Monday 18 May 2020

परमात्मा से प्रेम और उन का ध्यान भी एक नशा है ....

परमात्मा से प्रेम और उन का ध्यान भी एक नशा है| जिस को भी इस नशे से प्रेम हो जाता है और इस की आदत पड़ जाती है वह इसके बिना नहीं रह सकता, चाहे प्राण ही चले जाएँ| उसे बाकी की सब चीजें फालतू लगती हैं| हिमालय की दुर्गम कन्दराओं में, भयावह वनों के एकांत, बीहड़ और निर्जन स्थानों पर रहने वाले संत-महात्मा अपने प्राणों की बाजी लगाकर परमात्मा के नशे में ही जीवित रहते हैं| वास्तव में उनका स्वयं का तो कोई अस्तित्व ही नहीं रहता, परमात्मा स्वयं ही उनके माध्यम से जीते हैं| अन्यथा जहाँ हिंसक प्राणियों, तस्कर-लुटेरों, अधर्मी/विधर्मियों, नास्तिकों, और बीमारी व भूख-प्यास से प्राण जाने की हर पल आशंका रहती है, ऐसे असुरक्षित स्थानों, परिस्थितियों व वातावरण में कौन रहना चाहेगा? घर-गृहस्थी व समाज में भी ऐसे लोग तिरस्कृत व उपेक्षित होकर ही रहते हैं| समाज में भी लोग उनके बारे में यही सोचते हैं कि यह कमाता-खाता क्यों नहीं है, क्या इसे अन्य कोई काम-धंधा नहीं है? जो ऐसे लोगों के पास जाते हैं वे भी यही सोच कर जाते हैं कि पता नहीं इस से हमें क्या कुछ मिल जाएगा|
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जिन्हें भगवान से सच्चा प्रेम होता है वे ही सबसे पहिले समाज में ठगों से ठगे जाते हैं| आजकल समाज में ठग लोग दूसरों का धन ठगने के लिए भी भक्ति की बड़ी बड़ी बातें करते हैं| ऐसे लोग समाज पर कलंक हैं जो भक्ति का दिखावा कर के दूसरों को ठगते हैं|
"कबीरा आप ठगाइये, और न ठगिये कोई| आप ठगे सुख उपजे, और ठगे दुःख होई||"
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यह भी एक नशा है जो मुझे ये सब लिखने को बाध्य कर देता है| यदि किसी को मेरे इस नशे की आदत से कोई तकलीफ है तो मैं उनसे क्षमा चाहता हूँ| वे मुझे माफ करें| तमाशबीनों के फालतू प्रश्नों का कोई उत्तर मेरे पास नहीं है|
ॐ तत्सत् !!
१५ मई २०२०
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पुनश्च :--- एक बार एक बीहड़ स्थान पर जहाँ जाने में भी डर लगता है, मेरे एक मित्र मुझे एक महात्मा से मिलाने ले गए| पास में ही गंगा जी बहती थीं| भूमि को खोद कर एक गुफा सी उन्होने बना रखी थी जिस में वे रहते थे| उन महात्मा जी के सिर के बाल बहुत घने और कम से कम भी छह-सात फीट लंबे थे| अपने बालों के आसन पर ही बैठ कर वे भगवान के ध्यान में मस्त रहते थे| मैंने उनसे पूछा कि इस चोर-डाकुओं के इलाक़े में वे हिंसक प्राणियों के मध्य अकेले कैसे रह लेते हैं और क्या खाते हैं? उन्होने बताया कि पहिले तो वे मुट्ठी भर भूने हुए चने खाकर ही कई महीनों तक जीवित रहे| फिर एक डिब्बे में रखे हुए कुछ गेहूँ व दालें मिली जुली दिखाईं और कहा कि यह अगले छह माह का राशन है| एक मुट्ठी भर अनाज भिगो देते हैं और उसके अंकुरित होने पर खा लेते हैं| चोर-डाकू और हिंसक प्राणी परेशान नहीं करते क्योंकि मैं उनकी किसी परेशानी का कारण नहीं हूँ| रुपए-पैसों को तो वे छूते भी नहीं थे|
मुझे ऐसे भी कई महात्मा मिले हैं जो जीवित रहने के लिए झरनों का पानी पी लेते और जंगल में कोई फल खाकर या घास चबा कर ही जीवित रह लेते थे|
वास्तव में भगवान ही उनके योग-क्षेम को देखते हैं|

हंसवती ऋक, नादानुसंधान, व सूक्ष्म प्राणायाम द्वारा चेतना का ऊर्ध्वगमन -----

हंसवती ऋक, नादानुसंधान, व सूक्ष्म प्राणायाम द्वारा चेतना का ऊर्ध्वगमन -----
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परमात्मा की सर्वश्रेष्ठ अभिव्यक्ति, हमारे माध्यम से हर क्षण कैसे हो? यही हमारी एकमात्र समस्या है| हम भूतकाल में क्या थे और भविष्य में क्या होंगे? यह सृष्टिकर्ता परमात्मा की समस्या है, हमारी नहीं|
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किस विधि से हमारा वर्तमान सर्वश्रेष्ठ हो, हर क्षण हम परमात्मा की चेतना में कैसे रहें? परमात्मा हमारे जीवन में कैसे व्यक्त हो? यही हमारी मूल समस्या है| ऐसे विषयों पर भारत में खूब विचार हुए हैं| वेदों में इनकी साधना विधियाँ भी सूत्र रूपों में दी हुई हैं| आजकल इनका खूब प्रचार हुआ है और लाखों साधक तैयार हुए हैं जो यथासंभव अपनी पूर्ण निष्ठा और निःस्वार्थ भाव से साधना कर रहे हैं| इन साधकों की संख्या धीरे-धीरे निरंतर बढ़ रही है| इन साधना पद्धतियों का कहीं कहीं मूल नाम बदल गया है पर उनका मूलरूप यथावत है| इन लाखों साधकों की साधना जब फलीभूत होगी तब एक ब्रह्मशक्ति का प्राकट्य भारतवर्ष में होगा, और भारतवर्ष अपने द्विगुणित परम वैभव को प्राप्त कर एक अखंड आध्यात्मिक हिन्दू राष्ट्र होगा जहाँ की राजनीति ही सनातन धर्म होगी| तब असत्य और अंधकार की शक्तियों का प्रभाव अत्यल्प हो जाएगा|
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निज चेतना पर पड़ा हुआ एक अज्ञान का आवरण धीरे-धीरे गुरुकृपा से दूर हो रहा है और समझ भी बढ़ रही है| जब मुझ जैसे अकिंचन अपात्र पर भगवान कृपा कर के अपने अनेक रहस्यों को अनावृत कर सकते हैं, तो आप तो बहुत अधिक प्रबुद्ध, ज्ञानी, और सज्जन हैं| आप में तो बहुत अधिक पात्रता है| थोड़ी रुचि लें और भगवान को अपना प्रेम दें तो निश्चित रूप से उनकी महती कृपा आप पर अवश्य होगी|
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ॐ नमो भगवते वासुदेवाय !! ॐ नमः शिवाय !! ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१५ मई २०२०

हम अपना सर्वश्रेष्ठ करें .....

अपने अनुभव और विवेक से राष्ट्र की समस्याओं को हम बहुत अच्छी तरह से समझ सकते हैं| उनका समाधान क्या है यह भी समझ में आ सकता है| जोश में भरकर बड़ी बड़ी बातों से कोई लाभ नहीं है| कुछ भी करने से पहिले हमें यह आंकलन करना होगा कि हमारी स्वयं की क्षमता व योग्यता क्या है, और हमारे पास क्या क्या उपलब्ध साधन हैं? यह भी समझना होगा कि अपनी क्षमता, योग्यता और उपलब्ध साधनों की सीमा में रहते हुए वर्तमान परिस्थिति में अपना सर्वश्रेष्ठ हम क्या कर सकते हैं? जब यह समझ में आ जाये तो शांति से अपने पूरे पुरुषार्थ से अपना कार्य आरंभ कर दो| सफलता मिलना या न मिलना ईश्वर पर निर्भर है| भगवद्गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने पूरा मार्गदर्शन दिया है| उन्हें अपने जीवन का केंद्रबिन्दु बना कर सब कुछ समर्पित कर दो| नित्य गीता का स्वाध्याय व भगवान वासुदेव का ध्यान करना चाहिए| तब भटकने की संभावना नहीं रहेगी और मार्गदर्शन और शक्ति भी मिलेगी| ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
१६ मई २०२०

ध्यान साधना :----

ध्यान साधना :----

कोई भी ध्यान साधना तभी करें जब परमात्मा से परमप्रेम हो, और उन्हें पाने की एक अति गहन अभीप्सा हो| ध्यान साधना में यम-नियमों का पालन करना पड़ता है जो सभी के लिए संभव नहीं है| आचार-विचार में अशुद्धि से लाभ के स्थान पर हानि ही होती है| अतः यदि आचरण में और विचारों में पवित्रता संभव नहीं है तो किसी भी तरह की ध्यान साधना नहीं करें|
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ध्यान साधना में मेरूदण्ड सदा उन्नत रहे और दृष्टिपथ भ्रूमध्य की ओर रहे, पर प्रयासपूर्वक निज चेतना सदा आज्ञाचक्र पर या उस से ऊपर ही रखें| आज्ञाचक्र ही हमारा आध्यात्मिक हृदय है| प्रभु के चरण कमल सहस्त्रार हैं| सहस्त्रार में स्थिति गुरु चरणों में आश्रय है| ऊनी आसन पर पूर्व या उत्तर की ओर मुंह कर के पद्मासन/सिद्धासन/वज्रासन या सुखासन में बैठें| भूमि पर नहीं बैठ सकते तो एक ऊनी कंबल बिछा कर उस पर बिना हत्थे की कुर्सी पर बैठें, पर कमर सदा सीधी रहे|
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कौन सी धारणा व किस का ध्यान करें? :---
ब्रह्मरंध्र से ऊपर ब्रह्मांड की अनंतता हमारा वास्तविक अस्तित्व है, यह देह भी उसी का एक भाग है| हम यह देह नहीं हैं, यह देह हमारे अस्तित्व का एक छोटा सा भाग, और हमारी उस अनंत विराटता को पाने का एक साधन मात्र है| अपने पूर्ण प्रेम से परमात्मा की उस परम ज्योतिर्मय विराट अनंतता पर ध्यान करें| यही पूर्णता है, यही परमशिव है, यही परमब्रह्म है| अपने हृदय का सम्पूर्ण प्रेम उन्हें समर्पित कर दें, कुछ भी बचा कर न रखें| अपना सम्पूर्ण अस्त्तित्व, अपना सब कुछ उन्हें समर्पित कर दें|
इस से पूर्व कुछ देर तक हठयोग के प्राणायाम कर के बाह्यांतर कुंभक करें और सांस जब लेनी पड़े तब अजपा-जप (हंसयोग), नादानुसंधान, शक्ति-संचलन, मंत्र-जप आदि अपनी अपनी गुरु-परंपरानुसार करें|
गुरु परंपरा का आचार्य वही हो सकता है जो श्रौत्रीय (जिसे श्रुतियों यानि वेदों का ज्ञान हो) व ब्रहमनिष्ठ हो|
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(सार्वजनिक मंचों पर इससे अधिक नहीं लिखा जा सकता क्योंकि आगे की सारी विधियाँ आचार्य गुरु के द्वारा ही बताई जा सकती हैं और साधना भी आचार्य गुरु के मार्ग-दर्शन में ही होती है) ॐ तत्सत्! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१६ मई २०२०

मंगोलिया महान योद्धाओं का देश था या दुर्दांत लुटेरों का ?.....

आजकल भारत के प्रधान मंत्री मंगोलिया की यात्रा पर हैं, इसलिए उपरोक्त प्रश्न का उठना स्वाभाविक है| मंगोलिया का इतिहास योरोपियन लोगों द्वारा लिखा गया है| योरोपियन लोगों ने अपने से अतिरिक्त अन्य सब की अत्यधिक कपोल कल्पित बुराइयाँ ही की हैं| योरोपियन लोग इतिहास के सबसे बड़े लुटेरे थे अतः उन्होंने अपने से अलावा सबको लुटेरा ही बताया है| भारत में आया पहला योरोपीय व्यक्ति वास्को-डी-गामा था जो एक नर पिशाच समुद्री डाकू था| भारत में जो अँग्रेज़ सबसे पहिले आये वे सब लुटेरे समुद्री डाकू थे| भारत पर जिन अंग्रेजों ने अधिकार किया वे सारे अंग्रेज़ .... चोर, लुटेरे डाकू, धूर्त, और बदमाश किस्म के सजा पाए हुए लोग थे जिन्हें सजा के तौर पर यहाँ भेजा गया था|
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योरोपियन इतिहासकारों ने सिकंदर को महान योद्धा और चंगेज़ खान को लुटेरा सिद्ध किया है| निष्पक्ष दृष्टी से देखने पर मुझे चंगेज़ खान की उपलब्धियाँ सिकंदर से बहुत अधिक लगती हैं|
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मंगोलिया कभी विभिन्न घूमंतू जातियों द्वारा शासित था| चंगेज़ खान ने मंगोलियाई साम्राज्य की स्थापना की थी| वह किसी कबीलाई धर्म को मानता था| पश्चिमी एशिया में इस्लाम के अनुयायियों का मंगोलों ने बहुत बड़ा नरसंहार किया था| बग़दाद का खलीफा जो इस्लामी जगत का मुखिया था, एक नौका में बैठकर टाइग्रस नदी में भाग गया था जिसे चंगेज़ खान की मंगोल सेना नदी के मध्य से पकड लाई और एक गलीचे में लपेट कर लाठियों से पीट पीट कर मार डाला| कालांतर में पश्चिमी एशिया में बचे खुचे मंगोलों ने इस्लाम अपना लिया| पर इस्लाम मंगोलिया तक कभी नहीं पहुँच पाया|
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चंगेज़ खान के भय से ही आतंकित होकर मध्य एशिया के कुछ मुसलमान कश्मीर में शरणार्थी होकर आये और आगे जाकर छल-कपट से कश्मीर के शासक बन गए और हिन्दुओं पर बहुत अधिक अत्याचार किये| इसका वर्णन "राजतरंगिनी" में दिया है|
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"खान" शब्द की उत्पत्ति संस्कृत के "कान्ह" शब्द से हुई है जो भगवान श्रीकृष्ण का ही एक नाम था| भगवान श्रीकृष्ण के देवलोक गमन के बाद भी सैंकड़ों वर्षों तक पूरे विश्व में उनकी उपासना की जाती थी| प्राचीन संस्कृत साहित्य में जिस शिव भक्त "किरात" जाति का उल्लेख है, वह "मंगोल" जाति ही है| उन में "कान्ह" शब्द बहुत सामान्य था जो अपभ्रंस होकर "हान" हो गया| चीन के बड़े बड़े सामंत स्वयं के नाम के साथ "हान" की उपाधी लगाते थे| यही "हान" शब्द और भी अपभ्रंस होकर "खान" हो गया| प्रसिद्ध इतिहासकार श्री पुरुषोत्तम नागेश ओक का यही मत था|
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चंगेज़ खान का राज्य इतने विशाल क्षेत्र पर था कि आज के समय उसकी कल्पना करना भी असम्भव है| मंगोलिया के इस महा नायक चंगेज़ खान का वास्तविक नाम मंगोल भाषा में "गंगेश हान" था| गंगेश शब्द संस्कृत भाषा का है| वह किसी देवी का उपासक था| बाद में उसके पोते कुबलई खान ने बौद्ध मत स्वीकार किया और बौद्ध मत का प्रचार किया| वहाँ के प्राचीन साहित्य में मंगोलों के लिए किरात शब्द का प्रयोग हुआ है|
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चंगेज़ खान को सूक्ष्म जगत की किसी आसुरी शक्ति का संरक्षण प्राप्त था जो उसे यह आभास करा देती थी कि कहाँ कहाँ पर और किस किस प्रकार से आक्रमण करना है| वह कभी कोई युद्ध नहीं हारा| उसका अधिकाँश समय घोड़े की पीठ पर ही व्यतीत होता था| घोड़े की पीठ पर चलते चलते ही वह सो भी लेता था| चंगेज खान के समय ही घोड़े पर बैठने की आधुनिक काठी व काठी के नीचे पैर रखने के लोहे के मजबूत पायदान का आविष्कार हुआ था| बहुत तेजी से भागते हुए घोड़े की पीठ पर से तीर चलाकर अचूक निशाना लगाने का उसे पक्का अभ्यास था जो प्रायः उसके सभी अश्वारोहियों को भी था| जो उसके सामने समर्पण कर देता था उसे तो वह छोड़ देता था बाकि सब का वह बड़ी निर्दयता से वध करा देता था|
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एक और प्रश्न उठता है यदि चंगेज़ खान मात्र लुटेरा था तो उसका पोता कुबलई ख़ान (मंगोल भाषा में Хубилай хаан; चीनी में 忽必烈; २३ सितम्बर १२१५ – १८ फ़रवरी १२९४) चीन का सबसे महान शासक कैसे हुआ?
कुबलई खान मंगोल साम्राज्य का का सबसे महान शासक था| वह बौद्ध धर्म का अनुयायी था| उसका राज्य उत्तर में साइबेरिया के इर्कुत्स्क स्थित बाइकाल झील (विश्व में मीठे पानी की सबसे गहरी झील) से दक्षिण में विएतनाम तक, और पूर्व में कोरिया से पश्चिम में कश्यप सागर तक था, जो विश्व का 20% भाग है| उसके समय में पूरे मंगोलिया ने बौद्ध धर्म को अपना लिया था| चीनी लिपि का आविष्कार भी उसी के समय हुआ और मार्को पोलो भी उसी के समय ही चीन गया था| तिब्बत के प्रथम दलाई लामा की नियुक्ति भी उसी ने की थी| उसने १२६० से १२९४ तक शासन किया| कुबलई ख़ान चंगेज़ ख़ान के सबसे छोटे बेटे तोलुइ ख़ान का बेटा था|
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उसकी इच्छा जापान को जीतने की थी| उसने दो बहुत बड़े बड़े बेड़े बनवाए जिनमे हजारों नौकाएँ थीं| जापान पर आक्रमण करने के लिए उसका एक बेड़ा कोरिया से और एक बेड़ा चीन की मुख्य भूमि से जापान की ओर चला| इन बेड़ों में उसके लगभग चार लाख सैनिक और हजारों घोड़े थे| वह जापान पहुंचता इससे पहिले ही जापान सागर में एक भयानक तूफ़ान आया और उसकी सारी फौज डूब कर मर गयी| यहीं से मंगोल साम्राज्य का पतन आरम्भ हुआ| तभी से किसी को शाप देने के लिए हिंदी में यह कहावत शुरू हुई -- "तेरा बेड़ा गर्क हो"|
("कुबलई" शब्द संस्कृत के "कैवल्य" शब्द का अपभ्रंस हैै). रूसी भाषा में चीन को "किताई" कहते हैं, और वहाँ के प्राचीन साहित्य में मंगोलों के लिए किरात शब्द का प्रयोग हुआ है|
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मंगोलों से एक समय पूरा योरोप और एशिया काँपती थी| पर वे उस समय के दुर्दांत लुटेरे थे या योद्धा? यह इतिहास को दुबारा निर्णय देना होगा|
कृपाशंकर
१७ मई २०१५
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पुनश्चः : प्राचीन संस्कृत साहित्य में जिस किरात जाति का उल्लेख है, वह किरात जाति मंगोल जाति ही है| इस पृथ्वी पर पिछले एक-डेढ़ हजार वर्षों में कुबलई खान से अधिक शक्तिशाली सम्राट कोई दूसरा नहीं हुआ|