Saturday 7 March 2020

सृष्टि के आदिकाल से ही भारतवर्ष एक 'हिन्दू राष्ट्र' था, अभी भी हैै, और सदा ही रहेगा ----

सृष्टि के आदिकाल से ही भारतवर्ष एक 'हिन्दू राष्ट्र' था, अभी भी हैै, और सदा ही रहेगा ----
"हिन्दू राष्ट्र' ऐसे व्यक्तियों का समूह है जो निज जीवन में अपने सर्वश्रेष्ठ को यानि परमात्मा को व्यक्त करना चाहते हैं, चाहे वे किसी भी देश के नागरिक हों या किसी भी मनुष्य जाति में उन्होने इस पृथ्वी पर जन्म लिया हो| भारतवर्ष का यही संदेश है| अतः भारतवर्ष एक हिन्दू राष्ट्र है| हिन्दुत्व एक ऊर्ध्वमुखी भाव है जिस से जीवन में समुत्कर्ष (अभ्युदय ... यानि बहुमुखी सर्वोच्च विकास) व निःश्रेयस (सभी दुःखों से मुक्ति) की सिद्धि होती है|
जब से सृष्टि आरंभ हुई है, तभी से जिस धर्म का जन्म हुआ, जिस से सारी सृष्टि संचालित है, वह सनातन धर्म है, जो अब हिन्दू धर्म के नाम से जाना जाता है| कोई माने या न माने, कुछ सत्य सनातन नियम हैं जो कभी परिवर्तित नहीं हो सकते .....
"हम यह देह नहीं, शाश्वत आत्मा हैं| आत्मा कभी नष्ट नहीं होती| हमारी सोच और हमारे विचार ही हमारे कर्म हैं जिन का फल भोगने को हम बाध्य हैं| उन कर्मफलों को भोगने के लिए ही बार बार हमें जन्म लेना पड़ता है| ईश्वर करुणा और प्रेमवश हमारे कल्याण हेतु अवतार लेते हैं| जीवभाव से मुक्त हो कर परमात्मा में शरणागति व समर्पण हमें इस जन्म-मृत्यु के चक्र से मुक्त करते हैं| यह सृष्टि परमात्मा का एक संकल्प है| परमात्मा की प्रकृति अपनी सृष्टि के संचालन का हर कार्य अपने नियमों के अनुसार करती है| उन नियमों को न जानना हमारा अज्ञान है| परमात्मा से परमप्रेम ही भक्ति है जिस की परिणिती ज्ञान है|"
सरलतम भाषा में यही हिन्दू धर्म का सार है, बाकी सब इसी का विस्तार है| जो मनुष्य इस में आस्था रखते हैं, वे स्वतः ही हिन्दू हैं| हमारी मान्यता से प्रकृति के नियमों पर कोई अंतर नहीं पड़ता| प्रकृति तो अपने नियमों के अनुसार ही कार्य करती रहेगी|
ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२३ फरवरी २०२०

मनुष्य जीवन की शाश्वत जिज्ञासा ..... "हम परमात्मा को कैसे उपलब्ध हों?"

मनुष्य जीवन की शाश्वत जिज्ञासा ..... "हम परमात्मा को कैसे उपलब्ध हों?"
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जिस ने भी मनुष्य देह में जन्म लिया है, चाहे वह घोर से घोर नास्तिक हो, उसे जीवन में एक न एक बार तो यह जिज्ञासा अवश्य ही होती है कि यदि परमात्मा है तो उन्हें कौन, व कैसे पा सकता है? यह मनुष्य जीवन की शाश्वत जिज्ञासा है| भगवान श्रीकृष्ण ने गीता में इसका बड़ा सुंदर उत्तर दिया है ....
"मत्कर्मकृन्मत्परमो मद्भक्तः सङ्गवर्जितः| निर्वैरः सर्वभूतेषु यः स मामेति पाण्डव||११:५५||"
अर्थात् "हे पाण्डव! जो पुरुष मेरे लिए ही कर्म करने वाला है, और मुझे ही परम लक्ष्य मानता है, जो मेरा भक्त है तथा संगरहित है, जो भूतमात्र के प्रति निर्वैर है, वह मुझे प्राप्त होता है||"
गीता में भगवान दो बार कहते हैं ... "मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु"....
"मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु| मामेवैष्यसि युक्त्वैवमात्मानं मत्परायणः||९:३४||"
"मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु| मामेवैष्यसि सत्यं ते प्रतिजाने प्रियोऽसि मे||१८:६५||"
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आचार्य शंकर व आचार्य रामानुज जैसे स्वनामधन्य परम विद्यावान अनेक महान आचार्यों ने गीता की बड़ी सुंदर व्याख्याएँ की हैं| मुझ अकिंचन की तो उनके समक्ष कोई औकात ही नहीं है| मैंने अर्थ समझने का प्रयास ही छोड़ दिया है, क्योंकि यह मेरी बौद्धिक क्षमता से परे है| मेरे हृदय में परमात्मा जो बैठे हैं, उन्हें ही पता है कि उन के मन में क्या है, अतः मुझे उनके शब्दों से नहीं, उन से ही प्रेम है| वे हृदयस्थ परमात्मा सदा मेरे समक्ष रहें, और मुझे कुछ भी नहीं चाहिए|
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सार की बात है .... "मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु|" परमात्मा से प्रेम ही सब कुछ है| वे ही हमारे एकमात्र सम्बन्धी हैं, वे ही हमारे एकमात्र मित्र हैं, और उन में तन्मयता ही हमारा जीवन है| वे हमारे इतने समीप हैं की हम उनका बोध नहीं कर पाते| हम अपना हर कर्म उन की प्रसन्नता के लिए, उन्हें ही कर्ता बनाकर करें|
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प्रेम एक स्थिति है, कोई क्रिया नहीं| यह हो जाता है, किया नहीं जाता| परमात्मा से परमप्रेम .... आत्मसाक्षात्कार का द्वार है| आत्मसाक्षात्कार सबसे बड़ी सेवा है जो हम समष्टि के लिए कर सकते हैं| परमात्मा से परमप्रेम होना परमात्मा की परमकृपा है जो हमारा परमकल्याण कर सकती है| वे हमारे एकमात्र सम्बन्धी और मित्र हैं, उन में तन्मयता ही हमारा जीवन है| वे हमारे इतने समीप हैं की हम उनका बोध नहीं कर पाते|
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मैं क्षमायाचना सहित कुछ जटिल व कठिन शब्दों का प्रयोग करता हूँ क्योंकि हृदय के भाव उन्हीं से व्यक्त होते हैं| मेरा शब्दकोष बहुत सीमित है, अपने आध्यात्मिक भावों को सरल भाषा में व्यक्त करने की कला मुझे नहीं आती| महात्माओं के सत्संग से जानी हुई सार की बात है कि जिस की बुद्धि हेय-उपादेय है वह अहेय-अनुपादेय ब्रह्मतत्त्व को नहीं पा सकता| जो अहेय-अनुपादेय परमार्थतत्त्व को पाना चाहता है, वह हेय-उपादेय दृष्टि नहीं कर सकता| हम भगवान से प्रेम की यथासंभव पूर्ण अभिव्यक्ति करते हुए अपना कर्म करते रहें पर किसी से घृणा न करें| घृणा करने वाला व्यक्ति, आसुरी शक्तियों का शिकार हो जाता है|
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परमात्मा से प्रेम के विचार ही मेरी तीर्थयात्रा है| भगवान से प्रेम ही सबसे बड़ा तीर्थ है| वे हमारे प्रेम को अपनी पूर्णता दें| उन की और आप सब की जय हो|
कृपा शंकर
झुंझुनूं (राजस्थान)
२२ फरवरी २०२०
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पुनश्च: :---- 'हेय' का अर्थ होता है ....'अवलंबन योग्य नहीं'| जो हेय है वह लक्ष्य नहीं है, लक्ष्य तो कुछ और ही है| 'उपादेय' का अर्थ होता है .... 'अवलम्बन योग्य है'| उपादेय की प्राप्ति करनी है तो जो हेय है उसे पकड़े नहीं रहना है, अन्यथा लक्ष्य प्राप्त नहीं होगा| जैसे खड्डे से निकलने के लिए रस्सी का सहारा लें और उस रस्सी को पकड़ें ही रहें तो बाहर निकलने का लक्ष्य प्राप्त नहीं होगा| यदि बाहर निकलना है तो रस्सी को अंततः छोड़ना ही होगा| किन्तु यदि पहले ही छोड़ दिया जाए तो कोई बाहर नहीं आ सकेगा| यहाँ रस्सी हमें बाहर नहीं निकालती, निकलते तो हम स्वयं के पुरुषार्थ से हैं| रस्सी तो मात्र हमारे पुरुषार्थ की सहचर है| वैसे ही सारे साधन व साधनायें हमारी सहचरी हैं, जिनका परित्याग लक्ष्य प्राप्ति पर करना ही पड़ता है| वैसे ही गुरु-तत्व भी मात्र सहचर है, लक्ष्य नहीं| गुरु-तत्व के बिना ज्ञान नहीं होता, पर गुरु जी को पकड़े रहने से लक्ष्य की प्राप्ति नहीं होती, स्वयं को ही पुरुषार्थ करना होगा| गुरुजी तो मात्र सहचर हैं, जो अंततः स्वयं ही चले जाएँगे|

मुक्ति की सोचें, बंधनों की नहीं .....

मुक्ति की सोचें, बंधनों की नहीं, जो हमें मृत्यु देना चाहते हैं, उन्हें मृत्यु देना भी हमारा धर्म है ...
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इस जीवन में इस पृथ्वी पर, और इस जीवन के पश्चात् एक काल्पनिक स्वर्ग में मौज-मस्ती-मजा लेने की कामना/अपेक्षा ..... घोर निराशाजनक, असत्य, महादुखदायी और धोखा होगी| ऐसी कामनाएँ और अपेक्षाएँ महाबंधनकारी, झूठी और अंधकारमय नर्क में धकेलने वाली होती हैं| इस खतरे से सावधान! अपनी इन्द्रियों को और मन को वश में रखें| मुक्ति की सोचें, बंधनों की नहीं| हमारा कार्य परमात्मा के प्रकाश की वृद्धि करना है, न कि अंधकार की| अन्धकार की वृद्धि करेंगे तो अज्ञान व दुःख ही प्राप्त होगा| पूर्व जन्मों में कुछ पुण्य किये होंगे इसीलिये भगवान हमें सदा अपने हृदय में रखते हैं| कुछ पाप भी किये होंगे जिनका दंड भी मिलता है| हमारे हृदय में परमात्मा की चेतना निरंतर बनी रहे| हृदय में परमात्मा होंगे तो सभी कार्य अच्छे ही होंगे|
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वर्तमान समय के परिप्रेक्ष्य में गीता में भगवान् ने दुराचारी आसुरी गुणों वाले व्यक्तियों के लक्षण बताये हैं जिन से सदा दूरी रखना ही ठीक है .....
"प्रवृत्तिं च निवृत्तिं च जना न विदुरासुराः| न शौचं नापि चाचारो न सत्यं तेषु विद्यते||१६:७||"
"असत्यमप्रतिष्ठं ते जगदाहुरनीश्वरम्| अपरस्परसंभूतं किमन्यत्कामहैतुकम्||१६:८||"
"एतां दृष्टिमवष्टभ्य नष्टात्मानोऽल्पबुद्धयः| प्रभवन्त्युग्रकर्माणः क्षयाय जगतोऽहिताः||१६:९||"
"काममाश्रित्य दुष्पूरं दम्भमानमदान्विताः|मोहाद्‌गृहीत्वासद्ग्राहान्प्रवर्तन्तेऽशुचिव्रताः||१६:१०||"
"चिन्तामपरिमेयां च प्रलयान्तामुपाश्रिताः| कामोपभोगपरमा एतावदिति निश्चिताः||१६:११||"
"आशापाशशतैर्बद्धाः कामक्रोधपरायणाः| ईहन्ते कामभोगार्थमन्यायेनार्थसञ्चयान्||१६:१२||"
"अहङ्कारं बलं दर्पं कामं क्रोधं च संश्रिताः| मामात्मपरदेहेषु प्रद्विषन्तोऽभ्यसूयकाः||१६:१८||"
"तानहं द्विषतः क्रूरान्संसारेषु नराधमान्| क्षिपाम्यजस्रमशुभानासुरीष्वेव योनिषु||१६:१९||"
"तानहं द्विषतः क्रूरान्संसारेषु नराधमान्| क्षिपाम्यजस्रमशुभानासुरीष्वेव योनिषु||१६:२०||"
"त्रिविधं नरकस्येदं द्वारं नाशनमात्मनः| कामः क्रोधस्तथा लोभस्तस्मादेतत्त्रयं त्यजेत्||१६:२१||"
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जिन लोगों के साथ हम रहते हैं, उन के गुण हमारे में आये बिना नहीं रहते| अतः दुष्ट असुर/राक्षस प्रकृति के लोगों को दूर से ही नमन कर देना अच्छा है| साथ ही रहना है तो सदाचारी लोगों के साथ रहो, अन्यथा अकेले रहना ही ठीक है|
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जो दूसरों को अपना मत मानने को बलात् बाध्य करते हैं वे ही असुर राक्षस हैं| आतताई से आत्म-रक्षा करना हमारा अधिकार ही नहीं कर्त्तव्य भी है| आतताई .... यानि जो क्रूर हिंसक दुष्ट प्रवृत्ति का व्यक्ति जिसका दमन कठिन हो, जो हमारे प्राण लेने, हमारी स्त्री, संतानों आदि का अपहरण करने, हमारी संपत्ति को लूटने व जलाने के लिए आ रहा हो, उसके लिए हमारे शास्त्रों में क्षमा का कोई प्रावधान नहीं है| उसके लिए मृत्यु दंड ही निर्धारित है| जो हमें मृत्यु देना चाहते हैं, उन्हें मृत्यु देना कोई पाप नहीं है|
भारत के भीतर व बाहर के शत्रुओं का, असत्य और अंधकार की शक्तियों का नाश हो| धर्म की जय हो|
ॐ तत्सत् | ॐ ॐ ॐ ||
कृपा शंकर
२१ फरवरी २०२०

महाशिवरात्रि पर भगवान परमशिव को नमन .....

महाशिवरात्रि पर भगवान परमशिव को नमन .....
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भगवान शिव की परम कृपा हम सब पर बनी रहे| शिवभाव में स्थित होकर हम स्वयं ही स्वयं को नमन कर रहे हैं| महाशिवरात्रि हमारे लिए ज्योतिर्मय हो, हमारे चैतन्य में कोई असत्य और अंधकार का अवशेष न रहे| हमारा हर संकल्प, हर विचार और हर क्रिया शिवमय हो| हमारा शिवरात्रि का उपवास सफल हो| हमारे धर्म और राष्ट्र की रक्षा हो| भारत के भीतर और बाहर के शत्रुओं का नाश हो| भारत विजयी हो|
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असत्य से निवृत होकर जीवात्मा तथा परमात्मा का योगस्थ होकर एक साथ रहना उपवास कहलाता है, शरीर को भूख से सुखाने का नाम उपवास नहीं है| पुराने जमाने के सक्षम लोग शिवरात्रि के दिन सूर्योदय से लेकर अगले दिन के सूर्योदय तक निर्जला व्रत करते थे और पूरी रात जागकर जप करते थे|
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मृत संजीवनी मंत्र :----
"ॐ हौं ॐ जूँ ॐ सः ॐ भू: ॐ भुवः ॐ स्व: ॐ मह: ॐ जन: ॐ तप: ॐ सत्यम् |
तत्सवितुर्वरेण्यम् त्र्यंबकम् यजामहे सुगन्धिम् पुष्टिवर्धनम् भर्गो देवस्य धीमहि उर्वा रूकमीव बन्धनान् धियोयोनः प्रचोदयात् मृत्योर्मुक्षीय मामृतात् |
ॐ सत्यम ॐ तप: ॐ जन: ॐ मह: ॐ स्वः ॐ भुव: ॐ भू: ॐ स: ॐ जूँ ॐ हौं ॐ ||"
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रुद्राष्टकम् :---
नमामीशमीशान निर्वाण रूपं, विभुं व्यापकं ब्रह्म वेदः स्वरूपम्‌ ।
निजं निर्गुणं निर्विकल्पं निरीहं, चिदाकाश माकाशवासं भजेऽहम्‌ ॥ (१)
निराकांर मोंकार मूलं तुरीयं, गिराज्ञान गोतीतमीशं गिरीशम्‌ ।
करालं महाकाल कालं कृपालं, गुणागार संसार पारं नतोऽहम्‌ ॥ (२)
तुषाराद्रि संकाश गौरं गभीरं, मनोभूत कोटि प्रभा श्री शरीरम्‌ ।
स्फुरन्मौलि कल्लोलिनी चारू गंगा, लसद्भाल बालेन्दु कण्ठे भुजंगा॥(३)
चलत्कुण्डलं शुभ्र सुनेत्रं विशालं, प्रसन्नाननं नीलकण्ठं दयालम्‌ ।
मृगाधीश चर्माम्बरं मुण्डमालं, प्रियं शंकरं सर्वनाथं भजामि ॥(४)
प्रचण्डं प्रकष्टं प्रगल्भं परेशं, अखण्डं अजं भानु कोटि प्रकाशम्‌ ।
त्रयशूल निर्मूलनं शूल पाणिं, भजेऽहं भवानीपतिं भाव गम्यम्‌ (५)
कलातीत कल्याण कल्पान्तकारी, सदा सच्चिदान्द दाता पुरारी |
चिदानन्द सन्दोह मोहापहारी, प्रसीद प्रसीद प्रभो मन्मथारी ॥(६)
न यावद् उमानाथ पादारविन्दं, भजन्तीह लोके परे वा नराणाम्‌ ।
न तावद् सुखं शांति सन्ताप नाशं, प्रसीद प्रभो सर्वं भूताधि वासं ॥(७)
न जानामि योगं जपं नैव पूजा, न तोऽहम्‌ सदा सर्वदा शम्भू तुभ्यम्‌ ।
जरा जन्म दुःखौध तातप्यमानं, प्रभोपाहि आपन्नामामीश शम्भो ॥(८)
रुद्राष्टकम् इदं प्रोक्तं विप्रेणहरोतषये, ए पठन्त‍ि नरा भक्तयां तेषां शंभो प्रसिदति।।
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ॐ नमः पार्वतीपतये हर हर महादेव| ॐ नमः शिवाय| ॐ ॐ ॐ ||
कृपा शंकर
२१ फरवरी २०२०

आध्यात्मिक साधना के लिए विशेष चार रात्रियाँ ....

आध्यात्मिक साधना और मंत्र सिद्धि के लिए चार रात्रियों का बड़ा महत्त्व है| ये हैं .... (१) कालरात्रि (दीपावली), (२) महारात्रि (महाशिवरात्रि), (३) मोहरात्रि (जन्माष्टमी). और (४) दारुण रात्रि (होली)| इन रात्रियों को किया गया ध्यान, जप-तप, भजन ... कई गुणा अधिक फलदायी होता है| इस अवसर का लाभ अवश्य उठाना चाहिए| भौतिक देह की चेतना से ऊपर उठने की साधना तो नित्य ही अवश्य करनी चाहिए| आत्म-विस्मृति सब दुःखों का कारण है| इन रात्रियों को अपने आत्म-स्वरुप यानि सर्वव्यापी परमात्मा का ध्यान यथासंभव अधिकाधिक करें| इन रात्रियों में सुषुम्ना नाड़ी में प्राण-प्रवाह अति प्रबल रहता है अतः निष्ठा और भक्ति से की गई साधना निश्चित रूप से सफल होती है| इस सुअवसर का सदुपयोग करें और समय इधर उधर नष्ट करने की बजाय आत्मज्ञान ही नहीं बल्कि धर्म और राष्ट्र के अभ्युदय के लिए भी साधना करें| धर्म और राष्ट्र की रक्षा के लिए एक विराट आध्यात्मिक ब्रह्मशक्ति के जागरण की हमें आवश्यकता है| यह कार्य हमें ही करना पड़ेगा| अन्य कोई विकल्प नहीं है|
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इस अवसर पर एक बार गीता के आत्मसंयमयोग का कुछ स्वाध्याय कर लेते हैं| भगवान कहते हैं ....
यं लब्ध्वा चापरं लाभं मन्यते नाधिकं ततः| यस्मिन्स्थितो न दुःखेन गुरुणापि विचाल्यते||६:२२||
भावार्थ : परमात्मा को प्राप्त करके वह योग में स्थित मनुष्य परम आनन्द को प्राप्त होकर इससे अधिक अन्य कोई सुख नहीं मानता हुआ भारी से भारी दुःख से भी चलायमान नहीं होता है।
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तं विद्याद् दुःखसंयोगवियोगं योगसञ्ज्ञितम्| स निश्चयेन योक्तव्यो योगोऽनिर्विण्णचेतसा||६:२३||
भावार्थ : मनुष्य को चाहिये कि दृड़-विश्वास के साथ योग का अभ्यास करते हुए सभी सांसारिक संसर्ग से उत्पन्न दुखों से बिना विचलित हुए योग समाधि में स्थित रहकर कार्य करे।
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सङ्‍कल्पप्रभवान्कामांस्त्यक्त्वा सर्वानशेषतः| मनसैवेन्द्रियग्रामं विनियम्य समन्ततः ||६:२४||
भावार्थ : मनुष्य को चाहिये मन से उत्पन्न होने वाली सभी सांसारिक इच्छाओं को पूर्ण-रूप से त्याग कर और मन द्वारा इन्द्रियों के समूह को सभी ओर से वश में करे।
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शनैः शनैरुपरमेद्‍बुद्धया धृतिगृहीतया| आत्मसंस्थं मनः कृत्वा न किंचिदपि चिन्तयेत्‌ ||६:२५||
भावार्थ : मनुष्य को चाहिये क्रमश: चलकर बुद्धि द्वारा विश्वास-पूर्वक अभ्यास करता हुआ मन को आत्मा में स्थित करके, परमात्मा के चिन्तन के अलावा अन्य किसी वस्तु का चिन्तन न करे।
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यतो यतो निश्चरति मनश्चञ्चलमस्थिरम्‌ | ततस्ततो नियम्यैतदात्मन्येव वशं नयेत्‌ ||६:२६||
भावार्थ : मनुष्य को चाहिये स्वभाव से स्थिर न रहने वाला और सदा चंचल रहने वाला यह मन जहाँ-जहाँ भी प्रकृति में जाये, वहाँ-वहाँ से खींचकर अपनी आत्मा में ही स्थिर करे।
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प्रशान्तमनसं ह्येनं योगिनं सुखमुत्तमम्‌ | उपैति शांतरजसं ब्रह्मभूतमकल्मषम्‌ ||६:२७||
भावार्थ : योग में स्थित मनुष्य का मन जब परमात्मा में एक ही भाव में स्थिर रहता है और जिसकी रज-गुण से उत्पन्न होने वाली कामनायें भली प्रकार से शांत हो चुकी हैं, ऎसा योगी सभी पाप-कर्मों से मुक्त होकर परम-आनन्द को प्राप्त करता है।
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युञ्जन्नेवं सदात्मानं योगी विगतकल्मषः| सुखेन ब्रह्मसंस्पर्शमत्यन्तं सुखमश्नुते||६:२८||
भावार्थ : इस प्रकार योग में स्थित मनुष्य निरन्तर योग अभ्यास द्वारा सभी प्रकार के पापों से मुक्त् होकर सुख-पूर्वक परब्रह्म से एक ही भाव में स्थिर रहकर दिव्य प्रेम स्वरूप परम-आनंद को प्राप्त करता है।
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सर्वभूतस्थमात्मानं सर्वभूतानि चात्मनि| ईक्षते योगयुक्तात्मा सर्वत्र समदर्शनः||६:२९||
भावार्थ : योग में स्थित मनुष्य सभी प्राणीयों मे एक ही आत्मा का प्रसार देखता है और सभी प्राणीयों को उस एक ही परमात्मा में स्थित देखता है, ऎसा योगी सभी को एक समान भाव से देखने वाला होता है।
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यो मां पश्यति सर्वत्र सर्वं च मयि पश्यति| तस्याहं न प्रणश्यामि स च मे न प्रणश्यति||६:३०||
भावार्थ : जो मनुष्य सभी प्राणीयों में मुझ परमात्मा को ही देखता है और सभी प्राणीयों को मुझ परमात्मा में ही देखता है, उसके लिए मैं कभी अदृश्य नहीं होता हूँ और वह मेरे लिए कभी अदृश्य नहीं होता है।
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सर्वभूतस्थितं यो मां भजत्येकत्वमास्थितः| सर्वथा वर्तमानोऽपि स योगी मयि वर्तते ||६:३१||
भावार्थ : योग में स्थित जो मनुष्य सभी प्राणीयों के हृदय में मुझको स्थित देखता है और भक्ति-भाव में स्थित होकर मेरा ही स्मरण करता है, वह योगी सभी प्रकार से सदैव मुझमें ही स्थित रहता है |
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आत्मौपम्येन सर्वत्र समं पश्यति योऽर्जुन| सुखं वा यदि वा दुःखं स योगी परमो मतः||६:३२||
भावार्थ : हे अर्जुन! योग में स्थित जो मनुष्य अपने ही समान सभी प्राणीयों को देखता है, सभी प्राणीयों के सुख और दुःख को भी एक समान रूप से देखता है, उसी को परम पूर्ण-योगी समझना चाहिये।
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आप सब को नमन और महाशिवरात्रि व होली की हार्दिक शुभ कामनाएँ!
ॐ तत्सत् ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२० मार्च २०२०

मेरा अस्तित्व 'कूटस्थ चैतन्य' है .....

इस जन्म में ही नहीं, सभी जन्मों में मैं अब तक जितने भी लोगों से मिला हूँ, साक्षात् कूटस्थ परमशिव पारब्रह्म परमात्मा से ही मिला हूँ| अब तक जहाँ कहीं भी गया हूँ, मैनें परमात्मा में ही विचरण किया है| अन्य कोई या कुछ भी है ही नहीं| परमात्मा ही यह "मैं" बन जाता है| पृथकता का बोध एक भ्रम मात्र है| मेरा एकमात्र संबंध, और नित्य का लोक-व्यवहार भी परमात्मा से ही है| जहाँ भी मैं हूँ, वहीं परमात्मा हैं| वे मुझ से पृथक नहीं हो सकते| वे मेरे शाश्वत साथी हैं| इस जन्म से पूर्व भी वे ही मेरे साथ थे, और इस जन्म की मृत्यु के पश्चात भी वे ही मेरे साथ रहेंगे| सभी जन्मों में वे ही माता-पिता, भाई-बहिन और सभी संबंधियों, मित्रों व शत्रु के रूप में आये| इस भौतिक हृदय में वे ही धड़क रहे हैं, इन आँखों से वे ही देख रहे हैं, इन पैरों से वे ही चल रहे हैं, और इन नासिकाओं से वे ही सांसें ले रहे हैं| सारी दृष्टि, दृश्य और दृष्टा वे ही हैं| मेरा अस्तित्व 'कूटस्थ चैतन्य' है जिसका केंद्र सर्वत्र है, परिधि कहीं भी नहीं|
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ॐ तत्सत् !! ॐ नमो भगवते वासुदेवाय !! ॐ नमः शिवाय !! ॐ ॐ ॐ !!!
कृपा शंकर
१९ फरवरी २०२०