जिसको प्यास लगी है, वही पानी पीयेगा ---
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यह तर्क का नहीं, अनुभूति का विषय है। निज जीवन में मैंने जो अनुभूत किया है, वही पूरी सत्यनिष्ठा से लिख रहा हूँ। कोई बनावटी बात नहीं है। मेरे लिए भक्ति -- एक ऊर्ध्वमुखी परमप्रेम है, जो व्यष्टि का समष्टि को समर्पण है। परमात्मा को पाने के लिए यह हृदय की तड़प है। जिन्होंने इस सृष्टि को धारण कर रखा है, उन भगवती पराशक्ति का परमशिव के प्रति, और भगवती राधा का श्रीकृष्ण के प्रति परमप्रेम और समर्पण भाव ही भक्ति है। भक्ति किसी शास्त्र में नहीं, भक्त के हृदय में लिखी होती है।
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"हरिः व्यापक सर्वत्र समाना, प्रेम ते प्रकट होहिं मैं जाना।" भगवान सर्वत्र समान रूप से व्याप्त हैं। वे किसी के साथ कोई भेदभाव नहीं करते। लेकिन उनकी अनुभूति सिर्फ परमप्रेम से ही होती है। भगवान भुवनभास्कर अपने परिक्रमा-पथ पर अपना प्रकाश सभी को समान रूप से देते हैं, किसी के साथ कोई पक्षपात नहीं करते| वैसे ही भगवान का अनुग्रह भी सभी पर समान रूप से होता है। कोई उसे ग्रहण करता है, कोई नहीं। परमप्रेम सदा Unconditional होता है, वहाँ कोई मांग, कोई शर्त नहीं होती। जहाँ मांग होती है, वहाँ व्यापार होता है, प्रेम नहीं।
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जिसको प्यास लगी है, वही पानी पीयेगा। बिना प्यास के कोई जल नहीं पीता। जिस के हृदय में भी अभीप्सा और प्रेम होगा, उसी को निश्चित रूप से भगवान का अनुग्रह प्राप्त होगा। मैंने औपचारिक रूप से कभी कोई भक्ति नहीं की, लेकिन जब भी प्रभु को हृदय से पुकारा है, उन्होंने मुझ अकिंचन पर सदा अपना परम अनुग्रह किया है, और अपनी उपस्थिती का आभास कराया है। अभी भी इसी समय वे मेरे कूटस्थ हृदय में सचेतन बिराजमान हैं।
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रामचरितमानस, श्रीमदभागवत, भगवद्गीता, नारद भक्ति सूत्र, शांडिल्य सूत्र और अनेक ग्रन्थों में भक्ति के ऊपर विस्तार से लिखा गया है। ध्यान-साधना से होने वाली प्रत्यक्ष अनुभूति से सारे संशय मिट जाएँगे। ॐ स्वस्ति !! ॐ तत्सत् !!
कृपा शंकर
१९ अप्रेल २०२१
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