भगवान् की जाति क्या है? भगवान् का वर्ण क्या है? भगवान् का घर कहाँ है?
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ये सब महत्वहीन प्रश्न हैं| पर एक बात तो है कि जो कुछ भी परमात्मा का है ---- सर्वज्ञता, सर्वव्यापकता, सर्वशक्तिमता आदि आदि आदि उन सब पर मेरा भी जन्मसिद्ध अधिकार है| मैं उनसे पृथक नहीं हूँ| जो भगवान की जाति है, वह ही मेरी जाति है| जो उनका घर है वह ही मेरा घर है| जो उनकी इच्छा है वह ही मेरी इच्छा है|
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भगवान को समर्पित होने पर सबसे पहिले तो हम जाति-विहीन हो जाते हैं, फिर वर्ण विहीन हो जाते हैं, घर से भी बेघर हो जाते हैं, देह की चेतना भी छुट जाती है और मोक्ष की कामना भी नष्ट हो जाती है|
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विवाह के बाद कन्या अपनी जाति, गौत्र और वर्ण सब अपने पति की जाति, गौत्र और वर्ण में मिला देती है| पति की इच्छा ही उसकी इच्छा हो जाती है| वैसे ही परमात्मा को समर्पित होने पर अपना कहने को कुछ भी नहीं बचता, सब कुछ उसी का हो जाता है| 'मैं' और 'मेरापन' भी समाप्त हो जाता है| सब कुछ 'वह' ही हो जाता है|
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हे प्रियतम, तुम महासागर हो तो मैं जल की एक बूँद हूँ जो तुम्हारे में मिलकर महासागर ही बन जाती है|
तुम एक प्रवाह हो तो मैं एक कण हूँ जो तुम्हारे में मिलकर विराट प्रवाह बन जाता है|
तुम अनंतता हो तो मैं भी अनंत हूँ|
तुम सर्वव्यापी हो तो मैं भी सदा तुम्हारे साथ हूँ|
जो तुम हो वह ही मैं हूँ|
मेरा कोई पृथक अस्तित्व नहीं है|
जब मैं तुम्हारे बिना नहीं रह सकता तो तुम भी मेरे बिना नहीं रह सकते| जितना प्रेम मेरे ह्रदय में तुम्हारे प्रति है, उससे अनंत गुणा प्रेम तो तुम मुझे करते हो| तुमने मुझे प्रेममय बना दिया है|
जहाँ तुम हो वहीँ मैं हूँ, जहाँ मैं हूँ वहीँ तुम हो| मैं तुम्हारा अमृतपुत्र हूँ, तुम और मैं एक हैं|
ॐ तत्सत् शिवोहं शिवोहं अहं ब्रह्मास्मि | ॐ ॐ ॐ ||
कृपा शंकर
१० जुलाई २०२०