Friday, 3 January 2025

मेरे उपास्य परमशिव को नमन ---

"पीठं यस्या धरित्री जलधरकलशं लिङ्गमाकाशमूर्तिम् ,
नक्षत्रं पुष्पमाल्यं ग्रहगणकुसुमं चन्द्रवह्न्यर्कनेत्रम्।
कुक्षिः सप्तसमुद्रं भुजगिरिशिखरं सप्तपाताळपादम्,
वेदं वक्त्रं षड़ङ्गं दशदिश वसनं दिव्यलिङ्गं नमामि॥"
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अर्थात् - पृथ्वी जिन का आसन है, जल से भरे हुए मेघ जिन के कलश हैं, सारे नक्षत्र जिन की पुष्प माला है, ग्रह गण जिनके कुसुम हैं, चन्द्र, सूर्य एवं अग्नि जिन के नेत्र हैं , सातों समुद्र जिन के पेट हैं , पर्वतों के शिखर जिन के हाथ हैं , सातों पाताल जिन के पैर हैं, वेद और षड़ङ्ग जिन के मुख हैं, तथा दशों दिशायें जिन के वस्त्र हैं -- ऐसे आकाश की तरह मूर्तिमान दिव्य लिङ्ग को में नमस्कार करता हूँ।
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ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
४ जनवरी २०२३ . पुनश्च:  --- आजकल नित्य ही निश्चित रूप से भगवान का आशीर्वाद मिल रहा है। हर नये दिन का आरंभ बीते हुए पिछले दिनों से अधिक अच्छा होता है। आज के दिन का आरंभ भी बीते हुये सभी दिनों से अधिक अच्छा था। हरेक नया दिन, बीते हुये दिनों से अधिक अच्छा होगा। आज मेरे उपास्य देव "परमशिव" की अनुभूतियाँ अन्य दिनों से अधिक अच्छी थीं। वे अब नित्य निरंतर बढ़ती ही जायेंगी।
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सारी अनंत विराटता, सारी सृष्टि -- सारी आकाश-गंगाएँ, उनके सभी नक्षत्र अपने ग्रहों-उपग्रहों के साथ, और उन पर निवास कर रहे सभी प्राणियों की देह मैं ही हूँ। मैं ही उनका प्राण हूँ। जो कुछ भी सृष्ट और अनसृष्ट है, वह मैं ही हूँ। सारी सृष्टि, सारा ब्रह्मांड मेरा घर है, और सारे प्राणी मेरा परिवार। मैं सभी को साथ लेकर परमशिव की उपासना कर रहा हूँ। कुछ भी मुझसे पृथक नहीं है। मैं साँस लेता हूँ तो सारा ब्रह्मांड साँस लेता है। मेरा अस्तित्व ही सारी सृष्टि का अस्तित्व है। मैं परमशिव के साथ एक हूँ। 
ॐ स्वस्ति !! ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
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५ जनवरी से मैं अपने जीवन को एक नई दिशा दे रहा हूँ, जिसके बारे में लिखना उचित नहीं है। आज ४ जनवरी को प्रातः जब नींद से उठा, उठा तब स्वयं को एक निर्विकल्प समाधि में पाया जिसका अनुभव एक घंटे से भी अधिक समय तक चलता रहा। यह परमशिव की ओर से एक संकेत था, आर या पार जाने का। या तो इस पार आराम से बैठे रहो, या उस पार निकल जाओ जहाँ प्रकाश ही प्रकाश है।
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अब सोचना छोड़ दिया है क्योंकि जिस विमान में मैं यात्रा कर रहा हूँ, उस विमान का चालक मैं नहीं हूँ। यह विमान भी वे हैं, और इसके चालक भी वे ही हैं। जैसी उनकी इच्छा, वे किसी भी दिशा में कहीं भी जाएँ। मैं निश्चिंत हूँ। मेरी दिशा तो उन्हीं की ओर है। अब दायें-बायें, ऊपर-नीचे, इधर-उधर कुछ भी अन्य नहीं दिखाई दे रहा है। किसी भी ओर मेरी दृष्टि नहीं है। मेरी दृष्टि सिर्फ उन्हीं की ओर है और सदा सिर्फ उन्हीं की ओर रहेगी।
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मैं इसी क्षण स्वयं को सब तरह के संकल्पों-विकल्पों, धारणाओं-विचारधाराओं, दायित्वों, पाप-पुण्य, और धर्म-अधर्म से सदा के लिए मुक्त करता हूँ। मेरी चेतना में मैं इस समय ईश्वर की सर्वव्यापक विराट अनंतता व उससे भी परे हूँ। किसी के साथ मेरा कोई विशिष्ट संबंध नहीं है। मुझे न तो किसी से कुछ पूछना है, और न किसी को कुछ बताना। किसी से कुछ लेना-देना भी नहीं है। परमशिव सदा मेरे समक्ष ही नहीं, मेरे साथ एक हैं। उनके सिवाय कोई अन्य विचार मेरे मानस में इस समय नहीं है, और भविष्य में कभी न आये तो ही अच्छा है। ॐ स्वस्ति !! शिव शिव शिव शिव शिव ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ !! हरिः ॐ तत्सत् !!
कृपा शंकर

यह विमान और उस का चालक मैं नहीं हूँ ---

 यह विमान और उस का चालक मैं नहीं हूँ ---

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"तपस्वी, क्यों हो इतने क्लांत ? वेदना का यह कैसा वेग ?
आह ! तुम कितने अधिक हताश, बताओ यह कैसा उद्वेग ?
जिसे तुम समझे हो अभिशाप, जगत की ज्वालाओं का मूल।
ईश का वह रहस्य वरदान, कभी मत इसको जाओ भूल।
विषमता की पीडा से व्यक्त, हो रहा स्पंदित विश्व महान।
यही दुख-सुख विकास का सत्य, यही "भूमा" का मधुमय दान। (कामायनी)
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इस विमान का चालक बने रहने की अभिलाषा ने ही इस जगत की ज्वालाओं से मुझे दग्ध किया। उस दग्धता से बचाने की प्रार्थना से द्रवित होकर भगवान ने मुझे "भूमा" का बोध कराया। "भूमा" की अनुभूति ने ही समझाया कि यह विमान और उसका चालक मैं नहीं , स्वयं भगवान हैं। भूमा की सिद्धि जीवन की पूर्णता है। श्रुति भगवती कहती है --
"यो वै भूमा तत्सुखं नाल्पे सुखमस्ति भूमैव सुखं भूमा त्वेव विजिज्ञासितव्य इति भूमानं भगवो विजिज्ञास इति॥ (छान्दोग्योपनिषद (७/२३/१)
उपरोक्त वाक्य ब्रह्मविद्या के प्रथम आचार्य भगवान सनतकुमार का है जिन्होंने अपने प्रिय शिष्य देवर्षि नारद के प्रश्न -- "सुखं भगवो विजिज्ञास इति" ​का उत्तर दिया था। भूमा में यानि व्यापकता, विराटता में सुख है, अल्पता में नहीं। जो भूमा है, व्यापक है, वह सुख है। कम में सुख नहीं है। भूमा का अर्थ है -- सर्व, विराट, विशाल, अनंत, विभु, और सनातन।
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भूमा का ध्यान ही जीवन में परमात्मा की अनुभूति का मार्ग है, जो सब तरह के भेदों और सीमाओं से परे है। भूमा का बोध हमारे जीवन की पूर्णता है। जो भूमा है, वह सनातन, बृहत्तम, विभु, सर्वसमर्थ, नित्यतृप्त ब्रह्म है। जो भूमा है, वही सुख है, वही अमृत और सत्य है। भूमा में ही सुख है, अल्पता में नहीं। पूर्ण भक्ति से समर्पित होकर परमात्मा की अनंतता और विराटता पर ध्यान करते करते भूमा की अनुभूति होती है।
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भगवान श्रीहरिः ही कृपा कर के किसी न किसी माध्यम से अपने कुछ रहस्य अनावृत कर देते हैं। कुछ भी जानने की इच्छा हो तो भगवान से प्रेम करो और निरंतर भगवान का ध्यान करो। ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
४ जनवरी २०२४

भगवान में और स्वयं में कोई भेद न रहे ---

 सार की बात एक ही है कि भगवान को अपना पूर्ण प्रेम दो, इतना प्रेम कि स्वयं में भी भगवान ही प्रतीत हों। भगवान में और स्वयं में कोई भेद न रहे। हमारा अस्तित्व ही भगवान का अस्तित्व हो जाए। हम निमित्त मात्र ही नहीं, स्वयं भगवान के साथ एक हो जाएँ।

यही भगवान की प्राप्ति है। यही आत्म-साक्षात्कार है। भगवान कोई ऊपर से उतर कर आने वाले नहीं, हमें स्वयं को ही भगवान बनना पड़ेगा। सदा शिवभाव में रहो। हम परमशिव हैं, यह नश्वर मनुष्य देह नहीं।
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जिस भी रूप में संभव हो, भगवान को अपना पूर्ण प्रेम दें। आगे का मार्ग भगवान स्वयं दिखायेंगे। भगवान हमारी सत्यनिष्ठा और परमप्रेम को ही देखते हैं। सत्यनिष्ठा से भगवान को किया गया प्रेम कभी व्यर्थ नहीं जाता। सदा वर्तमान में रहें। भगवान हमारे हैं, और हम भगवान के हैं।
"मिलें न रघुपति बिन अनुरागा, किएँ जोग तप ग्यान बिरागा॥" रां रामाय नमः॥ श्रीरामचन्द्रचरणौ शरणं प्रपद्ये॥ श्रीमते रामचंद्राय नमः॥ जय जय श्रीसीताराम॥
शिवोहं शिवोहं शिवोहं शिवोहं !! अहं ब्रह्मास्मि !!
ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
३ जनवरी २०२३