🕉🕉🕉🙏🌹
कृपा शंकर
६ जनवरी २०२३

भारत निश्चित रूप से विजयी होगा ---

असत्य और अंधकार की आसुरी/राक्षसी शक्तियों से सनातन-धर्म और राष्ट्र की रक्षा के लिए हमें -- आध्यात्मिक, सामाजिक, सांस्कृतिक, बौद्धिक, मानसिक, आर्थिक, व भौतिक -- हरेक दृष्टिकोण से सशक्त व संगठित होना होगा।

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देश में जो विदेशी समाचार/प्रचार तंत्र हैं, उनसे देश को मुक्त करना पड़ेगा। राष्ट्र भक्ति का वातावरण बनाना होगा। आने वाला समय कुछ अच्छा नहीं प्रतीत हो रहा है। भगवान से भी प्रार्थना करते रहें और निज विवेक से काम लें। भारत निश्चित रूप से विजयी होगा।
वास्तव में सनातन धर्म ही भारत है, और भारत ही सनातन धर्म है।
६ जनवरी २०२३

आत्मा का धर्म है -- परमात्मा की अभीप्सा, पूर्ण प्रेम और पूर्ण समर्पण ---

 आत्मा का धर्म है -- परमात्मा की अभीप्सा, पूर्ण प्रेम और पूर्ण समर्पण।

हम ये नश्वर देह, अन्तःकरण, इंद्रियाँ, और उनकी तन्मात्राओं से परे शाश्वत आत्मा हैं। अपने स्वधर्म का पालन निरंतर करते रहें।
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यह संसार परमात्मा की रचना है। विश्व में जो कुछ भी हो रहा है, उससे विचलित न हों; और कूटस्थ-चैतन्य / ब्राह्मी-स्थिति में निरंतर रहने कि साधना करते रहें। परमात्मा भी हमारे प्रेम के भूखे/प्यासे हैं, और हमसे मिलने को तरस रहे हैं। हम कब तक उनसे प्रतीक्षा करवायेंगे?
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तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
७ जनवरी २०२३

पूर्ण समर्पण ---

 पूर्ण समर्पण ---

वर्तमान क्षण, आने वाले सारे क्षण, और यह सारा अवशिष्ट जीवन परमात्मा को समर्पित है। वे स्वयं ही यह जीवन जी रहे हैं। यह भौतिक, सूक्ष्म और कारण शरीर, इन के साथ जुड़ा अन्तःकरण (मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार), सारी कर्मेन्द्रियाँ, ज्ञानेंद्रियाँ व उनकी तन्मात्राएँ, पृथकता का बोध, और सम्पूर्ण अस्तित्व -- परमशिव को समर्पित है। वे ही पुरुषोत्तम हैं, वे ही वासुदेव हैं, और वे ही श्रीहरिः हैं। सारे नाम-रूप और सारी महिमा उन्हीं की है। इस देह से ये सांसें भी वे ही ले रहे हैं, इन आँखों से वे ही देख रहे हैं, और इस हृदय में भी वे ही धडक रहे हैं।
सर्वत्र समान रूप से व्याप्त (वासुदेव) भगवान गीता में कहते हैं --
"बहूनां जन्मनामन्ते ज्ञानवान्मां प्रपद्यते।
वासुदेवः सर्वमिति स महात्मा सुदुर्लभः॥७:१९॥"
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जो सन्मार्ग के पथिक हैं, उन्हें उनके उपदेशों (गीता) का यह सार नहीं भूलना चाहिए -- (वर्तमान क्षणों में मेरी चेतना में यह पुरुषोत्तम-योग, गीता का सार है)
"ऊर्ध्वमूलमधःशाखमश्वत्थं प्राहुरव्ययम्।
छन्दांसि यस्य पर्णानि यस्तं वेद स वेदवित्॥१५:१॥
अधश्चोर्ध्वं प्रसृतास्तस्य शाखा गुणप्रवृद्धा विषयप्रवालाः।
अधश्च मूलान्यनुसन्ततानि कर्मानुबन्धीनि मनुष्यलोके॥१५:२॥
न रूपमस्येह तथोपलभ्यते नान्तो न चादिर्न च संप्रतिष्ठा।
अश्वत्थमेनं सुविरूढमूल मसङ्गशस्त्रेण दृढेन छित्त्वा॥१५:३॥
ततः पदं तत्परिमार्गितव्य यस्मिन्गता न निवर्तन्ति भूयः।
तमेव चाद्यं पुरुषं प्रपद्ये यतः प्रवृत्तिः प्रसृता पुराणी॥१५:४॥
निर्मानमोहा जितसङ्गदोषा अध्यात्मनित्या विनिवृत्तकामाः।
द्वन्द्वैर्विमुक्ताः सुखदुःखसंज्ञैर्गच्छन्त्यमूढाः पदमव्ययं तत्॥१५:५॥
न तद्भासयते सूर्यो न शशाङ्को न पावकः।
यद्गत्वा न निवर्तन्ते तद्धाम परमं मम॥१५:६॥"
(पुरुषोत्तम-योग के उपरोक्त उपदेशों के भावार्थ व उन के अनेक भाष्यों का स्वाध्याय और निदिध्यासन इस लेख के जिज्ञासु पाठक स्वयं करेंगे)
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श्रुति भगवती यह बात बार-बार अनेक अनेक स्थानों पर कहती है --
"प्रणवो धनु: शरो ह्यात्मा ब्रह्म तल्लक्ष्यमुच्यते।
अप्रमत्तेन वेद्धव्यं शरवत्तन्मयो भवेत॥"
भावार्थ -- प्रणव धनुष है, आत्मा बाण है और ब्रह्म उसका लक्ष्य कहा जाता है। उसका सावधानी पूर्वक वेधन करना चाहिए और बाण के समान तन्मय हो जाना चाहिए।
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श्रुति भगवती के उपदेशों का सार उपनिषदों व गीता में है। जिस के भी हृदय में परमात्मा को पाने की अभीप्सा है, वह इनका स्वाध्याय अवश्य करेगा॥
मैंने जो कुछ भी लिखा है, वह परमात्मा से प्राप्त प्रेरणा से ही लिखा है। मेरा इसमें कुछ भी नहीं है। सारा श्रेय व सारी महिमा परमात्मा की है।
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मेरे इस भौतिक शरीर का स्वास्थ्य अधिक लिखने की अनुमति नहीं देता है। इस जीवन के जितने भी अवशिष्ट क्षण हैं, वे सब परमात्मा परमशिव को समर्पित है।
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'परमशिव' एक गहरे ध्यान में होने वाली अनुभूति है जो बुद्धि का विषय नहीं है। अपनी आत्मा में रमण ही परमात्मा का ध्यान है। भक्ति का जन्म पहले होता है। फिर सारा ज्ञान अपने आप ही प्रकट होकर भक्ति के पीछे पीछे चलता है।
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इसी तरह परा-भक्ति के साथ साथ जब सत्यनिष्ठा हो, तब भगवान का ध्यान अपने आप ही होने लगता है। जब भगवान का ध्यान होने लगता है, तब सारे यम-नियम -- भक्त के पीछे-पीछे चलते हैं। भक्त को यम-नियमों के पीछे भागने की आवश्यकता नहीं है। यम-नियम ही भगवान के भक्त से जुड़कर धन्य हो जाते हैं।
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ॐ तत्सत् !! किसको नमन करूँ? सर्वत्र तो मैं ही मैं हूँ। जहाँ मैं हूँ, वहीं भगवान हैं। जहाँ भगवान हैं, वहाँ अन्य किसी की आवश्यकता नहीं है।
कृपा शंकर
८ जनवरी २०२३

ब्राह्मण समाज के समारोहों में सर्वप्रथम और सर्वाधिक सम्मान -- "कर्मकांडी ब्राह्मणों" का होना चाहिए ---

 ब्राह्मण समाज के समारोहों में सर्वप्रथम और सर्वाधिक सम्मान -- "कर्मकांडी ब्राह्मणों" का होना चाहिए। इसके निम्न कारण हैं --

कर्मकांडी ब्राह्मण -- सनातन हिन्दू धर्म के रक्षक हैं। वे सभी धर्माचार्यों के प्रतिनिधि हैं। वे सभी का हित चाहते हैं, कभी किसी का बुरा नहीं सोचते। वे चाहते है कि सभी हिंदुओं के घरों में मंगल कार्य और शुभ अनुष्ठान हों। किसी भी मंगल कार्य करने से पूर्व हमें शुभ मुहूर्त आदि का समय ये ही बताते हैं, और सारे धार्मिक अनुष्ठान भी ये ही करवाते हैं। इन्हें दक्षिणा देने में हमें उदारता बरतनी चाहिए।

भारत में सत्य-धर्मनिष्ठ क्षत्रिय राजाओं का धर्मपरायण राज्य पुनश्च स्थापित हो ---

 मेरी पूर्ण हृदय से भगवान से प्रार्थना है कि भारत में सत्य-धर्मनिष्ठ क्षत्रिय राजाओं का धर्मपरायण राज्य पुनश्च स्थापित हो ---

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वर्तमान शासन व्यवस्था सनातन हिन्दू धर्म के विरुद्ध है। धर्मनिष्ठ क्षत्रिय राजाओं के राज्य में
(१) गोहत्या नहीं होती थी, गोसंवर्धन होता था। गोचर भूमियों पर किसी का अवैध अधिकार नहीं होता था, गायों के चरने के लिए भूमि छोड़ी जाती थी, जिनमें गायों के लिए चारे और पानी की व्यवस्था होती थी।
(२) हिन्दू मंदिरों की सरकारी लूट नहीं थी। बड़े बड़े मंदिरों के साथ -- पाठशाला, अन्नक्षेत्र, सदावर्त, गोशाला और यज्ञशाला होती थी। पाठशाला में निःशुल्क धार्मिक शिक्षा दी जाती थी। अन्नक्षेत्र में विद्यार्थियों को अन्नदान दिया जाता था। सदावर्त में विरक्त साधुओं को उनकी आवश्यकता का सामान दिया जाता था। गोशाला में गोसंवर्धन का कार्य होता था। यज्ञशाला में धार्मिक अनुष्ठान होते थे। हिन्दू मंदिरों की सरकारी लूट के साथ उपरोक्त सब बंद होगए।
(३) विद्वान तपस्वी संत-महात्माओं का संरक्षण होता था।
(४) सब को न्याय मिलता था। किसी के साथ अन्याय नहीं होता था।
(५) उच्च शिक्षा के लिए गुरुकुलों की व्यवस्था थी।
(६) वर्णाश्रम धर्म का पालन होता था।
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आलोचना करने वाले तो यों ही आलोचना करते रहेंगे। सबसे खराब कोई शासन प्रणाली, और सबसे अधिक खराब कोई सिद्धांत हो सकता है तो वह मार्क्सवाद है। यह मैं अपने अनुभव से कह रहा हूँ। मार्क्सवाद जब अपने चरम शिखर पर था, उस समय के सोवियत संघ, चीन, उत्तरी कोरिया, और रोमानिया में भ्रमण का व्यक्तिगत अनुभव है मुझे। विश्व में जहाँ जहाँ मार्क्सवादियों का प्रभाव था, वहाँ वहाँ विनाश ही विनाश हुआ है।
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सत्य-सनातन-धर्म की पुनःप्रतिष्ठा और वैश्वीकरण हो। भारत अपने द्विगुणित परम वैभव के साथ एक सत्यनिष्ठ धर्मावलम्बी राष्ट्र बने। असत्य का अंधकार दूर हो।
ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१० जनवरी २०२३
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You, राधा शरण दास, आत्म चैतन्य and 81 others

वेद पाठ कैसे करें ?

वेद पाठ कैसे करें ?
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प्रत्येक बालक को उपनयन संस्कार के साथ साथ संध्या विधि सिखा देनी चाहिए। फिर अभ्यास कराते कराते निम्न पाँच वैदिक सूक्तों का पाठ भी कंठस्थ करा देना चाहिए --
(१) भद्र सूक्त, (२) पुरुष सूक्त, (३) श्री सूक्त, (४) रुद्र सूक्त और (५) सूर्यसूक्त॥
सायं प्रातः दिन में दो बार संध्या/गायत्रीजप/प्राणायाम; और दिन में एक बार उपरोक्त पांचों सूक्तों का पाठ -- अपने धर्म पर अडिग बना देगा। ये वैदिक सूक्त बहुत छोटे छोटे हैं, लेकिन बहुत अधिक प्रभावशाली हैं।
जो बालक अङ्ग्रेज़ी स्कूलों में पढे हैं, और संस्कृत नहीं पढ़ सकते, उन्हें भी अभ्यास द्वारा ये सिखा देने चाहियें।
किसी भी परिस्थिति में एक दिन में कम से कम दस (की संख्या में) गायत्री मंत्र का जप तो अनिवार्य है।
ॐ तत्सत् !!
१० जनवरी २०२३

आध्यात्म में समस्त अनर्थों का मूल आसुरी भाव है; इस से कैसे बचें? ---

 आध्यात्म में समस्त अनर्थों का मूल आसुरी भाव है; इस से कैसे बचें? ---

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आज भगवान ने एक बहुत अधिक महत्वपूर्ण विचार सामने रखा है, इसलिए यह लेख लिखने को बाध्य हूँ। भगवान कहते हैं कि तुम्हारा यश, प्रसिद्धि, सम्मान पाने और कुछ होने या बनने की सूक्ष्मातिसूक्ष्म आकांक्षा एक आसुरी भाव है जो आध्यात्म में तुम्हारे समस्त अनर्थों का कारण है। इससे तुम्हें मुक्त होना पड़ेगा, तभी आगे की प्रगति तुम कर पाओगे।
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विहंगावलोकन करने पर यह बात मैं सत्य पाता हूँ। भगवान ने करुणावश अपनी परम कृपा कर के आगे का मार्ग भी बतला दिया है, जो व्यक्तिगत है। हम जब यह संकल्प या विचार करते हैं कि मैं यह साधना करता हूँ, यह साधना और करूंगा, ईश्वर को प्राप्त करूँगा आदि आदि, ये सब आसुरी भाव है।
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ईश्वर तो हमें सदा ही प्राप्त है, हम उन्हें क्या प्राप्त करेंगे? गीता के १६वें अध्याय में यह बात बहुत अच्छी तरह से समझाई गई है। साधना करने और साधक होने का भाव भ्रामक और मिथ्या है। एक नया आयाम खुल गया है।
हे प्रभु, अब यह मैं नहीं, तुम ही तुम हो। मैं आपकी शरणागत हूँ। मेरी रक्षा करो।
ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१० जनवरी २०२३

आसुरी-भाव से हमें परमात्मा की प्राप्ति नहीं होती ---

 आसुरी-भाव से हमें परमात्मा की प्राप्ति नहीं होती ---

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परमात्मा की प्राप्ति के मार्ग में सबसे बड़ी बाधा हमारा आसुरी भाव है। यह हमारी आध्यात्मिक साधना को निष्फल कर देता है। कर्ताभाव ही आसुरी भाव है। सार रूप में इसका जनक हमारा -- लोभ, राग-द्वेष और अहंकार है। विस्तार से समझने के लिए गीता के १६ वें अध्याय, और केनोपनिषद का स्वाध्याय करें।
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देह को स्वयं से पृथक देखना चाहिए। देहाभिमान बिल्कुल भी न हो। निरंतर परमात्मा के साथ सत्संग करें। उनकी कृपा ही हमें इस आसुरी भाव से मुक्त कर सकती है। जब हमारे में यह भावना आ जाती है कि मैंने इतने दान-पुण्य किए, इतने सेवा-कार्य किए, इतने सद्कार्य किए, इतनी तपस्या की, तो हमारे सारे पुण्य क्षीण होजाते हैं, और हम असुर बन जाते हैं। यह आसुरी भाव देवताओं में भी होता है जो उनके पतन का कारण बनता है।
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भोग हम नहीं भोगते, भोग ही हमें भोगते हैं। तप हम नहीं करते, हम स्वयं ही तप्त हो जाते हैं। काल समाप्त नहीं होता, हम स्वयं ही काल-कवलित हो जाते हैं। तृष्णा कभी जीर्ण नहीं होती, हम स्वयं ही जीर्ण हो जाते हैं।
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महाभारत के आदिपर्व, भागवत पुराण और मत्स्य पुराण में पांडवों के पूर्वज नहुषपुत्र ययाति की कथा आती है। कथा बहुत रोचक और बहुत लंबी है इसलिए महाभारत में ही पढ़नी चाहिए। घोर तपस्या करके ययाति स्वर्ग पहुँचे। एक बार देवताओं ने उनसे पूछ लिया कि इस ब्रह्मांड में सबसे बड़ा तपस्वी कौन है? बहुत सोच-समझ कर ययाति ने उत्तर दिया कि मेरे से बड़ा तपस्वी इस पूरे ब्रह्मांड में कोई अन्य नहीं है। उनके इतना कहते ही उनके सारे पुण्य क्षीण हो गए और देवताओं ने धक्के मार कर उन्हें स्वर्ग से नीचे फेंक दिया। अंतरिक्ष पथ से पृथ्वी को लौटते समय इन्हें अपने दौहित्र -- राजा अष्ट, शिवि आदि मिले और इनकी विपत्ति देखकर सभी ने अपने अपने पुण्य के बल से इन्हें पुनः स्वर्ग लौटा दिया। इन लोगों की सहायता से ही ययाति को अन्त में मुक्ति प्राप्त हुई।
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ऐसे ही एक और राजा की कथा आती है जिनका नाम मैं इस समय भूल रहा हूँ। उन्होंने सौ अश्वमेध यज्ञ किए थे, और उनका यश और कीर्ति सारी पृथ्वी पर फैली हुई थी। अपनी संसारिक मृत्यु के नब्ब वर्ष पश्चात वे अपनी कीर्ति को देखने के लिए इस मृत्युलोक में बापस आए। वे पूरी पृथ्वी पर घूम लिए लेकिन एक भी ऐसा जीवित व्यक्ति नहीं मिला जिसे उनके बारे में कुछ पता हो। अंत में जब वे पूरी तरह निराश हो गए तब लोमश ऋषि ने उन्हें पहिचाना और उपदेश देकर उनका उद्धार किया।
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गीता में भगवान कहते हैं --
"तस्मात्त्वमुत्तिष्ठ यशो लभस्व जित्वा शत्रून् भुङ्क्ष्व राज्यं समृद्धम्।
मयैवैते निहताः पूर्वमेव निमित्तमात्रं भव सव्यसाचिन्॥११:३३॥"
अर्थात् - इसलिए तुम उठ खड़े हो जाओ और यश को प्राप्त करो; शत्रुओं को जीतकर समृद्ध राज्य को भोगो। ये सब पहले से ही मेरे द्वारा मारे जा चुके हैं। हे सव्यसाचिन्! तुम केवल निमित्त ही बनो॥
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अपने हरेक कार्य का कर्ता परमात्मा को बनाओ, और अपने सारे गुण-दोष उन्हें समर्पित कर दो। वे ही सारे कार्य कर रहे हैं। रामचरितमानस में कहा गया है --
"उमा दारू जोषित की नाईं। सबहिं नचावत राम गोसाईं॥"
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गीता में भगवान कहते हैं --
"ईश्वरः सर्वभूतानां हृद्देशेऽर्जुन तिष्ठति।
भ्रामयन्सर्वभूतानि यन्त्रारूढानि मायया..१८:६१॥"
अर्थात - हे अर्जुन (मानों किसी) यन्त्र पर आरूढ़ समस्त भूतों को ईश्वर अपनी माया से घुमाता हुआ (भ्रामयन्) भूतमात्र के हृदय में स्थित रहता है॥
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सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज।
अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः॥१८:६६॥"
अर्थात - सब धर्मों का परित्याग करके तुम एक मेरी ही शरण में आओ, मैं तुम्हें समस्त पापों से मुक्त कर दूँगा, तुम शोक मत करो॥
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एक बात और बतलाई जा चुकी है --
"मच्चित्तः सर्वदुर्गाणि मत्प्रसादात्तरिष्यसि।
अथ चेत्त्वमहङ्कारान्न श्रोष्यसि विनङ्क्ष्यसि॥१८:५८॥"
अर्थात - मच्चित्त होकर तुम मेरी कृपा से समस्त कठिनाइयों (सर्वदुर्गाणि) को पार कर जाओगे; और यदि अहंकारवश (इस उपदेश को) नहीं सुनोगे, तो तुम नष्ट हो जाओगे॥
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यह आसुरी भाव हमें नर्क के द्वार का दर्शन तो करवा ही देगा। आप कुछ भी
कार्य करते हो, तब भाव यही रखो कि उस कार्य को स्वयं परमात्मा ही कर रहे हैं, और उसका श्रेय और फल भी परमात्मा को ही दो। यही हमें आसुरी भाव से मुक्त करेगा।
ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१२ जनवरी २०२३

भगवान हमें अपने प्रेम से वंचित नहीं कर सकते ---

 हे परमशिव, आप मुझे कितना भी दर्द और पीड़ा दो, लेकिन कभी भी अपने प्रेम से वंचित नहीं कर सकते। संसार में यदि कष्ट कम हैं तो आप मुझे घोर नर्क में डाल सकते हो, लेकिन आप कभी मेरा साथ नहीं छोड़ सकते। जहाँ भी आपने मुझे रखा है, वहाँ किसी भी तरह के असत्य का अंधकार हो ही नहीं सकता। मैं आपका परमप्रेम, आपकी अनंत विराटता, और प्रकाशों का प्रकाश, ज्योतियों की ज्योति - ज्योतिषाम्ज्योति हूँ; यह नश्वर देह नहीं।

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अनेक जन्मों का पुण्य जब फलीभूत होता है तब भगवान के प्रति भक्ति जागृत होती है। भक्ति और समर्पण से ही भगवान की कृपा प्राप्त होती है। भगवान की कृपा से ही भगवान की प्राप्ति होती है, न कि स्वयं के प्रयासों से। भगवान की कृपा से ही ब्रह्मनिष्ठ श्रौत्रीय सद्गुरु लाभ होता है जो हमें भगवान की प्राप्ति का मार्ग दिखाता है और ब्रह्मज्ञान देता है। गुरु वही है जो हमारे चैतन्य से अज्ञान का अंधकार मिटाता है। अन्य कोई गुरु नहीं हो सकता।
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वास्तव में भगवान स्वयं ही हमारे गुरु हैं। हम उनमें गुरुभाव रखेंगे तो वे भी हमारे में शिष्य भाव रखेंगे। हमारा लक्ष्य भगवान की प्राप्ति है, न कि इधर-उधर की फालतू बातें। गुरु महाराज का स्पष्ट सीधा आदेश है कि -- "जो मैं हूँ, तुम वही बनो।" मुझे पता है कि वे भगवान के साथ एक हैं, और मुझे भी भगवान के साथ एक होने का आदेश दे रहे हैं। स्पष्ट रूप से उन्होंने एक प्रकाशमय मार्ग दिखाया है, जहाँ कोई अंधकार नहीं है। किसी भी तरह का कोई संशय उन्होनें मुझमें नहीं छोड़ा है। सब कुछ स्पष्ट है।
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करुणावश अब वे ही सारी उपासना कर रहे हैं। वे एक प्रवाह है जो मेरे माध्यम से प्रवाहित हो रहे हैं। मैं तो एक निमित्त साक्षी मात्र हूँ। हे प्रभु, मैं आपके साथ एक हूँ। जो आप हैं, मैं भी वही हूँ। आप मुझमें व्यक्त हो रहे हैं।
ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१३ जनवरी २०२३

स्वामी विवेकानंद और खेतड़ी नरेश ---

 कल स्वामी विवेकानंद के ऊपर अनेक लेख लिखे गए थे। लेकिन कुछ बातों का लोग उल्लेख नहीं करते।

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स्वामी विवेकानंद को "स्वामी विवेकानंद" का नाम खेतड़ी के राजा अजीत सिंह ने दिया था। इससे पूर्व उनका नाम "स्वामी विविदिशानन्द था। खेतड़ी के राजा अजीत सिंह, अलसीसर के ठाकुर साहब के पुत्र थे जो खेतड़ी ठिकाने में गोद गए थे। स्वामी विवेकानंद को अमेरिका जाने की प्रेरणा और सारा खर्च राजा अजीत सिंह ने दिया था। स्वामी विवेकानंद को मारवाड़ी पगड़ी भी उन्होंने ही पहनाई थी, जिसे स्वामी विवेकानंद बाहर हर समय पहिनते थे।
खेतड़ी के ही एक परम विद्वान पंडित जी थे जिन्होंने स्वामी विवेकानंद को संस्कृत भाषा और संस्कृत व्याकरण का ज्ञान कराया था। उन्होंने ही स्वामी विवेकानंद को अनेक धर्म-शास्त्रों/ग्रंथों का अध्ययन करवाया था।
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जसरापुर के स्व.पंडित झाबरमल जी शर्मा को भी धन्यवाद देना चाहिए। विवेकानंद जी का सारा उपलब्ध साहित्य खेतड़ी ठिकाने के अभिलेखागारों में छिपा हुआ था, जिसे पंडित झाबरमल जी शर्मा ने विश्व के समक्ष उजागर किया। आज जो कुछ भी हम स्वामी विवेकानंद के बारे में जानते हैं, उसके पीछे पंडित झाबरमल जी शर्मा की तपस्या है।
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उस काल में पास ही के चिड़ावा नगर में अनेक बहुत बड़े विद्वान पंडित हुआ करते थे। उस समय चिड़ावा में पंडित स्नेही राम जी लाटा भी रहते थे, जो वेद-वेदांगों के प्रख्यात विद्वान थे। चिड़ावा के वचनसिद्ध महात्मा पंडित गणेशनारायण जी शर्मा भी उसी काल में थे। पता नहीं इन दोनों की कभी स्वामी विवेकानंद जी से भेंट हुई या नहीं। इस बारे में कोई लिखित प्रमाण उपलब्ध नहीं है।
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मैं रामकृष्ण मिशन के मंदिरों और आश्रमों में कुछ निजी कारणों से नहीं जाता। वहाँ माँ काली के साथ मदर टेरेसा का भी चित्र होता है। पूरा मिशन लगता है अमेरिकन ईसाईयों के प्रभाव में है। मैं इस संस्था का पूरा सम्मान करता हूँ, लेकिन मदर टेरेसा के चित्रों और संस्था के ईसाईकरण के कारण मेरी कोई रुचि इस संस्था में नहीं है। इस संस्था के सन्यासियों को मैंने मांस-मच्छी खाते हुए देखा है जो मेरी आस्था के विरुद्ध है। अतः उनमें मेरी कोई श्रद्धा नहीं है।
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कोई गलत बात मैंने लिखी है तो क्षमा चाहता हूँ। धन्यवाद। जयसियाराम !!
१३ जनवरी २०२३
May be an image of 2 people, turban and text that says 'खेतड़ी नरेश और विवेकानंद पं. झाबरमल्ल शर्मा'
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बंद आँखों के अंधकार के पीछे दिखाई दे रही पूरी प्रकाशमय अनंतता हम स्वयं हैं ---

 बड़ी से बड़ी बात जो भगवान की परम कृपा से मैं लिख सकता हूँ, वह यह है कि -

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खुली आँखों से हमें जो कुछ भी दिखाई दे रहा है; और बंद आँखों के अंधकार के पीछे दिखाई दे रही पूरी प्रकाशमय अनंतता -- हम स्वयं हैं; यह नश्वर शरीर नहीं। जहाँ तक भी हमारी कल्पना जाती है, और जो कुछ भी दिखाई दे रहा है, वह सब परमात्मा है, और वही हम स्वयं हैं। हम में और परमात्मा में कोई भेद नहीं है। हम यह नश्वर देह नहीं, परमात्मा के साथ एक हैं।
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हर साँस के साथ, और जब साँस नहीं चल रही तब भी हम परमात्मा के साथ उन की ज्योतिर्मय अनंतता हैं। पूरा स्पष्ट मार्गदर्शन भगवान ने गीता में और उपनिषदों में दिया है। उनको अपना सर्वश्रेष्ठ परम प्रेम दो। वे अपनी परम कृपा कर के सब कुछ समझा देंगे।
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इससे बड़ी बात और कुछ नहीं हो सकती। सब पर भगवान की परम कृपा हो।
ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१३ जनवरी २०२३

मकर संक्रांति की क्या शुभ कामना दूँ? मेरी हरेक साँस में संक्रांति है ---

 मकर संक्रांति की क्या शुभ कामना दूँ? मेरी हरेक साँस में संक्रांति है ---

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मैं साँस लेता हूँ तो वह मकर-संक्रांति है। साँस छोड़ता हूँ तो वह कर्क-संक्रांति है।
उत्तरायण और दक्षिणायण -- अब कहीं बाहर नहीं, मेरे इस शरीर में ही हरेक साँस के साथ घटित हो रहे हैं। मेरा सहस्त्रारचक्र -- उत्तर दिशा है; मूलाधारचक्र -- दक्षिण दिशा है; भ्रूमध्य -- पूर्व दिशा है; और आज्ञाचक्र -- पश्चिम दिशा है। सुषुम्ना की ब्रह्मनाड़ी मेरा परिक्रमा पथ है।
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जब साँस लेता हूँ तब घनीभूत-प्राण (कुंडलिनी) मूलाधारचक्र से उठकर सब चक्रों को भेदते हुए, सहस्त्रारचक्र में आ जाते हैं, यह मकर संक्रांति है। जब साँस छोड़ता हूँ तब ये घनीभूत-प्राण (कुंडलिनी) उसी मार्ग से बापस मूलाधार-चक्र में चले जाते हैं। यह कर्क संक्रांति है। मैं इन का साक्षीमात्र हूँ। इन का रहस्य परम गोपनीय हैं।
ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१३ जनवरी २०२३