Monday 18 April 2022

जिसको प्यास लगी है, वही पानी पीयेगा ----

 जिसको प्यास लगी है, वही पानी पीयेगा ---

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यह तर्क का नहीं, अनुभूति का विषय है। निज जीवन में मैंने जो अनुभूत किया है, वही पूरी सत्यनिष्ठा से लिख रहा हूँ। कोई बनावटी बात नहीं है। मेरे लिए भक्ति -- एक ऊर्ध्वमुखी परमप्रेम है, जो व्यष्टि का समष्टि को समर्पण है। परमात्मा को पाने के लिए यह हृदय की तड़प है। जिन्होंने इस सृष्टि को धारण कर रखा है, उन भगवती पराशक्ति का परमशिव के प्रति, और भगवती राधा का श्रीकृष्ण के प्रति परमप्रेम और समर्पण भाव ही भक्ति है। भक्ति किसी शास्त्र में नहीं, भक्त के हृदय में लिखी होती है।
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"हरिः व्यापक सर्वत्र समाना, प्रेम ते प्रकट होहिं मैं जाना।" भगवान सर्वत्र समान रूप से व्याप्त हैं। वे किसी के साथ कोई भेदभाव नहीं करते। लेकिन उनकी अनुभूति सिर्फ परमप्रेम से ही होती है। भगवान भुवनभास्कर अपने परिक्रमा-पथ पर अपना प्रकाश सभी को समान रूप से देते हैं, किसी के साथ कोई पक्षपात नहीं करते| वैसे ही भगवान का अनुग्रह भी सभी पर समान रूप से होता है। कोई उसे ग्रहण करता है, कोई नहीं। परमप्रेम सदा Unconditional होता है, वहाँ कोई मांग, कोई शर्त नहीं होती। जहाँ मांग होती है, वहाँ व्यापार होता है, प्रेम नहीं।
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जिसको प्यास लगी है, वही पानी पीयेगा। बिना प्यास के कोई जल नहीं पीता। जिस के हृदय में भी अभीप्सा और प्रेम होगा, उसी को निश्चित रूप से भगवान का अनुग्रह प्राप्त होगा। मैंने औपचारिक रूप से कभी कोई भक्ति नहीं की, लेकिन जब भी प्रभु को हृदय से पुकारा है, उन्होंने मुझ अकिंचन पर सदा अपना परम अनुग्रह किया है, और अपनी उपस्थिती का आभास कराया है। अभी भी इसी समय वे मेरे कूटस्थ हृदय में सचेतन बिराजमान हैं।
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रामचरितमानस, श्रीमदभागवत, भगवद्गीता, नारद भक्ति सूत्र, शांडिल्य सूत्र और अनेक ग्रन्थों में भक्ति के ऊपर विस्तार से लिखा गया है। ध्यान-साधना से होने वाली प्रत्यक्ष अनुभूति से सारे संशय मिट जाएँगे। ॐ स्वस्ति !! ॐ तत्सत् !!
कृपा शंकर
१९ अप्रेल २०२१

दरिद्रता एक बहुत बड़ा अभिशाप है, लेकिन अधर्म से पैसा बनाना तो सब से बड़ा "पापों का पाप" है ---

 दरिद्रता एक बहुत बड़ा अभिशाप है, लेकिन अधर्म से पैसा बनाना तो सब से बड़ा "पापों का पाप" है ---

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कमाने से बहुत अधिक आसान है खर्च करना। कम कमाई से घर-गृहस्थी चलाना बहुत ही कठिन है। वर्तमान में बहुत ही खराब समय चल रहा है, अतः कम से कम खर्च में काम चलाना सीखें। कहीं दरिद्रता का महादुःख न देखना पड़े। दरिद्रता -- चाहे वह भौतिक हो या आध्यात्मिक, बहुत ही दुःखद है। आध्यात्मिक दरिद्रता तो भौतिक दरिद्रता से भी अधिक दुःखदायी है।
किसी दिन अचानक ही सब कुछ छोड़कर हमें इस संसार से चले जाना होगा। कोई हमारे साथ नहीं होगा, और हम भी किसी के साथ नहीं होंगे। साथ सिर्फ परमात्मा का ही शाश्वत है। निरंतर हरिःचिंतन करते रहना चाहिए, पता नहीं कौन सी साँस अंतिम हो।
मन में यदि काम-वासना यानि यौन-सुख के भाव ही निरंतर आते हैं तो यह खतरे की घंटी है। ऐसी स्थिति में अगला जन्म किसी पशु योनि में होना निश्चित है। अपनी भोजन की आदतें, संगति और वातावरण बदलना पड़ेगा। कुसंग तो किसी भी परिस्थिति में नहीं होना चाहिए। हमारा अगला जन्म कहाँ, किस परिस्थिति में होगा, इसकी कोई सुनिश्चितता नहीं है। अंत समय में जैसी मति होगी, वैसी ही गति होगी। कर्मफलों का सिद्धान्त भी सत्य है, पुनर्जन्म भी सत्य है, और आत्मा की शाश्वतता भी सत्य है। यमदूत किसी को क्षमा नहीं करते। भगवान का अनुग्रह ही मुक्त कर सकता है।
जो प्रभुप्रेम में गहरी डुबकी लगाएगा उसी को मोती मिलेंगे। अंततः वह स्वयं ही प्रभु के साथ एक हो जाएगा। डूबेगा, खो जाएगा, लौटकर खबर भी न दे सकेगा नमक के पुतले की तरह।
ॐ तत्सत् !! ॐ स्वस्ति !!
१८ अप्रेल २०२२

पूर्वजन्म की एक हल्की सी स्मृति है ---

पूर्वजन्म की एक हल्की सी स्मृति है जब मैंने श्री श्री परमहंस योगानन्द जी से अमेरिका में दीक्षा ली थी। फिर पता नहीं कैसे और कब उस पूर्व जीवन का अंत हुआ, और भारत के एक हिन्दू ब्राह्मण परिवार में मेरा पुनर्जन्म हुआ। पूर्व जन्म में मेरी अंतिम कामना भारत के एक हिन्दू ब्राह्मण परिवार में जन्म लेने की थी।

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इस जन्म में योगानन्द जी से कभी भेंट नहीं हुई क्योंकि जब मेरी इस देह की आयु तीन-चार वर्ष की थी, तभी उन्होंने अपनी देह का त्याग कर दिया था। इस जन्म में ३१ वर्ष की आयु में उन्होंने एक अवर्णनीय चमत्कार और शक्तिपात द्वारा जो कुछ भी पूर्वजन्म में उन से सीखा था, वह सब कुछ याद दिला दिया। ३४ वर्ष की आयु में उन्होंने फिर एक अवर्णनीय चमत्कार द्वारा मुझे समाधि की अवस्था में ले जा कर सूक्ष्म देह में दीक्षा दी। ये सारे के सारे अविश्वसनीय चमत्कार थे, जिन पर कोई आज के युग में विश्वास नहीं करेगा।
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मुझ में पूर्वजन्म के अधर्मी और धर्मी सब तरह के मिश्रित संस्कार थे, जिन में इस जन्म के संस्कार भी जुड़ गए। बड़ी कठिनाई से पूर्व जन्मों के बहुत ही गलत संस्कारों से मुक्त हुआ हूँ। भगवान ने खूब कृपा की है।
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मुझे किसी से भी कोई शिकायत नहीं है। अब कोई अभिलाषा नहीं है, जीवन भगवान को समर्पित है। उनका उपकरण हूँ, वे जहाँ चाहें, वहाँ रखे, और कैसे भी काम में लें। भगवान की सबसे बड़ी कृपा यही है कि बौद्धिक धरातल पर अब कोई किसी भी तरह का संशय मुझे नहीं है।
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अंतिम बात यह कहना चाहता हूँ कि आप भारतीय हिन्दू हैं, लेकिन आपका अगला जन्म कहाँ, किस लोक में, किस देश में, किस वर्ण में, किस जाति में, किस योनि में, किस परिस्थिति में, किस मत में होगा, इसकी कोई सुनिश्चितता नहीं है। अंत समय में जैसी मति होगी, वैसी ही गति होगी। कर्मफलों का सिद्धान्त भी सत्य है, पुनर्जन्म भी सत्य है, और आत्मा की शाश्वतता भी सत्य है।
ॐ तत्सत् !! ॐ स्वस्ति !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१८ अप्रेल २०२१

"मैं हूँ", -- यही मेरी सबसे बड़ी और एकमात्र समस्या है, समाधान भी यही हो ---

 "मैं हूँ", -- यही मेरी सबसे बड़ी और एकमात्र समस्या है, समाधान भी यही हो ---

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परमात्मा ने मुझे यह जन्म ही क्यों दिया? मेरे न होने से उनकी सृष्टि को क्या फर्क पड़ने वाला था? न तो परमात्मा मुझे जन्म देते और न ही इतनी सारी समस्याएँ मेरे समक्ष होतीं। मेरे होने से ही सारी समस्याएँ हैं। मैं यदि नहीं होता तो सिर्फ परमात्मा ही होते।
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स्वयं को व्यक्त करने के लिए परमात्मा स्वयं ही यह सृष्टि बन गये हैं। जीवन और मृत्यु में मुझे कोई वासना नहीं रखनी चाहिए। परमात्मा ही मेरे एकमात्र अवलम्बन हों। मैं हूँ, -- यही मेरी सबसे बड़ी और एकमात्र समस्या है। अब से तो वे ही वे रहेंगे, मैं नहीं। गीता में उनका दिया हुआ आश्वासन आगे का मार्ग दिखाता है --
"अनन्याश्चिन्तयन्तो मां ये जनाः पर्युपासते।
तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यहम्॥९:२२॥"
अर्थात् -- अनन्य भाव से मेरा चिन्तन करते हुए जो भक्तजन मेरी ही उपासना करते हैं, उन नित्ययुक्त पुरुषों का योगक्षेम मैं वहन करता हूँ॥
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“प्रेम गली अति साँकरी, ता में दो न समाय” --
एकमात्र आत्मा ही सम्पूर्ण विश्व का अधिष्ठान और पारमार्थिक सत्य है। अनन्यभाव से मुझे अपने आत्मस्वरूप का ही ध्यान करना चाहिए। स्वयं की पृथकता के बोध की आहुति परमात्मा में देनी ही पड़ेगी, अन्य कोई विकल्प नहीं है। जड़-चेतन यह समस्त सृष्टि परमात्मा से व्याप्त है --
"ईशा वास्यमिदं सर्वं यत्किञ्च जगत्यां जगत्‌।
तेन त्यक्तेन भुञ्जीथा मा गृधः कस्यस्विद्धनम्‌॥"
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सरा जगत ही विष्णु है। भगवान ने स्वयं को ही इस विश्व के रूप में व्यक्त किया है --
"ॐ विश्वं विष्णु: वषट्कारो भूत-भव्य-भवत-प्रभुः।
भूत-कृत भूत-भृत भावो भूतात्मा भूतभावनः॥
पूतात्मा परमात्मा च मुक्तानां परमं गतिः।
अव्ययः पुरुष साक्षी क्षेत्रज्ञो अक्षर एव च॥"
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अंत में एक ही बात कह सकता हूँ --
"तेरे दीदार के काबिल कहाँ मेरी नजर है?
वो तो तेरी रहमत हैं, जो तेरा रुख इधर है॥"
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ॐ नमो भगवाते वासुदेवाय !! ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१२ मार्च २०२२

मुझे भगवान की प्राप्ति हो या नहीं? यह मेरी नहीं, सृष्टिकर्ता भगवान की निजी समस्या है ----

 मुझे भगवान की प्राप्ति हो या नहीं? यह मेरी नहीं, सृष्टिकर्ता भगवान की निजी समस्या है। उनकी मर्जी हो तो दर्शन दें, अन्यथा नहीं; मुझे कोई फर्क नहीं पड़ता।

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उनके तेज को यह शरीर सहन नहीं कर सकता। यह तो वैसे ही होगा जैसे किसी २४ volt के बल्व में करोड़ों volt की बिजली छोड़ दी जाये। अगर वे मेरे समक्ष आ जाएँ तो यह शरीर तो उसी समय जल कर भस्म हो जाएगा।
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कल प्रातः एक ऐसा ही अनुभव हुआ। प्रातः उठ कर बैठते ही मैं समाधिस्थ हो गया। सारी चेतना प्रेममय हो गई। ऐसे लगा कि भगवान बिलकुल मेरे समक्ष हैं। उनकी प्रत्यक्ष उपस्थिती का आभास निरंतर बढ़ने लगा। लेकिन अचानक ही सारा शरीर तड़प उठा। ऐसे लगा कि आधा मिनट भी और ऐसे ही रहा तो यह शरीर मेरा साथ छोड़ देगा। अंत समय में किसी को क्या अनुभूतियाँ हो सकती हैं, वे सब मुझे हुईं।
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अंततः मैंने उन से बापस जाने की प्रार्थना की, वे तुरंत बापस चले गए। मैंने उनसे जो प्रार्थना की उन्होने तुरंत स्वीकार कर ली। वैसे भी वे स्थायी रूप से मेरे हृदय में बिराजमान हैं। अब और कुछ भी नहीं चाहिए।
ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१२ मार्च २०२२

प्राथमिकता ---

 प्राथमिकता ---

किसी जंगल मे एक गर्भवती हिरणी थी जिसका प्रसव होने को ही था . उसने एक तेज धार वाली नदी के किनारे घनी झाड़ियों और घास के पास एक जगह देखी जो उसे प्रसव हेतु सुरक्षित स्थान लगा.
अचानक उसे प्रसव पीड़ा शुरू होने लगी, लगभग उसी समय आसमान मे काले काले बादल छा गए और घनघोर बिजली कड़कने लगी जिससे जंगल मे आग भड़क उठी .
वो घबरा गयी उसने अपनी दायीं और देखा लेकिन ये क्या वहां एक बहेलिया उसकी और तीर का निशाना लगाये हुए था, उसकी बाईं और भी एक शेर उस पर घात लगाये हुए उसकी और बढ़ रहा था अब वो हिरणी क्या करे ?,
वो तो प्रसव पीड़ा से गुजर रही है ,
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अब क्या होगा?,
क्या वो सुरक्षित रह सकेगी?,
क्या वो अपने बच्चे को जन्म दे सकेगी ?,
क्या वो नवजात सुरक्षित रहेगा?,
या सब कुछ जंगल की आग मे जल जायेगा?,
अगर इनसे बच भी गयी तो क्या वो बहेलिये के तीर से बच पायेगी ?
या क्या वो उस खूंखार शेर के पंजों की मार से दर्दनाक मौत मारी जाएगी?
जो उसकी और बढ़ रहा है,
उसके एक और जंगल की आग, दूसरी और तेज धार वाली बहती नदी, और सामने उत्पन्न सभी संकट, अब वो क्या करे?
लेकिन फिर उसने अपना ध्यान अपने नव आगंतुक को जन्म देने की और केन्द्रित कर दिया .
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फिर जो हुआ वो आश्चर्य जनक था .
कडकडाती बिजली की चमक से शिकारी की आँखों के सामने अँधेरा छा गया, और उसके हाथो से तीर चल गया और सीधे भूखे शेर को जा लगा . बादलो से तेज वर्षा होने लगी और जंगल की आग धीरे धीरे बुझ गयी.
इसी बीच हिरणी ने एक स्वस्थ शावक को जन्म दिया .
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ऐसा हमारी जिन्दगी मे भी होता है, जब हम चारो और से समस्याओं से घिर जाते है, नकारात्मक विचार हमारे दिमाग को जकड लेते है, कोई संभावना दिखाई नहीं देती , हमें कोई एक उपाय करना होता है.,
उस समय कुछ विचार बहुत ही नकारात्मक होते है, जो हमें चिंता ग्रस्त कर कुछ सोचने समझने लायक नहीं छोड़ते .
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ऐसे मे हमें उस हिरणी से ये शिक्षा मिलती है की हमें अपनी प्राथमिकता की और देखना चाहिए, जिस प्रकार हिरणी ने सभी नकारात्मक परिस्तिथियाँ उत्पन्न होने पर भी अपनी प्राथमिकता "प्रसव "पर ध्यान केन्द्रित किया, जो उसकी पहली प्राथमिकता थी. बाकी तो मौत या जिन्दगी कुछ भी उसके हाथ मे था ही नहीं, और उसकी कोई भी क्रिया या प्रतिक्रिया उसकी और गर्भस्थ बच्चे की जान ले सकती थी
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उसी प्रकार हमें भी अपनी प्राथमिकता की और ही ध्यान देना चाहिए .
हम अपने आप से सवाल करें,
हमारा उद्देश्य क्या है, हमारा फोकस क्या है ?,
हमारा विश्वास, हमारी आशा कहाँ है,
ऐसे ही मझधार मे फंसने पर हमें अपने ईश्वर को याद करना चाहिए ,
उस पर विश्वास करना चाहिए जो की हमारे ह्रदय मे ही बसा हुआ है .
जो हमारा सच्चा रखवाला और साथी है।
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हमारी प्राथमिकता हो परमात्मा का ध्यान।
बाकी सब परमात्मा की समस्याएँ हैं, हमारी नहीं।
कृपा शंकर
March 11, 2014.

मैं उनके साथ एक हूँ, नमन करूँ तो किसको करूँ? कोई अन्य है ही नहीं ---

 मैं उनके साथ एक हूँ, नमन करूँ तो किसको करूँ? कोई अन्य है ही नहीं --

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मेरे साथ एक बहुत बड़ी समस्या है। मैं अपने गुरुओं को उनकी भौतिक देह नहीं मानता, अतः उनके जन्म और पुण्य दिवसों को मनाने में बड़ी कठिनाई होती है। मेरे लिए वे जीवंत हैं, और सदा मेरे साथ एक हैं। मैं उनके और वे मेरे हृदयों में हैं। यदि पूजा ही करनी पड़े तो मैं उनकी प्रतीकात्मक चरण-पादुकाओं को ही पूज सकता हूँ, उनकी देह को नहीं, क्योंकि वे कोई देह नहीं थे।
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मैं उनके साथ एक हूँ। नमन करूँ तो किसको करूँ? कोई अन्य है ही नहीं।
ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
९ मार्च २०२२

जिन्होनें कभी जन्म ही न लिया हो, जिन की कभी कोई मृत्यु भी नहीं है ---

जिन्होनें कभी जन्म ही न लिया हो, जिन की कभी कोई मृत्यु भी नहीं है, कूटस्थ सूर्यमण्डल में स्वयं प्रकाशित वे परमब्रह्म परमशिव इस देह की चेतना से मुक्त कर हमारा कल्याण करें। वे ही अमर सद्गुरु हैं, वे ही साधक हैं, और वे ही यह समस्त सृष्टि हैं। सारी कामनाएँ, सारे संचित व प्रारब्ध कर्म, और पृथकता का बोध उन में विलीन हो जाये। उन से पृथक अन्य कुछ भी न रहे। किसी भी तरह की कामना का जन्म न हो। ॐ ॐ ॐ॥

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"ब्रह्मानन्दं परमसुखदं केवलं ज्ञानमूर्तिं,
द्वन्द्वातीतं गगनसदृशं त्त्वमस्यादिलक्ष्यम्।
एकं नित्यं विमलमचलं सर्वधीसाक्षिभूतं,
भावातीतं त्रिगुणरहितं सद्गुरुं तं नमामि॥ "
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गुरु-तत्व एक अनुभूति का विषय है जिसे शब्दों में व्यक्त करना असंभव है। उसे समझने के लिए अहंकार से मुक्त होकर समर्पित होना पड़ता है। प्रेमपूर्वक प्रयास करते हुए अपनी चेतना को आज्ञाचक्र से ऊपर रखें। आगे के सारे द्वार अपने आप स्वतः ही खुलेंगे, अंधकार भी दूर होगा, और संतुष्टि व तृप्ति भी मिलेगी। सहस्त्रार में दिखाई देने वाली ज्योति 'गुरु चरण-पादुका' है, जिसमें स्थिति 'गुरु-चरणों' में आश्रय है। सहस्त्रारचक्र में ध्यान श्रीगुरुचरणों का ध्यान है। श्रीगुरुचरणों का ध्यान करें। आगे की यात्रा अनंत है।
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हे परात्पर परमेष्ठि विश्वगुरु, आपको नमन ! आप की जय हो ! मेरे पास आपकी महिमा के लिए शब्द नहीं हैं। मैं आपके प्रति पूर्ण रूपेण समर्पित हूँ। आप मेरे प्राण और मेरा अस्तित्व हैं --
"त्वमादिदेवः पुरुषः पुराण स्त्वमस्य विश्वस्य परं निधानम्।
वेत्तासि वेद्यं च परं च धाम त्वया ततं विश्वमनन्तरूप॥११:३८॥"
"वायुर्यमोऽग्निर्वरुणः शशाङ्कः प्रजापतिस्त्वं प्रपितामहश्च।
नमो नमस्तेऽस्तु सहस्रकृत्वः पुनश्च भूयोऽपि नमो नमस्ते॥११:३९॥"
"नमः पुरस्तादथ पृष्ठतस्ते नमोऽस्तु ते सर्वत एव सर्व।
अनन्तवीर्यामितविक्रमस्त्वं सर्वं समाप्नोषि ततोऽसि सर्वः॥११:४०॥"
"किरीटिनं गदिनं चक्रहस्त मिच्छामि त्वां द्रष्टुमहं तथैव।
तेनैव रूपेण चतुर्भुजेन सहस्रबाहो भव विश्वमूर्ते ॥११:४६॥" (श्रीमद्भगवद्गीता)
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सारी पीड़ाओं का समाधान, सारी अभीप्साओं की तृप्ति, सिर्फ सृष्टि-नियंता परमात्मा के ही पास है। सारी पीड़ाओं का एकमात्र कारण है -- सत्यनिष्ठा और समर्पण का अभाव। उनकी कृपा अपने अनुग्रह की वर्षा कर हम सब की और इस राष्ट्र भारत का भी कल्याण करेंगी।
ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
७ मार्च २०२२

वर्तमान यूक्रेन-रूस विवाद पर मैं अपने विचारों पर दृढ़ हूँ ---

 वर्तमान यूक्रेन-रूस विवाद पर मैं अपने विचारों पर दृढ़ हूँ ---

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पूर्व सोवियत संघ में यूक्रेन (सही नाम - "उकराइन") सबसे अधिक पढे-लिखे, सभ्य और समृद्ध लोगों का गणराज्य था। वर्तमान में तोअमेरिकन षड़यंत्रों का शिकार होकर यूक्रेन सबसे अधिक पिछड़ा, गरीब और ड्रग लेने के अभ्यस्त नशेड़ियों का देश बन चुका है। अमेरिका की कुटिल चालों से ही सोवियत संघ का विघटन हुआ था। हर गणराज्य को स्वतन्त्रता देने का निर्णय तत्कालीन रूसी राष्ट्रपति येल्तसिन का था जो एक भयंकर भूल थी।
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ऐतिहासिक पृष्ठभूमि में इन दोनों ही देशों की विरासत साझी है। यूक्रेन की आज की राजधानी कीव (Киев) से ही रूस का जन्म हुआ था। दोनों की एक ही नस्ल है, और दोनों एक ही देश थे। जब रूस कमजोर पड़ा तब जो भाग आज यूक्रेन कहलाता है, वह विदेशी सत्ताओं के आधीन हो गया था, और यूक्रेन कहलाया। सोवियत संघ मे स्टालिन ने इसे एक पृथक गणराज्य के रूप में ही रखा। स्टालिन ने यहाँ के लोगों पर सामूहिक कृषि के नाम पर बहुत अधिक भयंकर अत्याचार किए थे, जिस से लाखों लोग मरे।
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चीन पर अधिकार करने के लिए अंग्रेजों ने जिस तरह चीनियों को पहले तो अफीम खाने की आदत डाली, और जब उन्हें अफीम खाने की आदत पड़ गई तब उन्हें गुलाम बना लिया। अमेरिका ने भी यही चाल चली। अमेरिका ने पहले तो धनबल से यूक्रेन की निर्वाचित सरकार को हटवाया, और फिर अपने चहेते ड्रग-एडिक्ट फिल्मी हास्य अभिनेता झेलेंस्की को वहाँ का राष्ट्रपति बनवाया। फिर ड्रग की आसान उपलब्धता कराकर पूरे देश को नशेड़ी बना दिया। तुर्की के रास्ते अफगानिस्तान से अमेरिकी संरक्षण में खूब अफीम मंगवा कर यूक्रेन में सहजता से उपलब्ध करवाई जाती है। अफीम का अर्क वहाँ के लोगों की मुख्य पसंद है। युवा लोगों के बीच में ड्रग का नशा बढ़ रहा है।
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नशा और यौन-स्वच्छंदता यूक्रेन में बहुत अधिक है, इसलिए एचआईवी का संक्रमण भी बढ़ रहा है। यूक्रेन की हजारों लड़कियाँ दूसरे देशों में जाकर वेश्यावृत्ति से धन कमाती हैं। थाइलैंड में तो इनकी भरमार है। भारत में भी बड़े शहरों में जो गोरे रंग की वेश्याएँ घूमती हैं वे सब यूक्रेनी हैं जो स्वयं को रशियन बताती हैं। यूरोप में ड्रग की तस्करी यूक्रेन के रास्ते से तुर्की द्वारा की जाती है। तुर्की में ड्रग का सारा माल अफगानिस्तान से आता है, जिसमें अमेरिकी धनपतियों का भी हाथ है। पूरी दुनियाँ को इसका पता है। इस धंधे में अरबों डॉलर लगे हैं इसलिए कोई इसे रोक नहीं सकता। कोई आवाज उठाता है तो तुरंत उसकी हत्या कर दी जाती है। हम चुपचाप स्वयं को व अपनी संतानों को बचाकर रखें, और कुछ भी नहीं कर सकते।
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यूक्रेनियों को नशीली दवाओं का अभ्यस्त बना दिया गया है। यूक्रेन को अरबों डालर की सहायता मिलती है जिसका दुरुपयोग ही होता है। अब स्थिति यह है कि यूक्रेन को केवल ड्रग का सेवन करने और NATO व यूरोपियन यूनियन से भीख माँगने में ही रुचि है। NATO और यूरोपीयन यूनियन अब यूक्रेन जैसे निकम्मे देश को अपना सदस्य भी नहीं बनाना चाहते। NATO इस निकम्मे देश को रूस के विरुद्ध इस्तेमाल कर रहा है। अमेरिका व NATO देशों का उद्देश्य रूस को नष्ट करना है। इस उद्देश्य की पूर्ति हेतु उन्होने झेलेंस्की व यूक्रेन को एक बलि का बकरा बना दिया है। झेलेंस्की एक मूर्ख व नशेड़ी व्यक्ति है जिसने यूरोपियन यूनियन व NATO का सदस्य बनने के लालच में अपने देश का विनाश करा दिया है।
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रूस के विरुद्ध NATO को अपने यहाँ बुलाने और यूक्रेन में रूसियों का नरसंहार करने के कारण ही रूस को मजबूर होकर यह युद्ध छेड़ना पड़ा है। यूक्रेन यदि घोषणा कर देता कि उसे NATO में सम्मिलित नहीं होना है, तो न तो यह लड़ाई होती और न इतना विनाश होता। सत्ता के लोभ में झेलेन्स्की इस युद्ध को भड़काने में ही लगा है। इसमें सामान्य बुद्धि भी नहीं है।
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दोनवास में रूसियों के नरसंहार को NATO के देश समर्थन ही दे रहे हैं। उनका Human Rights वाला शोर एक ढोंग ही है। रूसियों के नरसंहार से व्यथित होकर ही रूस को मजबूरी में यह युद्ध आरंभ करना पड़ा। रूस की गलती यही है कि उसने आठ साल की देरी कर दी। आठ साल पहिले ही उसे यह युद्ध शुरू कर देना चाहिए था। अमेरिका के राष्ट्रपति वायडन के बारे में पहिले लिख चुका हूँ, वे भले आदमी नहीं हैं। उनकी पार्टी भी भली नहीं है। झेलेंस्की तो ड्रग और डॉलर के लिए अपने देश को ही बेचने के लिए तैयार बैठा है। संयुक्त राष्ट्र संघ में अमेरिकी प्रस्ताव को पास कराने के लिए इतने अधिक देशों से समर्थन दादागिरी, और डॉलर के बल पर ही लिया गया है। रूसी पक्ष को सेन्सरशिप और प्रतिबंधों द्वारा दबाया गया है। भारत की प्रेस पर मेरी आस्था बिलकुल नहीं रही है।
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हे प्रभु, इन महा दुष्टों से भारत की रक्षा करो। वंदे मातरम् !! भारत माता की जय !!
जय जननी जय भारत !!
६ मार्च २०२२

काम, क्रोध और लोभ ये आत्मनाश के त्रिविध द्वार हैं, इसलिए इन तीनों को त्याग देना चाहिए ---

 नर्क के दरवाजे के तीन बड़े आकर्षक, मनोहर और विशाल रूप तो ऐसे हैं, जिनका ज्ञान होते हुए भी हम अनायास ही उस में प्रवेश कर के नर्कगामी हो जाते हैं। इस द्वार की बात मैं नहीं, भगवान स्वयं कह रहे है --

"त्रिविधं नरकस्येदं द्वारं नाशनमात्मनः।
कामः क्रोधस्तथा लोभस्तस्मादेतत्त्रयं त्यजेत्॥१६:२१॥"
अर्थात् -- काम, क्रोध और लोभ ये आत्मनाश के त्रिविध द्वार हैं, इसलिए इन तीनों को त्याग देना चाहिए॥
This door of hell, which is the destroyer of the soul, is of three kinds-passion, anger and also greed. Therefore one should forsake these three.
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संकल्प से ही इनको नहीं टाल सकते। गीता में इनसे बचने के उपाय भी बताये गए हैं, जिस के लिए गीता का स्वाध्याय और साधना करनी पड़ेगी। फिर कभी इस विषय पर चर्चा करेंगे। ॐ तत्सत् !!
६ मार्च २०२२
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पुनश्च :---

काम, क्रोध और लोभ से हमारी रक्षा, परमात्मा की मातृरूप में उपासना से होती है। जगन्माता यानि भगवती की उपासना में हमारा उद्देश्य सिर्फ उनके प्रेम की प्राप्ति होनी चाहिए। अन्य किसी भी तरह की कोई आकांक्षा नहीं हो। उनका प्रेम ही हमारी रक्षा करता है। जगन्माता के किसी भी रूप की हम उपासना करें, तो अपने हृदय का सम्पूर्ण प्रेम उन्हें दें, कुछ भी अपने पास बचाकर न रखें।
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हमारा आहार, विचार, संगति, और जीवन पद्धति - हमारे लक्ष्य के अनुरूप/अनुकूल हो, तभी सफलता मिलती है। गीता के १६वें अध्याय "देव असुर संपदा विभाग योग" का स्वाध्याय इस हेतु अति सहायक होगा। गीता का स्वाध्याय तो नित्य करें। क्रमशः सिर्फ पाँच श्लोकों का अर्थ सहित समझते हुए पाठ नित्य करें। इतना पर्याप्त है।
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श्रद्धा हो तो भगवती श्रीविद्या की उपासना भी बड़ी सहायक होती है। कोई भी साधना हो, किसी ब्रहमनिष्ठ श्रौत्रीय आचार्य से दीक्षा लेकर ही करनी चाहिए। और कुछ भी अभी लिखने योग्य नहीं है। एक ही बात सदा याद रखें कि हमारे जीवन का एक ही लक्ष्य और उद्देश्य है, और वह है सिर्फ भगवत्-प्राप्ति। अन्य कोई उद्देश्य नहीं है। ॐ तत्सत् !!
कृपा शंकर
६ मार्च २०२२

माया के आवरण को भेद कर हरिः चरणों को भजो ----

 महात्माओं के सत्संग में बार बार कहा जाता है कि -- "माया के आवरण को भेद कर हरिः चरणों को भजो"।

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माया का आवरण तो समझ में आता है। विषय भोगों की कामना, अभिमान, लोभ, और गलत आचरण व गलत विचार - ये ही माया के आवरण हो सकते हैं। अब प्रश्न उठता है कि हरिः के चरण क्या हैं? कोई चित्र या प्रतीक तो हरिः का चरण नहीं हो सकता। इस विषय पर खूब विचार किया है। जिस निष्कर्ष पर पहुंचा हूँ, वही लिख रहा हूँ। मेरे लेखों को अनेक महात्मा पढ़ कर मुझ पर अनुग्रह करते हैं।वे भी कुछ प्रकाश डालने की कृपा करें।
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ध्यान साधना में भ्रूमध्य में दिखाई देने वाली ब्रह्मज्योति धीरे धीरे कुछ काल पश्चात सहस्त्रारचक्र में दिखाई देने लगती है। उसके साथ साथ एक नाद भी सुनाई देने लगता है। वह ज्योति और नाद ही भगवान श्रीहरिः के चरणकमल हैं। भगवान श्रीहरिः ही सद्गुरु हैं, वे सब गुरुओं के गुरु हैं। उस ज्योति और नाद का ध्यान ही भगवान और श्रीगुरु महाराज के चरम कमलों का ध्यान है। उसी में समर्पण, गुरुचरणों में समर्पण व शरणागति है।
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आप सब महान आत्माओं का अनुग्रह और कृपा मुझ अकिंचन पर बनी रहे। आपके आशीर्वचनों से ही मेरा कल्याण हो सकता है। ॐ तत्सत् !!
कृपा शंकर
५ मार्च २०२२

दुर्गति किस की होती है? और बार बार कष्टमय असुर योनियों में कौन जाते हैं? ---

 दुर्गति किस की होती है? और बार बार कष्टमय असुर योनियों में कौन जाते हैं? --

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गीता मे भगवान श्रीकृष्ण ने बड़े ही स्पष्ट शब्दों में कहा है --
"तानहं द्विषतः क्रूरान्संसारेषु नराधमान्।
क्षिपाम्यजस्रमशुभानासुरीष्वेव योनिषु॥१६:१९॥"
अर्थात् - ऐसे उन द्वेष करने वाले, क्रूरकर्मी नराधमों को मैं संसार में बारम्बार (अजस्रम्) आसुरी योनियों में ही गिराता हूँ अर्थात् उत्पन्न करता हूँ॥
"Those cruel haters, worst among men in the world, I hurl those evil-doers into the wombs of demons only."
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यहाँ भगवान् श्रीकृष्ण कर्माध्यक्ष और कर्मफलदाता ईश्वर के रूप में यह वाक्य कह रहे हैं -- "मैं उन्हें आसुरी योनियों में गिराता हूँ"। मनुष्य अपनी स्वेच्छा से शुभाशुभ कर्म करता है और उसे कर्म के नियमानुसार ईश्वर फल प्रदान करता है। भगवान किसी के साथ पक्षपात नहीं करते। आसुरी भाव के मनुष्य अपनी निम्नस्तरीय वासनाओं से प्रेरित होकर जब दुष्कर्म करते हैं, तब उन्हें उनके स्वभाव के अनुकूल ही बारम्बार असुर योनियों में जन्म मिलता है। परमात्मा आत्मरूप हैं अतः परमात्मा से द्वेष करने का नतीजा अपने पर ही आता है। असुर परमात्मा से द्वेष करता है तो वह द्वेष वापस उसी पर आता है। असुर द्वेषी हैं, सन्मार्ग के विरोधी हैं, साधु पुरुषों से द्वेष करते हैं, अतः क्रूर होते हैं। भगवान् ने उन को "नराधमान्" यानि नरों में अधम बताया है।
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अधम वे होते हैं - जो अपने कष्ट को तो कष्ट समझते हैं, पर दूसरे के कष्ट को कष्ट ही नहीं समझते। अपने दुःख को दुःख समझना, और दूसरे के दुःख को नाटक समझना, यह नरों की अधमता है। ऐसे लोग अगले जन्म में क्रूर पशु योनी में जाते हैं।
भगवान आगे कहते हैं --
"असुरीं योनिमापन्ना मूढा जन्मनि जन्मनि।
मामप्राप्यैव कौन्तेय ततो यान्त्यधमां गतिम्॥१६:२०॥"
अर्थात् - हे कौन्तेय ! वे मूढ़ पुरुष जन्मजन्मान्तर में आसुरी योनि को प्राप्त होते हैं और (इस प्रकार) मुझे प्राप्त न होकर अधम गति को प्राप्त होते है॥
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सार की बात यह है कि दूसरों के दुःख को दुःख न समझने वाले क्रूर व्यक्ति अगले जन्मों में क्रूर पशु योनी में जन्म लेते हैं, फिर घोर नर्क में जाते हैं।
ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
४ मार्च २०२२

जब से सृष्टि का आरंभ हुआ है तभी से सत्य-सनातन-धर्म हमारा स्वधर्म है, जिस पर दृढ़ रहें, और राष्ट्र की रक्षा करें ---

 जब से सृष्टि का आरंभ हुआ है तभी से सत्य-सनातन-धर्म हमारा स्वधर्म है, जिस पर दृढ़ रहें, और राष्ट्र की रक्षा करें। निज जीवन में परम सत्य की अभिव्यक्ति और आत्म-साक्षात्कार -- सनातन धर्म का सार है। प्रकृति के नियमों के अनुसार संसार ऐसे ही चलता रहेगा। परमात्मा ही परम सत्य है।

आत्मा की शाश्वतता, कर्मफलों का सिद्धांत, पुनर्जन्म, और ईश्वर के अवतारों में आस्था -- ये आधार हैं, जिन पर हमारी आस्था टिकी हुई है। स्वधर्म में ही जीना और मरना ही श्रेष्ठ है, स्वधर्म का थोड़ा-बहुत पालन भी महाभय से हमारी रक्षा करता है।
जीवन में भक्ति, ज्ञान और कर्म को समझें और अपने आचरण में उन्हें उतारें।
सभी को शुभ कामनायें और नमन !! ॐ तत्सत् !!
"ॐ नमः शम्भवाय च मयोभवाय च नमः शंकराय च।
मयस्कराय च नमः शिवाय च शिवतराय च॥" ॐ ॐ ॐ !!
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कृपा शंकर
१ मार्च २०२२

अपनी साधना/उपासना स्वयं करो, किसी से कोई अपेक्षा मत रखो ---

अपनी साधना/उपासना स्वयं करो, किसी से कोई अपेक्षा मत रखो। दूसरों के पीछे-पीछे भागने से कुछ नहीं मिलेगा। जो मिलेगा वह स्वयं में अंतस्थ परमात्मा से ही मिलेगा। किसी पर कटाक्ष, व्यंग्य या निंदा आदि करने से स्वयं की ही हानि होती है।

"तुलसी माया नाथ की, घट घट आन पड़ी। किस किस को समझाइये, कुएँ भांग पड़ी॥"
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मैं लिखता हूँ क्योंकि मुझमें हृदयस्थ भगवान मुझे प्रेरणा देते हैं और लिखवाते हैं। वे ही समस्त सृष्टि हैं (ॐ विश्वं विष्णु:-वषट्कारो भूत-भव्य-भवत- प्रभुः)। मुझे निमित्त बनाकर वे स्वयं ही स्वयं की साधना कर रहे हैं। मेरा कोई पृथक अस्तित्व नहीं है। सारी सृष्टि मेरे साथ, और मैं सारी सृष्टि के साथ एक हूँ। जब स्वयं भगवान हर समय मेरे साथ हैं, तो मुझे किसी से कुछ भी नहीं चाहिए। आप सब में मैं स्वयं को ही नमन करता हूँ। ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
२७ फरवरी २०२२

भगवान श्रीराम के हाथ में हर समय धनुष-बाण क्यों रहता है? उनके हाथ घुटनों तक लंबे क्यों हैं? ---

 स्वांतः सुखाय ऐसे ही एक बात सत्संग हेतु पूछ रहा हूँ। भगवान श्रीराम के हाथ में हर समय धनुष-बाण क्यों रहता है? उनके हाथ घुटनों तक लंबे क्यों हैं?

बस ऐसे ही पूछ लिया। उचित समझो तो उत्तर देना, अन्यथा कोई बात नहीं।
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मेरा उत्तर :-- --- भगवान श्रीराम आजानुबाहु हैं। मुझे याद नहीं आ रहा है कि कहाँ पर तो एक प्रसंग में वे कहते हैं कि अपने भक्तों का आलिंगन करने हेतु ही मैंने भुजाएँ लम्बी कर रखी हैं।
राम जी ने वैसे तो आतताइयों के विनाश के लिए धनुष धारण कर रखा है, लेकिन इसका एक आध्यात्मिक अर्थ भी है। श्रुति भगवती कहती है -- "प्रणवो धनुः शरो ह्यात्मा ब्रह्म तल्लक्ष्यमुच्यते॥ (मुण्डकोपनिषत् २-२-४)" अर्थात् ओंकार धनुष है, आत्मा बाण है, और ब्रह्म लक्ष्य है।

यह प्रतीकात्मक है। इस विषय पर एक बहुत बड़ा लेख लिखा जा सकता है। अभी तो इतना ही। जय जय श्रीसीताराम !!
२५ फरवरी २०२२